हमारी सामूहिक स्मृति से इस माँ का चेहरा भी धुँधला हो जाएगा। पालघर के उस निरीह साधु की हाथ जोड़ कर दया की याचना करती तस्वीर भी अब कभी-कभी ही दिखती है। आदर्श नगर में राहुल को मार दिया गया, वहीं कुछ दिन बाद सुशील को मार दिया गया। ये मुंगेर की माँ है जिसने अपने 18 साल के पुत्र को खो दिया जो दुर्गा माता के विसर्जन के लिए घर से निकला था।
अगर इस अनुराग की पहचान, या अंग्रेजी में जिसे आइडेंटिटी कहते हैं, दलित या मुस्लिम जैसे विशेषणों से सज्जित होती तो कुछ पत्रकारों को इस देश में असहिष्णुता का चरम ढूँढने में तीन सेकेंड से ज्यादा नहीं लगते। तब जो साहित्य रचा जाता वो मानवता की हत्या से ले कर लोकतंत्र की सामूहिक हत्या और संविधान की हत्या तक ऐसे-ऐसे अलंकरणों से सुशोभित होता कि आप देश छोड़ कर बाहर जाने के लिए शायद हवाई टिकट का दाम पता करने लगते।
लेकिन अनुराग को वो लग्जरी नहीं है कि कोई रवीश कुमार रुआँसा मुँह ले कर यह लिखे: “एक माँ है, जिसने लाल साड़ी पहनी है। उसी लाल साड़ी पर अनुराग का रक्त रिस रहा है। इसी माँ के गर्भ में नौ महीने तक अनुराग रहा होगा, और आज गर्भ से गोदी, और फिर जमीन पर खड़ा हो कर दौड़ने वाला अनुराग वापस माँ की गोदी में सर रखे सो रहा है। माँ को शायद उम्मीद है कि उसका बेटा आँखें खोल देगा, वो उसी तरह बोल उठेगा जैसे कल शाम घर से यह बोल कर निकला था कि ‘आते हैं दुर्गा जी को गंगा जी में विसर्जन करवा के’।
“लेकिन अनुराग बोलेगा भी तो कैसे? उसे इस सरकार की दरिंदगी ने लील लिया। इस तानाशाही सरकार की उद्दंड और गुंडा पुलिस ने घेर कर मार डाला। जैसे अल्पवयस्क अभिमन्यु को महारथियों ने घेर कर मार डाला था। अनुराग और अभिमन्यु में ज्यादा अंतर भी तो नहीं है, न ही उन कौरवों और इस क्रूर हत्यारन पुलिस में। डंडों से पीटने से मन नहीं भरा तो साहब का आदेश आया होगा कि गोली चलाओ, हम देख लेंगे।
“अजी क्या देख लीजिएगा हुजूर? क्या देख लेंगे आप? क्या सर से बाहर गिरे इस दिमाग को आप देख पाएँगे? क्या आप उस माँ से नजरें मिला पाएँगे जिसकी गोदी में उसका बच्चा है और उसके फटे सर से दिमाग निकल कर जमीन पर पड़ा है। अब ये माँ क्या वापस घर जा पाएगी? क्या इसे घर, घर जैसा लगेगा? क्या उसकी आँखें अनुराग को खोजती नहीं रहेंगी? इस हत्या के साथ ही हम मर गए हैं, हमारा तंत्र मर गया है। मेरी समझ से मानवता की पुलिस के हाथों हत्या कर दी गई है। यही बिहार है, जहाँ कहते हैं कि बहार है, यहाँ भाजपा गठबंधन की सरकार है।”
भले ही ऊपर के ये शब्द मैंने कटाक्ष में लिखे हैं लेकिन क्या ये अक्षरशः सत्य नहीं हैं? ऐसी क्या जल्दी थी कि विसर्जन उसी दिन होना था? चुनाव अगले दिन था, तो प्रतिमा का विसर्जन बाद में भी किया जा सकता था। स्थानीय लोगों ने भी यही विचार किया था कि बड़ी दुर्गा जी को बाद में विसर्जित करेंगे। फिर किसने आदेश दिया कि उसी दिन, हर परम्परा को ताक पर रख कर, प्रतिमा को जबरन बहा दिया जाए?
