Saturday, July 27, 2024
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‘संपूर्ण क्रांति’ के जनक लोकनायक ने ऐसे तोड़ी ‘इंदु’ की सत्ता की हनक, जिस RSS पर चला था दमन का चक्र, वही आज कॉन्ग्रेस की दुखती रग

इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को प्रतिबन्धित करने का फैसला इंदिरा गाँधी को बहुत भारी पड़ा। हालाँकि उनका मानना था कि यह संगठन विपक्षी नेताओं का करीबी है तथा इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करने की सम्भावना रखता था।

भारत की आजादी का जब भी जिक्र होता है तो सबसे पहले और सबसे प्रमुखता से महात्मा गाँधी का भी जिक्र आता है, ऐसे ही जब बात देश की दूसरी आजादी का हो तो इसका सबसे बड़ा श्रेय ‘लोकनायक’ जयप्रकाश नारायण को जाता है। दूसरी आजादी अर्थात देश में कॉन्ग्रेस पार्टी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की ओर से थोपे गए आपातकाल का खात्मा और लोकतंत्र की पुनः बहाली। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को नवजीवन देने वाले, सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद भी जब वे 1974 में ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ के नारे के साथ मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा। ऐसे जयप्रकाश यानी जेपी का जन्म आज ही के दिन 11 अक्टूबर, 1902 को हुआ था।

राजनीतिक इतिहास के कई जानकार बताते हैं कि नेहरू अपने मंत्रिमंडल में जेपी को जगह देना चाहते थे, कुछ जानकारों का कहना है कि गृहमंत्री का पद भी ऑफर किया गया था, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया था। जेपी ने सत्ता से दूर रहना चुना। यहीं से यह बात भी दृढ़ हो जाती है कि जयप्रकाश नारायण को पद और सत्ता का मोह नहीं था शायद यही कारण है कि नेहरू की कोशिश के बावजूद वह उनके मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए। लेकिन वह सत्ता में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहते थे। यही वजह है जब 1973 में देश इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में मँहगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त था। तब उन्होंने आगे बढ़कर ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। जिसकी शुरुआत गुजरात से हुई तो बिहार में बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। तब बिहार में जेपी आंदोलन से भयभीत तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने गोलियाँ तक चलवा दीं। कहते हैं तीन हफ्ते तक हिंसा जारी रही और अर्द्धसैनिक बलों को बिहार में मोर्चा सँभालना पड़ा था।

नेहरू द्वारा ऑफर सत्ता में भागीदारी को ठुकराकर यद्यपि जेपी सरकार, मंत्रिमंडल तथा संसद का हिस्सा नहीं रहे, लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता बनी रही। इन्होंने ट्रेड यूनियन के अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष किया तथा कामगारों के लिए न्यूनतम वेतन, पेंशन, चिकित्सा-सुविधा तथा घर बनाने के लिए सहायता जैसे जरूरी मुद्दे लागू कराने में सफल हुए।

सत्ता से दूरी बनाए रखने के लिए ही 19 अप्रैल 1954 को जेपी ने एक असाधारण-सी घोषणा करते हुए बताया कि वह अपना जीवन विनोबा भावे के सर्वोदय आन्दोलन को अर्पित कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए हजारीबाग में अपना आश्रम स्थापित किया जो कि पिछड़े हुए गरीब लोगों का गाँव था। यहाँ उन्होंने गाँधी के जीवन-दर्शन को आधुनिक पाश्चात्य लोकतन्त्र के सिद्धान्त से जोड़ दिया। इसी विचार की उनकी पुस्तक ‘रिकंस्ट्रक्शन ऑफ इण्डियन पॉलिसी’ प्रकाशित हुई। इसी किताब ने आगे आने वाले कई घटनाक्रमों और जेपी को मैग्सेसे पुरस्कार के लिए चुने जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

