Friday, April 26, 2024
Homeविचारसामाजिक मुद्देलोगो में ईसाई धर्म... बात विज्ञान की: 600 साल पहले रचा गया था प्रपंच,...

लोगो में ईसाई धर्म… बात विज्ञान की: 600 साल पहले रचा गया था प्रपंच, महामारी में WHO-IMA बढ़ा रहा उसी को आगे

एक ऐसी संस्था जो विज्ञान और तर्क के दायरे में रहकर ईसाई धर्म के मंसूबों को पूरा कर रही है, उसे किसी भी समानांतर संस्था से खतरा तो महसूस होगा ही।

दुनिया में पुनर्जागरण के बाद से ही यह स्थापित किया गया कि धर्म पर विज्ञान को तरजीह दी जानी है। चर्च और राज्य के राजनीतिक वर्चस्व की उस लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी का हुआ तो वह थी सामाजिक व्यवस्था। कैसे?

वृहद समाज (देश) में कई तहों में छोटे-छोटे समाज हुआ करते हैं। सबकी अपनी समझ, अपनी सोच और मान्यताएँ होती हैं। एक धागा जो इन सब समाजों को एक डोर में पिरोता है, वो है धर्म। अब धर्म अपने आदर्श स्वरूप में एक बेहद चुस्त और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है। धर्म अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग स्वरूपों में विद्यमान है। जैसे भारत में धर्म का पुराना स्वरूप परम्पराओं के रूप में था। ये परम्पराएँ समाज के हर तबके में उन तबके की सुविधानुसार अलग-अलग थीं।

राज्य और धर्म का संघर्ष आखिर क्यों शुरू हुआ? आसान भाषा में कहा जाए तो धर्म, जिसका क्षेत्र समाज था, और राज्य जिसका क्षेत्र राजनीतिक आयाम था, दोनों एक दूसरे के आयामों में घुसने की कोशिश करने लगे। धर्म (चर्च) परम्पराओं की बजाय कानून भी बनाने लगा। यहाँ तक कि राज्य के क़ानूनों को भी चर्च से सहमति मिलने पर ही लागू किए जा सकते थे। लोगों की जीवनचर्या में धर्म का प्रभाव काफी बढ़ गया। यहाँ तक कि महामारियों के दौर में कितने दिनों का एकांतवास (क्वारंटाइन पीरियड) होना चाहिए, यह भी धर्म के रास्ते से तय किया गया।

आज भी बाइबल के पुराने वर्जन में क्वारंटाइन शब्द के इस्तेमाल को देखा जा सकता है (अंग्रेजी मीडिया की कितनी ही रिपोर्ट्स इस बारे में छप चुकी हैं)। अंततः पुनर्जागरण एक निर्णयकारी दिन साबित हुआ। इस दिन यह निर्णय हो गया कि राज्य, चर्च पर भारी है। इस एक वाक्य के कई मायने हैं; जैसे- विज्ञान की धर्म पर तरजीह, तर्क की भावना पर तरजीह और इस तरह से परत दर परत द्वैध (duality) का एक चलन शुरू हो गया। चीजों को, विषयों को स्याह और सफ़ेद में ही देखे जाने का चलन शुरू हुआ। पुराना समाज परम्पराओं के ‘ग्रे एरिया’ पर आधारित था, जहाँ आम जनमानस को स्याह अथवा सफ़ेद में से एक को ही चुनने की मजबूरी नहीं होती थी।

एक समय ऐसा भी आया, जब यह ‘एक विषय पर दूसरे को तरजीह’ देने की जगह अब दूसरे विषय को हिकारत की नज़र से देखा जाना शुरू किया गया। अब समय आया कि धर्म की बात करने वाला धार्मिक व्यक्ति ‘मूर्ख’ की श्रेणी का माना जाने लगा। धार्मिक अथवा आध्यात्मिक तर्क को तर्क मानने से ही इनकार कर दिया गया और जो चिकित्सा पद्धतियाँ धर्म के दायरे में पनपी थीं, जिनको विकसित होने में सैकड़ों वर्ष लगे थे, जो श्रुतियों पर आधारित थीं, वे सब सिरे से नकार दी गईं। इन सब में उपनिवेशवाद का भी भरपूर हाथ रहा।

