आज हम आपको एक ऐसे नेता के बारे में बताने जा रहे हैं, जो न तो किसी राजनीतिक खानदान से थे, न किसी राजघराने से और सबसे बड़ी बात तो ये कि 35 वर्ष की उम्र से पहले वो राजनीति में भी सक्रिय नहीं थे। बावजूद इसके उन्हें जनता का ऐसा प्यार मिला कि उन्होंने भरतपुर की महारानी तक को चुनाव में पटखनी दे दी। आपने राजेश्वर प्रसाद का नाम नहीं सुना होगा लेकिन राजेश पायलट से आप ज़रूर परिचित होंगे। सचिन उनके ही बेटे हैं।
जब राजेश्वर प्रसाद को नहीं पता था कि वो राजेश पायलट हैं
दरअसल, जून 1964 में ही राजेश्वर प्रसाद ने कोयम्बटूर स्थित एयरफोर्स अकादमी में पायलट पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था। अक्टूबर 29, 1966 को उनकी नियुक्ति फ्लाइंग ब्रांच में हुई। वहाँ उन्होंने 13 वर्षों तक ‘ट्रांसपोर्ट एंड फाइटर स्क्वाड्रन’ में काम करते रहे। तब भी वो राजेश्वर प्रसाद ही थे। लेकिन, नवम्बर 1979 में जैसे ही उन्होंने सरकारी सेवा को अलविदा कह राजनीति में क़दम रखा, वो राजेश पायलट बन गए।
दरअसल, उस समय पायलट होना आज की तुलना में ज्यादा दुर्लभ था और अधिक सम्मान की भी बात थी। यही कारण था कि जब वो भरतपुर से पर्चा दाखिल कर रहे थे, तब कॉन्ग्रेस कार्यकर्ताओं ने उनसे अपने नाम के आगे ‘पायलट’ लिखने का आग्रह किया। उन्होंने समर्थकों के आग्रह को स्वीकार किया और वो जैसे ही निर्वाचन अधिकारी के दफ्तर से बाहर निकले, ‘राजेश पायलट ज़िंदाबाद’ से पूरा इलाक़ा गूँज उठा।
न तो उनकी पत्नी रमा और न ही सचिन ने कभी कोई विमान उड़ाया है लेकिन ‘पायलट’ इस पूरे परिवार की पहचान ही बन गई। दरअसल, राजेश पायलट जब 10 साल के थे तब वो एक बँगले के बाहर नौकरों के लिए बने घर में रहते थे। एक डेयरी में वो काम करते थे और उन्हें घर-घर दूध पहुँचाने की जिम्मेदारी दी गई थी। किसे पता था कि जिस बँगले के बाहर वो रहते हैं, कुछ ही सालों में वो उनका अपना होगा।
वो राजनीति में आए। केंद्रीय मंत्री बने। 1988 में वो सड़क एवं परिवहन मंत्री थे, तब वो हॉलैंड के दौरे पर गए थे। वहाँ के एक मंत्री ने उनसे पूछा कि उनके नाम में ‘पायलट’ क्यों लगा हुआ है। जब उन्हें कारण पता चला तो वो बहुत प्रभावित हुए। राजेश पायलट के नाम 1971 के उस ऐतिहासिक भारत-पाकिस्तान युद्ध में देशसेवा का अनुभव था, जिसमें भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले थे।
उस दौरान उन्होंने एयरक्राफ्ट ‘डी हैवीलैंड कनाडा DHC-4 कैरिबो’ उड़ाया था। उस युद्ध में वो ‘बॉम्बर पायलट’ की भूमिका में थे। उन्होंने जब एयरफोर्स ज्वाइन किया था, तब उन्हें पायलट ऑफिसर की भूमिका दी गई थी। बाद में उन्हें फ्लाइंग ऑफिसर और फिर फ्लाइट लेफ्टिनेंट के रूप में प्रमोट किया गया। जब उन्होंने राजनीति में आने की ठानी, तब उनकी पोस्टिंग राजस्थान के जैसलमेर में थी।
जब राजेश पायलट ने हॉलैंड में उड़ाया F-16
अब वापस आते हैं, हॉलैंड वाले किस्से पर। हॉलैंड के अपने समकक्ष को उन्होंने बताया कि वो पहले भारतीय वायुसेना के अधिकारी थे और उन्होंने भारत-पाकिस्तान युद्ध में एयरक्राफ्ट उड़ाया भी था और उन्हें अच्छा-ख़ासा अनुभव भी है। इसके बाद फिर क्या था! हॉलैंड में उनके मेजबानों ने उनसे आग्रह शुरू कर दिया कि वो सुपरसोनिक फाइटर एयरक्राफ्ट F-16 उड़ाएँ। पायलट को उनका आग्रह स्वीकार करना पड़ा।
लेकिन, यहाँ एक समस्या भी थी। राजेश पायलट की बाईपास हार्ट सर्जरी हुई थी। ऐसे में इस तरह एयरक्राफ्ट उड़ाने के लिए मेडिकल रूप से फिट होना आवश्यक है। लेकिन, राजेश पायलट का जब मेडिकल टेस्ट किया गया तो वो फ्लाइंग के लिए एकदम फिट निकले। इसके बाद उन्हें एक ‘टू सीटर ट्रेनर’ में ड्यूअल कन्ट्रोल के साथ F-16 उड़ाने के लिए दिया गया। पायलट ने न सिर्फ एयरक्राफ्ट को उड़ाया बल्कि हवा में आकृतियाँ भी बनाईं।
ये था राजेश पायलट का जज्बा। उन्हें राजनीति में आए लगभग एक दशक होने वाले थे लेकिन उनका अंदर का वो वायुसेना अधिकारी अभी भी ज़िंदा था, जिसने पाकिस्तान पर बम बरसाया था। हालाँकि, वो जैसे ही भारत लौटे, उनके द्वारा हॉलैंड में डच आसमान में F-16 उड़ाने की ख़बरें सुर्खियाँ बनीं। भारतीय वायुसेना ने सोचा कि जब राजेश हॉलैंड में ऐसा कर सकते हैं तो अपने देश में क्यों नहीं?