खासतौर से जयप्रकाश नारायण को वर्ष 1977 में हुए ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन के लिए जाना जाता है इसपर बात आगे होगी लेकिन वह इससे पहले भी कई आंदोलनों में शामिल रहे थे। उन्होंने कॉन्ग्रेस के अंदर सोशलिस्ट पार्टी योजना बनाई थी और कॉन्ग्रेस को सोशलिस्ट पार्टी का स्वरूप देने के लिए आंदोलन भी शुरू किया था। इतना ही नहीं जेल से भाग कर नेपाल में रहने के दौरान उन्होंने सशस्त्र क्रांति भी शुरू की थी। इसके अलावा वह किसान आंदोलन, भूदान आंदोलन, छात्र आंदोलन और सर्वोदय आंदोलन सहित कई छोटे-बड़े आंदोलनों में शामिल रहे और उन्हें अपना समर्थन देते रहे।

इतने आंदोलनों और देश की आजादी में योगदान देकर भी सत्ता से दूरी बनाए रखने वाले जेपी को रूस की गतिविधियों पर नजर बनाए रखने के कारण यह बात समझ में आ गई थी कि कम्युनिज्म भारत के लिए सही राह नहीं है। उनका मानना था हिंसक क्रन्ति हमेशा किसी न किसी रूप में तानाशाही को जन्म देती है। क्रांति के बाद विशेषाधिकार युक्त शासकों और शोषकों का एक नया वर्ग तैयार हो जाता है और आगे चलकर जनता मोटे तौर पर एक बार पुन: प्रजा बनकर रह जाती है।

यही वजह है जब वे इंदिरा गाँधी की निरंकुशता के विरुद्ध आंदोलन के लिए उतरे तो उस समय भी ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नाम देने के बावजूद भी उन्होंने शसस्त्र आंदोलन का रास्ता नहीं चुना। जय प्रकाश नारायण, उस समय की परिस्थियाँ और कॉन्ग्रेस की इंदिरा गाँधी सरकार की नीतियों को समझने के लिए थोड़ा पीछे से शुरू करते हैं। जब वर्ष 1971 जयप्रकाश नारायण ने नक्सली समस्या का समाधान निकाल कर तथा चम्बल में डाकुओं के आत्मसमर्पण में अगुवा की भूमिका निभा कर अपने नेतृत्व और संगठन की क्षमता का एक बार पुनः परिचय दिया और 8 अप्रैल 1974 को 72 वर्ष की आयु में एक अदभुत नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन करते हुए जब उन्होंने इंदिरा के खिलाफ बिगुल फूँका तो जीत के शंखनाद पर ही विराम लिया।

5 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान के एक जनसभा में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ की अवधारणा को समझाते हुए जेपी ने कहा, “यह एक क्रान्ति है, दोस्तो! हमें केवल एक सभा को भंग नही करना है, यह तो हमारी यात्रा का एक पड़ाव भर होगा। हमें आगे तक जाना है। आजादी के सत्ताइस बरस बाद भी देश भूख, भ्रष्टाचार, महँगाई, अन्याय तथा दमन के सहारे चल रहा है। हमें सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए उससे कम कुछ नहीं…”

लोकनायक ने कहा कि संपूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति होती है। जेपी के इस संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में इंदिरा गाँधी को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जेपी की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। देखते ही देखते बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। उस समय जेपी घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।

आपात काल की पृष्ठभूमि

25 जून 1975, को इंदिरा गाँधी ने जब देश में आपातकाल लगाया तो आजाद भारत के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे काले अध्‍याय की शुरुआत इसी दिन हुई और अगले करीब दो साल तक देश ने इंदिरा के नेतृत्व में निरंकुश सत्ता की हनक और दमन का एक नया रूप देखा जिसने ब्रिटिश राज के पुराने गहरे जख्‍म को फिर से हरा कर दिया था। आखिर इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लगाने का फैसला क्‍यों किया? इस सवाल के जवाब की शुरुआत भी जून 1975 से ही होती है। उस महीने में देश का घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि इतिहास की कई किताबें सिर्फ उन्‍हीं 30 दिनों के विवरण के आधार पर लिखीं गई हैं। आखिर उस महीने में ऐसा क्‍या हुआ था?

