विधाता के दरबार में जब भक्ति और भक्ति के तमगे का बँटवारा हो रहा था तब तमगा बीजेपी के हिस्से आया और भक्ति कॉन्ग्रेस के। दरअसल इस बँटवारे की नौबत इसलिए आई क्योंकि अन्य कालों में अनेक प्रकार की भक्तियों का बोलबाला था- मातृभक्ति, पितृभक्ति, गुरुभक्ति, गोभक्ति, मित्रभक्ति, ज्ञानभक्ति, विज्ञानभक्ति, राष्ट्रभक्ति, राजभक्ति। आपको ऐसे महापुरुषों के नाम भी याद होंगे, जिन्होंने इनमें से एक-एक भक्ति पर दृढ़ रहते हुए महानता हासिल की और नाम कमाया, लेकिन वर्तमान युग में राजभक्ति को छोड़कर बाक़ी भक्तियाँ इतनी शक्तिहीन हो गई हैं कि वो राजभक्ति के सहारे के बिना अकेले दम पर कुछ नहीं कर सकतीं। इसलिए आज भक्ति का मतलब ही है राजभक्ति। अब भक्ति एक थी और दावेदार दो-दो। अत: मजबूर होकर विधाता को इस बँटवारे का फैसला लेना पड़ा।
पूरे माजरे को समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं। हिन्दी कविता के बाद विपरीत काल व परिस्थितियों के थपेड़ों से बची थोड़ी-सी भक्ति ने भारत के स्वातंत्र्य समर व भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलनों में राष्ट्रभक्ति के रूप में अपना स्थान बनाया। जब देश आजाद हो गया तब चारों ओर अंग्रेजी हुकूमत की बेदर्दियों को समेटते भारत माँ के लाल भूखे भजन न होई गोपाला के तहत भक्ति से महरूम रह गए। तब और कोई स्थान न पाकर भक्ति ने राजसत्ता का सहारा लिया। उस समय सत्ता में बस कॉन्ग्रेस ही थी इसलिए वही उसका स्थायी निवास बन गई।
भक्ति को राजसत्ता और कॉन्ग्रेस में फर्क करने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई और उसने कोशिश भी नहीं की। उसका काम बढ़िया चल रहा था। धीरे-धीरे भक्ति कॉन्ग्रेस के साथ इतनी एकाकार हुई कि उसका स्वाभाविक अंग बन गई, मानो ये उसका जन्मजात गुण हो। कुछ समय बाद भक्ति के सामने असमंजस की स्थिति भी आई, जब उसे कॉन्ग्रेस-O/सिंडिकेट, कॉन्ग्रेस-R/कॉन्ग्रेस-I, वगैरह में से किसी एक को चुनना था, किन्तु इसका निर्णय तो डार्विन की थ्योरी के अनुसार स्वयं हो गया- ‘Survival of the Fittest’। यानी भक्ति के हिसाब से जो समूह सबसे अनुकूल था, वो बच गया। बची कॉन्ग्रेस-आई बाक़ी सब धराशाई।
फिर एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी, न केवल कॉन्ग्रेस के लिए बल्कि देश के लिए भी। देश की पहली महिला प्रधानमंत्री का निधन हो गया। देश ने खुद को आहत महसूस किया। बाकियों के लिए यह एक अहैतुकी वेदना थी, किन्तु कॉन्ग्रेस का नज़रिया अपनी मूल प्रवृत्ति के आस-पास ही मंडरा रहा था। इसलिए जब भक्ति का प्रतीक वृक्ष गिरा, तब धरती हिली, भूकंप आया, चीखें उठीं, जानें गईं, किन्तु भक्ति अडिग रही।
अब भक्ति के नए प्रतीक पुरुष को सत्ता के शिखर पर चढ़ाया गया। हालाँकि ये कोई श्रमसाध्य प्रक्रिया नहीं थी क्योंकि अगर आपकी चढ़ाई एवरेस्ट से शुरू होकर एवरेस्ट पर ही ख़त्म होनी हो तो पर्वतारोहण एक सपाट प्रक्रिया बन जाती है। भक्ति देवी की असीम अनुकम्पा से राजीव का बेस कैम्प एवरेस्ट पर ही मौजूद था। पायलट बाबू ने हवाई जहाज से सीधे कैम्प में लैंडिंग की और दो कदम चलकर सिंहासन तक पहुँच गए। मतलब किसी को नीचे से जोर लगाकर ऊपर ठेलने-चढ़ाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। भक्ति ने देश को नेतृत्व हीनता की एक नई मुसीबत से बचा लिया।
