Thursday, April 25, 2024
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लाहौर में हिंदुओं और सिखों का हो रहा था कत्लेआम, गाँधी ने कहा था – ‘नहीं भागिए… आपकी मृत्यु की खबर मुझे बुरी नहीं लगेगी’

"यदि ऐसा लगता है कि आपकी मृत्यु लाहौर में ही होगी... तो इससे दूर नहीं भागिए। मृत्यु का सामना कीजिए। यदि ऐसी ख़बरें आती हैं कि पंजाबियों ने धैर्यपूर्वक मृत्यु का सामना किया, तो मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा..."

कॉन्ग्रेस पार्टी में लोकमान्य तिलक का जाना एक तरह से गाँधी नामक अध्याय का उदय माना जाएगा। जनवरी 1995 में गाँधी जी अफ्रीका से भारत वापस आए, और भारतीय राजनीति में एक नए तूफ़ान का आरम्भ हुआ।

इसके पहले लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों की कठपुतली रही कॉन्ग्रेस पार्टी को ‘जनता का आंदोलन’ बनाने का भरपूर प्रयास किया। तिलक स्वयं भी सामान्य जनता के नेता कहे जाने लगे। परन्तु फिर भी उस समय तक कॉन्ग्रेस के दूसरे नेता उच्चवर्णीय तथा उच्चवर्गीय लोगों की गिनती में आते रहे। इन कॉन्ग्रेस नेताओं को सर्वसामान्य जनता के बीच मिलजुलकर काम करने की ना तो इच्छा थी और न ही जानकारी।

यह परंपरा गाँधीजी ने खंडित कर दी। उन्होंने कॉन्ग्रेस पार्टी में उथल-पुथल मचाकर रख दी। 1921 आते-आते, कॉन्ग्रेस के सभी सूत्र उनके हाथों में आ गए। इससे पहले पाँच-छः वर्ष गाँधीजी ने भारतीय आंदोलन का गणित समझने में व्यतीत किए।

गाँधीजी के राजनीति में आगमन से पहले कॉन्ग्रेस द्वारा कोई बड़ा आंदोलन किया हो ऐसा इतिहास में दिखाई नहीं देता। गाँधी से पहले वाले कालखंड में हुआ सबसे बड़ा आंदोलन था ‘बंग-भंग आंदोलन’। परन्तु वास्तव में यह आंदोलन कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में नहीं हुआ था। 1905 से 1911 के इन छः वर्षों में चले इस आंदोलन में कॉन्ग्रेस का एक राजनैतिक संगठन अथवा पार्टी के रूप में कोई योगदान नहीं था। इस दौरान कुछ समय के लिए तिलक मंडाले (ब्रम्ह्देश – बर्मा) के जेल में बन्द थे।

के कुछ कार्यकर्ताओं ने इस आंदोलन को सक्रिय समर्थन दिया था, परन्तु वह केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही था। विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का आंदोलन भी कॉन्ग्रेस का आंदोलन कभी नहीं था। 1915 में जब लोकमान्य तिलक और एनी बेसेन्ट ने ‘होमरूल आंदोलन’ चलाया, तब वह तेजी से आग की तरह फैला। परन्तु इतना होने पर भी वह आंदोलन सामान्य जनता के दिलों का विशाल आंदोलन नहीं बन सका।

1914 में जब गाँधी भारत पहुँचे, तब उनके समक्ष ऐसा राजनैतिक दृश्य था। एका पक्का था, जब तक कॉन्ग्रेस का नेतृत्व हाथों में नही आएगा, तब तक भारत में कुछ भी करना संभव नही हैं, ऐसा वे समझ चुके थे। गाँधी की राजनैतिक संपत्ति के रूप में, उनका दक्षिण अफ्रीका में एकमात्र आंदोलन ही था। जिसमें उन्हें आंशिक विजय प्राप्त हुई थी, परन्तु वह बस उतने तक ही सीमित था.।जबकि भारत में राजनीति करने वाले कॉन्ग्रेस के राजनेता ‘टाईमपास राजनीतिज्ञ’ के रूप में कॉन्ग्रेस में रुचि दिखा रहे थे।