1971 के चुनाव में इंदिरा गाँधी से हारने वाले राज नारायण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में केस दायर किया। इंदिरा पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था। तब पहली बार कोई प्रधानमंत्री देश की अदालत के भीतर कटघरे में थी। 12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहनलाल सिन्‍हा ने इंदिरा को दोषी करार दिया। बता दें कि यह फैसला भारतीय न्‍यायपालिका के इतिहास में मील का पत्‍थर माना जाता है। हालाँकि, 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने शर्तो के साथ इस फैसले पर स्‍टे लगा दिया और इंदिरा को पीएम बने रहने की इजाजत दे दी मगर विपक्ष कुछ सुनने को तैयार नहीं था। फिर इंदिरा गाँधी के विरोध का ऐसा दौर शुरू हुआ जो 25 जून 1975 को अपने चरम पर पहुँच गया था।

कोर्ट के फैसले के बाद, जेपी ने इंदिरा से गद्दी छोड़ने को कहा। 25 जून 1975 की शाम को नई दिल्‍ली के रामलीला मैदान का नजारा बदला हुआ था। कॉन्ग्रेस के विरोध में लाखों लोग वहाँ जमा थे उस जगह एक साथ इतने लोग इससे पहले कभी नहीं जुटे थे। यही वो जगह थी जब जेपी ने बुलंद आवाज में राष्‍ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर पंक्तियाँ कहीं, “सिंहासन खाली करो क‍ि जनता आती है…” उस रैली को मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर जैसे कई नेताओं ने भी सम्बोधित किया था। जेपी ने यहीं से इंदिरा से कुर्सी छोड़ने को कहा। जेपी ने सेना और पुलिस से असंवैधानिक और अनैतिक आदेश मानने से इनकार करने का आह्वान भी किया।

वो रैली इतनी विशाल थी कि उसकी गूँज सीधे PM आवास में बैठीं इंदिरा को डरा रही थी। जानकारों की मानें तो इंदिरा को यहाँ तक लगता था कि विदेशी ताकतों की मदद से जेपी देश में आंदोलन चला रहे हैं, जो उनकी कुर्सी छीन सकता है। उस दिन जब यह रैली रात 9 बजे खत्‍म हुई, तबतक इंदिरा समझ चुकी थीं कि देश का माहौल उनके खिलाफ हो चुका है। सत्ता में बने रहने का कोई और रास्‍ता न देख उन्‍होंने आपातकाल लगाने का फैसला किया।

आधी रात से थोड़ी देर पहले, राष्‍ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। यह इंदिरा की हनक ही थी कि उसी रात आपातकाल लागू करने के आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले भी राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने भी कोई प्रश्न नहीं पूछा। राष्ट्रपति ने आंतरिक गड़बड़ी से देश की सुरक्षा को खतरा बताकर यह इमरजेंसी लागू कर दी थी। इसके लिए सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक हुई और इमरजेंसी लागू करने की सिफारिश राष्ट्रपति से की गई और एक घंटे के अंदर सुबह 7 बजे राष्ट्रपति ने इमरजेंसी के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।

अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई। विपक्ष के नेता हिरासत में ले लिए गए। 26 जून की सुबह इंदिरा गाँधी ने रेडियो पर आपातकाल की जानकारी दी। इमरजेंसी के निडर विरोधियों में जेपी के बाद रामनाथ गोयनका का नम्बर आता है। उस दौरान बहुत से समाचार पत्रों ने भी कॉन्ग्रेस के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था। सिर्फ दो राष्ट्रीय पत्रों- इंडियन एक्सप्रेस एवं स्टेट्समैन ने झुकने से इनकार कर दिया था। 28 जून को अखबारों ने पन्‍ने खाली छोड़कर अपना विरोध जताया।

इससे पहले 1971 में भी विदेशी ताकतों से खतरे को लेकर इमरजेंसी लगाई गई थी। लेकिन वह पूर्वी बंगाल को पाकिस्तान से आजाद करवाने का दौर था जिससे बांग्लादेश के रूप में एक नए देश का उदय हुआ। लेकिन 1975 में लागू इमरजेंसी उससे बिलकुल अलग थी। आपातकाल लागू करने के बाद सबसे पहले जेपी को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद दो बजे रात में मोरारजी देसाई को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद तड़के 6.45 बजे कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष अशोक मेहता को उनके घर से गिरफ्तार किया गया। फिर तो पूरे देश में दमनचक्र शुरू हो गया और बेंगलुरु से लाल कृष्ण आडवाणी को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

