झारखंड इन दिनों विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Election 2024) के शोर में डूबा है। इस चुनाव में रोटी, बेटी, माटी की गूँज है। इसी गूँज के बीच 8 नवंबर और 15 नवंबर (जनजातीय गौरव दिवस) भी बीता है। 8 नवंबर वह तारीख है, जिसको लेकर माना जाता है कि आज के झारखंड में जनजातीय/आदिवासी समाज (Scheduled Tribes) का पहली बार ईसाई धर्मांतरण हुआ।
झारखंड में पहली बार कब-कैसे ST बने ईसाई?
1873 में खुंटपानी (Khuntpani/Khutpani) में 6 मुंडा परिवारों के 28 लोगों का कोलकाता से आए आर्क बिशप स्टांइस ने बपतिस्मा कराया था। खुंटपानी आज के झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिला का हिस्सा है। यहाँ एक शिलापट्ट भी है, जिस पर उनलोगों के नाम दर्ज हैं जो पहली बार ईसाई बने। इसकी स्मृति में हर साल 8 नवंबर को यहाँ एक ‘तीर्थ मेला’ लगता है। इसमें झारखंड और आसपास के प्रदेशों के ईसाई धर्मांतरित लोगों का जमावड़ा ही नहीं लगता, बल्कि अच्छी-खासी संख्या में विदेशों से भी रोमन कैथोलिक धर्मावलंबी आते हैं।
संथाल परगना: पहले ईसाई धर्मांतरण, अब मुस्लिमों की घुसपैठ
खुंटपानी वैसे तो छोटानागपुर का हिस्सा है। लेकिन ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण कुचक्र से सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में झारखंड का संथाल परगना (Santhal Pargana) भी आता है। इतना प्रभावित कि इस क्षेत्र में ST से ईसाई बने लोगों का जन प्रतिनिधि चुना जाना सामान्य सी बात है।
आश्चर्यजनक तौर पर यह संथाल परगना इस समय बांग्लादेशी-रोहिंग्या मुस्लिमों की घुसपैठ (Bangladeshi Rohingya Muslim infiltrators) से डेमोग्राफी बदलाव को लेकर चर्चित है। इस क्षेत्र से सरना (जनजातीय समाज का धार्मिक स्थल) विलुप्त हो रहे हैं, मस्जिद-मजार उग रहे हैं। जनजातीय समाज अपनी जमीन-रोजगार से लेकर बेटी तक गँवा रहे हैं, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक कई रैलियों में कर चुके हैं।
घुसपैठ रोकने और सरना कोड का वादा
इस विकट हालात को देखते हुए बीजेपी ने वादा किया है कि यदि प्रदेश में एनडीए की सरकार बनी तो वह घुसपैठ रोकने के साथ ही उन जमीनों को वापस लेने के लिए कानून बनाएगी, जिन पर घुसपैठियों का कब्जा है या फिर उन्होंने जालसाजी कर खरीदा है। घुसपैठ के अलावा इन चुनावों में ‘सरना धर्म कोड (Sarna Dharam Code/Sarna Religious Code)’ भी चर्चा में है।
क्या है सरना धर्म कोड?
