Thursday, October 10, 2024
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यूनिवर्सिटी कैम्पसों की वामपंथी हिंसा: लाल सलाम की बत्ती बनाने का समय आ चुका है, वरना ये आग लगा देंगे

वामपंथी पार्टियाँ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए भेड़ियों की तरह नितम्ब चिपका कर साथ चुनाव लड़े और जीते। फिर ये यूनिवर्सिटी को अपने बाप की जागीर समझते हैं, और चुनाव जीतने पर खुद को छात्र संघ का अध्यक्ष कम और पूरे कैम्पस का मालिक ज्यादा मानते हैं।

याद कीजिए पिछली बार वो समय कब था जब आपने जेएनयू या जादवपुर यूनिवर्सिटी के बारे में कोई सकारात्मक बात सुनी थी कि फलाँ डिपार्टमेंट के विद्यार्थियों ने ऐसा शोध किया, फलाँ डिपार्टमेंट के सर्वेक्षणों के नतीजों से सरकार ने नीतियाँ बनाईं और समाज में बदलाव आया। आपको याद नहीं आएगा क्योंकि एक दिन के छात्र चुनावों के नाम पर ये कैम्पस पूरे साल वामपंथी हिंसा की आग में जलते रहते हैं।

कभी यहाँ अफजल गुरु की बरसी मनाई जाती है, कभी कहीं हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए बीफ फेस्टिवल होता है, कभी किसी फिल्म की स्क्रीनिंग रोकने के लिए उत्पात मचाया जाता है, कभी चुनाव जीतने पर विरोधियों को डंडों और रॉड से पीटा जाता है तो कभी सिर्फ विरोधियों पर दवाब बना कर चुनाव में खड़े होने से रोकने के लिए मोलेस्टेशन का आरोप लगाया जाता है।

दुर्भाग्य से बस इसी में सिमट कर रह गए हैं कुछ विश्वविद्यालय। इनमें जेएनयू और जादवपुर लगातार चर्चा में बने रहते हैं। चर्चा में रहने का कारण हमेशा इनका छात्र संघ होता है। इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय भी चर्चा में रहता है, जिसे जिन्ना से अगाध प्रेम है और अलीगढ़ में रेलवे स्टेशन पर कोई ‘शांतिप्रिय’ ट्रेन से बाहर निकलने के लिए किसी से उलझता है तो उसे ये साम्प्रदायिक बनाने लगते हैं।

यूनिवर्सिटी छात्रसंघ नेता के बाप की जागीर नहीं होती

ताजा खबर यह है कि कल भारत सरकार के मंत्री बाबुल सुप्रियो जब जादवपुर यूनिवर्सिटी गए तो वहाँ के वामपंथी छात्र संगठनों ने न सिर्फ काले झंडे दिखाए बल्कि उससे अपना काम न होने पर अपने मूल चरित्र यानी हिंसा पर उतर आए। आप सोचिए कि एक मंत्री अपनी सुरक्षा के घेरे में चलता है लेकिन इन रक्तपिपासु वामपंथियों ने उन सब पर हमला बोल दिया और बाबुल सुप्रियो के बाल खींचे और धक्का-मुक्की की।

इसी तरह, साल भर पहले की बात है, जेएनयू में चारों वामपंथी पार्टियाँ अपने अस्तित्व को बचाने हेतु चार भेड़ियों की तरह नितम्ब चिपका कर साथ चुनाव लड़े और जीते, लेकिन जीत का जश्न मनाया एबीवीपी वालों पर हमला करते हुए। ऐसी खबरें हर महीने आती हैं इन जगहों से जहाँ ये यूनिवर्सिटी को अपने बाप की जागीर समझते हैं, और चुनाव जीतने पर खुद को छात्र संघ का अध्यक्ष कम और पूरे कैम्पस का मालिक ज्यादा मानते हैं।

आप यह सोचिए कि छात्र संघ का काम क्या है? छात्र चुनावों का औचित्य क्या है? दलील दी जाती है कि छात्र अपनी बात रखेंगे और यूनिवर्सिटी में उनकी बातें सुनी जाएँगीं। क्या उनकी बातों को सुनने के लिए प्रशासन नहीं है? या, जहाँ छात्र चुनाव नहीं होते वो कॉलेज या यूनिवर्सिटी चल ही नहीं पा रहे? क्या वहाँ आवाजों को दबाया जा रहा है?

