हरियाणा का मेवात पिछले साल हिंदुओं पर होते अत्याचारों के कारण सुर्खियों में था और इस बार ये चर्चा में आसिफ की तथाकथित मॉब लिंचिंग की वजह से आया है। बीते वर्ष चंद चैनलों या वेबसाइट्स को छोड़ दिया जाए तो किसी ने हिंदूविहीन होते गाँवों पर बोलना तक जरूरी नहीं समझा था। लेकिन इस बार आसिफ के साथ हुई नाइंसाफी हर जगह, हर चैनल, हर पोर्टल पर है।
कुछ रिपोर्ट्स कहती हैं कि आसिफ ने दस साल पहले लड़की की कपड़े बदलते समय वीडियो बना ली थी, तभी से उससे लोग नाराज थे। कुछ बता रहे हैं कि आसिफ लूटपाट करता था और निकिता तोमर हत्याकांड के दोषी उसी की गैंग का हिस्सा थे। इसके अलावा ये बात भी चर्चा में हैं कि जिस पटवारी ने अपने साथियों के साथ उसे मारा, उसे ठीक 2-3 माह पहले आसिफ अपने साथियों के साथ पीटकर आया था।
अब वैसे तो इस मॉब लिंचिंग के बाद दिखाने वाले एंगल बहुत सारे हैं। लेकिन वामपंथी मीडिया ने जो चलाया वो ये कि जय श्रीराम नारा न बोलने की वजह से आसिफ को मारा गया। नतीजन देखते ही देखते ट्विटर पर आसिफ को इंसाफ दिलाने के लिए हैशटैग ट्रेंड होने लगा। इसमें जमकर जय श्रीराम नारे को वार क्राई बताकर हिंदुओं को आतंकी कहा गया। हर मुद्दे पर चुप्पी साधे रखने वाले भी मुखर होकर ‘जय श्रीराम’ नारे के विरुद्ध बोलते दिखे।
हद्द तब हुई जब मकतूब नाम की वेबसाइट पर आफरीन फातिमा का लेख प्रकाशित हुआ और उन्होंने उसकी हेडलाइन में घोषणा की कि जय श्रीराम एक युद्ध घोष ही है और अगर ऐसा नहीं है तो इस बात को साबित किया जाए।
आफरीन ने अपने लेख की शुरुआत कुंभ से की और कोरोना की दूसरी लहर का सारा ठीकरा इस पर फोड़ा। इसके बाद उन्होंने मेवात में हुई मॉब लिंचिंग के लिए जय श्रीराम के नारे को जिम्मेदार ठहरा दिया। आफरीन ने बताया कि ये नफरत का कारोबार भाजपा के आने के बाद बढ़ा है लेकिन ‘जय श्रीराम’ का इतिहास बहुत पुराना है। 2019 में भी तबरेज को इसी नारे के कारण मारा गया था। इसके बाद संसद में ओवैसी को भी भाजपा सांसदों ने जय श्री राम बोलकर तंग किया था।
आफरीन का ये लेख पहली लाइन से पढ़कर ऐसा लगता है कि उनके लिए मुद्दा आसिफ नहीं बल्कि हिंदू लोग, कुंभ के रूप में एक परंपरा, और जय श्रीराम के नाम पर निश्चित नारा है। लेखिका ने बस इन सबके प्रति अपनी घृणा को प्रांसगिक बनाने के लिए आसिफ का जिक्र किया और अपना पूरा लेख उस जय श्रीराम को युद्ध घोष साबित करने की दिशा में लिख डाला। दिलचस्प बात ये है कि इस लेख का आधार बनाए गए मुद्दे में पुलिस ने किसी प्रकार के साम्प्रदायिक एंगल को नकारा है।