भारत में इस समय 6 धार्मिक समुदायों को मान्यता देने वाला कानून है। ये हैं- हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन। घुसपैठ को नकारने वाला कॉन्ग्रेस-झामुमो गठबंधन ने सरना आदिवासी धर्म कोड का वादा किया है।
नवंबर 2020 में INDI गठबंधन की सरकार ने झारखंड विधानसभा का एक दिन का विशेष सत्र बुलाया था। इसमें 2021 की जनगणना में ‘सरना’ को एक अलग धर्म के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ था। सरकार की मंशा पर सवाल उठाते हुए बीजेपी ने भी समर्थन किया था। इस प्रस्ताव के बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर भी यह माँग दुहराई थी।
झारखंड चुनावों के लिए बीजेपी का संकल्प-पत्र जारी करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सरना कोड पर विचार करने और उचित निर्णय लेने की बात कही थी। राज्य में बीजेपी के चुनाव प्रभारी केंद्रीय मंत्री शिवराज सिंह चौहान भी कई मौकों पर पार्टी की इस लाइन को दोहरा चुके हैं। वहीं असम के मुख्यमंत्री और चुनाव सह प्रभारी हिमंता बिस्वा सरमा तो यह भी कह चुके हैं सरकार बनने पर पार्टी सरना कोड लागू करेगी।
सरना कोड जनजातीय समाज को अलग धार्मिक समुदाय के तौर पर मान्यता देता है। बीजेपी ने सार्वजनिक तौर पर कभी इसका विरोध नहीं किया। लेकिन वह इसको लेकर कभी मुखर भी नहीं रही है। इन चुनावों में सरना कोड पर बीजेपी के सुर में जो नरमी दिख रही है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की सोच से भी उलट है। संघ जनजातीय समाज को हिंदू धर्म का हिस्सा मानता रहा है। वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठनों के जरिए जनजातीय क्षेत्रों में वह इसी सोच के साथ कार्य करता है। संघ के ही एक संगठन जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्रीय (बिहार-झारखंड) संयोजक संदीप उरांव का कहना है कि सरना कोड लागू होने पर कई स्तरों पर समस्याएँ पैदा होंगी।
ईसाई धर्मांतरण के जिस कुचक्र में जनजातीय समाज फँसा हुआ है, उसका उपचार सरना कोड है भी नहीं। सन 1871 से लेकर 1951 तक की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड था। बावजूद ईसाई धर्मांतरण हो रहा था। जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं झारखंड में यह सिलसिला 1873 में खुंटपानी से शुरू हो चुका था।
खुंटपानी की तरह ही मदकू द्वीप में भी लगता है मेला
खुंटपानी की तरह ही मदकू द्वीप (Madku Dweep) पर भी ईसाइयत का मेला लगता है। छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले का यह द्वीप शिवनाथ नदी की जलधारा से घिरा है। इसी द्वीप पर माण्डूक्य ऋषि ने ‘मुण्डकोपनिषद्’ की रचना की जिससे ‘सत्यमेव जयते (Satyamev Jayate)’ निकला है।
इस द्वीप तक पहुँचना सरल नहीं है। सितंबर 2022 में नाव से नदी पार कर मैं यहाँ तक पहुँचा था। लेकिन जब इस निर्जन द्वीप पर क्रॉस वाला एक मंच देखा तो आश्चर्यचकित रह गया। पता चला कि हर साल फरवरी में इस द्वीप पर सबसे बड़ा जमावड़ा लगता है। यह जमावड़ा सप्ताह भर चलने वाले ‘मसीही मेला’ को लेकर लगता है। यह मेला साल 1909 से लग रहा है।
