कोविड की दूसरी लहर भारत में मौत का कहर लाई है, निःसंदेह। जिस तरह लगातार हमारे देश की प्राथमिकताएँ लंबे समय तक गड्डमड्ड रहीं, उसी के फलस्वरूप स्वास्थ्य-सेवा का लचर होना और उससे होने वाली मौतों का मंजर भी देखने को मिल रहा है। हालाँकि, ‘आपदा में अवसर’ की तरह इस ‘दुष्काल’ का लाभ उठाते हुए अमेरिकी अखबारों से लेकर ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन तक के पत्रकारों ने भारत पर अपनी कलम और की-बोर्ड से हमला बोल दिया।
‘वाशिंगटन पोस्ट’ की खबर हो या ‘गार्डियन’ का संपादकीय, ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ का कवरेज हो या ‘सीएनएन’ की कवरेज, ये सभी और कुछ नहीं, बस ‘व्हाइट मेन्स बर्डन सिंड्रोम’ का ज्वलंत उदाहरण है। उच्चता-बोध से भयंकर रूप से पीड़ित अंग्रेजों की शाब्दिक उलटी है। इन्हें देख-पढ़कर लगता है, जैसे JNU में बैठे किसी SFI के कारकुन ने अपने ‘सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट सीजोफ्रेनिया’ में आकर कोई पर्चा लिख मारा है।
यह कोई पहली बार भी नहीं है और न ही आखिरी बार। पोखरण (इंदिरा और अटल दोनों ही के समय) हो या हालिया मंगलयान भेजने तक। सुपर कंप्यूटर की बात हो या क्रायोजेनिक इंजन की, भारत को लूटकर समृद्ध हुए यूरोपीय बर्बर हों या अमेरिकी श्वेत, ये सभी नस्लीय द्वेष, अहंकार और कुत्सा से भरे हुए हैं। जब भारत ने कम बजट में मंगलयान भेजा तो न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक बेहद आपत्तिजनक कार्टून उस वक्त प्रकाशित किया था, जिसमें दो लोग एक कमरे में बैठे हैं, उसके ऊपर एलिट स्पेस क्लब की पट्टी लगी है और बाहर एक व्यक्ति धोती-कुर्ता और पगड़ी में गाय के साथ दरवाजा खटखटा रहा है। सिर्फ इस एक कार्टून से इन श्वेत अहंवादियों की बुद्धि का पता चल जाता है।
जरा यह उलटबांसी देखिए, जो गार्डियन ने की है- “पिछले साल मोदी ने भारत की एक अरब आबादी पर अचानक एक विनाशकारी लॉकडाउन थोप दिया था। देश के शीर्ष महामारी विशेषज्ञों की राय के उलट जाकर बिना किसी चेतावनी के लगाया गया यह लॉकडाउन मोदी की नाटकीय भंगिमाओं के सर्वथा अनुकूल था। युवाओं की आबादी ज्यादा होने के चलते कोविड-19 के कारण मरने वाले भारतीयों की संख्या दूसरे देशों के मुकाबले कम ही रहनी थी।”
अब ज़रा, इसको डी-कंस्ट्रक्ट करते हैं। ब्रिटेन उन देशों में एक है, जिसने सबसे लंबा लॉकडाउन लगाया। ब्रिटेन उन देशों में एक है, जहाँ सबसे अधिक लाशें गिरीं, फिर भी गार्डियन का यह आलेख मोदी के लॉकडाउन की निंदा तो करता ही है, भारत में लाशें कम गिरीं, इसका श्रेय वह युवाओं की अधिक जनसंख्या को देता है। हालाँकि इसमें फिर से वह फँस जाता है, जो हम आगे देखेंगे। गार्डियन दरअसल, चित भी मेरी, पट भी मेरी और सिक्का खड़ा रहा, तो मेरे बाप का तो है ही, वाली मसल मान रहा है।
