नेहरू के खोखलापन के बारे में आरके लक्ष्मण ने 60 साल पहले बता दिया था। पर भगेरन तिवारी के बेटे और अभिराम दास न होते तो हम और आप यह जान भी नहीं पाते कि जन्मस्थान में बाल मूर्ति का होना भी नेहरू को खटकता था।
वह असंतोष न चीन के कम्युनिस्टों के हक में होगा और न भारत के वामपंथियों और उनके पोषक कॉन्ग्रेस के। इसलिए, नानजिंग के प्रेसिडेंशियल पैलेस और जनपथ की बेचैनियाँ आज एक सी दिख रहीं।
उस समय के कैबिनेट मंत्री मोरारजी देसाई ने तो विपक्षी दलों को भी इस संधि के खिलाफ एकसाथ होने की सलाह दे डाली थी। तत्कालीन गृहमंत्री गोविन्द बल्लभ पन्त भी पाकिस्तान को दी जाने वाली इस आर्थिक राशि से नाखुश थे। वो चाहते थे कि इस आर्थिक राशि का उस धन के साथ सामन्जस्य बैठाया जाए, जो हिन्दू शरणार्थी पाकिस्तान में छोड़ कर आ चुके थे।
पहले वे जनेऊधारी हिंदू बने। फिर दत्तात्रेय गोत्री। पर जब मौका आया तो कॉन्ग्रेस ने न बहुसंख्यकों की भावना का मान रखा और न देशहित का। तुष्टिकरण के फेर में न वह नेहरू के साथ निभा पाई और न ही उनसे पल्ला छुड़ा पाई।
आज कॉन्ग्रेस CAA का विरोध कर रही है। इसका कोई आधार नहीं है। जरूरत है उसके नेता इतिहास को समझें। नेहरू मंत्रिमंडल में राहत और पुनर्वास के लिए अलग से मंत्रालय था। मोदी सरकार ने उसी प्रक्रिया का सरलीकरण किया है।