खुंटपानी जैसी ही है खड़कोना की भी कहानी
छत्तीसगढ़ का जशपुर ईसाई धर्मांतरण का बड़ा केंद्र है। इसी जिले के कुनकुरी में इस देश का सबसे बड़ा चर्च है। यहाँ भी जनजातीय समाज के लोगों को ईसाई बनाने का सिलसिला तभी शुरू हो गया था, जब अंग्रेजों ने सरना को अलग से मान्यता दे रखी थी।
जशपुर जिले के मनेरा ब्लॉक में एक गाँव है- खड़कोना। इस गाँव में प्रवेश करते ही आपको क्रूस चौक मिलता है। चर्च के पास एक शिलापट्ट पर उन 56 लोगों के नाम अंकित हैं, जिनका 21 नवंबर 1906 को बपतिस्मा हुआ था। इसी गाँव में मैंने ‘साहेब कोना’ भी देखा है, जहाँ धर्मांतरित हिंदुओं का सालाना आयोजन होता है।
ईसाई धर्मांतरण का जमीन पर कितना भयावह असर हो सकता है, यह जानने-समझने में यदि आपकी दिलचस्पी हो तो आपको जशपुर की यात्रा करनी चाहिए। खड़कोना तक जाना चाहिए। सरकारी कागजों के हिसाब से इस जिले का हर चौथा व्यक्ति ईसाई है। डेमोग्राफी में यह बदलाव तब भी आ चुका है जब इस जिले में आज भी एक ऐसे राजपरिवार (दिलीप सिंह जूदेव का परिवार) का व्यापक प्रभाव है जो शुरुआत से ही ईसाई मिशनरियों की साजिशों से लड़ता रहा है। इस राजपरिवार की पहचान चरण पखार कर धर्मांतरित हिंदुओं खासकर जनजातीय समाज के लोगों की घर वापसी कराने को लेकर है।
सरना हासिल करने की एक लड़ाई क्लेमेंट लकड़ा की भी
सरना कोड पर 24 साल पुराने झारखंड में जारी राजनीतिक लड़ाई से भी पुरानी (30+ साल) सरना हासिल करने की लड़ाई 58 साल के क्लेमेंट लकड़ा की है। 2022 की एक शाम मैं जब क्लेमेंट से मिलने उनके घर पहुँचा था तो उन्होंने कहा था;
मेरे पिता को ठगा गया। बेवकूफ बनाया गया। इस बात को मैंने जिस दिन समझा उसी दिन मेरा मन इससे (ईसाई) उचट गया। मैंने प्रण किया है कि जिस सरना को इन्होंने (कैथोलिक संस्था) अपवित्र किया, वह इनसे वापस लूँगा और वहीं अपने पुरखों के धर्म में लौटूँगा। देखता हूँ आखिर कब तक इनसे लड़ पाता हूँ।
दो बेटियों के पिता क्लेमेंट अपने परिवार के साथ छत्तीसगढ़ की कुनकुरी विधानसभा क्षेत्र के दुलदुला में रहते हैं। उनकी पत्नी सुषमा लकड़ा दुलदुला की सरपंच हैं। उनके घर की दीवारों पर लगी तस्वीरें बताती हैं कि यह परिवार धर्मांतरित होकर ईसाई बन चुका है। लेकिन घर के कोने में एक टेबल पर पड़ी दस्तावेजों में वह दर्द अंकित है, जिसे धर्मांतरण के बाद इस परिवार ने भोगा है।
क्लेमेंट की करीब 10 एकड़ जमीन पर कैथोलिक संस्था का कब्जा है। इस जमीन पर चर्च है। स्कूल है। फादर और नन के रहने के लिए घर बने हुए हैं। खाली पड़ी जमीनों पर संस्था के ही लोग खेती करते हैं। यह जमीन क्लेमेंट के पिता भादे उर्फ वशील उरांव ने ईसाई बनने के बदले खोई थी।
ईसाई संस्था से कानूनी लड़ाई जीतने के बाद भी क्लेमेंट उस जमीन पर लौट नहीं पा रहे हैं। उलटे कैथोलिक संस्था के अधिकारी और उनके साथी उनके परिवार को प्रताड़ित करते हैं। दुलदुला पंचायत के विकास कार्यों में रोड़ा अटकाया जाता है। उनकी पत्नी से कहा जाता है कि अपने पति से केस वापस लेने के लिए कहो। ऐसी ही एक घटना का जिक्र करते हुए क्लेमेंट ने ऑपइंडिया को बताया था, “फरवरी 2022 में चर्च में एक मीटिंग बुलाई गई। इस मीटिंग में मुझसे कहा गया कि यदि केस वापस नहीं लोगे तो तुम्हें समाज से बाहर कर देंगे। फिर तुम्हारी बेटियों से कौन शादी करेगा।”
