Monday, October 14, 2024
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वामपंथी मीडिया से लेकर सरकारें गिराने वाली विदेशी एजेंसियों के निशाने पर भारत: जानिए कितना सुनियोजित है प्रोजेक्ट पेगासस षडयंत्र

क्या यह दिलचस्प बात नहीं है कि इस ऑपरेशन में शामिल ज्यादातर एजेंसियाँ ​​विदेशी हैं? उदाहरण के लिए, फॉरबिडेन स्टोरीज अमेरिकी प्रतिष्ठान और जॉर्ज सोरोस से जुड़ी है, सिटीजन लैब को कनाडा सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाता है, द वायर को अमेरिकी प्रतिष्ठान सहित संदिग्ध स्रोतों से धन प्राप्त होता है साथ ही और भी बहुत कुछ...

आउटलुक की रिपोर्ट में कहा गया है, “वैश्विक स्तर के निगरानी तंत्र से पर्दा उठ गया है।” द वायर का हेडलाइन कहता है, “लीक डेटा बताता है कि एल्गार परिषद मामले में निगरानी सीमा को पार कर गई है।” द वायर के अन्य शीर्षक में कहा गया है, “जासूसी वाली सूची में 40 भारतीय पत्रकार हैं, फोरेंसिक जाँच से पेगासस स्पाइवेयर की उपस्थिति की पुष्टि होती है।” इधर भारतीय मीडिया भी चिल्ला रहा था, उधर द गार्जियन, जिसने मूल रूप से लोगों के खिलाफ कथित तौर पर इस्तेमाल किए जा रहे पेगासस सॉफ्टवेयर की स्टोरी प्रकाशित की थी, के पहले पन्ने पर प्रधानमंत्री मोदी की एक बड़ी तस्वीर थी। इसका साफ मतलब है कि जो लोग उनसे सहमत नहीं है, प्रधानमंत्री मोदी उनकी जासूसी करवा रहे हैं।

द गार्जियन की तस्वीर

दुनिया भर के खोजी पत्रकारों एवं मीडिया घरानों का संघ ‘फॉरबिडेन स्टोरीज’ अपनी वेबसाइट पर कहता है, “इजरायल की कंपनी एनएसओ ग्रुप के ग्राहकों द्वारा निगरानी के लिए चुने गए 50,000 से अधिक फोन नंबरों का एक अप्रत्याशित खुलासा यह दिखाता है कि वर्षों से कैसे इस तकनीक का व्यवस्थित रूप से दुरुपयोग किया गया है। एनएसओ के ग्राहकों द्वारा चुने गए 50 से अधिक देशों के फोन नंबरों के रिकॉर्ड तक फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल की साल 2016 से पहुँच थी।”

फॉरबिडन स्टोरीज (एफएस) के मुख्यत: 16 मीडिया पार्टनर हैं। एफएस और एमनेस्टी ने इस कथित “लीक किए गए नंबरों” की सूची हासिल की और इसे अपने मीडिया साझेदारों को सौंप दिया। उनके 16 मीडिया पार्टनर ने डेटा का विश्लेषण किया और अपना खुद का निष्कर्ष निकाला। उसके बाद, उन फोन नंबरों के बहुत ही छोटे प्रतिशत का एमनेस्टी ने विश्लेषण और ‘फोरेंसिक टेस्ट’ किया। उसके बाद उसने निष्कर्ष निकाला कि इजरायली स्पाइवेयर पेगासस का इस्तेमाल भारत सहित दुनिया भर की सरकारों द्वारा “सत्ता का घोर दुरुपयोग” करते हुए अपने विरोधियों, असंतुष्ट गुटों और कई अन्य लोगों की जासूसी करने के लिए किया जा रहा था।

अब हम उस पूरी कहानी को शुरू करते हैं, जिसे अब पेगासस कांड के रूप में पेश किया जा रहा है। इससे पहले यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जहाँ तक भारत का संबंध है, इस ‘नई जानकारी’ का उद्देश्य सत्तारूढ़ सरकार, विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी को टॉरगेट करना है।

इस पूरी कहानी में ये बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि भारत सरकार ने किसी की जासूसी करवाई है। हालाँकि, कहानी कंसोर्टियम के साथ शुरू होती है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि 50,000 नंबरों के साथ खिलवाड़ किया गया है और कुछ नंबर हैं उनके पास जिनकी जासूसी हो भी सकती है या नहीं भी।

यह पूरी कहानी नशे में धूत साक्षात्कार के लिए बैठे एक छात्र की लगती है, जो सवालों के उत्तर देने में उलझ गया है। सबसे पहले गार्जियन द्वारा और बाद में द वायर द्वारा भारत में प्रकाशित इस खबर में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि मोदी सरकार कितनी अत्याचारी है।