जहाँ भी औपनिवेशिक शक्तियाँ पहुँची, वहाँ की मूल ज्ञान परम्पराओं का नाश हुआ। भारत को उदाहरण के तौर पर लें तो यहाँ आज भी अवशेष रूप में आयुर्वेद, होम्योपैथी और योग जैसी चिकित्सा पद्धतियाँ मौजूद हैं। पर आप सोचिए कि इन पद्धतियों के नाममात्र के मौलिक ग्रंथ ही अवशेष रूप में आज मौजूद हैं। उस ज्ञान परंपरा का संरक्षण तो दूर, उनको हिकारत की नजर से देखा गया और उन्हें नकार दिया गया।

इसी तरह से दुनिया भर की मौलिक परम्पराओं को खत्म करके अंग्रेजी दवाओं और चिकित्सा पद्धति का वर्चस्व पूरी दुनिया में कायम हुआ। इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तमाम संस्थाएँ चलाई गईं। आज के दौर में भी दुनिया भर की पत्रिकाएँ, समाचार चैनल, विज्ञापन के तमाम माध्यम और लोक व्यवहार को परखने और बदलने का माद्दा रखने वाले सोशल मीडिया पर बकायदा हस्तक्षेप और नियंत्रण रखा जा रहा है।

आज के दौर में चीन के शहर वुहान से एक वायरस निकला और पूरी दुनिया में फैल गया। आज उस वायरस की तबाही से पूरी दुनिया त्रस्त है। जनजीवन अब सामान्य नहीं रहा। इस बात का भी अंदेशा है कि शायद दुबारा सब कुछ पहले जैसा कभी न हो पाए।

ऐसे समय में आप पुनर्जागरण के उस बीज को याद कीजिए, जिसकी वजह से दुनिया में सिर्फ एक ही चिकित्सा पद्धति का वर्चस्व शेष रह गया है। इस बात की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है कि यदि दुनिया भर में चिकित्सा विज्ञान की तमाम मौलिक पद्धतियाँ जीवित होतीं तो शायद इस वायरस को सीमित करने में थोड़ी सहूलियत हो जाती। क्योंकि वर्तमान अंग्रेजी पद्धति इस बीमारी और इस वायरस के आगे नतमस्तक होती दिख रही है। बात चाहे वायरस को समझने की हो या उसका इलाज खोजने की, अंग्रेजी चिकित्सा विज्ञान हर कसौटी पर असफल हुआ है।

यह बात सच है कि शोध में समय लगता है। पर यही बात इस संकल्पना पर भी लागू होती है कि इस वायरस की उत्पत्ति के विभिन्न कारणों की पड़ताल भी ठीक से की जाए। पर नहीं, यहाँ तो इस बात की जल्दबाज़ी में घोषणा कर दी गई कि यह वायरस प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हुआ और फैला है। और इस संकल्पना को सिरे से नकार दिया गया कि इस वायरस की उत्पत्ति प्रयोगशाला में जानबूझकर की गई है। इस मसले पर वैज्ञानिकता और तर्क दोनों को दरकिनार कर दिया गया।

यही तो पुनर्जागरण का मूलतत्व था, जिसे यहाँ जरूरी नहीं समझा गया। एक बार यह बात दुनिया भर में फैला देने के बाद जागरूकता का मिशन चलाया गया। जागरूकता के नाम पर मास्क और सैनिटाइजर के इस्तेमाल पर खूब ज़ोर दिया गया। जबकि अंग्रेजी पद्धति में शोध की महत्ता को यहाँ भी नकारा गया। नतीजा कुछ समय के बाद यह बात सामने आने लगी कि मास्क लगाने और सैनिटाइजर का इस्तेमाल करने के तमाम नुकसान भी हैं।

यहाँ बात सिर्फ मास्क और सैनिटाइजर की ही नहीं हैं। अगर ठीक से देखा जाए तो हम पाएँगे कि बीमारी की शुरुआत से जिन दवाओं और जिन तरीकों को जीवन रक्षक माना गया, कुछ समय के पश्चात ही उन पर सवाल खड़े होने लगे।