आपदा में भी अवसर तलाश लेते हैं ईसाई मिशनरी
एक संस्था है- अनफोल्डिंग वर्ल्ड। बाइबिल का हर भाषा में अनुवाद करने के मिशन पर काम कर रही है। इसके CEO डेविड रीव्स ने 2021 में कुछ चौंकाने वाले खुलासे किए थे। उन्होंने बताया था कि कोविड काल में करीब 1 लाख लोगों को ईसाई बनाया गया। हर चर्च को 10 गाँवों में प्रार्थना आयोजित करने की जिम्मेदारी दी गई थी। महामारी के दौरान जब लोगों का मिलना-जुलना नहीं था तो फोन और व्हाट्सएप्प से उन तक प्रार्थनाएँ पहुँचाई गईं।
रीव्स के अनुसार भारत में 25 साल में जितने चर्च बने थे, उतने अकेले कोरोना काल में बनाए गए। ऐसा ही एक चर्च मैंने जशपुर के गिरांग में वन विभाग की जमीन पर देखा था। यह चर्च उस जगह पर बनाई जा रही थी, जहाँ जाने के लिए रास्ता तक नहीं था। विरोध के बाद इसका निर्माण पूरा नहीं हो पाया था। 2022 में जब मैं यहाँ पहुँचा था तो यह बंद पड़ा था। भाजयुमो से जुड़े अभिषेक गुप्ता ने ऑपइंडिया को बताया था, “ईसाई मिशनरी इसी तरह लैंड जिहाद करती है। जहाँ खाली जगह दिखी ये क्रॉस गाड़ देते हैं। चर्च बना लेते हैं। कुछ समय बाद प्रशासनिक मिलीभगत से वहाँ जाने का रास्ता तैयार हो जाता है और फिर प्रार्थना होने लगती है। बाद में आप जितना विरोध कर लें प्रशासन कब्जा नहीं हटाता।”
जोशुआ प्रोजेक्ट पर अंकुश लगा पाएगा सरना कोड?
अमेरिका से संचालित एक संगठन है- जोशुआ प्रोजेक्ट। 1995 में शुरू हुए इस संगठन का कहना है कि वह बाइबल में दिए गए उस निर्देश पर काम करता है, जिसमें विश्व के अलग-अलग हिस्सों में लोगों को ईसाइयत का अनुयायी बना कर उनका बपतिस्मा कराने का आदेश मिला है।
एक रिपोर्ट के अनुसार यह संगठन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में जनजातीय लोगों को धर्मांतरित कर उनकी जमीन पर चर्च बना रहा है। 2011-12 में इन चारों राज्यों में लगभग 12,000 चर्च थे जो अब बढ़कर 25,000 को पार कर चुके हैं। यह सब उन इलाकों में हो रहा है जहाँ बाहरी व्यक्ति जमीन तक नहीं ले सकते, लेकिन मिशनरियाँ लगातार अपना प्रभाव बढ़ा रही हैं।
जनजातीय लोगों को ईसाइयत में लाने के बाद सरना (वह पेड़ जो उनके लिए पवित्र है) काटने को कहा जाता है। ईसाई धर्मांतरण का जोर ऐसा है कि पूरे के पूरे गाँव धर्मांतरित हो चुके हैं। कुछ गाँवों में नाम मात्र के हिन्दू परिवार बचे हैं। जिन गाँवों में ईसाई मिशनरी अपने काम में सफल हो रही हैं, उनके बाहर क्रॉस लगा दिया गया है।
जोशुआ प्रोजेक्ट केवल जनजातीय समूह तक ही नहीं सिमटा हुआ है। भारत की अलग-अलग जातियों और जनजातीय समूहों के आँकड़े इकट्ठा किए हैं। जोशुआ प्रोजेक्ट के पास देश की 2272 जातियों-जनजातियों के आँकड़े हैं। जोशुआ प्रोजेक्ट बताता है कि वह इनमें से अभी 2041 जातियों तक नहीं पहुँच सका है। वहीं 103 जातियों में ईसाइयत का प्रभाव डालने में यह सफल रहा है। इनमें एक छोटी संख्या में लोग ईसाइयत को मानने लगे हैं। वहीं 128 जाति समूह ऐसे हैं, जिनमें बड़े पैमाने पर ईसाइयत की घुसपैठ हो गई है।