भारत में पेगासस सॉफ्टवेयर के उपयोग के बारे में द गार्जियन का दावा

द गार्जियन द्वारा प्रकाशित इस मामले पर पहली रिपोर्ट का शीर्षक था, “खुलासा: साइबर-सर्विलांस हथियार का वैश्विक दुरुपयोग हुआ उजागर”। इस शीर्षक के बाद पहली पंक्ति में लिखा है – “आँकड़ें बताते हैं कि एक्टिविस्ट, राजनेताओं और पत्रकारों को लक्षित करने वाले अधिनायकवादी शासन को स्पाइवेयर बेचा गया।”

पेगासस एक मालवेयर है जो आईफोन और एंड्रॉइड डिवाइस को प्रभावित कर इसके ऑपरेटर को संबंधित फोन से मैसेज, फोटो और ईमेल निकालने, कॉल को रिकॉर्ड और माइक्रोफ़ोन को गुप्त रूप से सक्रिय करने में सक्षम बनाता है।

यहाँ पर गार्जियन ने पहले ही कुछ चीजें स्वत: स्थापित कर ली हैं। पहला, मोदी सरकार एक “अधिनायकवादी शासन” है और दूसरा, पीएम मोदी ने सभी संदेहों से परे वास्तव में असंतुष्टों की जासूसी की। इस वाक्य का प्रभाव समाप्त न हो जाए इसे सुनिश्चित करने के लिए मोदी की फोटो को फीचर इमेज के रूप में इस्तेमाल किया गया है।

द गार्जियन का इलुस्ट्रेशन

गार्जियन ने अपनी स्टोरी में दावा किया है कि स्पाइवेयर केवल अपराधियों और आतंकवादियों पर किए जाने के लिए बना है, लेकिन एनएसओ के अनुसार दुनिया भर की सरकारें इसका इस्तेमाल एक्टिविस्ट, वकीलों, सरकारी अधिकारियों और पत्रकारों की जासूसी करने के लिए कर रही हैं। इसके बाद यह बताता है कि सामने आए 50,000 नंबरों की एक सूची तक फॉरबिडन स्टोरीज और एमनेस्टी की पहुँच थी और उसने इसे छापने के लिए अपने 16 मीडिया साझेदारों को सौंप दिया।

लेकिन यहीं गड़बड़झाला है। रिपोर्ट में ही कहा गया है कि डेटा में एक फोन नंबर की मौजूदगी से यह पता नहीं चलता है कि कोई डिवाइस स्पाइवेयर से संक्रमित था या नहीं। तो क्या इंगित करता है? यह उनका विश्वास है कि डेटा एनएसओ के ग्राहकों के संभावित लक्ष्यों की ओर संकेत करता है। बस इस एक वाक्य के ये शब्द (संभावित लक्ष्य) चौंकाते हैं। इतना ही नहीं, उनकी कहानी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो विश्वास के साथ कहता हो कि भारत सरकार द्वारा किसी भी ऐक्टिविस्ट को लक्ष्य बनाया गया। वे केवल अपने पाठकों के भोलेपन पर भरोसा कर रहे हैं कि वे इन कमजोर कड़ियों को खुद जोड़ लें।

संबंधित स्क्रीनशॉट

वे आगे लिखते हैं, “लीक हुई सूची में बेहद कम संख्या में दिए गए फोन नंबरों की फोरेंसिक विश्लेषण में यह बात सामने आई कि इनमें से आधे-से-अधिक पर पेगासस स्पाइवेयर के निशान थे। गार्जियन और उसके मीडिया पार्टनर आने वाले दिनों में उन लोगों की पहचान के नाम का खुलासा करेंगे, जिनका नंबर इस सूची में आया है। इनमें कैबिनेट मंत्री, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित सैकड़ों व्यावसायिक अधिकारी, धार्मिक हस्तियाँ, शिक्षाविद, एनजीओ कर्मचारी, केंद्रीय अधिकारी और सरकारी कर्मचारियों के नाम शामिल हैं। इस सूची में एक देश के शासक के करीबी परिवार के सदस्यों के नंबर भी शामिल हैं। शायद शासक ने अपनी खुफिया एजेंसियों को अपने स्वयं के रिश्तेदारों की निगरानी की संभावना तलाशने का निर्देश दिया होगा।” उन्होंने इस रविवार (18 जुलाई 2021) को 180 पत्रकारों के नाम प्रकाशित कर अपने खुलासे के साथ शुरुआत की है।

लेकिन वे पिछले पैराग्राफ में बता चुके हैं कि उनके पास कोई सबूत नहीं है। उनके पास सिर्फ इस बात कि संभावना है कि “बहुत कम फोन” में से कुछ प्रतिशत फोन में निशान मिले हैं, जिसका वे विश्लेषण करने में कामयाब रहे। फिर भी, उन्होंने रविवार को 180 नामों का खुलासा किया और अन्य नामों को धीरे-धीरे सामने रखने की योजना बनाई है।