क्या आपने गोलियों के चलने की आवाज सुनी है वीडियो में? पुलिस दौड़ रही है, अर्धसैनिक बल के जवान दौड़ रहे हैं, और अचानक से गोलियाँ चलने लगती हैं। एक चश्मदीद, जिसकी टाँग में गोली लगी थी, वो पुलिसकर्मियों से दस कदम दूर बैठ कर ये कह रहा है कि पुलिस ने गोली चलाई। स्थानीय लोगों ने दो SHO के नाम लिए जो इस घटना में शामिल बताए जाते हैं।
स्थानीय लोगों ने सीधे तौर पर फायरिंग के लिए पुलिस को जिम्मेदार बताया। एसपी लिपि सिंह ये कहती दिखीं कि ‘बदमाशों‘ ने गोलियाँ चलवाईं। स्थानीय लोगों से बात करने पर ऐसे आरोप भी लगे कि पुलिस ने दर्जनों लड़कों को पकड़ा और उनसे जबरन बॉन्ड साइन करवाया कि वो अराजकता फैला रहे थे। जिसने साइन किया उसे जाने दिया, बाकी अभी भी बंद हैं। मरने वालों की संख्या भी आधिकारिक तौर पर एक, लेकिन स्थानीय लोगों के अनुसार दो से चार तक बताई जा रही है।
जो दुर्गा पूजा समिति के लोग हैं उन्होंने सीधे तैर पर पुलिस को जिम्मेदार बताया कि वो लोग रायफल लहरा रहे थे। अभी भी करीब 150 लोग बंद हैं। उनका कहना है कि पुलिस ने लिपि सिंह के सामने उन्हें बुरी तरह पीटा है। इस पर ऑपइंडिया की कई रिपोर्ट्स हैं जो आप जा कर पढ़ सकते हैं।
ताजा खबरों की मानें तो दो पुलिस स्टेशनों को उग्र भीड़ ने आग के हवाले कर दिया, तोड़-फोड़ की। साथ ही लिपि सिंह के भी कार्यालय पर हमले की बातें कही जा रही हैं। इस समय यह समझना आवश्यक है कि चुनावों की तारीख के सार्वजनिक होने के साथ ही जिले का पूरा प्रशासन चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है। ऐसे में यह मानना थोड़ा कठिन है कि पुलिस को लाठीचार्ज या कथित तौर पर गोली चलाने का आदेश चुनाव आयोग से प्राप्त हुआ होगा।
SP लिपि सिंह और जिलाधिकारी राजेश मीणा को आज चुनाव आयोग ने हटवा दिया है। नए अधिकारी आज ही प्रभार लेंगे। साथ ही, सात दिनों के अंदर जाँच की रिपोर्ट सौंपने का निर्देश भी दिया गया है।
इन सारी बातों के बीच जो बात समझ में नहीं आ रही वो यह है कि आखिर किसकी शह पर ये सब हुआ? अगर पुलिस ने गोली चलाई तो उसके पीछे किसके आदेश थे? क्या यह एक संवेदनशील इलाके में दंगे की स्थिति उत्पन्न करने के बाद चुनावों को प्रभावित करने की साजिश थी? क्या इसमें राजनैतिक पार्टियों के लोग शामिल थे? किसी भी बड़े भाजपा या जद(यू) नेता ने पुलिस के अधिकारियों को निलंबित करने या उन पर हत्या का मामला दर्ज करने की बात क्यों नहीं उठाई?
अनुराग की मृत्यु न तो पहली है, न आखिरी। लेकिन हाँ, यह भार जो हिन्दुओं के ऊपर बढ़ता ही जा रहा है, उसमें अगर किसी पार्टी ने तिनका न रखा हो, तो उसने तिनका उठा कर हल्का करने की भी कोशिश नहीं की। जो तत्परता किसी पहलू खान, तबरेज या अखलाक के मरने के बाद शीर्ष नेतृत्व के बयान में दिखती है, वही किसी अनुराग, राहुल, रवीन्द्र, सुशील, भारत, नारंग, प्रशांत या कमलेश तिवारी तक में नहीं दिखती। प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों है?
‘सबका साथ’ में वो लोग क्या सिर्फ राम मंदिर के शिलान्यास को ही स्वर्णिम क्षण मान कर सो जाएँ? या फिर राजनैतिक रूप से पूर्णतः अप्रासंगिक मान लिए गए हिन्दुओं पर कहीं गोली चलेगी, कहीं उसकी बेटी को खींच ले जाएगा, कहीं व्यवस्थित लव जिहाद चलेगा, कहीं दुर्गा विसर्जन नहीं होने दोगे, कहीं उसकी काँवर यात्रा पर पत्थरबाजी होगी?