तब भारत में नया-नया मिग-29 आया हुआ था। वायुसेना ने लगे हाथ उन्हें इसे उड़ाने के लिए निमंत्रण दे दिया। एक जननेता होने के कारण उनका शेड्यूल काफी व्यस्त रहता था लेकिन वो फिर भी इन चीजों के लिए किसी न किसी तरह वक़्त निकाल लिया करते थे। लेकिन राजेश पायलट हिम्मती भी थे। नरसिम्हा राव सरकार में इंटरनल सिक्योरिटी मंत्री रहते उन्होंने ऐसे व्यक्ति पर हाथ डाला, जिसे बड़े-बड़े लोग दंडवत करते थे।
चंद्रास्वामी को भेजा जेल, दबाव के आगे नहीं झुके
चंद्रास्वामी एक ऐसे तांत्रिक थे, जिनके सम्बन्ध इंदिरा गाँधी से लेकर बाल ठाकरे तक से अच्छे थे। उन्हें दिल्ली का सबसे बड़ा पॉवर ब्रोकर कहा जाता था। बैंकॉक के एक व्यापारी ने शिकायत की थी कि चंद्रास्वामी ने उनसे 1 करोड़ रुपए ठग लिए हैं। इसके बाद राजेश पायलट सख्त हुए और सरकारी एजेंसियों को जाँच का जिम्मा सौंपा। चर्चा तो ये भी थी कि चंद्रास्वामी के दाऊद इब्राहिम से भी सम्बन्ध हैं और उन्होंने इस आतंकी को शरण भी दिया था।
जाँच हुई और राजेश पायलट के निर्देश पर हुई कार्रवाई के बाद चंद्रास्वामी को गिरफ्तार किया गया। जब बीच में अड़चनें आईं तो राजेश पायलट और उनके सचिव ने खुद आदेश सम्बंधित पत्र ड्राफ्ट किया और इसके बाद पायलट ने पूछा कि अब बताइए, इसके बाद किस सबूत की ज़रूरत है? इसके 2 दिन बाद ही पायलट से गृह मंत्रालय ले लिया गया। उन्होंने एक ऐसे माफिया पर हाथ डाला था, जो सामानांतर सत्ता चला रहा था।
राजेश पायलट ने कॉन्ग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन सीताराम केसरी के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। बाद में कॉन्ग्रेस में सोनिया राज आया और शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा ने बगावत किया। तीनों को पार्टी से निकाल बाहर किया गया। तब राजेश पायलट का मत था कि इन तीनों से क्रमवार तरीके से निपटा जाए, उनसे बातचीत की जाए लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई।
जून 2000 में अपने ही चुनावी क्षेत्र दौसा के निकट एक कार एक्सीडेंट में उनकी मृत्यु हो गई, जब वो जयपुर के लिए लौट रहे थे। अगर आज वो ज़िंदा होते तो न सिर्फ राजस्थान बल्कि देश में एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूमिका निभा रहे होते। उनकी असमय मृत्यु होने के बाद उनके बेटे सचिन ने उनकी राजनीतिक विरासत सँभाली और आज राजस्थान में कॉन्ग्रेस द्वारा नज़रअंदाज़ किए जाने के बाद उन्होंने बगावत कर दी।
गणित 49 सीटों का, जहाँ सचिन पायलट बदल सकते हैं समीकरण
राजेश पायलट का ही प्रभाव है कि आज सचिन पायलट राजस्थान में 49 विधानसभा सीटों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दखल रखते हैं। उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने जाने के बाद उन्होंने जम कर मेहनत की और अपने पिता के समर्थकों को निराश नहीं किया। राजस्थान में उन्हें गुर्जर और मीणा समुदाय के बीच होने वाले संघर्षों को थामने वाला व्यक्ति भी माना जाता है। दोनों समुदाय अक्सर लड़ते रहते थे और आरक्षण को लेकर आंदोलन होते रहते थे।
उन्होंने 2004 में पहली बार सांसद बनने के साथ ही गुर्जर-मीणा एकता के लिए मुहिम शुरू कर दी थी और रैली पर रैली कर के इन दोनों समुदायों के बीच दूरियों को पाटने के लिए कई रैलियाँ की। ‘नवभारत टाइम्स’ के अनुसार, आज मीणा के साथ 5 विधायक हैं। ये बताता है कि उनके प्रयास फलदाई रहे हैं। इस तरह से वो इन दोनों समुदायों के लोकप्रिय नेता बन कर राज्य की लगभग 17% जनसंख्या के भीतर स्वीकार्यता पाते हैं।
2018 के चुनाव को ही उदाहरण के रूप में लीजिए। पूर्वी राजस्थान में 49 सीट गुर्जर-मीणा का गढ़ हैं। इनमें से 42 सीटों पर कॉन्ग्रेस को विजय मिली, जो सचिन पायलट की ही मेहनत का परिणाम था। एक तो उन्हें सीएम पद नहीं दिया गया और ऊपर से सरकार में भी उन्हें हाशिए पर धकेल दिया गया। अब देखना ये है कि सचिन पायलट किस करवट बैठते हैं लेकिन राजस्थान में बड़ा बदलाव तो तय ही है।