इसलिए ऐसे माहौल में गाँधीजी को पहले स्वयं को सिद्ध करना आवश्यक था। गाँधी ने वही किया। बिहार के चम्पारण में नील की खेती करने वाले अनेक किसान थे, जिनकी परिस्थिति बहुत ही बुरी थी। समाचारपत्रों में उनके बारे में पढ़कर एवं राजकुमार शुक्ल के निमंत्रण पर गाँधी ने चम्पारण जाने का निर्णय लिया। उन्होंने सोचा था कि वहाँ पर वे 3-4 दिन रहेंगे और परिस्थिति का आकलन करके वापस आ जाएँगे।

परन्तु गाँधी वहाँ गए और वहाँ की मिट्टी और मुद्दों से एकाकार हो गए। तीन-चार दिनों में वापस आने का विचार करते-करते उन्हें वहाँ तीन-चार महीने हो गए। चंपारण में उन्होंने भारत की भूमि पर पहली बार अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ अपना ‘सत्याग्रह’ नामक शस्त्र निकाला। उनका यह आंदोलन किसके विरुद्ध था? राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे भूमिहार लोगों के विरुद्ध ही। परन्तु यह लोग जल्दी ही गाँधी जी के अनुयायी बन गए। गाँधी जी का एक विलक्षण रूप कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं ने देखा, और चम्पारण के उस सत्याग्रह से गाँधी का नाम चल निकला।

चम्पारण के बाद गुजरात के खेडा में संघर्ष और इसके बाद अहमदाबाद के कारखानों में मजदूरों की हड़ताल जैसे काम गाँधी ने अपने हाथ में लिए। कॉन्ग्रेस की मदद अथवा सहभागिता के बिना किए गए इन तीन आन्दोलनों से गाँधी नामक नेतृत्व का चमकदार स्वरूप निखर गया। वल्लभभाई पटेल, नरहरी पारीख, उत्तम सोमाणी, महादेवभाई देसाई, इंदुलाल याज्ञिक जैसे अनेक अनुयायी उन्हें गुजरात से मिल गए। तिलक और एनी बेसेन्ट द्वारा खड़े किए गए ‘होमरूल आंदोलन’ के सभी कार्यकर्ता गाँधी के असीम भक्त बन गए। और यह इतना बढ़ा कि आगे चलकर 1920 में गाँधी जी को भारतीय होमरूल लीग का अध्यक्ष बना दिया गया। आगे गाँधी जी की सलाह पर ही होमरूल लीग का कॉन्ग्रेस में विलय कर दिया गया।

इन तीनों आन्दोलनों में गाँधी जी ने अपना मैनेजमेंट कौशल दिखाया और उपयोग किया। दक्षिण अफ्रीका में किए गए आंदोलन का अनुभव उनके साथ था। इसलिए इन तीनों आन्दोलनों को उन्होंने व्यवस्थित एवं सुसूत्र पद्धति से चलाया और परिणामस्वरूप उनकी राजनैतिक झोली में बहुत कुछ आ गया।

गाँधी की राजनैतिक समझ बहुत ही अचूक थी। उन्हें पक्का विश्वास था कि कॉन्ग्रेस को उनकी तरफ ध्यान देना ही पड़ेगा, और वैसा हुआ भी। 1921 में कॉन्ग्रेस के सभी सूत्र गांधी के नियंत्रण में आ गए और अपेंडिक्स के ऑपरेशन की वजह से मात्र दो वर्ष में ही जेल से छूटकर बाहर आने के पश्चात, 1924 में कॉन्ग्रेस के बेलगांव अधिवेशन में वे अध्यक्ष के रूप में विराजित हो गए।