इमरजेंसी के दौरान जिस तरह से नागरिकों के अधिकारों का हनन किया गया, उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। इतनी बड़ी संख्या में हुई गिरफ्तारियाँ 1942 में भारत छोड़ों आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश अत्याचारों की याद दिलाती थीं। जेपी की बहादुरी के कारनामों ने उन्हें राष्ट्र नायक, लोकनायक बना दिया था। विपक्ष के चुनौती देने वाले हर व्यक्ति को आन्तरिक सुरक्षा कानून (मीसा) के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया था। आरएसएस के लोग उनके खास निशाने पर थे। यह पूरा अभियान प्रधानमंत्री आवास पर संजय गाँधी, इन्दिरा गाँधी के विश्वासपात्र, गृह मंत्रालय के गृहराज्यमंत्री ओम मेहता और उनके निजी सचिव आरके धवन की देख रेख में संचालित हो रहा था।

संजय और इंदिरा गाँधी

इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को प्रतिबन्धित करने का फैसला इंदिरा गाँधी को बहुत भारी पड़ा। हालाँकि उनका मानना था कि यह संगठन विपक्षी नेताओं का करीबी है तथा इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करने की सम्भावना रखता था। सत्ता का इशारा पाकर पुलिस इस संगठन पर टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को कैद कर लिया गया। आरएसएस ने प्रतिबंध को चुनौती दी और हजारों स्वयंसेवकों ने प्रतिबंध के खिलाफ और मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सत्याग्रह में भाग लिया। इसी दौरान एक युवा आरएसएस कार्यकर्ता के रूप में नरेंद्र मोदी भी रेखांकित होते हैं।

जेपी और छह सौ से भी ज्यादा सत्ता विरोधी नेताओं को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया गया। हिरासत में लिए जाने से पहले जेपी को संस्कृत की एक उक्ति उद्धत करते हुए पाया गया- ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि।’ हालाँकि जेल में जेपी की तबीयत ज्यादा खराब होने लगी, 7 महीने बाद उनको रिहा कर दिया गया। जेल से बाहर आकर भी जेपी ने हार नहीं मानी। तो इंदिरा गाँधी ने भी अगले 21 महीनों तक कई दमनकारी कदम उठाए।

इंदिरा गाँधी से टकराव

इंदिरा गाँधी से इस टकराव का उन्होंने अपनी डायरी में भी वर्णन किया है। कैद में 4 सप्ताह गुजारने के बाद उन्होंने 21 जुलाई से डायरी लिखनी शुरू की थी। उसी दिन प्रधानमंत्री के नाम लिखे उनके पत्र में पश्चाताप का कोई नामो-निशान नहीं था। यह औपचारिक रूप से ‘इन्दु’ (जेपी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे।) को ही संबोधित था।

जेपी ने जेल से लिखा इंदिरा को पत्र

“प्रिय प्रधानमंत्री, समाचार पत्रों में आपके भाषणों और साक्षात्कारों की रपट पढ़कर मैं विस्मित हूँ (आपने जो कुछ किया है, उसका औचित्य सिद्ध करने के लिए आपको हर रोज कुछ न कुछ कहना पड़ता है। यही आपके अपराधी मानस का परिचायक है)। समाचार पत्रों का मुँह बन्द कर तथा हर प्रकार की मतभिन्नता पर रोक लगाकर और इस प्रकार आलोचना के भय से सर्वथा मुक्त होकर आप विकृत तथ्यों एवं झूठी बातों का प्रचार कर रही हैं। अगर आप सोचती हैं कि ऐसा करके आप जनता की नजर में खुद को सही साबित कर सकेंगी और विपक्ष को राजनीतिक दृष्टि से खत्म कर सकेंगी, तो आप भारी मुगालते में हैं। यदि आपको कोई संदेह हो तो आपातकाल समाप्त कर, जनता को मौलिक अधिकार और समाचार पत्रों को उनकी आजादी वापस देकर देख लीजिए। और जिन लोगों को आपने बिना किसी अपराध के… क्योंकि उन्होंने अपने देशभक्ति के कर्तव्य को पूरा करने के अलावा कोई अपराध नहीं किया है… बन्दी बना रखा है, उनको रिहा करके इसकी परीक्षा कर लीजिए। नौ साल का समय कम नहीं होता मैडम! जनता की छठी इन्द्रिय शक्ति ने आपको पहचान लिया है। चूँकि मुख्य अपराधी मैं ही हूँ, इसलिए मैं पूरी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा। इसमें संभवतः आपकी कोई रूचि नहीं होगी, क्योंकि आपने तो जानबूझकर विकृत तथ्यों और झूठी बातों का प्रचार किया है। परन्तु जो सच है, वह तो लिपिबद्ध हो जाए… आपके शासन में एक बन्दी के रूप में मैं भी सन्तोषपूर्वक मरूँगा।”