गौर से देखने पर पता चलता है कि कुछ यूनिवर्सिटी में छात्र चुनाव सिर्फ और सिर्फ उत्पात मचाने के लिए, वामपंथी पार्टियों के भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए महज हिंसक काडर तैयार करने का एक जरिया बन कर रहा गया है। विरोध प्रदर्शन का मतलब होता है कि दुनिया के लोगों, हम इस बात के विरोध में हैं, हम नहीं चाहते कि रामदेव हमारे कैम्पस में आए। लेकिन यही छात्र नेता यह बात बहुत आसानी से भूल जाते हैं कि उन्हें भी आधे से कम लोगों का ही वोट मिला है, और चूँकि वो नेता है तो इसका यह कतई मतलब नहीं कि बाकी के विद्यार्थियों की अभिव्यक्ति या लोकतांत्रिक अधिकार खत्म।

आप यह जताइए कि जेएनयू या जादवपुर का मौजूदा छात्रसंघ रामदेव या बाबुल सुप्रियो के आने का विरोध करता है लेकिन उससे आगे आपको कोई हक नहीं है कार्यक्रम को रोकने का, किसी की फिल्म को दिखाना बंद करने का या हिंसा करने का। आपने आपत्ति की, वो दर्ज हो गई, अब जिसने उन्हें आमंत्रित किया है, उसे पूरा हक है कार्यक्रम को करने का।

यही तो लोकतंत्र है ना? इसी के बारे में तो विरोधी नेता राष्ट्रीय परिदृश्य में बातें करते हैं कि विपक्ष का स्वर कुचला जा रहा है? फिर, अपनी विरोधी विचारधारा द्वारा आमंत्रित फिल्म निर्देशक को, या नेता को, आप कैम्पस में आने से कैसे रोक रहे हैं? विरोध का अर्थ है विरोध दर्ज कराना, न कि यूनिवर्सिटी कैम्पस को अपनी प्राइवेट प्रॉपर्टी समझ कर, अपने छात्र नेता होने के नाम पर वहाँ रक्तपात करना। वामपंथी यही करते हैं ताकि अपने आकाओं की नजर में आ जाएँ कि ‘अरे, ये तो वही है जो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ करवा रहा था, इसको बुलाओ। टिकट दो इसको।’

वामपंथी प्राकृतिक तौर पर चरित्रहीन और हिंसक होते हैं

आईसा पार्टी का अध्यक्ष अनमोल रतन याद ही होगा जिसने एक लड़की को सीडी देने के बहाने बुलाया, और उसका अपने कमरे में बलात्कार किया। इसी तरह वामपंथियों के नए पोस्टर ब्वॉय लिंगलहरी कन्हैया कुमार याद होंगे जो कैम्पस को मूत्र विसर्जन स्थल समझ कर मस्ती में लहराते हुए लघुशंका मिटा रहे थे, और किसी लड़की ने मना किया तो धमकी दे बैठे। बाद में फाइन भी भरा।

इन्हीं की हिंसक राजनीति की बलि नजीब अहमद चढ़ गया जो लापता है। उसकी माँ को ये वामपंथी अपने मतलब साधने के लिए, रोहित वेमुला की माँ की तरह चुनावों के दौरान हर स्टेज पर ले गए, प्रोटेस्ट कराया, लेकिन ज्योंहि चुनाव खत्म हुए, उन्हें छोड़ कर निकल लिए। इनके पापों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है, कुल मिला कर यह मान लीजिए कि वामपंथियों ने कैम्पसों को तबाह कर रखा है।