और फिर इसके बाद जो सारा इतिहास है वह गाँधी जी द्वारा अपने साथ खींचकर ले जाई गई कॉन्ग्रेस का इतिहास है। 1924 के बाद भले ही वे कॉन्ग्रेस के पदाधिकारी नहीं थे, परन्तु फिर भी सर्वेसर्वा थे। कॉन्ग्रेस उनके मतानुसार ही चलती थी।

यही गाँधी जी की विशिष्टता थी। अगले पूरे तेईस वर्ष उन्होंने अपनी जिद और आग्रहों से कई निर्णय लिए। दूसरी भाषा में कहें तो गाँधी जी ने अपनी एकाधिकारवादी मनोवृत्ति कॉन्ग्रेस पर अर्थात एक तरह से सम्पूर्ण देश पर थोपे रखी।

वर्ष 1938 में कॉन्ग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाषचन्द्र बोस अध्यक्ष के रूप में चुनकर आए। यह चुनाव सर्वानुमति से किया गया था और ज़ाहिर है कि गाँधी का भी इसे समर्थन था। परन्तु सुभाष बाबू की कार्यपद्धति स्वतन्त्र निर्णय लेने वाले व्यक्ति की थी, इसलिए उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिए। यहाँ तक कि डॉक्टर कोटनीस के नेतृत्व में चिकित्सकों की एक टीम को चीन भेजने का निर्णय भी उनकी अध्यक्षता में लिया गया।

गाँधी असहज महसूस करने लगे, क्योंकि उन्हें तो सुभाष बाबू से पहले वाले कॉन्ग्रेस अध्यक्षों की आदत थी, जो प्रत्येक निर्णय गाँधी से पूछकर किया करते थे। 1936 और 1937 में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष थे। वे अपने सभी निर्णय गाँधीजी से पूछकर किया करते थे। इसलिए जब सुभाष बाबू ने 1939 के त्रिपुरी (जबलपुर) के कॉन्ग्रेस अधिवेशन में पुनः कॉन्ग्रेस अध्यक्ष चुनाव लड़ने की घोषणा की, तब गाँधी ने उनका विरोध किया। उन्होंने अध्यक्ष पद हेतु पहले नेहरू का नाम आगे किया। परन्तु नेहरू उस समय, हाल ही में अपनी लंबी यूरोप की छुट्टियाँ बिताकर भारत लौटे थे। इसलिए उन्होंने इनकार कर दिया। इसके बाद मौलाना आज़ाद ने भी अध्यक्ष बनने से मना कर दिया।

तब गाँधी ने डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया नामक आंध्रप्रदेश के नेता के नाम की घोषणा कर दी। गाँधी ने सभी कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं से कहा कि नाम भले ही पट्टाभि सीतारमैया का है, परन्तु अपना वोट यही समझकर दें कि मैं ही चुनाव लड़ रहा हूँ।

गाँधी के दुर्भाग्य से डॉक्टर पट्टाभि सीतारमैया 203 वोटों से चुनाव हार गए और सुभाषचंद्र बोस त्रिपुरी कॉन्ग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में चुन लिए गए। हालाँकि कॉन्ग्रेस वर्किंग कमेटी में गाँधी के अनुयायियों का ही बहुमत था, इसलिए तमाम अडंगों के बीच सुभाष बाबू कोई भी काम ठीक से नहीं कर सके, और उन्होंने केवल दो माह बाद ही अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उनके स्थान पर डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को नामांकित किया गया, जो कि गाँधी के परम भक्त ही थे।

यह तो काफी बाद की बात है। परन्तु इससे पहले भी चाहे आश्रम के दैनिक कामकाज हों, अथवा किसी भी आंदोलन की रूपरेखा हो… हर बार, हर स्थान पर गाँधी जी ने उनके अंतर्मन में आए हुए सन्देश को ही प्रमाण माना और वैसे ही मनमाने निर्णय लेते रहे।

मराठी में एक शब्द है, ‘व्यामिश्र’… गाँधी जी के पूर्ण व्यक्तित्व को सटीक उकेरने वाला यह शब्द है। थोड़ा सा उलझा हुआ, थोड़ा सा कठिन और काफी अप्रत्याशित किस्म के व्यक्तित्व को ‘व्यामिश्र’ कहा जाता है।