सबसे पहले कोविड की पहली लहर के समय हाईड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को जीवनरक्षक माना गया, दुनिया भर में इस दवा को पाने की होड़ लग गई। फिर एक दिन कहा गया कि ये दवा कारगर नहीं है। ऐसा ही प्लाज्मा थेरेपी के साथ भी हुआ, लोग जी जान से प्लाज्मा की व्यवस्था करने, जुगाड़ करने में जुट गए।

तमाम शोध हुए, रिसर्च पेपर छपे, फिर एक दिन प्लाज्मा थेरेपी को भी बेअसर तरीका बताकर उससे भी पल्ला झाड़ लिया गया। फिर स्टेरॉयड थैरेपी आई। बहुत ज़ोर-शोर से स्टेरॉयड थैरेपी पर काम शुरू हुआ। बाज़ार में स्टेरॉयड्स की माँग इतनी बढ़ गई कि कालाबाजारी तक की नौबत आ गई। लेकिन फिर वही, ढाक के तीन पात, और इस बार तो हद ही हो गई, इन स्टेरॉयड्स के प्रयोग ने ब्लैक फंगस जैसी जानलेवा बीमारी को भी जन्म दे दिया। रेमडेसिविर के साथ भी कमोबेश ऐसा ही हुआ।

ये सब दवाएँ बड़े ज़ोर शोर से बाज़ार में उतारी गईं, और फिर वापस खींच ली गईं। ये सारी अंग्रेजी दवाइयाँ थीं, शायद इसीलिए इन्हें बिना पूरे शोध के ही बाज़ार में उतार दिया गया था। अन्यथा आयुर्वेद के दायरे में बनाई गई कोरोनिल को कम से कम दवा की श्रेणी से ही बाहर कर दिए जाने का कोई तुक नहीं था।

इन तथ्यों और दवाईयों की इन घटनाओं के आलोक में एक बार फिर से पुनर्जागरण के उन मूल्यों की ओर लौटते हैं। तो पुनर्जागरण धर्म और विज्ञान को अलग-अलग करने की बात करता है। भावना और तर्क को अलग-अलग करने की बात करता है। बल्कि तर्क और विज्ञान को तरजीह देने की बात करता है।

पुनर्जागरण जिस जगह और जिस समय में हुआ वहाँ धर्म का आशय ईसाई धर्म से था। उसके बाद उपनिवेशवाद का दौर शुरू हुआ और ईसाई समाज के लोग पुनर्जागरण की मशाल लेकर दुनिया को ‘सभ्य’ बनाने के मिशन में निकल पड़े। उन्होंने दुनिया के देशों को गुलाम बनाया। वहाँ संस्थाएँ स्थापित कीं, और पहले से स्थापित परम्पराओं और संस्थाओं को नष्ट किया। उपनिवेशवाद के उस दौर में जो ये सब कुछ किया गया, उसके निहितार्थ आज क्या हैं? कोरोना महामारी के दौर में यह सवाल ज्यादा प्रासंगिक हो जाता है।

डबल्यूएचओ स्वास्थ्य के बारे में बात करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है। विज्ञान और तर्कों पर आधारित संस्था। आप ध्यान से डबल्यूएचओ के लोगो को देखिए। इस लोगो में आपको संयुक्त राष्ट्र के लोगो के ऊपर एक दंड दिखाई देगा। इस दंड को एक साँप ने लपेट रखा है। यह दंड और साँप वाला निशान काफी समय से चिकित्सा से संबधित विषयों को दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है। पर असल में यह क्या दर्शाता है?

थोड़ा कोशिश करने पर आप पाएँगे की यह दंड ईसाई देवता अपोलो के पुत्र असलेपियस का दंड है, जिन्हें स्वास्थ्य और उपचार का देवता माना जाता है। यह निशान इस्तेमाल करना ‘धर्म को पूरी तरह नकार देने’ के मूल्य पर खरा तो नहीं उतरता और यह विषय और भी गंभीर इसलिए है क्योंकि डबल्यूएचओ केवल ईसाई धर्मावलम्बियों की संस्था नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है। ऐसे में एक ईसाई देवता का निशान यहाँ होना सिर्फ एक संयोग मात्र नहीं बल्कि धार्मिक तौर पर भी उपनिवेशवाद को फैला दिए जाने की परिणति है।

