Friday, March 29, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देहिन्दूफ़ोबिया के वीर: शोएब दानियाल के लिए साधु आतंकी, जयराम रमेश के लिए निहत्थों...

हिन्दूफ़ोबिया के वीर: शोएब दानियाल के लिए साधु आतंकी, जयराम रमेश के लिए निहत्थों पर गोलीबारी बड़ी बहादुरी

क्यों शोएब दानियाल उस अहिंसक हिन्दू विरोध-प्रदर्शन की याद अफ़ज़ल गुरु के 2001 के षड्यंत्र से तुलना कर दिलाते हैं, जिसमें 8 सुरक्षा बल के लोग और एक बेगुनाह माली हिंसक, जिहादियों के हाथों मारे गए थे?

क्या आपने कभी सुना है कि कोई फिदायीन आत्मघाती हमला करने अपने बीवी-बच्चों को साथ लेकर गया हो? क्या कभी किसी ने सुना है कि संसद पर हमला करने वाले अफ़ज़ल गुरु, 26/11 वाले कसाब या पुलवामा के जिहादी आदिल अहमद डार ने अपने घर की या अपने आस-पड़ोस की किसी भी औरत या बच्चे को लेकर अल्लाहु अकबर का नारा धमाका या गोलीबारी करने के पहले लगाया हो?

ऐसा आपने नहीं ही देखा या सुना होगा। यानी यह माना जा सकता है कि आतंकी हमलावर कभी अपने खुद के औरतों और बच्चों को लेकर हमला करने नहीं पहुँचेंगे, और अगर कोई अपने खुद के औरतें और बच्चे लेकर कोई बात करने पहुँचा हो, तो हिंसा करना उसका इरादा नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें उस के खुद के पक्ष के औरतों और बच्चों को नुकसान पहुँचने का खतरा होगा।

तो फिर ऐसा क्यों है कि ‘जाने माने पत्रकार’ शोएब दानियाल और ‘हार्वर्ड से पढ़े लिखे बौद्धिक’ कॉन्ग्रेस नेता जयराम रमेश को 2016 के अपने लेखों में लगता था कि अपने साथ औरतों और बच्चों को लेकर, शांतिपूर्ण ढंग से, निहत्थे होकर गौहत्या के खिलाफ कानून की माँग करने, 1966 में संसद का घेराव करने पहुँची एक भीड़ आतंकियों की थी? क्यों उसके लिए जयराम रमेश “संसद पर पहला हमला” विशेषण का प्रयोग कर उसकी बरसी को याद किया था? वह भी तब जब उस भीड़ को अहिंसक होने के बावजूद इंदिरा गाँधी की पुलिस के हाथों हिंसा और मौत ही हाथ लगे?

क्यों शोएब दानियाल उस अहिंसक हिन्दू विरोध-प्रदर्शन की याद अफ़ज़ल गुरु के 2001 के षड्यंत्र से तुलना कर दिलाते हैं, जिसमें 8 सुरक्षा बल के लोग और एक बेगुनाह माली हिंसक, कट्टरपंथी जिहादियों के हाथों मारे गए थे?

इसका जवाब होगा निडर, बेख़ौफ़ हिन्दूफ़ोबिया

दानियाल की बातों (और नाम) से साफ़ ज़ाहिर है कि वे उसी जिहादी-इस्लामी, मज़हबी नफ़रत और हिंसा में लिथड़ी विचारधारा के करीब 2 अरब वाहनों में से एक हैं, जिसे लगता है कि महज़ हिन्दू, या ‘काफ़िर’, होना भर गुनाह-ए-अज़ीम है, काबिल-ए-कत्ल है; वे उसी कट्टरपंथ के प्रवक्ता हैं जिसमें खुद संसद हमले के बारे में “जिहाद का मतलब स्ट्रगल होता है ब्रो, डोंट ‘डिमनाइज़’ इट” बताया जाता है, और एक अहिंसक भीड़, जिसमें औरतें और बच्चे भी थे, और ज़ाहिर तौर पर जिसका मकसद कोई हिंसा नहीं था, को अपने यहाँ वालों की तरह ही खूँखार दिखाने के लिए उसी संसद हमले से उसकी तुलना कर दी जाती है।