उन्होंने कहा कि पेगासस का उपयोग “अधिनायकवादी शासन” द्वारा “जासूसी” के लिए किया जाता है, लेकिन उन्होंने अपनी बात को प्रमाणित नहीं किया है। क्या यह संभव है कि दुनिया भर की कुछ सरकारें अवैध रूप से इसका इस्तेमाल करती हैं? बेशक। इस पर विश्वास करना कठिन नहीं है कि कुछ सरकारें कानून के दायरे से बाहर जाकर जासूसी करना चाहती हों, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि गार्जियन ने जिन सरकारों का उल्लेख किया है वे ही ऐसा कर रही हैं? उनके खुद के अनुसार, इस सिद्धांत के समर्थन में उनके पास कोई सबूत नहीं है।

अब भारत की बात करते हैं, गार्जियन में छपी पहली स्टोरी दो खुलासा करती है:

  1. 1. भारत ने पेगासस के इस्तेमाल से इनकार किया

2. उमर खालिद की जासूसी की गई

लेख के बीच में गार्जियन स्पष्ट रूप से कहता है कि भारत ने पेगासस सॉफ्टवेयर के उपयोग से इनकार है। ऑपइंडिया द्वारा खास तौर दी गई प्रतिक्रिया भी यही कहती है।

इसके अलावा एनएसओ ने हाल ही में भारतीय समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत में बताया है कि इस खबर में जिन देशों के नाम खुलासा का हुआ है वे सटीक नहीं हैं। एनएसओ का कहना है कि सूची में उल्लेखित कई देश एनएसओ के ग्राहक भी नहीं हैं। हालाँकि, उसने अपनी क्लाइंट सूची को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया, लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि कुछ देश उसके ग्राहक नहीं हैं।

अगर भारत सरकार और एनएसओ के, दोनों के दावे को एक साथ रखें तो ऐसा लगता है कि भारतीय पत्रकारों और अन्य लोगों के नाम इस सूची में डाले गए (शुरू में वे कह रहे थे कि इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी जासूसी की गई थी), जबकि ऐसा नहीं था भारत सरकार ने उनकी जासूसी की (यदि बिल्कुल भी)।

तो भारतीय नामों के बारे में गार्जियन ने क्या कहा?

उमर खालिद को लेकर द गार्जियन

द गार्जियन की रिपोर्ट में कहा गया है कि उमर खालिद को उसके खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगाए जाने से पहले निगरानी के लिए “चुना” किया गया था। आगे यह बताता है कि पुलिस ने बिना यह बताए कि उसे यह जानकारी कहाँ से मिली, उसके फोन से मिली जानकारी के आधार पर चार्जशीट दायर की थी।

इस खंड में दिए गए मूर्खतापूर्ण तथ्य किसी समझदार को स्पष्ट दिखाई देती हैं, लेकिन गोरे लोग सोचते हैं कि भारतीय बहुत समझदार नहीं हैं। सबसे पहले, उन्होंने इस बात का सबूत नहीं दिया कि उमर खालिद को भारत सरकार द्वारा जासूसी के लिए “चुना” गया था या उसका मोबाइल “हैक” किया गया था। इसके अलावा, वे इस बात से चकित हैं कि पुलिस को चार्जशीट में जोड़ने के लिए उसके फोन से जानकारी मिली। जाहिर है कि गिरफ्तारी के बाद पुलिस को उसके फोन, लैपटॉप आदि का एक्सेस मिल गया, लेकिन अगर तथ्य बताए गए तो अनुमान फेल हो जाएगा।

और यही वह सीमा है जो द गार्जियन इस “खुलासे” में भारत की “भागीदारी” के बारे में बताता है। कोई सबूत नहीं, सिर्फ अनुमान। वो भी बुरी तरह तैयार किए गए अनुमान।

द वायर पेगासस और ‘जासूसी’ वाले पत्रकारों के बारे में क्या कहता है?

द वायर द्वारा प्रकाशित पहली रिपोर्ट में से एक का शीर्षक था, “पेगासस प्रोजेक्ट: पत्रकारों, मंत्रियों, एक्टिविस्ट के फोन कैसे उनकी जासूसी के लिए इस्तेमाल होते थे”। इस लेख को लिखा है सिद्धार्थ वरदराजन ने, जो जासूसी कांड के “पीड़ितों” में से एक हैं और जो गाँधी परिवार के खिलाफ खबरों को दबाने और उनके द्वारा फिइनांस किए गए पोर्टल के माध्यम से फर्जी खबरें फैलाने के लिए कुख्यात हैं। (भारत में इस खबर को प्रकाशित करने वाला यह पोर्टल उस कंसोर्टियम का हिस्सा है।)

