भारतीय मीडिया और आतंकवादियों से उनकी संवेदना कोई नई बात नहीं है। अक्सर हम देखते हैं कि मीडिया में बैठे हुए कुछ बुद्धिजीवी आतंकवादियों की प्रोफाइलिंग करते हुए उन्हें इस तरह से पेश करते हैं, ताकि उनके कारनामों पर मानवता की एक परत चढ़ जाए। इससे पहले प्रोपेगेंडा पत्रकार बरखा दत्त को आतंकी बुरहान वाणी की प्रोफाइलिंग करते हुए देखा गया था।
बरखा दत्त की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए हिन्दुस्तान टाइम्स की पत्रकार हरिंदर बावेजा ने पुलवामा आतंकी हमले के ठीक एक साल पूरे होने पर इस हमले के मुख्य अभियुक्त आदिल अहमद डार के कारनामे पर पर्दा डालने का ‘बौद्धिक’ प्रयास किया है।
हरिंदर बावेजा द्वारा लिखे गए इस लेख का शीर्षक है- “Apathy forced him to opt for violence, says Pulwama bomber’s family” जिसका आशय यह है कि उपेक्षा ने पुलवामा के आतंकी हमलावर को यह कदम उठाने पर मजबूर किया।
शीर्षक से ही स्पष्ट होता है कि इस लेख में पुलवामा आतंकी को क्लीन चिट देने की पूरी कोशिश की गई होगी। लेकिन फिर भी, बिना किसी पूर्वग्रह के इस लेख को पढ़ने से पता चलता है कि यह पूरा लेख और कुछ नहीं बल्कि एक और आतंकवादी को अगला युगपुरुष साबित करने का प्रयास है।
इस लेख में हरिंदर बावेजा ने बताया है कि अहमद डार की माँ से बातचीत में उसे पता चला कि उसे क्रिकेट बहुत पसंद था और वह भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी का प्रसंशक था। यह भी बताया गया है कि अहमद डार कभी भी गाड़ी ज्यादा दूर तक नहीं ले जाता था क्योंकि उसके पास लाइसेंस नहीं था।
हैरानी की बात यह है कि इस कॉलम की लेखिका हरिंदर बावेजा के अनुसार फिदायीन आतंकी अहमद डार अगर नियम-कानून का इतना रखवाला था तो फिर वो एक दिन अचानक से विस्फोटकों से भरी हुई गाड़ी लेकर सीआरपीएफ के 40 जवानों से भरी गाड़ी से कैसे टकरा जाता है?
लेख में बताया गया है कि अहमद डार के पिता ने कहा कि वो भारतीय क्रिकेट टीम की जीत पर हमेशा जश्न मनाता था, भले ही हर कोई यही मानता है कि कश्मीरी पाकिस्तान की जीत से खुश होते हैं।
लेकिन अगर यह आतंकी अहमद डार भारतीय क्रिकेट और एमएस धोनी का इतना ही बड़ा समर्थक था, तो उसने उस भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला करने का फैसला आखिर कैसे कर लिया, जिसके साथ डार के प्रिय क्रिकेटर धोनी अपना समय बिताते हैं। एमएस धोनी को 2011 में लेफ्टिनेंट कर्नल की मानद रैंक मिली थी। लेकिन धोनी के चरित्र और सेना के प्रति उनके प्रेम को फिदायीन आतंकी क्यों नहीं अपना पाया, यह प्रश्न करना शायद हिन्दुस्तान टाइम्स की स्तम्भकार भूल गई।
लेखिका का कहना है कि अहमद डार के पिता ने बताया कि 22 साल का अहमद डार फिर कभी क्रिकेट प्रेमी नहीं रह पाया और उसने गत 14 फरवरी को भारतीय सुरक्षा बलों पर हमला कर दिया, इस हमले में जितने सैनिक मारे गए, इतने घाटी के इतिहास में पहले कभी एक ही हमले में नहीं मारे गए थे। लेख में बड़े ही पीड़ादायक शब्दों में बताया गया है कि 40 जवानों को मारने के बाद अहमद डार के शरीर का कुछ भी हिस्सा उसके घर वालों को नहीं मिल पाया।