जयराम रमेश भी इतने आराम से गौभक्तों के लोकतान्त्रिक प्रदर्शनों को ‘संसद भवन पर हमला’ बताने की हिमाकत इसलिए कर पाते हैं कि उन्हें पता है इसकी कोई कीमत चुकानी नहीं पड़ेगी। हिन्दू न कभी इतने कट्टरपंथी हुए हैं, न होंगे (और न ही होना चाहिए) कि अपने साधु-संतों के अपमान को, चाहे वो शवों का ही अपमान क्यों न हो, कमलेश तिवारी के कातिलों की तरह ‘काबिले कत्ल’ नहीं बताएँगे। जयराम रमेश को कभी भी किसी आदमी से अकेले में मिलते हुआ यह डर नहीं होगा कि उसके पास मौजूद मिठाई के डिब्बे में से हथियार निकाल कर “जय श्री राम”, “जय साधु-संत” या “जय गौ माता” बोल कर उन्हें कोई काट नहीं डालेगा। उन्हें यह लेख लिखते समय पता था कि निहत्थे साधु-संतों पर गोली चलवाने को “वाह, क्या ‘निर्भीक’ फैसला लिया!” बोलने के लिए राजनीतिक कीमत भी नहीं चुकानी पड़ेगी, क्योंकि इससे अगर 400-500 हिन्दू वोट छिटकते भी हैं तो 20 करोड़ की एक ‘समुदाय विशेष’ की भीड़ का बड़ा हिस्सा ज़बान चटखारते हुए बीफ़-कबाब के सपने देखते हुए उनकी पार्टी को वोट देने के निर्णय पर और दृढ़ता से जम जाएगा।

केवल इस प्रदर्शन की तुलना अफ़ज़ल गुरु के जिहाद से कर के ही नहीं, और भी कई कदमों पर जयराम रमेश और शोएब दानियाल अपने हिन्दूफ़ोबिया के सबूत बड़ी अकड़ से देते हैं।

शोएब दानियाल के स्क्रॉल पर प्रकाशित लेख में इस घटना के कुछ साल पहले हुई एक घटना का भी ज़िक्र है। कुछ गौ रक्षक कार्यकर्ताओं से मिलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने नाराज़गी जताई थी कि आखिर ऐसा प्रोपेगंडा कथित तौर पर क्यों चलाया जा रहा है कि वे बीफ़ खाते हैं। अब अपने आप में यह घटना सामान्य-सी लगती है, और होनी भी चाहिए, कि एक व्यक्ति अपने राजनीतिक विरोधियों से से कह रहा है कि उसके बारे में कथित तौर पर गलत बातें न की जाएँ। लेकिन इस घटना को शोएब दानियाल ने अपने लेख में जिस अंदाज़, जिस ‘टोन’ के साथ लिखा है, ऐसा लगता है कि मानो मजहब विशेष में स्वीकृत और (अधिकाँश, यदि सभी नहीं) हिन्दुओं में बुरे माने जाने वाले बीफ़-भक्षण से खुद को दूर दिखाने की कोशिश कर नेहरू ने कोई भयानक पाप कर दिया हो।

‘डेमॉनाईज़िंग’ (दानवीकरण करने वाला) टोन यह होता है दानियाल जी- कि मजहब विशेष के खाने-पीने की पद्धति से अलग, अपनी या अपने वोटरों की आस्था और गैर-इस्लामिक भोजन पद्धति का सम्मान कर देने भर से अपने ‘सेक्युलर’ राजा बाबू नेहरू को आप गोदी से उतार फेंकने को तैयार हैं। आप ऐसा दिखा रहे हैं मानो अगर कोई यह राजनीतिक संदेश देने की कोशिश करे कि उसे इस्लाम में स्वीकार्य और मजहब में प्रचलित भोजन पद्धति में कोई चीज़ नहीं पसंद, या वह हिन्दुओं की भोजन-पद्धति और आस्था में किसी चीज़ का कोई सम्मान करने का राजनीतिक संदेश देना चाहे तो आपके हिसाब से यह ‘गुनाहे-अज़ीम’ है।

इसी तरह का हिन्दूफ़ोबिक टोन जयराम रमेश के लेख में भी है। वे द हिन्दू में छपे अपने में लेख इस बात पर नाराज़गी जताते हैं कि उक्त हत्याकांड के बाद, पुरी शंकराचार्य के अनशन के बाद (जिसे पत्रकारिता के समुदाय विशेष के ही अख़बार मिंट में ‘शायद गाँधी से भी लम्बा चला अनशन’ खिसियाते हुए माना गया है) गौ हत्या पर कानून बनाने की संभावना पर विचार के लिए बनी कमेटी में एमएस ‘गुरु जी’ गोलवलकर, तत्कालीन आरएसएस प्रमुख, को भी जगह दे दी गई। यह संघ से ज्यादा हिन्दुओं से दुश्मनी का भाव है- उन दिनों संघ विशुद्ध रूप से हिन्दू हितों की पैरोकारी करने वाले संगठन के रूप में देखा जाता था (उसका मजहबी अंग, राष्ट्रीय मुस्लिम मंच, 2002 में बना है), और संघ की उपस्थिति को हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व माना जाता था। यानी जयराम रमेश को इस बात से आपत्ति थी कि हिन्दुओं के मुद्दे पर बनी कमेटी में हिन्दुओं के सबसे बड़े संगठन का प्रतिनिधित्व क्यों था!