गाँधी ने अपने अनेक अनुयायी तैयार किए। अनेक लोग तो गाँधी से प्रथम भेंट में ही उनके भक्त बन गए। उनमें से कुछ लोग आजीवन उनके प्रति निष्ठावान बने रहे। महादेव भाई देसाई जैसे लोगों ने तो एक तरह से स्वयं को गाँधीजी के चरणों में ही अर्पित कर दिया था। चाहे मीराबेन हों, अथवा मगनलाल गाँधी, इन सभी लोगों की गाँधी जी के प्रति अपार निष्ठा थी।

अपने अनुयायियों/अपने भक्तों पर गाँधी ने सदैव ही पुत्रवत प्रेम नहीं किया। ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि उन्होंने अपने इन अनुयायियों की अनुचित इच्छाएँ पूरी की हों, बल्कि अनेक प्रसंगों पर तो गाँधी ने इनके साथ दूसरों के मुकाबले अधिक कठोरता का व्यवहार किया। महादेव भाई को फ्रेंच भाषा सीखने की इच्छा थी। आश्रम में ही रहने वाली मीराबेन से उन्होंने फ्रेंच सीखने की शुरुआत भी की थी। परन्तु गाँधी ने उनके इस निर्णय को उलट दिया। महादेव भाई का फ्रेंच भाषा सीखना एक फालतू काम है, ऐसा स्वयं गाँधी ने कहा। परन्तु ऐसी अनेक बातों के बावजूद महादेव भाई की गाँधी के प्रति भक्ति एवं निष्ठा में कभी भी रत्ती भर का फर्क नहीं आया।

ऐसा क्यों होता था?? संभवतः ऐसा गाँधी जी के सत्य व्यवहार के कारण होता होगा। उनके बोलने में, उनके व्यवहार में सदैव प्रामाणिकता झलकती थी। वे जो कहते थे, वही करते भी थे। संडास साफ़ करने से लेकर सब कुछ। और उनका यह रूप अन्य नेताओं के मुकाबले विलोभनीय था। तत्कालीन कॉन्ग्रेस नेताओं को तो यह सब कुछ एक चमत्कार जैसा ही लगता था। सादे स्वरूप में, सादगी से रहने वाला, सादा जीवन व्यतीत करने वाला कोई नेता पहली बार भारतीय मिट्टी से निर्मित हो रहा था। यही सादगी भरा जीवन गाँधी जी का भारतीय लोगों से असली राजनैतिक ‘कनैक्ट’ था।

गाँधी जी के सादे जीवन के बारे में, रेल में तीसरी श्रेणी के डिब्बे में उनकी यात्रा के बारे में, उनके कुल रहन-सहन के बारे में भरपूर आलोचना भी हुईं। तीसरी श्रेणी के रेलवे डिब्बे में उनके द्वारा की गई यात्राएँ, प्रथम श्रेणी से भी अधिक महँगी लगती थीं। परन्तु सादे जीवन का यह दिखावा नहीं था। न ही गाँधीजी की ‘रणनीति’ कभी ऐसी रही। ऐसा सादा जीवन उनका ‘कनविक्शन’ था। इसीलिए आम जनता के सामने सादा जीवन व्यतीत करना और परदे के पीछे ऐशोआराम के साथ रहना… इस प्रकार का दोहरा और दिखावे का व्यवहार गाँधी ने कभी भी नहीं किया। भारत के सामान्य लोग गाँधी के साथ जिस प्रकार निरंतर जुड़ रहे थे, उन्हें देवता मानने लगे थे, उनकी पूजा करने लगे थे, उसके पीछे यही कारण मुख्य थे – अर्थात उनकी सादगी, सत्य के प्रति उनकी अविचल निष्ठा, आन्दोलनों की रचना में सामान्य व्यक्ति की सहभागिता और निर्भयतापूर्वक व्यवहार।