यूनिवर्सिटी में पढ़ाई होनी चाहिए, शोध होना चाहिए। विरोध के स्वर और समर्थन के स्वर, दोनों को ही, समुचित जगह मिलनी चाहिए क्योंकि यूनिवर्सिटी वैचारिक उन्मुक्तता का केन्द्र होते हैं। यहाँ अगर छात्र-छात्राएँ देश-समाज की बातों पर चर्चा नहीं करेंगे तो फिर उनका दिमाग बंद रह जाएगा, जैसे कि वामपंथियों का हो जाता है। वामपंथी देश-समाज की बातों पर चर्चा नहीं करते, वो दिखाते हैं कि वो चर्चा कर रहे हैं।

इनका शुरू से ही एक ही मकसद रहा है कि किसी भी तरह नक्सलियों का काम चलता रहे, गरीब सैनिकों की, सुरक्षाबलों के गरीब जवानों के सामूहिक नरसंहार होते रहें। ये इन्हीं गरीबों की हत्या करते हैं, और बताते हैं कि सरकार गरीब-विरोधी है, इसलिए ये हथियार उठा रहे हैं। ये किसने कहा कि सरकार अगर गरीब विरोधी है भी, तो हथियार उठा लो और उन्हीं घरों को तबाह कर दो जिन्होंने गरीबी से उबरने के लिए सशस्त्र सेनाओं में नौकरी की थी?

क्या वो लोग गरीब नहीं थे? क्या वो आदिवासी गरीब नहीं होते जिन्हें ये वामपंथी नक्सली आतंकी सुरक्षाबलों से बचने के लिए आगे खड़े कर देते हैं? अंत में पता चलता है कि ये सब एक बहुत बड़ा ढोंग है। ये या तो आतंकी हैं, या आतंकियों के हिमायती हैं। पढ़ने-लिखने से इनको एक पैसा मतलब नहीं है और अपनी हिंसक बातों को ये ‘पीस कम्स थ्रू बैरल ऑफ गन’ से जस्टिफाय करते हैं क्योंकि ये चाहते तो बहुत हैं कि इनके बापों के नाम की जगह ‘लेनिन’ या ‘माओ’ लिख दिया जाए, लेकिन दोनों ही दुर्दान्त आतंकी पहले ही मर चुके हैं।

लोकतंत्र की आड़ में, लोकतंत्र का फायदा उठाने वाली आतंकी विचारधारा है वामपंथ

वामपंथ एक कोढ़ है जो चाहता है कि इस देश का एक-एक अंग गल कर टूटता रहे। इससे इसका कोई फायदा नहीं, ये बस चाहता है कि ऐसा हो। ये उस कुत्ते की तरह है जो कार के पीछे इसलिए भागता है क्योंकि दूसरे कुत्ते के मूत्र की गंध टायर से आती है। उसे यह पता है कि वो सिर्फ भौंक ही सकता है, कार रुक भी जाए तो वो टायर पर दाँत मार कर दाँत ही तोड़ेगा। लेकिन, वो दौड़ना और भौंकना नहीं छोड़ता।

इनका चरित्र तो देखिए कि पहले ये अलग हुए क्योंकि मार्कसवादियों को लेनिनवादियों की बात पसंद नहीं थी, फिर माओवादियों की अपनी समस्या थी, फिर दलित के नाम पर राजनीति चमकाने वाले आए… ‘लाल सलाम’ बस बीड़ी और गाँजा पीने के लिए ही दो-दो रुपए भीख माँगने के लिए प्रयुक्त हुआ करता था, ताकि लगे कि ‘भाई, हम अलग जरूर हैं अपने ‘काश हमारे बाप माओ होते, लेनिन होते, मार्क्स होते’ के नाम पर, लेकिन हमारे नितम्ब लाल हैं, ये ध्यान रहे।’