द गार्जियन के पिछली झूठ को ध्यान में रखते हुए इस खबर को पढ़ना चाहिए कि कैसे द वायर खुद को और समान विचार के अन्य पत्रकारों का भारत में जासूसी होने का दावा करता है, जो कि अप्रमाणित आरोप है। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत एनएसओ की ग्राहक सूची का एक हिस्सा है, यह भी सिद्ध नहीं है और भारत सरकार ने स्पष्ट रूप से इससे इनकार किया है।

पेगासस को लेकर द वायर की खबर

द वायर का दावा है कि 37 फोन में “पेगासस स्पाइवेयर द्वारा टारगेट किए जाने के स्पष्ट संकेत” हैं, जिनमें से 10 भारतीय हैं। अब देखते हैं कि इस संदर्भ में द गार्जियन की रिपोर्ट क्या कहती है। उसने ना कोई सबूत दिया और ना ही जासूसी को वास्तविकता बताया, सिवाय सिर्फ संदेह करने के। उसने यह भी कहा कि डेटाबेस 50,000 फोन का थे। अब, उन 50,000 फोनों में से 37 पर सॉफ़्टवेयर के निशान होंगे। अगर आँकड़ों के आधार पर बात करें तो इस संख्या के आधार पर कोई व्यापक विवरण नहीं दिया जा सकता, लेकिन पत्रकारिता कभी-कभी तथ्यों जैसी छोटी-छोटी बातों से सरोकार रखती है।

गार्जियन की खबर कहती है कि भारत सरकार ने पेगासस का उपयोग करने से इनकार किया है, लेकिन द वायर भारत ने अपनी खबर में दावा किया है कि एनएसओ ने कहा है, “भारत या विदेश में कोई भी निजी संस्था उस संक्रमण के लिए जिम्मेदार नहीं है। इसकी द वायर और उसके सहयोगियों ने पुष्टि की है।”

हमें नहीं पता कि द वायर ने क्या सवाल पूछा था। हो सकता है कि उसने पूछ हो कि क्या एनएसओ को निजी एजेंसियों पर उनके स्पाइवेयर का उपयोग करने पर संदेह है और एनएसओ ने शायद इस बात से इनकार किया हो और कहा हो कि इसका केवल सरकार और उनके खुफिया विभाग ही इस्तेमाल करते हैंं। हालाँकि, उस बयान का इस्तेमाल तब द वायर ने यह बताने के लिए किया था कि:

  1. 1. भारतीय पत्रकारों को निशाना बनाया गया
    2. भारत में या भारत के बाहर किसी भी निजी संस्था ने ये नहीं किया
    3. इसलिए, इससे यह पता चलता है कि ऐसा भारत सरकार ने किया

इसमें से कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता है।

यहाँ बताया गया है कि कैसे द वायर ने यह दावा करने की कोशिश की कि इसमें भारत सरकार शामिल थी।

द वायर की करतूत

द वायर मूल रूप से इस बात पर जोर दे रहा है कि भारत उसी भौगोलिक क्षेत्र में जहाँ जासूसी हो सकती है, इसका मतलब यही होगा कि भारत भी इसमें शामिल था। इस बात को और पुख्ता करने के लिए द वायर ने सिटीजन लैब की 2019 की रिपोर्ट का हवाला दिया गया, जिसे खारिज कर दिया गया था। सिर्फ खारिज ही नहीं किया गया, बल्कि अर्बन नक्सल ने खुद को फँसाने के लिए ईमेल को “सबूत को प्लांट करने” बताने के अपने दावों को अदालत में तभी ध्वस्त कर दिया जब खुद को बचाने के लिए इनमें से एक ईमेल को सबूत के रूप में उन्होंने उद्धृत किया। आरोपी द्वारा आरोपी को बेगुनाह साबित करने के लिए जो सबूत पेश किया जाता है, वह नकली नहीं हो सकता।

यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि सिटीजन लैब कनाडा सरकार की एक परियोजना है। सिटीजन लैब मंक स्कूल में स्थित एक शोध प्रयोगशाला है, जो टोरंटो विश्वविद्यालय में स्थित है। चूँकि सिटीजन लैब टोरंटो विश्वविद्यालय में स्थित है, इसलिए यह किसी भी परिस्थिति में कनाडा की सरकार से खुद को अलग नहीं कर सकता है और यह कोई रहस्य नहीं है कि कनाडा सरकार भारत की संप्रभुता को कमजोर करने वाले खालिस्तानी आतंकवादियों का समर्थन कर भारत में कैसे परेशानी पैदा कर रही। .