गाँधी का प्रत्येक आंदोलन, सामान्य व्यक्ति का आंदोलन था। बिना किसी तड़क-भड़क अथवा बिना किसी दिखावे के उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि एक सामान्य भारतीय को किसी आंदोलन से कैसे जोड़ा जा सकता है। फिर चाहे वह नमक सत्याग्रह हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन हो, अथवा भारत छोड़ो आंदोलन हो। उन्होंने आंदोलन का स्वरूप ऐसा रखा कि सामान्य व्यक्ति भी उसे कर सके। अर्थात उपवास करना, सत्याग्रह करना, सूत कताई करना, पैदल मार्च करना… इसीलिए ये सभी आंदोलन देखते-देखते सर्वसामान्य जनता के आंदोलन बन गए और इन्हें जनता का जबरदस्त सहयोग मिला।

कॉन्ग्रेस के इतिहास में पहली बार, आन्दोलनों अथवा राजनैतिक मुहिमों का अच्छे से प्रबंधन एवं व्यवस्थापन किए जाने के बावजूद गाँधी जी द्वारा किए गए कुछ आंदोलन एकदम फेल हो गए थे। जैसे कि एकदम शुरुआती दौर का खिलाफत आंदोलन हो, अथवा चौरीचौरा का आंदोलन हो, या 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन हो। अनेक बार इन आंदोलनों का नियंत्रण उनके हाथों से निकल गया था। परन्तु उन्होंने तत्काल स्थिति पर काबू पाने के लिए आंदोलन को स्थगित करके अपना नियंत्रण कायम रखने का प्रयास भी किया।

‘निर्भय स्वभाव’, गाँधी की एक बड़ी विशिष्टता थी। उनका निर्भय मन अनेकानेक बार प्रकट हुआ है। फिर चाहे वह शौचालय साफ़ करने के लिए लगने वाली हिम्मत हो, अथवा अंग्रेज सिपाहियों की लाठी के सामने धैर्यपूर्वक खड़े रहने का साहस हो। गाँधी स्वभावतः जिद्दी थे, लगभग दुराग्रही भी थे, कुछ-कुछ अभिमानी भी कहे जा सकते हैं। परन्तु कोई भी व्यक्ति उन्हें डरपोक अथवा घबरा जाने वाला नेता नहीं कह सकता।

कलकत्ते में चल रहे भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शांत करने के लिए गाँधी 9 अगस्त 1947 को वहाँ पहुँचे। इससे एक वर्ष पहले ही बंगाल के प्रधानमंत्री शहीद सुहरावर्दी ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के नाम से कलकत्ता में हजारों हिंदुओं का रक्त बहाया था। इसलिए स्वाभाविक रूप से कलकता में सुहरावर्दी के विरोध में हिन्दू क्रोध से उबल रहे थे। एक दिन पहले, अर्थात 8 अगस्त 1947 को कलकत्ता में हिंदुओं की दुकानों पर हमला करने आई मुस्लिमों की भीड़ से मुकाबला करते समय वहाँ के डिप्टी पुलिस कमिश्नर एचएस घोष और एफएम जर्मन नामक वरिष्ठ अधिकारी गंभीर रूप से घायल हुए थे। वातावरण बेहद तनावपूर्ण था।

परन्तु एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह कलकत्ता पहुँचते ही उन्होने सुहरावर्दी के साथ पन्द्रह अगस्त तक एक ही मकान में, एक ही छत के नीचे रहने का प्रस्ताव रख दिया। इमारत का चयन भी कौन सा किया?? – मुस्लिम बहुल बस्ती की ‘हैदरी मंज़िल’।

सुहरावर्दी के लिए तो यह एक आश्चर्यजनक धक्का ही था। अपनी ही बस्ती में, अपने साथ दिन-रात एकत्र रहने का ऐसा कोई प्रस्ताव यह आदमी अपने सामने रखेगा, ऐसा तो उसने कभी सोचा ही नहीं था। हैरानी से भरा सुहरावर्दी गाँधी के स्वागत हेतु तैयार हुआ।

उस बेहद गंदे, अस्वच्छ स्थान पर रात बिताना सुहरावर्दी के लिए बहुत कठिन साबित हो रहा था। इसलिए पहली रात को वह हैदरी मंज़िल में सोने के लिए आया ही नहीं। परन्तु दूसरे दिन मजबूरी में उसे गाँधी के साथ रहने आना ही पड़ा। इस कारण एक बात हुई, कि जादू की छड़ी घुमाए जाने की तरह कलकत्ता में हिन्दू-मुस्लिम दंगे अचानक थम गए। पूरे भारत में, विभाजित हो चुके पंजाब सहित अन्य प्रान्तों के मुकाबले स्वतंत्रता दिवस के दिन कलकत्ता से अधिक शांत शहर दूसरा कोई नहीं था।

गाँधी का निर्भय स्वभाव हमें कदम-कदम पर दिखाई देता है। लन्दन की गोलमेज परिषद् हो अथवा दिल्ली के वायसरॉय हाउस में लॉर्ड माउंटबेटन के साथ बातचीत करते समय हो, गाँधी कभी भी किसी के सामने दबकर अथवा घबराहट में नहीं दिखाई देते थे। उन्होंने बड़े से बड़े और छोटे से छोटे सभी लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार रखा।

इसीलिए आपातकाल के समय, जब देश में लोकतंत्र बचाओ का आंदोलन चल रहा था, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं जनसंघर्ष समिति ने 2 अक्टूबर 1975 से एक बड़ी मुहिम चलाई, जिसे नाम दिया गया ‘निर्भय बनो’। एक मध्यम आकार का पोस्टर, जिस पर तेज गति से चलते हुए दांडी यात्रा की तस्वीर एवं बड़े-मोटे अक्षरों में एक ही वाक्य लिखा था – ‘निर्भय बनो’।

परन्तु इतना सब कुछ अच्छा होने के बावजूद गाँधी जी के व्यवहार एवं निर्णयों में विसंगति दिखाई देती है। गाँधी ने महिलाओं के बारे में अनेक स्थानों पर बहुत ही आदर युक्त उल्लेख किया है. महिलाओं की भूमिका के बारे में अच्छा लिखा हुआ है, महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए, यह भी उनका आग्रह हुआ करता था… परन्तु वास्तव में अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ गाँधी जी का व्यवहार कैसा था।

8 अगस्त 1942 की रात को, अर्थात ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की पूर्व संध्या पर गाँधी एवं कस्तूरबा को गिरफ्तार करके अंग्रेजों ने पुणे के ‘आगा खान पैलेस’ में रखा। यहाँ पर लगभग डेढ़ वर्ष बाद कस्तूरबा को गंभीर ब्रोंकाइटिस का दौरा पड़ा और यह बीमारी निमोनिया तक पहुँच गई। हालाँकि गाँधी कस्तूरबा की सेवा कर रहे थे, परन्तु गाँधी का विश्वास प्राकृतिक चिकित्सा पर था, इसलिए उन्होंने कस्तूरबा पर ‘जल चिकित्सा’ जैसे प्रयोग जारी रखे। प्राकृतिक चिकित्सा से कस्तूरबा को कोई लाभ नहीं हो रहा था। ब्रिटिश डॉक्टरों ने उन्हें सलाह दी कि कस्तूरबा को उन दिनों नई-नई आई पेनिसिलीन नामक एंटीबायोटिक दवा दी जाए। उनके बड़े पुत्र देवीदास ने तो यह जिद पकड़ ली कि कस्तूरबा को पेनिसिलीन दी जाए। परन्तु गाँधी अपनी मान्यताओं से एक इंच भी नहीं हटे। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा ही जारी रखी, और अंततः उस बीमारी का तनाव सहन नहीं कर पाने के कारण कस्तूरबा की हृदयाघात से मृत्यु हो गई।

