Saturday, April 27, 2024
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कॉन्ग्रेस घोषणापत्र के झूठ और चरमसुख पाते पत्रकार: आदतन तुमने कर दिए वादे…

कॉन्ग्रेस ने इस बार न सिर्फ बीस साल पहले के कुछ वादे बिना किसी एडिटिंग के सलामत रखे हैं, जैसे उनकी दादी ने ग़रीबों की गरीबी को सलामत रखा और सास द्वारा बहू तक ट्रांसफर होने वाले ख़ानदानी कंगनों की तरह राहुल गाँधी तक पहुँचाया, बल्कि ऐसी बातें कह दी हैं जिन्हें शास्त्रों में 'टू गुड टू बी ट्रू' कहा जाता है।

जब मैं वादों की बात कर रहा हूँ, तो मतलब यह है कि मैं चुनावों की बात कर रहा हूँ। जब मैं चुनावों और वादों की बात कर रहा हूँ, तो मैं मैनिफ़ेस्टो यानी, घोषणापत्रों की बात कर रहा हूँ। और, घोषणापत्र तो फ़िलहाल एक ही है जिस पर बात हो रही है: कॉन्ग्रेस पार्टी का घोषणापत्र। इस मैनिफ़ेस्टो का विश्लेषण हो रहा है, जहाँ प्राइम टाइम एंकर इसे तोड़-तोड़ कर जेटली और मोदी को ललकार रहे हैं। 

छुटभैये प्रकाशपुंज टाइप के फेसबुकिया पत्रकार इसे विजनरी और कालजयी लिख रहे हैं। फिर मैं याद करने लगता हूँ कि पिछली बार इस तरह की उम्मीद किसी घोषणापत्र ने कब जगाई थी। याद कुछ नहीं आता, बस याद यह आता है कि आज कल फ़िल्मों के ट्रेलर ही नहीं आते, पोस्टर आते हैं, मोशन पोस्टर आते हैं, टीज़र वन, टू और थ्री आते हैं, फिर ट्रेलर वन आता है, फिर ट्रेलर टू आता है, फिर गाने आते हैं, गाने की मेकिंग आती है… और खाली बैठे एंटरटेनमेंट बीट के पत्रकार पोस्टर से लेकर ट्रेलर तक के रिव्यू लिखते हैं।

ये पत्रकार भी उसी मोड में हैं। ये राहुल गाँधी के बीस लाख नौकरियों के रैली वाले बयान पर मोदी को घेरते हैं कि मोदी ऐसा क्यों नहीं कहते! अरे भाई, मोदी कहता नहीं, करता है। नौकरी के मुद्दे पर घेर कर थक गए तो रवीश कुमार चुटकुला बनाते फिर रहे हैं कि ओला का ड्राइवर और स्विगी का डिलीवरी ब्वॉय बनने को रोजगार नहीं कहा जा सकता।

जबकि जानकारों ने, जो रवीश से तो ज़्यादा ही जानकारी रखते हैं, आँकड़ों से बताया है कि प्रोफ़ेशनल सेक्टर में ही, जो पूरी तरह से प्राइवेट है, पिछले चार सालों में 40 लाख नौकरियाँ दी हैं, बाकी की करोड़ों नौकरियों की बात रहने ही दीजिए। ये नौकरियाँ डिलीवरी ब्वॉय और ड्राइवर की नहीं हैं लेकिन, जिस व्यक्ति का यह दंभ हो कि वो लाल माइक लेकर कहीं भी जाता है, और किसी के भी पास रोजगार नहीं है, तो ये विक्षिप्त होने की निशानी है। सवाल यह है कि अगर आप उन इलाकों में प्रोग्राम करने जाएँगे जहाँ हर आदमी तैयारी कर रहा है, तो ज़ाहिर है कि सौ प्रतिशत लोग वहाँ बेरोज़गार ही मिलेंगे। मुखर्जीनगर में जो बच्चे यूपीएससी और एसएससी की परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, वो बेरोज़गार नहीं होंगे तो आखिर वो तैयारी कर क्यों रहे हैं?