कनाडा सरकार के अलावा, सिटीजन लैब की गैर-सरकारी फंडिंग पर भी एक नजर डालते हैं, जो गहरी एवं भयावह सांठ-गांठ की खुलासा करती है।

ओपन सोसाइटी फाउंडेशन (जॉर्ज सोरोस), इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर (कनाडा सरकार ने इसमें भारी निवेश किया है और सिटीजन लैब में भी), एचआईवीओएस (यह संगठन जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन से जुड़ा हुआ है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न सरकारों से धन प्राप्त करता है) और कई अन्य संगठन सिटीजन लैब से जुड़े हैं।

इसलिए भारत ने पत्रकारों की जासूसी की थी, इसे साबित करने के लिए द वायर ने अंतरराष्ट्रीय सरकारों और जॉर्ज सोरोस द्वारा वित्त पोषित एक ऐसे संगठन की रिपोर्ट का हवाला दिया, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शासन परिवर्तन के लिए कुख्यात है। सबसे बड़ी बात कि इस रिपोर्ट का उनके पास कोई सबूत भी नहीं है।

दिलचस्प बात यह है कि एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा किए गए फोरेंसिक विश्लेषण के बाद उसी सिटीजन लैब का उपयोग यह “सत्यापित” करने के लिए किया गया है कि क्या विश्लेषण किए गए फोन वास्तव में हैक की गई थी या नहीं?

द वायर उन चीजों को रेखांकित करने के लिए लिखता है, जिन्हें वह बिल्कुल साबित नहीं कर सकता। वह कहता है कि डेटाबेस सर्विलांस टारगेट के लिए संभावित चयन की ओर इंगित करता है, लेकिन वह फोरेंसिक परीक्षण (डेटाबेस के एक अंश पर फोरेंसिक परीक्षण किए गए थे) के बिना साबित नहीं कर सकता कि एक फोन हैक किया गया था। वह आगे एक न्यायाधीश के फोन को हैक किए जाने का संकेत देता है। हालाँकि, उनका कहना है कि द वायर यह पुष्टि करने में सक्षम नहीं है कि नंबर हैक किए गए थे या नहीं। संयोग से एक डेटाबेस में जोड़े जाने से पहले उस न्यायाधीश ने नंबर को छोड़ दिया था।

यह था द वायर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के दिमाग की खुराफात। द वायर का अगला लेख, जो दो अलग-अलग लोगों द्वारा लिखा गया है, उनका यहाँ उल्लेख करने का कोई विशेष महत्व नहीं है।

लेख का शीर्षक था, “स्नूप लिस्ट में 40 भारतीय पत्रकार, फोरेंसिक टेस्ट में कुछ पर पेगासस स्पाइवेयर की उपस्थिति की पुष्टि”। शुरुआत में लेख का सारांश कहता है, “संभावित टारगेट की लीक सूची में हिंदुस्तान टाइम्स, द हिंदू, द वायर, इंडियन एक्सप्रेस, न्यूज 18, इंडिया टुडे, पायनियर के अलावा फ्रीलांसर, स्तंभकार और क्षेत्रीय मीडिया के पत्रकार शामिल हैं।”

एक बार फिर संभावित शब्द पर ध्यान दें। जरूरी नहीं कि उन्हें हैक किया गया हो। जरूरी नहीं कि उनकी जासूसी की गई हो। वे संभावित टारगेट थे, क्योंकि उनके पास बिल्कुल भी सबूत नहीं है।

आगे बढ़ते हैं।

लेख में कहा गया है कि लीक हुए आंकड़ों में कुल 40 पत्रकारों के नाम हैं। इसमें आगे लिखा है, “10 भारतीय फोनों पर किए गए स्वतंत्र डिजिटल फोरेंसिक विश्लेषण, जिनके नंबर डेटा में मौजूद थे, ने या तो सफल पेगासस हैक या उसके प्रयास के संकेत दिखाए।”

जैसा कि हम आगे देखेंगे कि इस दावा के पीछे कोई ठोस सबूत नहीं है। अगर हम इसे सच मान भी लेते हैं तो यह दावा करने के लिए परीक्षण का प्रतिशत दिलचस्प है। 40 में से 10 फोन 25% हैं। 50,000 में से 10 फोन 0.02% हैं। वाह।

इसके आगे लेख में कहा गया है, “कंपनी ने अपने ग्राहकों की सूची को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया, लेकिन भारत में पेगासस संक्रमण की उपस्थिति और टारगेट करने के लिए चुने गए व्यक्तियों की श्रेणी साफ संकेत देती है कि एजेंसी भारतीय नंबरों पर स्पाइवेयर संचालित कर रही है।”

यहां, द वायर स्वीकार करता है कि उसके पास वास्तव में ऐसा कोई सबूत नहीं है, जो यह बताता हो कि भारत सरकार एनएसओ की क्लाइंट थी (भारत सरकार इससे इनकार करती है)। हालांकि, वे चाहते हैं कि आप पर विश्वास करें कि जिस प्रकार के लोगों को टारगेट किया गया, वह दर्शाता है कि असल में सरकार ‘जासूसी’ कर रही थी। कैसे? हम विश्वास के साथ नहीं कह सकते।