इमरजेंसी में देश की स्थिति राजतंत्र जैसी हो गई थी और इसी बीच इंदिरा गाँधी के पुत्र संजय गाँधी ने सितंबर 1976 में देश भर में अनिवार्य पुरुष नसबंदी का आदेश भी लागू कर दिया। इसके अंतर्गत लोगों की इच्छा के विरुद्ध उनके घरों से या राह चलते उठाकर जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। इसी दौरान संजय गाँधी की करीबी रुखसाना सुल्ताना का नाम भी उभरा जिन्हें पुरानी दिल्ली के मुस्लिम क्षेत्रों में नसबंदी अभियान के नेतृत्व और बुलडोजर चलवाने में बदनामी मिली।

इसी तरह की तमाम दमनकारी नीतियों के बावजूद हालात बिगड़ते गए भारी दबाव के बीच 18 जनवरी 1977 को इन्दिरा गाँधी ने लोकसभा भंग करते हुए मार्च मे लोकसभा चुनाव की घोषणा की और सभी राजनैतिक बन्दियों को रिहा करने का निर्णय लिया और आखिकार 21 मार्च, 1977 को आधिकारिक रूप से आपातकाल हटा लिया गया। इस प्रकार 1977 में जेपी की अगुआई में इंदिरा गाँधी का किला ढह गया। वे खुद भी चुनाव हार गईं। जनता पार्टी का गठबंधन 345 सीटें जीतकर सत्‍ता में आ गया। कई मीडिया रिपोर्ट तो यह भी बताते हैं कि जेपी की वजह से ही ‘आयरन लेडी’ कही जानें वाली इंदिरा गाँधी रोने तक पर मजबूर हो गईं थीं।

इस प्रकार जेपी के प्रयासों से देश में पहली बार एक गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार बनी। उस समय जयप्रकाश ने कहा कि जनता पार्टी की यह सरकार मेरी कल्पना की संपूर्ण क्रांति को साकार करने वाली सरकार नहीं है क्योंकि वह परिकल्पना किसी सरकार के बूते साकार नहीं हो सकती है। इसलिए बीमार व बूढ़े जयप्रकाश ने अपनी क्रांति की फौज अलग से सजाने की तैयारी शुरू की और दिल्ली की नई सरकार को एक साल का समय दिया। कहा, इस अवधि में मैं आपकी आलोचना आदि नहीं करूँगा लेकिन देखूँगा कि जनता से हमने जो वादा किया है, आप उसकी दिशा में कितना और कैसे काम कर रहे हैं। एक साल के बाद मैं आगे की रणनीति बनाऊँगा।

इस प्रकार व्यापक स्टार पर देखा जाए तो देश में आजादी की लड़ाई से लेकर वर्ष 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी। मुलायम सिंह यादव, लालमुनि चौबे, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, दिवंगत रामविलास पासवान, रविशंकर या फिर सुशील मोदी, आज के सारे नेता जेपी के उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे। इनमें से कुछ ने आगे चलकर कुछ नए दल बनाए तो कुछ दूसरे स्थापित पार्टियों में शामिल हो गए।