यही लाल नितम्ब समूह जब देखने लगा कि उसे अब कोई पसंद नहीं करता, तो बेचारे गठबंधन में आ गए। सारे भेड़िए एक साथ, जीभ से खून टपकता हुआ, देश-समाज को बर्बाद करने को आतुर। अचानक से सारे भेद भाव मिट गए। कार की टायर पर लेनिनवंशियों का मूत्र माओवंशियों को अब इत्र जैसा सुगंध दे रहा था, मार्क्स की नाजायज औलादों ने कहा ‘अहो-अहो! ऐसा मूत्र तो न कभी सूँघा, न विसर्जित किया माओनंदन!’ फिर एक साथ आ कर, छात्र-छात्राओं की समस्या देखने-समझने-सुलझाने के लिए नहीं, बल्कि किसी भी तरह चुनाव जीतने को इन्होंने अपना उद्देश्य बना लिया। अचानक से वो सारे सिद्धांत हवा हो गए जिसके आधार पर अलग-अलग बापों के नाम पर अलग-अलग पार्टियाँ बनी थीं।

हिंसा इनका एकसूत्री अजेंडा है

इन सबमें एक ही बात कॉमन है, हिंसा। ये सारी पार्टियाँ हिंसा को बढ़ावा देती हैं, अपने विरोध में उठे स्वर को ये चर्चा से नहीं काटते, बस काट देते हैं। केरल से बंगाल तक देख लीजिए कि वामपंथी हिंसा का शिकार कितने हजार लोग हुए हैं। यूनिवर्सिटी कैम्पसों में इनकी हिंसा बहुत आम है। अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है वामपंथी अभिव्यक्ति की आजादी, बाकियों को तो बोलने ही नहीं आता।

ये हैं हमारे देश के वो लोग जो भारत को तोड़ने की बातें करते हैं, सुनते हैं और कहते हैं कि ये तो विरोध के स्वर हैं, डिस्सेंट है। फिर लोकतंत्र की दुहाई देते हैं कि क्या इस देश में कोई नारा भी नहीं लगा सकता! यही तो फासीवाद है! अगर ये फासीवाद है, तो तुम जो हर बार करते हो अपने विरोधियों के साथ, वो क्या है? क्योंकि तुम भी दूसरों की बात सुनना नहीं चाहते, और जब संख्याबल में अधिक होते हो तो सरिया और हॉकी स्टिक उठाने से तुम एक बार भी नहीं हिचकिचाते।

तुम्हारा विरोध हो गया लोकतंत्र की परिभाषा, दूसरों का विरोध हो गया लोकतंत्र पर हमला! तुम गरीबों को गोली से इसलिए मार देते हो क्योंकि सरकार गरीबों का ध्यान नहीं रख रही। मतलब, सरकार गरीबी उन्मूलन करने में रहे और तुम गरीबों को ही घेर कर मारते रहो। उसके बाद जब तुम्हें घेर कर मारा जाए तो तुम्हें मार्मिक किस्से याद आते हैं कि उसका बाप हेडमास्टर था, उसकी माँ सिलाई मशीन चलाती थी, उसकी बहन स्कूल नहीं जा पाएगी! किस्से तो सारे ही मार्मिक होते हैं, लेकिन जिस रक्तपात को तुम जस्टिफाय करते हो, वो किसी भी तरह से मार्मिक नहीं।

इन यूनिवर्सिटी से निकले लोग, जो आज भी वामपंथ की चरमसुख देने वाली खुमारी में हैं, वो लिखते हैं कि ये फासिस्ट जानवर चर्चा के लायक ही नहीं, ये हमारी बात मानते ही नहीं। तो तुम क्या जज हो कहीं के? तुम हो कौन? तुम इन्हें चर्चा के लायक नहीं समझते इसलिए तुम रॉड निकाल लोगे, सर फोड़ दोगे? आगे कहते पाए जाते हैं कि ये फासिस्ट लॉजिक समझते ही नहीं! शोना बाबू, ऐसा है कि अगर कोई तुम्हारा लॉजिक नहीं समझता तो तुम्हारे लॉजिक में या समझाने के तरीके में खोट है, सामने वाले में नहीं।