भक्तिकाल के नाम पर अक्सर हमारा ध्यान हिन्दी-साहित्य की ओर ही जाता है। इस लिहाज से देखें तो वहाँ कालों में एक काल था भक्तिकाल, लेकिन यहाँ तो भक्ति में काल हैं- नाना काल, दादी काल+चाचा काल, पितृ काल, मातृ काल, पुत्र काल, पुत्री काल। अब चेहरा-मोहरा इन्हीं का मिलता है तो दूसरों को बीच में लाकर समदर्शी नाक की इज्जत दाँव पर थोड़ी लगानी है।
इस तरह सब ठीक चल रहा था, स्वाभाविक था, जायज था। लेकिन ये क्या हुआ? अचानक बीच में नमो-नमो की आवाजें कहाँ से आ गईं? वो भी एवरेस्ट की चोटी से नहीं बल्कि तलहटी से। कौन है ये नया देवता? नया भक्तिकेंद्र सा? वाजिब सवाल था। जन्मना सेठ की संपत्ति चर्चा का विषय नहीं होती। नई दौलत कमा कर लाया नया सेठ सबको शंका में डाल देता है। सवाल उठता है, कहाँ से लाया? कैसे कमाया? ज़रूर कोई धांधली की होगी।
खैर, जाँच-पड़ताल पूरी हुई। रिपोर्ट आई कि हुजूर ये कमल तो साक्षात् कीचड़ से ही निकला है। फिर पूरी कोशिशें शुरू हो जाती हैं कि किस तरह उस गरीबी, अभाव और वंचनाओं के कीचड़ को रक्त से सने कीचड़ में परिवर्तित किया जाए और शुरुआत होती है ‘मौत के सौदागर’ के विशेषण के साथ। उसके बाद लहु-पुरुष, हिटलर, गद्दाफी, मुसोलिनी, जवानों के खून का दलाल, जहर बोने वाला, चोर… विरुदावली बहुत लंबी है, अगर सारे कसीदे पढ़ दिए तो पक्का किसी न किसी खेमे की भक्ति का तमगा हासिल हो जाएगा। कुल मिलाकर उस कीचड़ को रक्त रंजित कीचड़ दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई, लेकिन आप इसकी आलोचना करोगे तो सीधे भक्त कहलाओगे।
देखा जाए तो भक्ति के मामले में बीजेपी कॉन्ग्रेस के आगे दूर-दूर तक नहीं टिकती। लेकिन भक्ति अपने पुश्तैनी निवास स्थान में प्रश्नों से परे है। उसे छोड़ कहीं और यदि भक्ति की सुगबुगाहट भी हुई तो शोर मच जाएगा। फब्तियाँ कसी जाएँगी। गाँव के रामलाल ने नवाब की गली में धर्मार्थ प्याऊ लगा दिया। अब ताने तो स्वाभाविक हैं- ‘क्यों भई! आज कल तू बड़ा नवाब बना फिर रहा है?’ नवाब तो वही है पुराना वाला, इस पर तो बस नवाबी का आरोप लग रहा है। भक्ति तो वहीं टिकी हुई है जहाँ उसका पुश्तैनी मकान था, थोड़ी सी खरोंच लगते ही बाहर भी निकल आती है। बस तमगा किसी और के हिस्से है।
देश और देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले गरिमामय पद को गरिया दिया जाए तो कोई समस्या नहीं। आपसे कोई मामूली सा सवाल पूछ लो बवाल होना तय है। स्तरहीन गालियाँ सहन करना चायवाले की जन्मसिद्ध जिम्मेदारी है। और उधर जन्मसिद्ध अधिकार है देश के प्रधानमंत्री को इतना तक कह देना- ‘ये जो नरेन्द्र मोदी भाषण दे रहा है, छः महीने बाद ये घर से बाहर नहीं निकल पाएगा। हिन्दुस्तान के युवा इसको ऐसा डंडा मारेंगे, इसको समझा देंगे…’। और कुछ नहीं तो कम से कम इंसान उम्र का ख़याल तो करता ही है। लेकिन नहीं, बड़े विचित्र संस्कार हैं। संस्कृत की एक सूक्ति याद आ गई- ‘आचार: कुलमाख्याति’ यानी आपका आचरण आपके कुल का परिचायक होता है।
सच्चाई तो ये है कि आजादी के बाद से ही कॉन्ग्रेस ने दुनिया भर में एक परिवार का नाम रौशन किया है जबकि उसी समय देश को दुनिया में हीन दृष्टि से देखा जाता रहा। आज स्थिति यह है कि हाशिए से आए एक इंसान ने, जिसे दुनिया भर में बदनाम करने की भरपूर कोशिशें हुईं, जिसके परिवार का नाम न पहले था, न अब है, न बाद में होगा, उसने खुद गालियाँ खाकर देश का नाम ऊँचा किया है, जिसे देखकर हर भारतीय का सीना छप्पन इंच चौड़ा हो जाता है।
अंत में एक जेंटल रिमाइंडर- ये जो कुछ लिखा है उसे भक्ति नहीं, सच्चाई कहते हैं।