लोकनायक

लोकनायक के शब्द को असलियत में चरितार्थ करने वाले जयप्रकाश नारायण अत्यंत समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ-साथ उनकी छवि अत्यंत शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। उनका समाजवाद का नारा आज भी हर तरफ गूँज रहा है लेकिन उसकी धार जाती रही। उनके नारे पर राजनीति करने वाले उनके सिद्धान्तों को भूल गए, क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा एवं आन्दोलन जिन उद्देश्यों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिए किया था, वे सारी बुराइयाँ इन राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं में व्याप्त हैं।

कुल मिलाकर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रही। उसमें अनेक पड़ाव आए, उन्होंने भारतीय राजनीति को ही नहीं बल्कि आम जनजीवन को भी एक नई दिशा दी, नए मानक गढ़े। जैसे- भौतिकवाद से अध्यात्म, राजनीति से सामाजिक कार्य तथा जबरन सामाजिक सुधार से व्यक्तिगत दिमागों में परिवर्तन। वे विदेशी सत्ता से देशी सत्ता, देशी सत्ता से व्यवस्था, व्यवस्था से व्यक्ति में परिवर्तन और व्यक्ति में परिवर्तन से नैतिकता के पक्षधर थे। वे समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए अथक प्रयत्न भी किए। जिसकी बानगी भले ही बीच के सालों में गायब रही लेकिन तमाम योजनाओं और जमीनी कार्यों के माध्यम से मौजूदा मोदी सरकार में उसकी झलक मिलती है।

उनका संपूर्ण जीवन भारतीय समाज की समस्याओं के समाधानों के लिए प्रकट हुआ। उन्होंने भारतीय समाज के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सार्वजनिक जीवन में जिन मूल्यों की स्थापना वे करना चाहते थे, वे मूल्य बहुत हद तक देश की राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार्य नहीं थे। क्योंकि ये मूल्य राजनीति के तत्कालीन ढाँचे को चुनौती देने के साथ-साथ स्वार्थ एवं पदलोलुपता की स्थितियों को समाप्त करने के पक्षधर थे, राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता की स्थापना उनका लक्ष्य था, राजनीति को वे सेवा का माध्यम बनाना चाहते थे न कि भोग और लोलुपता का।

लोकनायक के जीवन की विशेषताएँ और उनके व्यक्तित्व के आदर्श विलक्षण हैं जिसकी वजहसे वे भारतीय राजनीति के नायकों में अलग स्थान रखते हैं। उनका सबसे बड़ा आदर्श था जिसने भारतीय जनजीवन को गहराई से प्रेरित किया, वह था कि उनमें सत्ता की लिप्सा नहीं थी, मोह नहीं था, वे खुद को सत्ता से दूर रखकर देशहित में सहमति की तलाश करते रहे और यही एक देशभक्त की त्रासदी भी रही थी। वे कुशल राजनीतिज्ञ भले ही न हो किन्तु राजनीति की उन्नत दिशाओं के पक्षधर थे, प्रेरणास्रोत थे। वे देश की राजनीति की भावी दिशाओं को बड़ी गहराई से महसूस करते थे। यही कारण है कि राजनीति में शुचिता एवं पवित्रता की निरंतर वकालत करते रहे।

इमरजेंसी में देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले महान नेता जयप्रकाश नारायण को बीमारी की हालत में जिस तरह से जेल में तनहाई में रखा गया उसने उनके शरीर को और भी जर्जर कर दिया था। उससे कॉन्ग्रेसी सरकार की क्रूरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। गाँधी जी के समान वे भी दुर्बल शरीर के थे और गाँधी जी की ही भाँति उन्होंने भी पाप की शक्तियों पर बड़े शानदार ढंग से पुण्य की शक्तियों को विजय दिलाई।

आन्दोलन के दौरान ही उनका स्वास्थ्य बिगड़ना शुरू हो गया था। आपातकाल में जेल में बंद रहने के दौरान उनकी तबियत अचानक ख़राब हो गयी और उन्हें रिहा कर दिया गया। मुंबई के जसलोक अस्पताल में जाँच के बाद पता चला की उनकी किडनी ख़राब हो गई थी जिसके बाद वो डायलिसिस पर ही रहे। इस प्रकार दूसरी क्रांति के अग्रदूत जयप्रकाश नारायण का निधन 8 अक्टूबर, 1979 को पटना में मधुमेह और ह्रदय रोग के कारण हो गया।

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
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