कभी लाल माइक लेकर उन्हें रेसिडेंशियल सोसायटी में जाना चाहिए, साइबर हब में जाना चाहिए, फ़िल्मसिटी में जाना चाहिए, तब लगेगा कि सबके पास नौकरी है। क्योंकि, वाक़ई ऐसी जगहों में रहने वाले लोग अमूमन वही होते हैं जो नौकरी करते हैं। इसलिए, ये दोनों ही तरीक़ा गलत है। तब आपको हमेशा बेरोज़गार भीड़ ही दिखेगी जब आपका एजेंडा क्लियर हो और आप माइक लेकर गलत जगहों पर ही जाते हों।

खैर, रवीश कुमार पर ज़्यादा नहीं कहना, क्योंकि उनकी जगह दो पैराग्राफ़ लायक ही है। वादों पर बात करते हुए, मैं आपको यह नहीं बताऊँगा कि कॉन्ग्रेस के मैनिफ़ेस्टो में क्या है, क्योंकि जब मैं लिखता हूँ, बोलता हूँ, तो मैं यह मानकर चलता हूँ कि मुझे पढ़ने और सुनने वाले, इतनी मेहनत करके आते हैं। 

विपक्ष में रहने वाले लोगों के चुनावी वादे सबसे ज्यादा क्रिएटिव और आउटरेजस होते हैं। आउटरेजस से तात्पर्य है दिमाग झनझना देना वाला। वो वास्तव में ‘कुछ भी’ बोल लेते हैं। उनके ‘कुछ भी’ बोल लेने के पीछे की सबसे बड़ी वजह यह है कि मैनिफेस्टो हमेशा एकतरफ़ा ही होता है, उस पर जनता सवाल नहीं करती कि ये जो लिख गए हो, वो करोगे कैसे? क्योंकि जनता को फ़्री के कुकर और लैपटॉप में ज्यादा आस्था रहती है।

जनता इतनी बेकार की सामूहिक संस्था बनती जा रही है जिसके लिए छः लेन का एक्सप्रेस वे किसी काम का नहीं, अगर उसकी गली में आने वाली सड़क उसकी देहरी को न छूती हो। इसीलिए जनता न तो विकास समझती है, न प्रकाश, उसे सौ रुपए का नोट देकर, पार्टियाँ लाखों करोड़ के घोटाले कर जाती है जिसे वो पेपर में पढ़ कर कोसते रहते हैं। 

कॉन्ग्रेस ने इस बार न सिर्फ बीस साल पहले के कुछ वादे बिना किसी एडिटिंग के सलामत रखे हैं, जैसे उनकी दादी ने ग़रीबों की गरीबी को सलामत रखा और सास द्वारा बहू तक ट्रांसफर होने वाले ख़ानदानी कंगनों की तरह राहुल गाँधी तक पहुँचाया (क्योंकि वो अभी अविवाहित हैं), बल्कि ऐसी बातें कह दी हैं जिन्हें शास्त्रों में ‘टू गुड टू बी ट्रू’ कहा जाता है। 

कॉन्ग्रेस का मैनिफेस्टो हार को स्वीकार लेने जैसा है। पाँच सालों में वाहियात विपक्ष बनकर मीडिया के कैम्पेनों पर निर्भर होकर, उनके द्वारा लगातार चल रहे साम्प्रदायिक डिबेट में उलझ कर देश का नुकसान करने वाली यह पार्टी, मीडिया की गोदी में खेलती रही। कारण यह भी था कि इनके बड़े नेता अडानी और अम्बानी के लिए सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ कर पैसा बनाने में व्यस्त थे, और राहुल गाँधी को जितना लिख कर दिया गया, उसमें भी जेब फाड़कर हाथ हिलाते नजर आने लगे।

राहुल गाँधी स्वयं तो मजाक का वैयक्तीकरण हैं ही, लेकिन अध्यक्ष बनने के बाद भी (या कन्फर्म होने के प्रोसेस में भी) कभी भी राजनीति को गम्भीरता से लिया ही नहीं। उन्हें यह लगता रहा कि दिस टू शैल पास! राजनीति जब विरासत में मिली हो, तो लोग अपने जीन्स पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उनकी हर रैली अपनी मूर्खता को ज्यामीतीय अनुक्रम में बढ़ाने के लिए हुई है, जिसके पीछे, मुझे यक़ीन है कि कॉन्ग्रेस में भीतरघाती दुश्मन लगे हुए हैं। 

जब आपने कभी असली मुद्दों पर बात की ही नहीं, और जो मुद्दा पकड़ा, उसका सच बाहर निकल कर यह आया कि उस राफेल डील के न होने के पीछे आपकी यूरोफाइटर के लिए अगस्ता वैस्टलैंड वाले दलाल मिशेल की लॉबिंग थी, आपके निजी हित उसमें शामिल थे, तो आपको राफेल, अम्बानी और तीस हजार करोड़ का कैसेट पान की दुकान पर रिकॉर्ड करवा कर बजाना पड़ा। ‘हाल’ (HAL) की बात की, और उसे बर्बाद करने की बात की, तो कल की बासी ख़बर से पता चला कि 2018-19 के वित्त वर्ष में संस्था ने रिकॉर्ड ₹19,600 करोड़ का टर्नओवर दर्ज किया।

