केके शैलजा समर्थकों के बीच शैलजा टीचर के नाम से जानी जाती हैं। उन्हें केरल विधानसभा में माकपा (CPM) का व्हिप बनाने की अटकलें लग रही है। इन अटकलों का दौर तब शुरू हुआ है जब केरल की नई वामपंथी सरकार में शैलजा को शामिल नहीं करने को लेकर सोशल मीडिया में एक धड़े में काफी नाराजगी देखी जा रही है।
दिलचस्प यह है कि यह धड़ा लेफ्ट-लिबरल जमात से ही ताल्लुक रखता है। यही वह खेमा है जिसने केरल विधानसभा चुनावों के दौरान शैलजा को लेकर तारीफों के पुल बाँध दिए थे। कोरोना से निपटने के उनके उस मॉडल की शान में कसीदे पढ़े थे जिसका जनाजा कब का उठ चुका था।
पिनराई विजयन की अगली पिछली सरकार में शैलजा स्वास्थ्य मंत्री थीं। इस बार के चुनावों में भी उन्होंने 60 हजार से ज्यादा वोटों के रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की है। लेकिन विजयन ने इस बार शैलजा सहित अपने किसी भी पुराने कैबिनेट सहयोगी के साथ आगे नहीं बढ़ने का फैसला किया। इसकी जगह अपने दामाद सहित 11 नए चेहरों को मौका देने का फैसला किया है।
पुराने मंत्रियों में से एक शैलजा ही हैं जिनको मौका नहीं दिए जाने पर उनकी आलोचना हो रही है। खैर, विजयन का यह फैसला वामपंथी दलों की महिला विरोधी संस्कृति का एक और नमूना है। जेएनयू के ढाबों पर जोर-जोर से लैंगिक समानता की बात करने वाले वामपंथी वैचारिक तौर पर कितने दोगले होते हैं यह उनकी दलीय संस्कृति पर गौर करने से पता चल जाता है। शैलजा पहली मजबूत महिला नेता नहीं हैं, जिन्हें पार्टी ने निपटाया है।
@CMOKerala We deserve better than this! #bringourteacherback One of the most able leaders of our times! A rarity, really! @shailajateacher led the state through the most difficult of medical emergencies.
— Parvathy Thiruvothu (@parvatweets) May 18, 2021
केरल की ही बात करें तो गौरी अम्मा के नाम से प्रसिद्ध रहीं केआर गौरी के साथ हुआ सुलूक याद आ जाता है। गौरी अम्मा की मृत्यु 11 मई 2021 को ही हुई है। यानी, केरल विधानसभा चुनाव के नतीजों के 9 दिन बाद। एक जमाने में वे केरल की कद्दावर वामपंथी महिला नेत्री हुआ करती थीं। न्यूज मिनट की एक रिपोर्ट बताती है कि 1987 का विधानसभा चुनाव सीपीएम ने उनके पोस्टर लगा और उनको मुख्यमंत्री बनाने का वादा कर जीता था। लेकिन, नतीजों के बाद उनको दरकिनार कर एके नायर को नेतृत्व सौंप दिया। अब ऐसा ही शैलजा के साथ उस वक्त किया गया है, जब यह माना जा रहा था कि भविष्य में वह राज्य में मुख्यमंत्री पद की सबसे प्रबल दावेदार हैं।
ऐसा भी नहीं है कि वामपंथी दलों में महिलाओं को निपटाने का यह दस्तूर केवल राज्यों में है। माकपा ने अपनी शीर्ष ईकाई पोलित ब्यूरो का दरवाजा महिलाओं के लिए पहली बार 2005 में खोला। पहला मौका बृंदा करात को मिला था। यह अजीब संयोग है कि उसी साल उनके पति प्रकाश करात को पार्टी महासचिव की जिम्मेदारी मिली थी। फिलहाल प्रकाश करात वाली भूमिका सीताराम येचुरी के पास है और पोलित ब्यूरो में महिला प्रतिनिधित्व के नाम पर सुभाषिनी अली हैं। लेकिन, पोलित ब्यूरो के दरवाजे खुलने से ऐसा नहीं हुआ कि पार्टी में महिलाओं के नेतृत्व का उभार हुआ हो। प्रकाश करात के पृष्ठभूमि में जाते ही मीडिया की लाडली रहीं बृंदा करात भी चर्चाओं से गायब हो गईं।
भारतीय राजनीति में वामपंथी दलों के अवसान का क्रम 2009 से शुरू हुआ। लेकिन, इन दलों में महिला नेतृत्व का कभी सूर्योदय ही नहीं हुआ। आधी आबादी को पार्टी या सरकार चलाने और उससे संबंधित फैसले लेने के योग्य कभी माना ही नहीं गया। संगठन, सरकार और चुनावों में उनकी भूमिका हमेशा से वामपंथियों ने ‘शो पीस’ ही बनाकर रखी। उन्हें हमेशा दोयम होने का अहसास कराया।
और यह सब तब हुआ जब भारत को पहली महिला प्रधानमंत्री 1966 में मिल गई थी। पहली महिला मुख्यमंत्री तो 1963 में ही मिल गई थी। यहाँ तक कि 1995 में देश ने पहली दलित महिला मुख्यमंत्री को भी देख लिया। लेकिन, लाल कोठरी ने उनके लिए दरवाजे ऐसे वक्त में भी बंद कर रखे हैं जब वामपंथी दल मृत्यु शय्या पर लेटे भारत की राजनीतिक जमीन पर अंतिम साँसे गिन रहे हैं। उससे भी शर्मनाक यह है कि इस सुलूक के बावजूद वे शैलजा की तरह हर फैसले का ‘स्वागत’ करने को अभिशप्त भी हैं।
#WATCH | Everyone worked hard in their depts. But it doesn’t mean that only I should continue. There are so many other people like me, they can also work hard. It’s very good decision: KK Shailaja
— ANI (@ANI) May 18, 2021
All sitting Ministers dropped from new Kerala cabinet, incl Health Min KK Shailaja pic.twitter.com/OUGXDXBBv8