कस्तूरबा के निधन डेढ़ माह बाद ही गाँधी जी को मलेरिया हो गया। उन्होंने कुछ दिन तो अपनी प्राकृतिक चिकित्सा के हिसाब से उपचार किया, परन्तु जब उनका मलेरिया बहुत बढ़ गया, तब डॉक्टरों की सलाह पर उन्होंने क्विनाइन की गोली खाकर अपना बुखार कम किया और इस प्रकार गाँधी ठीक हुए।

गाँधी की जिद के कारण ही उन्होंने अपने बड़े बेटे देवीदास को शालेय शिक्षा ग्रहण नहीं करने दी। देवीदास की उन्होंने एक भी इच्छा पूरी नहीं की, और इस प्रकार अंततः देवीदास, गाँधी के नियंत्रण से बाहर चला गया। ‘व्यामिश्र’ व्यक्तित्त्व के ऐसे अनेक ऊँचे-नीचे, फूल-काँटों से भरे कई अटपटे व्यवहार हमें गाँधी की जीवनी में दिखाई देते हैं।

जीवन के अंतिम वर्षों में, विशेषकर मृत्यु से पहले अंतिम वर्ष में, गाँधी का व्यवहार लोगों को परेशानी और दुविधा में डालने वाला रहा। मूलतः गांधी एक चतुर राजनीतिज्ञ थे। अंग्रेजों के साथ संघर्ष में अथवा अपने शुरुआती आन्दोलनों की दिशा में उनकी यह चतुरता स्पष्ट दिखाई भी देती है।

परन्तु यही गाँधी, जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेताओं पर, आँख बन्द करके भरोसा करते हैं, तब मन में यही सवाल उठता है कि ‘क्या यह वही पुराने जोरदार आन्दोलनों वाले, अंग्रेज़ सरकार को झुकाने वाले गाँधी हैं?’ पश्चिम पंजाब के ‘वाह’ शरणार्थी शिविर में कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं से बातचीत करते समय गाँधी लगातार यही कहते रहे कि, “….आप लोगों को पन्द्रह अगस्त के बाद जिस प्रकार के हिन्दू-मुस्लिम दंगों का डर सता रहा है, वैसा मुझे कुछ भी प्रतीत नहीं होता। मुसलमानों को पाकिस्तान चाहिए था, वह उन्हें मिल चुका है। अब मुसलमान कुछ भी हिंसक कार्य करेंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता। जिन्ना साहब और मुस्लिम लीग ”के नेताओं ने भी मुझे शान्ति और सदभाव का आश्वासन दिया है। उन्होंने मुझे आश्वस्त किया है कि पाकिस्तान बनने के बाद हिन्दू और सिख एकदम सुरक्षित रहेंगे। इसलिए आप इन मुस्लिम नेताओं के आश्वासनों का आदर करें। पश्चिमी पंजाब का यह शरणार्थी शिविर पूर्वी पंजाब ले जाने का कोई कारण मुझे दिखाई नहीं देता, आप अपने मन का भय निकाल दें।”

और वास्तव में हुआ क्या?? हिंदुओं एवं सिखों का जबरदस्त कत्लेआम हुआ। विशेषकर 15 अगस्त के बाद नए बने पाकिस्तान से हिंदुओं एवं सिखों को मार-मारकर भगाने के लिए स्वयं मुस्लिम लीग ने खुल्लमखुल्ला बड़े पैमाने पर दंगों में भाग लिया, बड़ी संख्या में हिन्दू और सिखों को या तो समाप्त कर दिया गया अथवा बर्बाद करके भारत की तरफ भगा दिया गया।