द वायर के लेख में अगला झूठ सरकार द्वारा वास्तव में कही गई बातों का सीधा विरोधाभास है और जिसे द गार्जियन कम-से-कम ठीक ढंग से समझने में कामयाब रहा।

द गार्जियन का साफ तौर पर कहना है कि मोदी सरकार ने पेगासस के इस्तेमाल से इनकार किया है, द वायर अपने लेख में इस तर्क को खींचने का प्रयास करता है ताकि भारतीय सरकार पर किसी तरह आक्षेप लगाया जा सके। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे दावा किया कि नामों की यह सूची शायद पूरी नहीं है और वास्तविक व आधिकारिक सूची में कई अन्य नाम भी हैं।

द वायर के लेख में आगे कहा गया है कि इन पत्रकारों को सूची में जोड़ने का समय “समूह में विशेष रुचि” का संकेत देता है और फिर आगे यह कहता है कि अन्य लोगों को शायद उन खबरों के लिए जोड़ा गया था, जिन पर वे उस समय काम कर रहे थे। सबूत? फिर से, कोई नहीं। अटकलें, सिर्फ अनुमान (एक बार फिर)।

पत्रकारों की सूची और द वायर का डेटा क्या दिखाता है और क्या छुपाता है

द वायर अपने शब्द की भारी हेराफेरी के बाद आखिरकार यह सूची वाले बिंदु पर आया कि किन पत्रकारों की जासूसी का उद्देश्य था और विश्लेषण में क्या पता चला। यहाँ उन पत्रकारों की सूची दी गई है जिनका उल्लेख द वायर ने किया है।

तब वायर कहता है:

एमनेस्टी को इस बात के सबूत मिले कि सुशांत सिंह, ठाकुरता, आब्दी, वरदराजन और वेणु के फोन में पेगासस स्पाईवेयर से छेड़छाड़ की गई थी। स्मिता शर्मा के लिए, विश्लेषण में पाया गया कि ऐप्पल के आईमैसेज सिस्टम के माध्यम से हैकिंग के प्रयास किए गए, लेकिन उनके फोन में कुछ नहीं मिला और उनका फोन संक्रमित हो गया। विजेता सिंह के एंड्रॉइड फोन में भी हैक करने के प्रयास का सबूत मिला, लेकिन छेड़छाड़ का कोई सबूत नहीं मिला।

ध्यान रहे ये सभी लोग पीड़ित होने का स्वांग कर रहे हैं। स्वाति चतुर्वेदी, सुशांत सिंह, विजेता और ये सभी पत्रकार शहीद की भूमिका निभा रहे हैं। हालाँकि, द वायर की रिपोर्ट में ही कहा गया है कि ज्यादातर मामलों में वे यह साबित भी नहीं कर पाए कि फोन हैक हुआ था या नहीं।

वह आगे कहता है:

द वायर स्पष्ट रूप से कहता है कि उसे इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि “हमलावर” ने “पेगासस” के साथ क्या किया, लेकिन निष्कर्ष निकालकर कुछ पत्रकारों, विशेष रूप से द वायर से जुड़े लोगों का महिमामंडन किया गया है।

दूसरों के विपरीत इन पांच नामों में वह उल्लेख करता है कि “हमले” के लिए किस वेक्टर का उपयोग किया गया था, लेकिन इस बात का सबूत नहीं है कि फोन से छेड़छाड़ की गई थी अथवा नहीं और यदि की गई थी तो किसके द्वारा और किस हद तक।

फॉरबिडेन स्टोरीज का अमेरिकी सरकार से लिंक और मध्य-पूर्व में सरकार बदलने के लिए प्रोपेगंडा फैलाना काम

फॉरबिडेन स्टोरीज की वेबसाइट के अनुसार, “फॉरबिडन स्टोरीज यह सुनिश्चित करती है कि खतरे में पड़े पत्रकार अपनी जानकारी सुरक्षित कर सकें।” आगे लिखा है, “हम उन्हें अपनी संवेदनशील जानकारियों को हमारे सुरक्षित कम्युनिकेशन चैनलों में से एक में रखने की क्षमता प्रदान करते हैं। अगर उन्हें कुछ होता है तो हम उनकी कहानियों को सीमाओं से परे, सरकारों से परे, सेंसरशिप से परे सुनिश्चित करेंगे।”

एफएस को रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (RSF) और फ्रीडम वॉयस नेटवर्क द्वारा लॉन्च किया गया था। अतीत में आरएसएफ ने उन मीडिया संगठनों की फंडिंग की थी, जो सीरिया और उसके राष्ट्रपति बशर अल-असद के खिलाफ शासन परिवर्तन के लिए प्रोपेगंडा फैलाते हैं। आरएसएफ को खुद अमेरिकी सरकार से फंडिंग मिलती है। इस प्रकार, एफएस के संस्थापकों में से कम-से-कम एक के झुकाव से स्पष्ट हो जाता है।