अहमद डार के पिता के शब्दों को अगर स्तम्भकार हरिंदर बावेजा ने शब्दशः वास्तव में लिखा है तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ये एक दुखी या मायूस नहीं बल्कि एक जिहादी के गौरवान्वित पिता के शब्द थे। क्योंकि लेखिका का कहना है कि अहमद डार के इस विस्फोट से पहले मार्च 2018 में जैश-ए-मोहम्मद में शामिल होने के बारे में उसके घर वालों को मालूम था।
इस लेख में आगे बताया गया है कि कैसे बेहद नाटकीय ढंग से सेना द्वारा कश्मीरी पत्थरबाजों को सजा देने और आतंकी बुरहान वाणी की मौत जैसी घटनाओं ने आदिल डार को धीरे-धीरे बदल दिया था।
इस पूरे लेख में आदिल अहमद डार की भाभी का बयान सबसे ज्यादा चौंकाने वाला है। हिन्दुस्तान टाइम के इस लेख में बताया गया है कि फिदायीन आतंकी आदिल डार के ही परिवार से तीन लोग आतंकी समूहों से जुड़ चुके हैं। जिनमें से एक उसके चाचा का लड़का था, जिसने कि 2016 में ही घर छोड़कर लश्कर-ए-तैयबा ज्वाइन किया था और मारा गया था। दूसरा आदिल का भाई था, जो कि जेल में था और आदिल की मौत के बाद ही बाहर आया था और तीसरा खुद पुलवामा हमले का आतंकी आदिल अहमद डार था।
आदिल की भाभी का कहना है कि उसका पति भी आतंकी संगठन से जुड़ने की बात करता है लेकिन वह यह कहकर उसे मना कर देती है कि उनका बेटा ऐसा करेगा क्योंकि वो आजादी के लिए लड़ रहे हैं और उन्हें यह काम करना ही होगा।
अहमद डार की भाभी का बेटा ‘मंजूर’, अभी मात्र तीन साल का है। इस तरह की आजादी और लड़ने की बातें हाल ही में हम शाहीन बाग़ में चल रहे प्रदर्शन में भी देख चुके हैं। शाहीन बाग़ में एक नवजात बच्चे की मौत पर उसकी माँ का भी कुछ ऐसा ही कहना था। उसकी माँ ने कहा था कि उसका बेटा अल्लाह के लिए मर गया, अल्लाह ने ही उसे भेजा और उसने बुला भी लिया।
इस तरह की ‘आजादी’ के जज्बे का एक ही आशय होता है और वह है जिहाद! इस धार्मिक युद्ध की प्रेरणा के लिए कश्मीर में मौजूद कुछ लोग आज भी कितनी तत्परता से कूदने के लिए तैयार हैं, अहमद डार के परिवार के बयानों से इस बात का जायजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में, बरखा दत्त और हिन्दुस्तान टाइम के स्तम्भकाओं द्वारा फिदायीन आतंकियों की जिंदगी को बेहद नाटकीय ढंग से प्रस्तुत कर के सिर्फ जिहाद और धर्म युद्ध जैसे विषयों का महिमामंडन किया जा रहा होता है। मीडिया के कुछ चुनिंदा लोगों की संवेदना आतंकवादियों से निरंतर बनी रहती है।
इसी तरह से लेफ्टिस्ट इकोसिस्टम की ही एक टुकड़ी और प्रोपेगेंडा वेबसाइट दी क्विंट को कुख्यात आतंकी ओसामा बिन लादेन के लिए आँसू बहाते हुए भी देखा गया था।
सवाल यह उठता है कि यही मीडिया गिरोह उन सुरक्षा बलों के परिवार के साथ इतनी प्रतिबद्धता से क्यों नहीं खड़ी नजर आती है, जिन्हें एक फिदायीन हमले हिन्दू विरोधी धार्मिक नारों को दोहराकर मार दिया गया। यही मीडिया आज तक यह नहीं कह पाई है कि पूरा भारत देश आज भी गजवा-ए-हिन्द का सपना देख रहे धार्मिक जिहादियों और इस्लामिक कट्टरपंथियों के निशाने पर है।
ऐसे में आतंकवादियों की हरकतों को कोसना तो दूर, यह मीडिया के लोग आतंकवादियों के एक ‘आम आदमी’ से आतंकवादी बनने की घटना का बेहद फ़िल्मी तरीके से महिमामंडन करते नजर आते हैं। आतंकवादियों से अलग यह अपना एक अलग किस्म का बौद्धिक जिहाद चला रहे होते हैं, जिनका पहला संघर्ष सामान्य विवेक और तर्क क्षमता से नजर आता है।
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