लेखिका ने अपने लेख में सेकुलरिज्म का संतुलन बनाए रखने के लिए एक ये जरूर जगह लिखा है कि जय श्रीराम का मतलब सिर्फ भगवान राम की विजय से है और ये अपने आप हिंसक नहीं हो जाता। लेकिन, आगे अपना एजेंडा चलाते हुए वह ये भी समझाने की कोशिश करती हैं कि यदि इसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य देख लें तो पता चलेगा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के पीछे इसी नारे ने लोगों को उकसाया था।
एजी नूरानी की किताब के हवाले से उन्होंने बताया कि कारसेवक, साधू, संन्यासी सब 6 दिसंबर 1992 को गुस्से में त्रिशूल लेकर, तलवार उछाकर जय श्रीराम चिल्ला रहे थे। इसके बाद इसमें रामानंद सागर की रामायण और बीआर चोपड़ा की महाभारत आदि का हवाला भी दिया गया। तमाम कोट्स के प्रयोग से लेखिका बताती रहीं कि वो जो-जो जिक्र कर रही हैं सब जय श्रीराम नारे को युद्ध घोष साबित करता है।
उन्होंने बताया कि कैसे आरएसएस सोचती है कि मुस्लिम राम को भारतीय प्रतीक मानें। इसके अलावा ज्ञानेंद्र पांडे भी तो किताब में ये लिखते हैं कि राम सिर्फ धार्मिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक नायक हैं जिनकी हर भारतीय को सम्मान करना चाहिए। चाहे वह हिंदू हो या नहीं हो।
अब आप सोचिए कि जो उदाहरण आफरीन दे रही हैं उसमें समस्या क्या है और कहाँ है। एक तरफ हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी है जो अपने धर्मानुसार श्रीराम को पूजनीय मानती है और उनकी आराधना करती है। दूसरी ओर आफरीन हैं जो इसी श्रद्धा रखने वालों को किसी आतंकी से कम प्रतिबिंबित नहीं कर रहीं।
समझ नहीं आता कि उन्हें श्रीराम को सम्मान देने में समस्या है या फिर ये मानने में दिक्कत है कि एक हिंदू ने ये कह दिया कि वह भारत के चिह्न हैं या हर वर्ग को उनका सम्मान करना चाहिए। सेकुलरिज्म का रोना रोने वालों को यहाँ कुछ तो शर्म आनी चाहिए कि आखिर अपने ईश्वर के सम्मान देने की बात या उन पर विचार लिखने की बात एक वार क्राई कैसे हो गया?
इस नारे के साथ तैयार होने जा रहा आज अयोध्या में राम मंदिर का ट्रस्ट ऑक्सीजन प्लांट लगाकर लोगों की जान बचाने में जुटा है। इसी नारे को दिन रात जपने वाले तमाम आरएसएस स्वयंसेवक राम का नाम मुँह पर लेकर घर-घर जाकर लोगों को मदद मुहैया करवा रहे हैं और आफरीन फातिमा कहती हैं कि उन्हें साबित किया जाए कि ये एक वार क्राई नहीं है। उन्हें कौन कैसे समझाए- इस नारे से श्रद्धा का भाव जुड़ा है, युद्ध का उद्घोष नहीं!