क्या हमारा जन्म साबरमती के डिब्बों में पहले जीवित जलने और उसके बाद उसी इलाके के दंगों में मरने, और फिर उस दंगों का अपराध भी हमारे धर्म के ऊपर ही लेने के लिए हुआ है? हमारे सहिष्णुता की परिणति हमारे छोटे भाई के सर में गोली मार कर, सड़क पर गिरे उसके रक्तिम मस्तिष्क के रूप में क्यों होती है? हमें क्यों मुस्लिम बहुल इलाकों से अपने मकानों पर ‘यह मकान बिकाऊ है’ लिख कर भागना पड़ रहा है? दिल्ली की मोहनपुरी में रह रहा हिन्दू हनुमान चालीसा न तो ज़ोर से गा सकता है, न स्पीकर पर बजा सकता है, लेकिन उसे पाँच बार मियाँ की अजान सुननी पड़ेगी क्योंकि ये देश सेकुलर है।
सड़क पर गिरा वो मग़ज़ उस क्रूरता की कहानी है जो एक दिन यहाँ हिन्दू होने के कारण हमें चुकाना पड़ता है। मुंगेर हत्याकांड पर वामपंथी मीडिया में चुप्पी तो समझ में आती है, आपको यह न पता हो कि किसने मारा, वो भी समझ सकता हूँ, लेकिन एक माँ की गोदी में एक बच्चे की लाश तो है ना? वो भी नहीं दिख रहा? किसने मारा, क्यों मारा, कब और कहाँ मारा ये न भी पता हो, फिर भी एक बच्चा तो है जिसका आधा चेहरा गायब है। वो काफी नहीं है क्या?
या फिर, हिन्दुओं के उबलने का इंतजार हो रहा है? एक तरफ एक मजहब कमर कस कर, किसी भी तरह, चाहे दंगों की शक्ल में हो, चाहे हमारी बच्चियों को प्रेम की बात कर के रेप करने की शक्ल में, आपकी जमीनों पर कब्जा कर के आपको अपने ही इलाके और घर छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा हो, और दूसरी तरफ एक राजनैतिक उपेक्षा, हिन्दुओं को विचित्र स्थिति में खड़ा कर देती है।
और वह स्थिति है कि वो वोट दे तो किसे दे? उसे जो उसके हितों की बात तो करता है लेकिन कुछ सांकेतिक बातों को छोड़ कर उसके ऊपर हो रहे अन्याय पर नहीं बोलता, लेकिन किसी तबरेज या अखलाक पर उसे असीम पीड़ा का अनुभव होता है? या फिर उसे जिसने ऐतिहासिक तौर पर उसे तीसरे दर्जे का मान कर कभी उसके लिए कुछ किया ही नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति, इतिहास, परम्पराओं को लगातार झुठलाया और उसमें हीन भावना भरी।
इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ समय में एक जागृति आई है लेकिन वह जागृति राजनैतिक से कहीं ज्यादा सामाजिक है। यह जागृति भी इसी मामूली जनता के हाथों में आई तकनीकों के कारण है, न कि तथाकथित हिन्दूवादी नेता अचानक से हिन्दू हृदय सम्राट बन गए और वो कह रहे हैं, कर रहे हैं जो खुल कर कहा और किया जाना चाहिए। जी नहीं, अपवाद को छोड़ दीजिए, तो आज भी उनके हर कदम में परोक्ष तुष्टिकरण की सड़ाँध दिख ही जाती है।
यह भी जानता हूँ कि सत्ता पाना और सत्ता में बने रहना एक सतत प्रक्रिया है। लेकिन, सहानुभूति के एक बयान से तुम्हारी सत्ता छिन नहीं जाएगी। तुम उस माँ को राजनैतिक वचनों से, सवा लाख करोड़ की परियोजनाओं से ढाढ़स नहीं बँधा सकते, बल्कि तुम्हारा एक ट्वीट, तुम्हारे तरफ से रैली में बोला गया एक वाक्य उस माँ को यह दिलासा दिलाएगा कि सबसे बड़े नेता ने कहा है, तो उसे न्याय मिलेगा। बस इतनी सी अपेक्षा तो रख ही सकता है वो हिन्दू जो सड़क, पानी, बिजली, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आरक्षण की मार झेलते हुए भी तुम्हें हर बार भावनात्मक कारणों से वोट देता है।
बिहार में कुछ खास बदलाव नहीं हुए हैं, फिर भी सरकार किसकी आएगी यह एक आसान सा आकलन है। यह आकलन भी आसान है कि ऐसा क्यों है। भले ही भभुआ का कोई हिन्दू जीवन भर अयोध्या के राम मंदिर तो छोड़िए, अयोध्या जिले तक न जा पाए, लेकिन वो वोट उसी पार्टी को हर बार देता है जिसके नेताओं ने उस मंदिर का वहाँ बनना संभव किया।
हिन्दू ‘बीरबल की खिचड़ी’ के उस ब्राह्मण की तरह है जो तुम्हारे शाही किले में जलते दीपक की लौ से भी ऊष्मा पाता है। हिन्दू को बस इससे मतलब है कि उसके आराध्य का मंदिर बन रहा है। लेकिन सवाल यह है, हे सत्ताधीश! कि क्या तुम्हें हिन्दुओं से कुछ मतलब है?