खैर, फिर से घोषणापत्र के ढकोसले पर आते हैं कि जो पार्टी सबसे बेकार कंडीशन में होती है, उसके वादे सबसे ज्यादा आसमानी होते हैं। कॉन्ग्रेस का वही हाल है। 2014 के पहले महीने से ‘कहाँ हैं अच्छे दिन’ और ‘विकास पागल हो गया’ की माला जपने वाले अब विकास की बात नहीं कर रहे। विकास पर इतने आँकड़े मोदी ने, उनकी कैबिनेट ने, मीडिया ने गिनाए हैं कि अजेंडाबाज पत्रकारों से लेकर माओवंशी गिरोह तक विकास के ट्रैक से उतर कर कहीं और भाग रहा है। 

मोदी ने हाल ही में दिए इंटरव्यू में भी कहा कि विकास के मुद्दे पर आकर बात करे जिसे भी करना है। लेकिन, वो मुद्दा गायब है और रैलियों से लेकर नौटंकीबाज़ लेखकों तक बात अब ‘नफ़रत की राजनीति’ जैसे बेहूदे वाक्यांशों पर लाने की कोशिश हो रही है। बात अब इस पर हो रही है कि कॉन्ग्रेस का घोषणापत्र कितना विजनरी है, जबकि उसमें दो-दो लाइन में बातें कही गई हैं, उनके होने के तरीके कहीं नहीं लिखे गए। 

यह कह देना बहुत आसान है कि हर गरीब को 72,000 रुपए दिए जाएँगे, लेकिन बजट और फिस्कल डेफिसिट के आलोक में वो पैसा नेहरू जी दे जाएँगे या मनमोहन के जादू की छड़ी से आएगा, ये कहीं नहीं बताया गया। कह दिया गया है कि जीएसटी खत्म कर दिया जाएगा, और नए तरह के टैक्स लागू किए जाएँगे, लेकिन यह नहीं बताया गया कि जीएसटी के कलेक्शन को, नए तरह के टैक्स से कैसे बढ़ाया जाएगा, उसका तरीक़ा क्या होगा, और अभी के तरीके में क्या समस्या है जबकि कमिटी में सारी पार्टियों के लोग हैं।

कह दिया गया कि ये हटा देंगे, वो लगा देंगे, लेकिन लिखते वक्त बस लिखा ही गया है, कश्मीर या उत्तरपूर्व की ज़मीनी स्थिति को बिना समझने की कोशिश किए सेना को कटघरे में रख दिया गया है। समझेंगे भी तो कैसे, ये एलीट ख़ानदानों के चिराग़, जिनके गुणसूत्रों में 22 जोड़े तो X और Y हैं, लेकिन तेइसवाँ जोड़ा P और M वाला है, ज़मीन पर उतरे कब कि पता चले हर खेत में फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट ही लगा दोगे तो खेती कहाँ होगी!

इन्होंने ख़्वाब बेचकर राजस्थान और मध्यप्रदेश में सत्ता पा ली है, और किसानों के साथ जो तेरह रुपए वाले मजाक किए हैं, उसके बाद भी इन्हें लगता है कि कल्पना बेचकर यह चौवालीस से बेहतर कर पाएँगे। वैसे, सेना की बात पर तो कॉन्ग्रेस ने कन्सिस्टेन्सी दिखाई, जिसके लिए वो बधाई के पात्र हैं। उन्होंने जिस सहृदयता से एनएसए को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने की बात की, सेना को लेकर यौनशोषण और मानवाधिकारों को रौंदने की बातें पाकिस्तान के समाचारपत्रों की टोन में की, राजद्रोह को कानूनी मान्यता प्रदान करने की बात की, इससे लगता है कि पूरी कैबिनेट ने साथ बैठकर मुल्क की माचिस जलाने का लक्ष्य रखा है।

पत्रकारों को चरमसुख मिल रहा है क्योंकि पत्रकारों के हर स्टेटस पर भक्त लोग आँकड़ा फेंक आते हैं और उन बेचारों के पास अब दो ही रास्ते बचे हैं। पहला यह कि विकास संबंधी नैरेटिव को नकार कर प्रेम और नफ़रत जैसे फर्जी शब्दों पर बात करने लगें; और दूसरा यह कि अपनी बात पर अड़े रहें कि नहीं, विकास कहीं नहीं हो रहा, नौकरियाँ कहीं नहीं है, मोदी देश को बर्बाद कर रहा है।