जयराम रमेश यहीं नहीं रुकते। चटखारे लेकर वे यह भी बताते हैं कि कैसे गौहत्या रोकने के लिए अनशन करने वाले पुरी शंकराचार्य को एक तरह से गौमाँस खिलाया गया। उस कमेटी में अमूल के संस्थापक और भारत में दुग्ध उत्पादन ‘आंदोलन’ के जनक माने जाने वाले वर्गीज़ कुरियन भी थे और पुरी शंकराचार्य भी। रमेश के अनुसार कुरियन ने शंकराचार्य की सेवा में पनीर भिजवाया और अगले दिन उन्हें बताया कि दूध से पनीर बनाने के लिए गाय के बछड़े की आँत से निकाले गए जीव-रसायन (‘रेनेट’) का इस्तेमाल हुआ है। किसी को धोखे से ऐसी चीज़ खिलाना जो न केवल उसकी आस्था के खिलाफ है, बल्कि जिसे रोकने को लेकर वह इंसान आंदोलन कर रहा है, अनशन कर चुका है- ऐसा कृत्य भी नीचता है, और इसे जिस ‘मज़े लेने’ के टोन में रमेश ने बताया, वह उससे भी गिरी हुई निकृष्टता है।

इन दोनों लेखों में और भी समानताएँ हैं। दोनों में गुलज़ारी लाल नंदा को मंत्रिमंडल से अपमानित करके निकाले जाने पर तालियाँ पीटी गईं हैं, जबकि उस समय नंदा का पार्टी में बहुत सम्मान था। न केवल तत्कालीन गृह मंत्री होने के तौर पर, बल्कि इसलिए भी कि दो-दो बार कॉन्ग्रेस में प्रधानमंत्रियों नेहरू और शास्त्री की आकस्मिक मौत के बाद कार्यवाहक प्रधानमंत्री की भूमिका निभाने के बाद भी उन्होंने किसी और को पूर्णकालिक प्रधानमंत्री चुने जाने पर शालीनतापूर्वक जगह खाली कर दी थी। इन दोनों के ही मुताबिक नंदा को निकाला भी इसलिए नहीं गया था कि उनके मातहत विभाग ने निहत्थी भीड़ पर अंग्रेजी, औपनिवेशिक बर्बरता दिखाई थी, बल्कि इसलिए कि वे भारतीय साधु समाज से जुड़े थे/गौहत्या पर रोक के समर्थक थे। यानी इंदिरा गाँधी को शक था कि नंदा के ‘बॉस’ होने के कारण पुलिस ने कम लोगों की जान ली, वरना ‘स्कोप’ और भी साधुओं की हत्या का था!

इसके अलावा दोनों ही के लेखों में इस हत्याकांड के बाद हुए 1967 के संसदीय चुनावों में भारतीय जनसंघ की सीटें 14 से 35 हो जाने और इंदिरा गाँधी की सीटें घट जाने को ऐसे दिखाया गया है मानो सीटें घट जाने के रूप में इस हत्याकांड के लिए इंदिरा गाँधी ने सही ही नहीं, सही से ज़्यादा ही कीमत चुका दी!

आज इस हत्याकांड की बरसी पर इंदिरा गाँधी के इस बर्बर दमन को याद करने के साथ जयराम रमेश और शोएब दानियाल जैसे हिन्दूफ़ोबिक लोगों की ओर भी एक गौर किए जाने की ज़रूरत है। यह सोचे जाने की ज़रूरत है कि सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी के धर्म को गाली देने, उसके साथ होने वाली हिंसा पर ताली पीटने की हिम्मत कहाँ से आती है? यह भी सोचना होगा कि ऐसी आस्था जिसने न केवल किसी के साथ मज़हबी हिंसा नहीं की, जबरिया मतांतरण नहीं किया, उससे शोएब दानियाल जैसे व्यक्ति की दुश्मनी क्या है? और जयराम रमेश जैसे लोग जिनकी हिन्दुओं से दुश्मनी नहीं शायद इस कारण से ऐसा कर पाते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि हिन्दुओं को गाली देने से, उनकी हत्या का जश्न मनाने से हिन्दुओं का तो वोट जाएगा नहीं, लेकिन दानियाल जैसों का वोट भर-भर कर चला आएगा।

इसका जवाब ढूँढ़ना भी जरूरी है- और उस जवाब का समाधान करना भी।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

संदेशखाली की जो बनीं आवाज, उनका बैंक डिटेल से लेकर फोन नंबर तक सब किया लीक: NCW से रेखा पात्रा ने की TMC नेता...

बशीरहाट से भाजपा की प्रत्याशी रेखा पात्रा ने टीएमसी नेता के विरुद्ध महिला आयोग में निजता के हनन के आरोप में शिकायत दर्ज करवाई है।

कभी इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त, आज ₹2 लाख करोड़ की इकोनॉमी: 1600+ आतंकी ढेर, 370 हटाने के बाद GDP दोगुनी… जानिए मोदी राज में...

मोदी सरकार में जम्मू कश्मीर आतंक की घटनाओं में काफी कमी आई है, राज्य की अर्थव्यवस्था इस दौरान बढ़ कर ₹2 लाख करोड़ हो गई है।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
418,000SubscribersSubscribe