लाहौर के एक सिख निर्वासित बंधु के कटु प्रश्नों का उत्तर देते समय 6 अगस्त 1947 को गाँधी कहते हैं कि, “… मुझे यह बात बहुत खराब लग रही है कि पश्चिम पंजाब से सभी गैर-मुस्लिम पलायन कर रहे हैं। कल ‘वाह’ के शरणार्थी शिविर में भी मैंने यही सुना, और आज यहाँ लाहौर के शिविर में भी यही देख रहा हूँ। ऐसा व्यवहार नहीं होना चाहिए। यदि आप लोगों को ऐसा लगता है कि आपकी मृत्यु लाहौर में ही होगी, अथवा आप मरने वाले हैं, तो इससे दूर नहीं भागिए। बल्कि यदि लाहौर मर रहा है, तो आप भी उसके साथ निर्भयतापूर्वक मृत्यु का सामना कीजिए। जब आप किसी से भयग्रस्त होते हैं, तब प्रत्यक्षतः आप मरने से पहले ही मर जाते हैं। यह उचित नहीं है। यदि पंजाब से ऐसी ख़बरें आती हैं कि पंजाबियों ने बिना किसी घबराहट के धैर्यपूर्वक मृत्यु का सामना किया, तो मुझे बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा।”

I must say that this is not as it should be. If you think Lahore is dead or is dying, do not run away from it, but die with what you think is a dying city.” – Times of India, Bombay. 8th August 1947

गाँधी को सदैव दिल से यही लगता रहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यदि वे पाकिस्तान जाकर रहने लगें, तो वे वहाँ के मुस्लिमों का हृदय परिवर्तन करने में सफल होंगे और पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर जो बड़े पैमाने पर हमले और अत्याचार हो रहे हैं वह रोकने में सफलता मिल जाएगी। उन्होंने अनेक बार अपना यह विचार सार्वजनिक रूप से बयान भी किया। परन्तु गाँधी जी का दुर्भाग्य देखिये कि नवनिर्मित पाकिस्तान में वहां के बड़े नेता तो छोड़िए, किसी छुटभैये नेता ने एक बार भी गाँधी जी से पाकिस्तान पधारने का आग्रह भी नहीं किया।

यह सारी घटनाएँ इंसानी समझ से बाहर की और बेहद आश्चर्यजनक लगती हैं। स्वयं को ‘बनिया’ कहने वाले गाँधी, जिन्ना और मुस्लिम लीग की राजनीति के सामने इतने भोले और नादान कैसे सिद्ध हुए?

भारत के खंडित होने के बाद तो गाँधी पूर्णरूप से अप्रासंगिक ही हो चुके थे। नए भारत के निर्माण संबंधी एक भी महत्वपूर्ण निर्णय में गाँधी से सलाह-मशविरा किया गया हो, ऐसा नहीं दिखाई देता। वास्तव में मूलतः नेहरू की नीतियों में “व्यवस्था विरोधी’ गांधी कहीं भी फिट नहीं बैठते थे। इसीलिए स्वतंत्रता के पश्चात कॉन्ग्रेस ने गाँधी के सभी मूलभूत तत्वों, अर्थात सादगी, सच्चाई, स्वदेशी भाषा, स्वदेशी वस्तुओं, भारतीय परम्पराओं इत्यादि से एकदम दूरी बना ली। कॉन्ग्रेस ने गांधी का सब कुछ त्याग दिया। लेकिन राजनीति की खातिर गाँधी का एकमात्र सिद्धांत ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को कॉन्ग्रेस ने थामे रखा।

वास्तव में देखा जाए, तो गाँधी सच्चे और कट्टर सनातनी थे। वे हिन्दू धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति थे। इस बारे में वे आग्रही भी थे। परन्तु भारत के आधुनिक इतिहास में गाँधी के बारे में जो चित्र उभरता है वह यह कि गाँधी मुसलमानों के नेता और पाकिस्तान का निर्माण करने वाले प्रमुख घटक थे। आज विश्व भर में भारत की पहचान ‘गाँधी का देश’ के रूप में होती है। गाँधी जी के जीवन दर्शन के सभी तत्त्व, उनकी श्रद्धा एवं गाँधी जी के जीवन मूल्यों को विश्व के सामने आना आवश्यक है, क्योंकि ऐसा होने पर ही ‘वास्तविक गाँधी’ दुनिया के सामने आएँगे।

लेखक: प्रशांत पोल

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