एफएस के फंडिंग करने वालों पर नजर डालने पर और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। हालाँकि, यह उल्लेख करने में सावधानी बरती जाती है कि दाता कवरेज को प्रभावित नहीं करते हैं, यह केवल एक अत्यंत आदर्शवादी दुनिया में ही सच होता है। चूँकि हम ऐसी दुनिया में नहीं रहते इसलिए हमारे लिए उनके शब्दों को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है।

एफएस के दान दाताओं में एक लाइमलाइट फाउंडेशन (एलएफ) है। एलएफ कई संगठनों को फंड करता है। उनमें से एक प्रमुख है बेलिंगकैट। यह एक मीडिया संस्थान है, जो सीरिया के खिलाफ पश्चिम के अवैध युद्ध को वैध दिखाने के लिए प्रोपेगंडा फैलाती है।

जैसा कि द ग्रेजोन द्वारा रिपोर्ट किया गया है, बेलिंगकैट का ‘नाटो’ से व्यापक संबंध है और उसने ‘रूस को कमजोर’ करने के लिए यूनाइटेड किंगडम के प्रयासों में सहयोग किया था। इसके अलावा, यह अमेरिकी सरकार द्वारा वित्त पोषित परियोजना नैशनल एडोवमेंट फॉर डेमोक्रेसी से ग्रांट प्राप्त करता है।

एफएस का एक अन्य दाता ल्यूमिनेट है, जिसे 2018 में ओमिडयार समूह ने स्थापित किया था। ल्यूमिनेट की 2018-2022 के लिए रणनीतिक योजना में उल्लेख किया गया है कि “अनुदारवादी लोकतंत्र उभर रहे हैं”, “नागरिकों के स्थान सिकुड़ रहे हैं और नागरिक समाज पर हमले हो रहे हैं”, “बढ़ता पोपुलिज्म ऐतिहासिक दलगत राजनीति में दरार पैदा कर रहा है।”, “राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अधिक प्रतिध्वनित हो रहा है।” और “समुदाय अन्य चीजों के बीच अधिक ध्रुवीकृत हो रहे हैं।”

जबकि रणनीतिक योजना और राष्ट्रवाद के प्रति इसकी दुश्मनी इसकी वैचारिक उन्मुखता को स्पष्ट करती है, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि ओमिडयार समूह दुनिया भर में मीडिया संगठनों के एक मेजबान को धन देता है, ज्यादातर स्क्रॉल.इन जैसे वैश्विक वामपंथी पोर्टल को।

द ग्रेजोन के अनुसार, ल्यूमिनेट ने ऐसी फिल्मों के निर्माण के लिए सनडांस इंस्टीट्यूट को दान दिया, जिनका “सार्वजनिक मुद्दों और आंदोलन-निर्माण अभियानों को दबाने के लिए रणनीतिक रूप से इस्तेमाल किया।” ग्रेजोन रिपोर्ट में कहा गया है, “ओमिडियार के ल्यूमिनेट द्वारा एक रणनीतिक सफलता के रूप में उद्धृत फिल्मों में द लास्ट मेन इन अलेप्पो था, जो सनडांस इंस्टीट्यूट द्वारा निर्मित और सीरियन व्हाइट हेल्मेट्स के लिए ऑस्कर-नामांकित प्रोपेगंडा माध्यम था।”

रिपोर्ट के अनुसार, “व्हाइट हेलमेट ‘नागरिक बचाव’ से जुड़ा एक सीरियाई विद्रोही-गठबंधन समूह है, जिसकी स्थापना एक ब्रिटिश पूर्व सैन्य खुफिया अधिकारी द्वारा तुर्की में की गई थी। अल कायदा-नियंत्रित इदलिब प्रांत सहित विद्रोहियों के कब्जे वाले क्षेत्र में विशेष रूप से संचालित, व्हाइट हेलमेट्स को यूएसएआईडी, यूके विदेश कार्यालय और कतर के राजशाही द्वारा वित्त पोषित किया गया है।

इस प्रकार, एफएस को धन देने वाला ल्यूमिनेट, सीरिया के खिलाफ पश्चिम के सरकार परिवर्तन युद्ध को सही ठहराने के लिए प्रोपेगंडा फिल्में बनाता है। इसके अलावा, द ग्रेज़ोन के अनुसार, ल्यूमिनेट को ओबामा प्रशासन के एक अधिकारी बेन स्कॉट द्वारा चलाया जाता था, जिन्होंने हिलेरी क्लिंटन के विदेश विभाग में भी काम किया है।

FS के अन्य दाताओं में जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन (OSF) शामिल हैं, जिनका भारत सरकार के प्रति दृष्टिकोण सबके सामने है। वहीं, वेलस्प्रिंग फिलैंथ्रोपिक फ़ंड अभी गोपनीयता के चादर में लिपटा हुआ है।