अब आगे, एक और उलटबांसी देखिए, “महज छह हफ्ते पहले जब कुल आबादी के 1 प्रतिशत को भी टीका नहीं लग सका था, मिस्टर मोदी ने देश को दुनिया का दवाखाना घोषित कर दिया था और संकेत दिया था कि महामारी से पहले का सामान्य जीवन बहाल हो सकता है। इसके ठीक बाद लाखों हिंदुओं ने कुम्भ मेले के दौरान गंगा में डुबकी मार दी। वायरस का भयंकर फैलाव तभी शुरू हुआ।”
ऊपर का वाक्यांश उसी आर्टिकल का हिस्सा है। ज़रा इन अंग्रेजों से ये पूछा जाए कि ये आँकड़े किस वैज्ञानिक ने दिए, ये कैसे सिद्ध होगा कि सुपरस्प्रेड कब हुआ, कुंभ जब जनवरी 14 से ही शुरू था, तो मार्च के अंत में किस महान वैज्ञानिक ने बताया कि कुंभ से ही यह फैला है, क्योंकि कुंभ तो हरिद्वार में था। (यह सब तब है, जबकि संक्रमण का फैलाव होते ही कुंभ को समाप्त कर लिया गया)। जहाँ तक टीका की बात है, तो 135 अरब की आबादी वाले देश में 1 फीसदी भी 1 करोड़ से अधिक होता है और इतने लोगों को टीका लग चुका था, छह हफ्ते पहले।
गार्डियन के अहंकारी लेखक का आँकड़ाबोध भी ठीक नहीं है। फिलहाल, लगभग 14.52 करोड़ लोगों को टीका लग चुका है, वह भी जबकि इस देश में एक बड़ा तबका है जो मोदी/भाजपा का टीका लगाने को तैयार नहीं और जब 45 वर्षों से ऊपर की आबादी को ही टीके लगाए जा रहे थे, तो आबादी का लगभग 40 फीसदी हिस्सा टीका के योग्य ही नहीं रह जाता था। हालाँकि, अब भारत में 1 मई से यूनिवर्सल टीकाकरण शुरू हो रहा है।
ज़रा इन अंग्रेजों से यह पूछा जाए कि यही भारत है जिसने आधी दुनिया को वैक्सीन बाँटी, तब ये कहाँ थे। यह और कुछ नहीं, विशिष्टताबोध से ग्रस्त श्वेत नस्लीय अंग्रेजों की बौखलाहट का नतीजा है। नस्लीय दंभ और श्रेष्ठताबोध से विकृत दिमाग वाले इन श्वेतों ने सुपर कंप्यूटर से लेकर क्रायोजेनिक इंजन और दवाइयों तक, भारत को कहाँ नहीं रोकने की कोशिश की है? भारत से इनकी अपेक्षा है कि वह भी पाकिस्तान की तरह भीख का कटोरा लेकर इनके सामने हमेशा हाथ पसारे रहे।
यह नहीं हो रहा है, भारत की विदेश नीति का रुख बदल रहा है औऱ चाचा नेहरू के ‘उस बियाबान में तो घास का एक तिनका नहीं उगता’ वाली नीति को त्यागकर अब लद्दाख में चीनी चूजों को बल भर तोड़ा जा रहा है, तो ‘दर्द तो होना लाजिमी है। भारत में कोरोना की दूसरी लहर कहर बनकर टूटी है, स्वास्थ्य सेवाएँ बेहद दबाव में हैं, मौतें भी हो रही हैं, लेकिन हमें पिछले साल का मंजर भी याद है जब स्पेन और इटली में लाशों के ढेर लगे थे।
तथाकथित फर्स्ट वर्ल्ड की औकात भी हमने देखी थी, जब अमेरिका अपने घुटनों पर आया था, हमसे पाँचवाँ हिस्सा जनसंख्या और बेहद आधुनिक स्वास्थ्य-सेवाओं के बाद यूरोप और अमेरिका का क्या हाल हुआ था, यह हम सबने देखा है, देख रहे हैं। सब याद भी रखा जाएगा।