इसी तरह की धार्मिक उपनिवेशवादी मानसिकता का एक उदाहरण भारत में भी हाल ही में देखने को मिला। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए भारत में स्वास्थ्य मामलों को लेकर बनाई गई एक ऐसी संस्था है, जो भारत की आज़ादी के पहले से चल रही है। जाहिर है कि यह संस्था भी मेडिकल के नाम पर अंग्रेजी पद्धति को ही तरजीह देती है।

हाल का मामला यह है कि आईएमए के अध्यक्ष जॉन रोज़ ऑस्टिन जयलाल पर एक मुकदमा दर्ज हुआ है। इस मुकदमे में यह कहा गया है कि अध्यक्ष जी कोविड-19 महामारी का फायदा उठाते हुए महामारी से जूझ रहे लोगों को ईसाई धर्म अपनाने को विवश कर रहे थे।

क्रिश्चियनिटी टुडे को दिए गए एक इंटरव्यू में आईएमए के अध्यक्ष और पेशे से सर्जन डॉक्टर जयलाल ने कहा, “मैं मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हूँ, और यह मेरे लिए एक अच्छा मौका है कि मैं ईसाई धर्म की उपचार पद्धतियों का प्रसार कर सकूँ।“ ये वही डॉक्टर हैं, जिन्होंने पिछले दिनों सरकार पर न सिर्फ आरोप लगाया बल्कि इस बात के लिए आंदोलनरत रहे कि भारत में हिन्दू पद्धति पर सरकार ज़ोर दे रही है।

2019 में सरकार नेशनल मेडिकल कमीशन बिल लेकर आई। जिसके उद्देश्यों में सरकार ने स्पष्ट किया कि, अधिसंख्य चिकित्सकों की नियुक्ति सुनिश्चित की जाए, चिकित्सा से जुड़े शोध को बढ़ावा दिया जाए, जो संस्थाएँ चिकित्सा के क्षेत्र में काम कर रही हैं, उनका समय-समय पर निरीक्षण होता रहे, और साथ ही इस बिल में एक प्रभावशाली समस्या निवारण प्रणाली हो।

इसी बिल से जयलाल जी को समस्या थी। समस्या क्यों थी, यह शोध का विषय जरूर है, लेकिन संकल्पनाएँ बना लेना कोई मुश्किल नहीं। आईएमए की तरफ से इस बिल का खूब विरोध हुआ। कारण समझना मुश्किल नहीं है। आखिर एक ऐसी संस्था जो विज्ञान और तर्क के दायरे में रहकर ईसाई धर्म के मंसूबों को पूरा कर रही है, उसे इस तरह की समानांतर संस्था से खतरा तो महसूस होगा ही। अन्यथा विज्ञान मात्र की बात होती तो शोध और संस्था का निर्माण एक सकारात्मक पहलू के तौर पर अवश्य लिया जाता।

अब पुनर्जागरण पर सवाल कीजिए। आप सोचिए कि क्या पुनर्जागरण वाकई धर्म और राज्य को अलग-अलग करता है? क्या पुनर्जागरण वाकई धर्म पर विज्ञान को तरजीह देने का नाम है? या फिर पुनर्जागरण ईसाई धर्म को दूसरे धर्मों पर तरजीह देने का एक तरीका है?

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

नहीं होगा VVPAT पर्चियों का 100% मिलान, EVM से ही होगा चुनाव: सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की सारी याचिकाएँ, बैलट पेपर की माँग भी...

सुप्रीम कोर्ट ने वीवीपैट वेरिफिकेशन की माँग से जुड़ी सारी याचिकाएँ 26 अप्रैल को खारिज कर दीं। कोर्ट ने बैलट पेपर को लेकर की गई माँग वाली याचिका भी रद्द कीं।

‘मुस्लिमों का संसाधनों पर पहला दावा’, पूर्व PM मनमोहन सिंह ने 2009 में दोहराया था 2006 वाला बयान: BJP ने पुराना वीडियो दिखा किया...

देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2009 लोकसभा चुनावों के समय 'मुस्लिमों का देश के संसाधनों पर पहला हक' वाला बयान दोहराया था।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe