हाल के दिनों में विदेशी ताक़तों व मीडिया द्वारा विभिन्न चुनावों में हस्तक्षेप किए जाने को लेकर काफ़ी कुछ कहा-सुना जा चुका है। इसी तरह का कुछ अमेरिका में हुआ, जहाँ वामपंथियों की हार और डोनाल्ड ट्रम्प की जीत को रूस से जोड़ दिया गया और रूस द्वारा चुनावों में हस्तक्षेप की बात दुष्प्रचारित की गई। जहाँ भी जनता ने अपने लोकतान्त्रिक अधिकारों का प्रयोग कर फैसला लिया, वामपंथियों ने रूस को दोष दे दिया। यहाँ तक कि ब्रेक्सिट में भी। यहाँ, हम ‘स्टॉप फंडिंग हेट’ की बात कर रहे हैं।
हालाँकि, विदेशी हस्तक्षेप कोई नई बात नहीं है लेकिन यहाँ हम चर्चा करेंगे ‘स्टॉप फंडिंग हेट’ नामक संस्था की। दरअसल, विदेशी हस्तक्षेप का मकसद ही होता है कि किसी देश में अपने फायदे के लिए दखल देना। अपने हित के लिए किसी अन्य देश के राजनीतिक क्रियाकलापों में अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी। ये उसके उलट है, जो पश्चिमी देश हल्ला मचाते रहते हैं। चुनावी हस्तक्षेप से कहीं ज्यादा बड़ी चीज है राजनीतिक हस्तक्षेप। ये सबसे सामान्य हथियार है, किसी देश में अपना दखल मजबूत करने का।
पश्चिमी देशों ने इतने सारे ‘सिविल सोसाइटी’ संस्थाएँ कुकुरमुत्तों की तरह पैदा कर रखी हैं कि वो हर उस देश में दखल देते हैं, जिसके पश्चिमी देशों से भविष्य में बराबरी करने की सम्भावना है या जो तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। ऐसे एनजीओ का काम ही यही होता है कि वो ये सुनिश्चित करें कि उनके नैरेटिव के अनुसार चीजें चलती रहें। ऐसा न होने पर वो सीधा राजनीतिक और सामाजिक हस्तक्षेप पर उतर आती हैं।
ऑपइंडिया के खिलाफ़ ‘स्टॉप फंडिंग हेट’ का दुष्प्रचार अभियान
‘स्टॉप फंडिंग हेट’ इसी तरह की एक संस्था है। ये एक कम्युनिटी है, जो यूके में एक कम्पनी के रूप में रजिस्टर्ड है। हाल ही में उन्होंने ऑपइंडिया के खिलाफ एक दुष्प्रचार अभियान चलाया, जो अभी भी बदस्तूर जारी है। उनका प्रमुख उद्देश्य है कि ऑपइंडिया के रेवेन्यु पर वार किया जाए। वो चाहते हैं कि हमें कम्पनियों द्वारा एडवरटाईजमेंट न मिले, ताकि ऑपइंडिया के पास वित्त की कमी हो जाए। वो हमें कंगाल करने का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं।
Hi @OxfordSBS we’re guessing you’re unaware that your advertising is appearing on this article seeking to justify discrimination against Muslims? https://t.co/4ryRo14aht Will you take action to exclude OpIndia from your online advertising programme? – cc @NUSUK pic.twitter.com/IGLMweYcDj
— Stop Funding Hate (@StopFundingHate) May 29, 2020
इसका कारण एकदम स्पष्ट है। ऑपइंडिया एक दक्षिणपंथी मीडिया प्लेटफार्म है, जो अक्सर वामपंथी मीडिया के बने-बनाए ढाँचे को चुनौती देता है और वो ये चीज बर्दाश्त नहीं कर पाते। वो नैरेटिव कुछ इस तरह से गढ़ता है कि लोग हर चीज को वामपंथ के चश्मे से पढ़ने को विवश हो जाएँ। जो भी उनके द्वारा बनाए गए नियमों पर नहीं चलता, ये ठेकेदार उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए उसकी फंडिंग और रेवेन्यु पर वार करते हैं। वो उसके सञ्चालन को रोकने में पूरी ताक़त झोंक देते हैं ताकि वो इनके विरुद्ध खड़ा भी न रह सके।
अगर वो इसमें सफल रहते हैं तो मीडिया में दक्षिणपंथ का नामोंनिशान मिट जाएगा और उन्होंने जो धारणाएँ और अपने नियम-कायदे बना रखे हैं, उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं रह जाएगा। वो ऐसा कर सकते हैं या नहीं, इस सम्बन्ध में हम जवाब दे चुके हैं। लेकिन हाँ, वो हमेशा अपने इस उद्देश्य की पूर्ति में प्रयासरत रहते हैं। अगर वो सफल रहते हैं तो भारत की राजनीति पर उसका क्या दुष्प्रभाव होगा, ये छिपा नहीं है।
भारत में वामपंथी मीडिया संस्थानों का सबसे प्रमुख कार्य है हिन्दू संस्थाओं के खिलाफ दुष्प्रचार फैलाना और उनके बारे में फेक न्यूज़ फैलाना। ऑपइंडिया ऐसी कई हरकतों को रंगे हाथों पकड़ कर उसका खुलासा कर चुका है। जहाँ तक ”स्टॉप फंडिंग हेट’ की बात है, ये अर्नब गोस्वामी के चैनल ‘रिपब्लिक टीवी से भी चिढ़ता है और उस पर एडवरटाईजमेंट देने वाली कम्पनियों को धमकाता रहता है, दबाव बनाता है।
दुनिया भर में कुख्यात है ‘स्टॉप फंडिंग हेट’
इसने ‘द सन’, ‘द डेली मेल’ और ‘द डेली एक्सप्रेस’ जैसे अख़बारों को भी धमकाने की कोशिश की, जो यूके में सक्रिय हैं। वहाँ उन्हें वामपंथियों का खूब समर्थन मिला, जिन्हें ऐसे संस्थानों की प्रताड़ना पर मजा आता है जो उनके विरोधी हैं। इसकी वेबसाइट कहती है कि ये प्रचार सामग्री मुहैया कराने वाली कम्पनियों को उन प्रकाशनों से दूर रहने के लिए कहता है, जो घृणा फैलाते हैं।इसके नाम पर ये केवल दक्षिणपंथी पोर्टलों को निशाना बनाता है, इस्लामी और कट्टरपंथियों को नहीं।
A lively debate going on at @RedditIndia following reports that Renault have pulled their advertising from Republic TV amid concerns over anti-Muslim coverage: https://t.co/57WDW4mdu1 pic.twitter.com/Ts6DF9JsCB
— Stop Funding Hate (@StopFundingHate) May 26, 2020
उसका कहना है कि कुछ लोगों ने आगे आकर इसकी स्थापना तब की, जब अख़बारों द्वारा लगातार घृणा फैलाई जा रही थी और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। उनका कहना है कि इन इन अख़बारों की कमाई का प्रमुख जरिया कम्पनियाँ हैं जो इन्हें प्रचार सामग्री देती है और इसीलिए जैसे ही इनकी कमाई घटेगी, ये घृणा फैलाना बंद कर देंगे। साथ ही वो ये भी दावा करता है कि अल्पसंख्यकों को मीडिया में लम्बे समय से घृणा का शिकार बनाया जा रहा है।
इसके पीछे कौन लोग हैं?
