Sunday, September 1, 2024
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5 राज्यों के नतीजे अलग-अलग, पर एक सवाल वही- कॉन्ग्रेस का क्या होगा, राहुल गाँधी देंगे और कितने घाव

ममता बनर्जी अनौपचारिक रूप से पहले ही अभिषेक बनर्जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुकी हैं। ऐसे में क्या इस संभावना से इनकार किया जा सकेगा कि वे राज्य से निकल कर केंद्र की राजनीति में नहीं जाएँगी? यदि ऐसा होगा तब विपक्ष में राहुल गाँधी की भूमिका क्या होगी?

चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनावों के नतीजों की तस्वीर धीरे-धीरे साफ हो रही है। असम में भाजपा, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) और केरल में एलडीएफ की सत्ता में वापसी होती दिख रही है। बंगाल में फिलहाल बीजेपी अपनी आशा के अनुरूप प्रदर्शन करती नहीं दिख रही। पुदुच्चेरी में उसका गठबंधन जीत हासिल करते दिख रहा है।

जब अंतिम नतीजे आ जाएँगे तो हर दल इन चुनावों में अपने प्रदर्शन पर चिंतन करेगा। पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित मुक़ाबले में भाजपा की संभावित जीत क्यों नहीं हो सकी, आने वाले समय में यह बहस का एक बड़ा विषय होगा। तमिलनाडु में डीएमके को आशा के अनुरूप एक बड़ी जीत क्यों नहीं मिल सकी, यह भी चर्चा का विषय रहेगा।

पर इन सब के बीच जिस एक आवश्यक विषय पर चर्चा शायद न दिखे, वह होगी इन चुनावों में कॉन्ग्रेस पार्टी का प्रदर्शन। केरल, असम और तमिलनाडु में राहुल गाँधी और प्रियंका वाड्रा ने बड़ी मेहनत की थी। असम के चाय बाग़ानों में प्रियंका मजदूरों के साथ चाय पत्ती तोड़ते हुए भी दिखी थीं। इसके अलावा राहुल गाँधी ने चाय बागान बहुत इलाकों में गुजरात के व्यापारियों से अलग से पैसे लेने का वादा भी किया था। दक्षिण भारत के राज्यों में राहुल ने चुनाव प्रचार के दौरान कसरत करने से लेकर समुद्र में गोता लगाने जैसे मेहनत वाले और चुनाव प्रचार के लिए महत्वपूर्ण काम किए थे। पर उनका असर नहीं हुआ और उनके दल के प्रदर्शन में सुधार नहीं हुआ।

केवल पश्चिम बंगाल में दल की रणनीति सफल होते हुए दिखी जहाँ उन्होंने चुनाव प्रचार लगभग न के बराबर किया। उसके अलावा दल ने कहीं न कहीं अधीर रंजन चौधरी को अपना काम करने से रोका। प्रचार के दौरान ही चौधरी को लोकसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाकर दल ने किसे फायदा पहुँचाने की कोशिश की, उसकी विवेचना शायद आने वाले दिनों में हो। अधीर रंजन का खुद को चुनाव प्रचार से लगभग अलग रखना किस रणनीति का हिस्सा था, वह शायद आज आए नतीजों से स्पष्ट हो गया है।

चुनाव परिणामों के दिन कॉन्ग्रेस पार्टी द्वारा कोरोना का हवाला दे अपने प्रवक्ताओं को न्यूज़ स्टूडियो में न भेजने का फ़ैसला क्या संदेश देता है? शायद यही कि दल फिलहाल प्रश्न सुनने के मूड में नहीं है। पर क्या चुनावी प्रक्रिया की गर्द जम जाने के बाद भी दल प्रश्न सुनने का मन बनाएगा? क्योंकि आज के दिन तो प्रवक्ताओं से किए गए प्रश्न इन चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में दल के प्रदर्शन के इर्द-गिर्द होते, पर भविष्य में तो और प्रश्न पूछे जाएँगे।

समय आने पर यह पूछा जाएगा कि कॉन्ग्रेस पार्टी भाजपा से खुद क्यों नहीं लड़ सकती? जब लड़ने का समय आता है तब अपनी भूमिका किसी और को देकर मैदान से हट जाती है? क्यों राहुल गाँधी केंद्र में तो विपक्ष की ओर से खुद को नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं पर चुनाव आते ही वे लघु मानव की भूमिका में आ जाते हैं? पूछा जाएगा कि इन चुनावों में दल के प्रदर्शन के बाद विपक्ष की राजनीति में राहुल गाँधी का कद कितना बढ़ा है? या छोटा हुआ है तो कितना छोटा हुआ है?

ममता बनर्जी ने जिस तरह से पश्चिम बंगाल में वापसी की है, उसके बाद विपक्षी राजनीति में उनका कद कितना बढ़ेगा? भाजपा के मुक़ाबले जब एकजुट होकर खड़े होने का प्रश्न उठेगा तब विपक्ष का नेता कौन होगा? ममता बनर्जी अनौपचारिक रूप से पहले ही अभिषेक बनर्जी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुकी हैं। ऐसे में क्या इस संभावना से इनकार किया जा सकेगा कि वे राज्य से निकल कर केंद्र की राजनीति में नहीं जाएँगी? यदि ऐसा होगा तब विपक्ष में राहुल गाँधी की भूमिका क्या होगी? क्या कान्ग्रेस पार्टी को यह स्वीकार होगा? अगले वर्ष उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं। वहाँ प्रियंका खुद को कॉन्ग्रेस की ओर से नेता के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिशें करती रही हैं। ऐसे में इन सब के बीच राहुल गाँधी खुद को कहाँ पाते हैं?

ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर कॉन्ग्रेस पार्टी को आज नहीं तो कल उत्तर देना ही होगा और जब ये प्रश्न उठेंगे तब शायद मंच और हों और पार्टी किसी बहाने की आड़ में खुद को छिपा न सके।

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