अगर लॉजिक यह है कि तुमने कहा कि रामदेव या बाबुल कैम्पस में नहीं आएँगे, और सामने वाले ने पूछ दिया कि क्यों नहीं आएँगे? तो तुम ये नहीं कह सकते कि देखो, ये लॉजिक नहीं समझ रहे और फिर उत्पाती लोगों को लाठी-सरिया ले कर पीटने को छोड़ देते हो। ऐसे चर्चा नहीं होती, तुम्हारी पार्टी में यही चलता होगा, वो बात अलग है क्योंकि तुम तो कम्यून मानते हो न, तुम्हारे लिए जब देश है ही नहीं, तो फिर लोकतंत्र के तरीकों से तुम्हें क्या? तुम्हें तो लाइसेंस है कि ‘हम तो गरीबों की, सर्वहारा की बात कर रहे हैं’ कहते हुए हत्या करो, अपनी ही महिला काडरों का जंगलों में बलात्कार करो, और उसे कहो कि क्रांति में वो अपना सहयोग दे रही है।

कम्यूनिस्टों की लोकतंत्र में कोई जगह नहीं

जो लोग देश के कॉन्सेप्ट को ही नहीं मानते, जिनकी मूल भावना है कि हर क्षेत्र को स्वतंत्र होने का, अलग होने का अधिकार है, जो देश के टुकड़े होते देखना चाहते हैं, जो अपने देश की सशस्त्र सेनाओं पर सवाल खड़े करते हैं, जो चाहते हैं कि नक्सली इलाकों में कभी भी विकास न पहुँचे, जिनकी मंशा है कि उनके विरोधियों को कभी सत्ता मिले ही नहीं, जिनके लिए भारत के वो लोग मूर्ख हैं जो उन्हें नहीं चुनते, वो आखिर लोकतंत्र की दुहाई देते ही क्यों हैं?

जो वामपंथी ये मानने को तैयार ही नहीं कि देश की जनता ने लगातार एक पार्टी को वोट दिया है, जो उनकी समझ पर सवाल उठाते हैं, जनमत की इज्जत नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि मूर्खों ने मोदी को चुन लिया है, वो लोकतंत्र की हत्या या उसके जिंदा होने की बातों में क्यों उलझे हुए हैं?

तुम तो चाहते हो न कि लोगों की आवाज सुनी जाए? लोगों ने तो बार-बार वोट दे कर अपनी आवाज सुनाई है। वो तो हर दिन बताते हैं कि गरीबों को लिए बनाई गई तमाम योजनाओं का लाभ उन्हें लगातार मिल रहा है। वो तो कहते हैं कि सड़कों के पहुँचने से उनके जीवन में बदलाव आया है। तीन लाख करोड़ रुपए तो उन्हीं गरीबों का सीधे दिए जा रहे हैं। फिर तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि गरीबों की बात करने पर तुम्हारा कॉपीराइट है?

तुमने सत्ता में रह कर ऐसा क्या किया कि तुम्हें हर जगह से नकार दिया गया? अभी दो-तीन यूनिवर्सिटी में सिमटे हो, बाद में दो तीन डिपार्टमेंट में सिमट कर रह जाओगे, और अंत में किसी क्लास के मॉनीटर भी बन गए तो कहोगे कि सिर्फ वही लोग समझदार हैं जिन्होंने तुम्हें मॉनीटर चुना, बाकी पूरा क्लास, सारे डिपार्टमेंट, पूरा कॉलेज, पूरी यूनिवर्सिटी, पूरा जिला, राज्य और देश मूर्ख है जिसने उसकी विचारधारा को, उसकी पार्टी को नहीं चुना।

अब कोई मुझे बता दे कि ये कौन सा लोकतांत्रिक तरीका है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई राष्ट्रीय सरकार को तुम खारिज कर देते हो, और जब तुम पर इसी देश का कानून लगाया जाता है तो कहते हो कि तुम्हारी बात को फासीवादी लोग दबा रहे हैं, लेकिन जहाँ तुम छात्रसंघ जैसी संस्था के भी अध्यक्ष बन जाते हो, वहाँ तुम अपने विरोधियों के द्वारा बुलाए लोगों को कैम्पस में घुसने तक नहीं देते, हिंसा पर उतर आते हो! तुम क्या हो? तुम्हें कौन सा वाद कहा जाए! तुम लोकतंत्र के मवाद हो, जिसे पोंछ कर फेंकना बहुत जरूरी है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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