जब आँख मूँद कर ही बैठे हैं, तो यही लाइन क्यों न बार-बार कहते रहें। कम से कम रवीश के भक्त तो खुश रहेंगे कि हमारे देवतातुल्य एजेंडाबाज पत्रकार शिरोमणि पाँच साल से एक ही बात पर टिके हुए हैं ये नहीं कि मोदी बनकर इतनी योजनाएँ बना दीं और इतने लोगों की ज़िंदगी पर सकारात्मक और प्रत्यक्ष प्रभाव डाला कि गिनने वाला भी गिन नहीं पाता।

इसलिए, अब देश में क्या बन गया है, कैसे टैक्स कलेक्शन बढ़ा, किस तरह से सत्रह टैक्स की जगह एक टैक्स आया है, कैसे अर्थ व्यवस्था सधी हुई गति से आगे जा रही है, कैसे ढाँचे बन रहे हैं, कैसे सड़कें, पुल और जल परिवहन के रास्ते तैयार हो रहे हैं, कैसे गरीब आदमी केन्द्रीय वित्तीय व्यवस्था के दायरे में आ रहा है, कैसे एक ही गरीब को सौभाग्य से एलईडी, विद्युतीकरण से बिजली, उज्ज्वला से गैस, स्वच्छता से शौचालय, आवास से घर, राशन से सस्ता अनाज और स्किल से रोजगार के अवसर मिल रहे हैं, इसे एक लाइन में ‘अरे कुछ नहीं हुआ है, मोदी ने बर्बाद कर दिया है देश को’ कह कर नकार देते हैं।

मजबूरी है, कर भी क्या सकते हैं। अगर सही मुद्दों पर बात करने लगेंगे, तो आँकड़ों और ज़मीनी हक़ीक़त के सामने प्रोपेगेंडा बहुत समय तक नहीं चल पाएगा। पहले ही कार्यकाल में अंधेरा को भी तस्वीर बना लिया, हर तीसरे दिन आपातकाल भी ले आए, हर बात पर मोदी को चैलेंज भी कर दिया, देश की बर्बादी की तस्वीर भी बना डाली, लेकिन हुआ वैसा कुछ भी नहीं, तो अब करेंगे क्या?

अब, राहुल गाँधी जैसे अध्यक्ष की दो कौड़ी के, मैनिफेस्टो के नाम पर बेहूदे मजाक का विश्लेषण करेंगे। ये मजाक नहीं तो और क्या है? पूरी किताब बना डाली लेकिन आदमी को सक्षम बनाने की जगह उसे पंगु और लाचार रख कर, उसे जिंदगी भर मछली सप्लाय करने का वादा कर आए। आम जनता का तो समझ में आता है कि उसे मैनिफ़ेस्टो से कोई खास मतलब होता नहीं, लेकिन इन पत्रकारों ने क्या भाँग खा रखी है? 

राहुल गाँधी को इस बात की शाबाशी देने की जगह कि उसने कितनी बेहतरीन बातें लिखवाई हैं, ये क्यों नहीं पूछा जा रहा कि ‘अरे पगले, ये सब करेगा कैसे?’ ये नहीं पूछा जाएगा क्योंकि राहुल गाँधी की सीमा कॉन्ग्रेस को भी पता है, जीभ पर सैंड पेपर लेकर घूमने वाले चाटुकार पत्रकारों को भी पता है, और राहुल गाँधी को भी पता है। सबको पता है कि राहुल गाँधी ने जब-जब इंटरव्यू दिया है तो वो महिलाओं को ‘वही मजा’ देने से लेकर पता नहीं किस मल्टीवर्स के किस आयाम तक घूम आते हैं।

इसलिए, राहुल गाँधी के इस मैनिफ़ेस्टो में क़ैद छलावे को भविष्य बताने वाले पंडितों के समूह को इसे, कालिदास के मुक्के को ‘पाँच तत्वों के मिलने से जीव बनता है’, जैसा बताने दीजिए, लेकिन ध्यान रहे कि राहुल गाँधी जनेऊ भले दिखाता है, लेकिन वो इतना डेडिकेटेड नहीं है कि काली मंदिर में बारिश में हर रात दिया जलाए, और विद्योत्तमा के दरवाज़े पर पहुँच कर, उसके यह पूछने पर कि ‘अस्ति कश्चित् वाग्विशेषः’, उन तीनों शब्दों से, ‘अस्ति’ शब्द से ‘कुमारसम्भवम्’; ‘कश्चित्’ शब्द से ‘मेघदूतम्’, और ‘वाग्विशेषः’ शब्द से ‘रघुवंशम्’ नामक तीन महाकाव्यों की शुरुआत करे। 

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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