जोशुआ प्रोजेक्ट का डाटा बताता है कि उसने कई जातियों में 10%-100% तक ईसाइयत में धर्मांतरण करवाया है। जिन जातियों में बड़ी संख्या में ईसाइयत में धर्मांतरण हुआ है, उनको अलग नाम दे दिया गया है। तेलंगाना के मडिगा और माला समुदाय में 21000 की आबादी को ईसाइयत में बदल कर उसे ‘आदि क्रिश्चियन’ का नाम दिया गया है। बोडो समुदाय की 15.7 लाख आबादी में से लगभग 1.5 लाख आबादी को ईसाइयत में लाया गया गया है।
‘रोटी-बेटी-माटी’ पर झारखंड के चुनावों को केंद्रित कर बीजेपी ने घुसपैठियों और ईसाई मिशनरियों के उस दोहरे कुचक्र को चर्चा में अवश्य ला दिया है, जिसमें जनजातीय समाज फँसा हुआ है। उन वैध-अवैध तरीकों पर बात हो रही है, जिसके तहत गाँव-गाँव में चर्च का फैलाव हो रहा है। ईसाई बनने के कारण जनजातीय समाज आरक्षण के लाभ से वंचित न हो जाए, इसलिए उन्हें ‘क्रिप्टो क्रिश्चियन’ बनाया जा रहा है।
कन्याकुमारी के कैथोलिक पादरी जॉर्ज पोन्नैया से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने भी इस ओर ध्यान खींचा था। कन्याकुमारी की जनसांख्यिकी में बदलाव का जिक्र करते हुए उन्होंने संकेत दिया था कि तमिलनाडु का यह जिला ईसाई बहुल आबादी में तब्दील हो चुका है। जस्टिस स्वामीनाथन ने कहा था;
धार्मिक तौर पर कन्याकुमारी की जनसांख्यिकी में बदलाव देखा गया है। 1980 के बाद से जिले में हिंदू बहुसंख्यक नहीं रहे। हालाँकि 2011 की जनगणना बताती है कि 48.5 फीसदी आबादी के साथ हिंदू सबसे बड़े धार्मिक समूह हैं। पर यह जमीनी हकीकत से अलग हो सकती है। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोग धर्मांतरण कर ईसाई बन चुके हैं, लेकिन आरक्षण का लाभ पाने के लिए खुद को हिंदू बताते रहते हैं।
जाहिर है कि यह कुचक्र नया नहीं है। इसकी जड़ें केवल झारखंड तक सीमित नहीं हैं। केवल जनजातीय समाज ही इसकी चपेट में नहीं है। केवल धर्मांतरण विरोधी सख्त कानूनों से ही इसे नहीं रोका जा सकता है। कुछ दल, संगठन और परिवारों को ईसाई मिशनरियों से लड़ने की ठेकेदारी देकर हिंदू समाज सोया नहीं रह सकता है।
इस दलदल से हिंदुओं को निकालने के लिए राजनीतिक-प्रशासनिक इच्छाशक्ति के साथ-साथ जरूरी है कि हर हिंदू भी अपने आसपास जनसांख्यिकी में हो रहे इस बदलाव को लेकर सचेत और मुखर हो। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में न तो राजनीति ने ऐसी इच्छाशक्ति दिखाई है और न हिंदुओं ने एक समूह के तौर पर उन्हें ऐसा करने को मजबूर किया है। यही कारण है कि राजनीतिक दाल अलग सरना धार्मिक पहचान को हवा देकर हिंदुओं को बाँटने और ईसाई मिशनरियों को खाद-पानी देने का काम करते रहे हैं।
झारखंड विधानसभा में जब जनगणना में सरना को अलग धार्मिक पहचान देने का प्रस्ताव लाया गया था तो बीजेपी ने भी इस तरह की आशंका जताई थी। अब उसे उन उपायों पर गौर करना चाहिए जो मिशनरियों का सदा-सदा के लिए बधिया कर सके। उसे इस मसले पर भी उतनी ही आक्रामकता दिखानी चाहिए जितनी घुसपैठ पर है। इस मामले में जगह/काल/परिस्थिति के हिसाब से राजनीति उन हिंदुओं को जनसांख्यिकी के स्तर पर और कमजोर करेगी, जिनके दम पर ‘अखंड भारत’ का स्वप्न बुना जा रहा है।