दरअसल, ‘स्टॉप फंडिंग हेट’ के बोर्ड सदस्यों में जितने भी लोग हैं, वो सब के सब किसी न किसी घोर वामपंथी संगठनों से ताल्लुक रखते हैं। जैसे, रिचर्ड विल्सन ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल‘ का सदस्य है। ये एक ऐसा एनजीओ है, जो जम्मू कश्मीर से लेकर अन्य मुद्दों पर भारत को बदनाम करने में पूरी ताक़त लगा देता है। उसका सीधा कहना है कि उसके संस्था का उद्देश्य है कि मीडिया वैसे ही काम करे, जैसा वो चाहता है।
वो कहता है कि वही चीजें प्रकाशित करो, जो उसकी संस्था या उसके लोग चाहते हैं। वो कहता है कि वो लिखो, जैसा वो चाहता है नहीं तो वो हर उस मीडिया संस्थान के खिलाफ जाएगा, जो इससे इनकार कर देंगे। यानी वो राजनीतिक पक्षपात के छत्र तले मीडिया पर लगाम लगाना चाहता है। एक अन्य एनजीओ की सदस्य रोजी इलम भी इसके बोर्ड में बैठी हुई हैं। वो फिलिस्तीन की समर्थक हैं। साथ ही वो इजरायल पर जबरन फिलिस्तीन की जमीन पर अवैध कब्जा करने का आरोप लगाती हैं।
साथ ही उन्होंने ब्रिटेन के चुनाव में कोर्बिन का समर्थन किया था, जिसकी इतनी बुरी हार हुई कि लेबर पार्टी की लुटिया ही डूब गई। कैथरिन टेलर इस अभियान की डायरेक्टर थीं, जिन्होंने 2019 में इस्तीफा दे दिया था। वो लेबर पार्टी से लम्बे समय तक जुडी रही हैं। इसके अलावा इमाम आत्ता का भी नाम आता है, जिसके बारे में बताया गया है कि वो खास समुदाय के खिलाफ होने वाले अत्याचारों पर नज़र रखता है।
भारत को क्यों सावधान रहना चाहिए?
हर ओर से देखने पर लगता है कि ये संस्था और इसका अभियान लेबर पार्टी से जुड़ा हुआ है, जिसका भारत विरोधी इतिहास रहा है। इसके बोर्ड के सदस्य अपनी इच्छा के अनुसार राजनीति को ढालना चाहते हैं। ये ऑक्सफेम इंडिया से अलग नहीं है, जो कॉन्ग्रेस को भारत के सिविल सोसाइटी संगठनों के साथ गठबंधन करने को कहता है। साथ ही ये एमनेस्टी वगैरह जैसी संस्थानों की तरह दूसरे देशों की राजनीति और क्रियाकलाप में दखल देने का भी काम करता है।
भारत में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना जाता है, ऐसे में कोई विदेशी ताकत आकर ये तय करने लगे कि क्या छ्पेगा और क्या नहीं, ये हमारे लिए सतर्क रहने वाली बात होनी चाहिए। अगर विदेशी संस्थाएँ भारतीय मीडिया को डिक्टेट करने लगे तो फिर भारत के लिए ये चिंताजनक है, यहाँ की राजनीति के लिए भी सही नहीं है। हालाँकि, अभी तक हमे ये स्पष्ट नहीं पता चला है कि कौन-कौन इस अभियान को फंड कर रहे हैं।
जिस तरह से इसके जेरेमी कोर्बिन के साथ सम्बन्ध हैं, इसाई संस्थाओं के साथ सम्बन्ध हैं और लेबर पार्टी के साथ जुड़ाव है, ये भारत के लिए किसी भी स्थिति में एक आदर्श स्थिति नहीं है और विपरीत प्रभाव डालने वाला है। अन्य मीडिया संस्थानों को भी इससे सतर्क रहना चाहिए और इसके प्रोपगंडा के आगे झुकना नहीं चाहिए।
नोट: यह OPINDIA की संपादक नूपुर जे शर्मा द्वारा मूलरूप से इंग्लिश में लिखे इस लेख का संक्षिप्त अनुवाद है।