FS ने हाल ही में अपनी वेबसाइट पर मीडियापार्ट के हेड ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन फ़ैब्रिस अफ़री के अनुमोदन को भी गर्व के साथ प्रदर्शित किया था। मीडियापार्ट वही फ्रांसीसी वामपंथी संगठन है, जो राफेल सौदे पर दुष्प्रचार कर रहा है। एफएस ने अब अपनी वेबसाइट से “हमारी मदद करें” पेज को पूरी तरह से हटा दिया है।

द वायर और द गार्जियन की जुगलबंदी बताते हैं कि निम्नलिखित प्रश्नों के उनके पास उत्तर नहीं:

  • 1. द वायर स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है कि सूची में नाम होने का मतलब यह नहीं है कि फोन के साथ छेड़छाड़ हुई है। अगर यह सच है तो हर रोज नाम क्यों फेंके जा रहे हैं (उनका दावा है कि वे ऐसा करने जा रहे हैं)। यदि नाम होने का मतलब यह नहीं है कि उनकी निगरानी की गई थी और अधिकांश फोनों का परीक्षण नहीं किया गया है, तो इस खबर के जरिए क्या साबित करना है?
  • 2. अगर भारत सरकार ने पेगासस का उपयोग करने से इनकार किया है और एनएसओ ने कहा है कि कथित सूची के कई नाम उनके ग्राहक नहीं हैं तो मोदी सरकार के खिलाफ ये अनुमान कैसे लगाए जा रहे हैं? यहाँ यह बताना जरूरी है कि एनएसओ समूह ने एक बयान में कहा कि वह द वायर पर मानहानि का मुकदमा करने पर विचार कर रहा है।
  • 3. यह दावा कि भारतीय पत्रकारों की भारत द्वारा ही “जासूसी” की गई थी, इसका सबूत नहीं है। उदाहरण के लिए, सिद्धार्थ वरदराजन एक अमेरिकी नागरिक हैं। क्या यह संभव नहीं है कि कोई और देश अपने ‘एसेट्‌स’ की जासूसी कर रही हो? उदाहरण के लिए, द हिंदू नियमित रूप से चीन के पक्ष में लिखता है। यह जानने के बाद कि चीन अपनी ‘एसेट्स’ की निगरानी कैसे करता है, क्या यह संभव नहीं है कि चीन द हिंदू के पत्रकारों की जासूसी करने का प्रयास कर रहा हो? सबूतों के अभाव में ये सब अटकलें हैं और इनकार के बावजूद भारत सरकार के शामिल होने का दावा, कम-से-कम कहने के लिए एक प्रेरित कथा और एक दुर्भावनापूर्ण झूठ की तरह लगता है।
  • 4. कंसोर्टियम के इन आरोपों को अमेरिकी प्रतिष्ठान से जोड़ा जा रहा है, जो शासन परिवर्तन को प्रभावित करता है। क्या यह संभव है कि यह एक बड़े पैमाने पर ऑपरेशन को अंजाम दिया जा रहा है, जिसमें सरकार को अस्थिर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और भारत में द वायर जैसी वाम मीडिया शामिल हैं?
  • 5. क्या यह दिलचस्प बात नहीं है कि इस ऑपरेशन में शामिल ज्यादातर एजेंसियाँ ​​विदेशी हैं? उदाहरण के लिए, फॉरबिडेन स्टोरीज अमेरिकी प्रतिष्ठान और जॉर्ज सोरोस से जुड़ी है, सिटीजन लैब को कनाडा सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाता है, द वायर को अमेरिकी प्रतिष्ठान सहित संदिग्ध स्रोतों से धन प्राप्त होता है और भी बहुत कुछ।
  • 6. क्या सबूत है?
  • 7. क्या वामपंथी मीडिया कभी कोई खबर सही की है, जिसमें देश की उन्नति और विकास की बात करने के लिए कोई जगह हो, सिवाय देश को अराजकता की आग में झोंकने के?

पेगासस कहानी एक बुझा हुआ पटाखा हो सकती है, लेकिन इसमें “शासन परिवर्तन” की कहानी सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है। यह कोई रहस्य नहीं है कि संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा आदि देशों में सरकारें और प्रतिष्ठान भारत के आंतरिक मामलों में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करते रहे हैं। संभवतः ऐसा करने का यह एक और प्रयास हो सकता है – मोदी सरकार पर बिना तथ्य के भी लांछन लगाओ, क्योंकि किसी देश को अराजकता की ओर धकेलने के लिए केवल एक सावधानी से गढ़ा गया झूठ ही काफी होता है।

नोट- Opindia की ग्रुप एडिटर Nupur J Sharma द्वारा मूल रूप से इंग्लिश में लिखे इस लेख का सुधीर गहलोत ने अनुवाद किया है।

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