विदेशी पत्रकार वेर्लेमन ने एक विडियो पोस्ट किया, जिसमें साजिद नाम का मुस्लिम युवक आपबीती सुना रहा है। इसमें वो साफ़-साफ़ कह रहा है कि उसे जेबकतरों ने रोका, लेकिन फिर भी इस विडियो को 'हिन्दुओं द्वारा मुस्लिमों पर हमले' के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।
रोजाना 17 लाख बच्चों का पेट भरने वाली एक संस्था को सिर्फ़ इसीलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि बच्चों को लहसुन-प्याज नहीं दिया जाता। सरकार द्वारा निर्धारित सभी मानकों पर खड़ा उतरने के बावजूद 'मिड डे मील' में जाति घुसेड़ कर इसे बदनाम किया जा रहा है।
जिसे धार्मिक कर्मकांडों को ढकोसला मानना है, वह काहे का हिन्दू, काहे का ब्राह्मण? उसके विचारों का बोझ हिन्दू क्यों उठाए? उसके विचारों के आधार पर ब्राह्मणों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है, जो हिन्दू ही नहीं है?
सोशल मीडिया पर भी अरस्तू और सुकरात के बाद जन्मे कुछ 'महान विचारकों' ने जमकर इस घटना पर सत्संग और 'अच्छा महसूस होने वाला' साहित्य लिखा, लेकिन मुबंई पुलिस ने इस खबर की सच्चाई उजागर कर दी।
राणा अय्यूब ये देखकर शायद अपने होशो-हवास गँवा बैठी कि उनके 'कट्टर दुश्मन' अमित शाह को देश का सौंपा गया है। इस बात से सदमे में डूबा राणा अय्यूब का दुखी हृदय ट्विटर पर फूट पड़ा और वो एक के बाद एक ट्वीट कर के भारत के नए गृह मंत्री के खिलाफ अपना जहर उगलते हुए देखी गई।
स्वरा भास्कर के लिए ऑर्गेज्म यानी संभोग के दौरान चरमसुख पाना लैंगिक समानता का मसला हो सकता है, उन तमाम औरतों को लिए नहीं जिनके लिए ज़िंदा रहना ही सबसे बड़ा संघर्ष है।
'द वायर' ने गुरुग्राम की फेक दावों वाली ख़बर का सच सामने आने के बावजूद उसे लेकर 'डर का माहौल' वाला प्रोपेगैंडा फैलाना जारी रखा। न मुस्लिम की टोपी फेंकी गई, न शर्ट फाड़ी गई और न 'जय श्री राम' बोलने को कहा गया, फिर भी 'द वायर' झूठ फैला रहा है।
"नोटबंदी के लॉन्ग-टर्म फायदे हुए हैं। लोगों पर टैक्स का भार कम हुआ है लेकिन टैक्स कलेक्शन दोगुना से भी अधिक हो चुका है। जनहित के कार्यों को ज्यादा फंडिंग मिली और इससे बिजली एवं स्वच्छता के क्षेत्र में काफ़ी अच्छे काम हुए। ग़रीबों के 20 करोड़ नए बैंक खाते खुले।"
फैक्ट चेक के लिए बाजार जब कोई खबर ना हो तो लल्लनटॉप और उन्हीं की तरह की एक विचाधारा रखने वाले स्टाकर से फैक्ट चेकर बने ऑल्ट न्यूज़ ने यह सबसे आसान तरीका बना लिया है कि फेकिंग न्यूज़ का ही फैक्ट चेक कर के जीवनयापन किया जाए।
‘धंधे’ में पक कर पक्के हुए निखिल वागले के द्वारा यह अनभिज्ञता नहीं, कुटिलता है, क्योंकि अगर इतने साल बाद भी वह ‘अनभिज्ञ’ हैं निर्वाचन और जनमत-संग्रह के अंतर से, तो वह इतने साल से कर क्या रहे थे?