रही बात वॉर क्राई की। विचार करिए कि ये कैसी मानसिकता है कि एक ओर ISIS जैसा संगठन और पाकिस्तान के तमाम आतंकी संगठन एक तय नारे ‘अल्लाह-हू-अकबर’ को आधार बनाकर हिंदुओं को निशाना बनाते हैं। लेकिन यदि इस पर कोई कुछ बोल दे तो आँख-नाक-मुँह सब फूल जाता है। वहीं लिखने वालों को सामाजिक सौहार्द का ख्याल रखने की सलाह दे दी जाती है। मगर श्रीराम नारे पर उंगली उठाने पर किसी की उंगली तक नहीं काँपती! शायद इन लोगों को पता है कि जिस देश में लोगों को श्रीराम के अस्तित्व पर अटूट विश्वास है उसे तो अभिव्यक्ति की आजादी पर मलीन किया ही जा सकता है।
ये हिपोक्रेसी नहीं तो क्या है कि दिल्ली दंगों में नारा ए तकबीर के नारों के बीच हिंदुओं को मार दिया गया और जब बात इल्जाम देने की आई तो ‘दोनों पक्षों ने दंगे किए…’कहकर बात रफा-दफा हो गई। इसी तरह जय श्रीराम कहने वाला रिंकू शर्मा लोगों के जहन से उतर गया। लेकिन शरजील उस्मामी जैसा कट्टरपंथी अब भी “istandwithsharjeel” की शरण में सुरक्षित है।
राम राज्य का अर्थ आज भी भारतीयों के लिए वही है जिसमें हर किसी को समानता और अपने अधिकारों के साथ जीने का हक हो। इसकी परिभाषा सिर्फ कट्टरपंथियों और वामपंथियों ने मोड़ी है। हिंदू कभी ये कहने नहीं आता कि दूसरे धर्म के लोग अपना मजहब छोड़ कर सनातन शरण में आ जाएँ उससे राम राज्य बनेगा। उसके बावजूद सेकुलरिज्म के नाम पर दूसके समुदाय के लोग जरा सा सम्मान श्रीराम के नाम पर देने पर तैयार नहीं है। आफरीन का लेख ही इसी आधार पर है कि बताइए लोग भारत जैसे देश में श्रीराम को यहाँ का प्रतीक कैसे मान लेते हैं।
इस बात को समझिए कि मॉब लिंचिंग जैसा अपराध कोई जस्टिफाई नहीं करता। न तबरेज की लिंचिंग पर किसी ने अपराधियों को छोड़ने की माँग की थी न आसिफ के मामले में करेंगे। लेकिन इन मामलों में ‘जय श्रीराम’ को ले आना उसे प्राथमिकता से चलाना सिर्फ ये बताता है कि समस्या अपराध से नहीं है एक धर्म से है। लेख में तमाम नाम है जिन्हें लेकर दावा किया गया है कि जय श्रीराम नारे के सताए हैं। एक बीबीसी की हेडिंग का भी जिक्र है जो कहती है कि हिंदू नारा अब ‘मर्डर क्राई’ बन चुका है।
सोचिए कि इन्हें जय श्रीराम को मर्डर क्राई तक कहने में गुरेज नहीं है। लेकिन आप दक्षिणपंथी होने के साथ कट्टर हैं- यदि सिर्फ ये कह दें कि शाहीन बाग प्रदर्शन में अल्लाह-हू-अकबर के नारों के साथ दीपक चौरसिया के साथ मार पीट हुई या फिर इस नारे के साथ बेंगलुरु में हिंसा हुई या दिल्ली दंगों में नारा ए तकबीर बोल कर हिंदू की लाश गली में फेंक दी गई या अमेरिका, पेरिस तमाम जगह एक घोष के बाद किसी का सिर कलम हुआ।
आप नहीं कह सकते! क्योंकि आप पर बहुसंख्यक होने का भार है। अब आफरीन ही आपको बताएँगी कि जय श्रीराम कहकर मुस्लिमों को लिंच करना एक परंपरा हो गई है। इस बीच आपने यदि ये बताने की कोशिश कर दी कि केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में एक कट्टरपंथी विचारधारा एक नारे का प्रयोग कर रही है तो आप इस्लामोफोबिक हो जाएँगे। समाज के दुश्मन कहे जाएँगे।
आपको इस इकोसिस्टम में सर्वाइव करने के लिए एक इस्लामी आतंकी के पकड़े या मारे जाने पर उसकी सोच या विचारधारा तक नहीं जाना होगा। आपको उसके लिए संवेदनाएँ इकट्ठा करनी होंगी-कभी उसका बैकग्राउंड बताकर, कभी शिक्षा बताकर, कभी प्रोफेशन बताकर। इसके अलावा एक समय आएगा कि आपको इसी इकोसिस्टम में रहने के लिए अपने तिलक लगाने, कलावा पहनने पर प्रमुखता से साबित करना पड़ेगा कि आप आतंकी मानसिकता के नहीं है। आपका जय श्रीराम कहना आस्था का विषय है न कि वार क्राई का।