Tuesday, April 30, 2024
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जिनके लिए फासिस्ट मोदी सरकार, वे ही आवाज पर बिठा रहे पहरा: नारायण राणे के साथ जो हुआ वह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं

दलों को यह स्वीकार करना होगा कि राजनीति में आलोचना के प्रति सहनशीलता किसी भी लोकतंत्र के परिष्कृत होने की निशानी है।

केंद्रीय मंत्री नारायण राणे की एफआईआर के बाद गिरफ्तारी और उसके बाद जमानत, लगभग सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा माना जा रहा था। चूँकि एफआईआर महाराष्ट्र में सत्ताधारियों द्वारा दायर की गई थी तो गिरफ्तारी को लेकर किसी तरह का संशय नहीं था। इसके अलावा चूँकि आलोचना/राजनीतिक टिप्पणी को अपराध माना गया था इसलिए जमानत को लेकर भी किसी तरह का संशय नहीं था।

वैसे भी राजनीतिक या सैद्धांतिक आलोचना को लेकर कुछ नेताओं और राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया, फैसले और उनके परिणाम दिन प्रतिदिन प्रेडिक्टेबल होते जा रहे हैं और उनमें किसी बदलाव की संभावना फिलहाल दिखाई नहीं देती। वैसे महाराष्ट्र सरकार द्वारा राणे की गिरफ्तारी को आज चाहे जैसे देखा जाए, निकट भविष्य में इसके असामान्य राजनीतिक परिणाम दिखाई दे सकते हैं।

हाल के वर्षों में महाराष्ट्र की राजनीति को देखने वाले इस बात को लेकर लगभग निश्चिन्त थे कि राणे की गिरफ़्तारी तय है और यही बात लोकतांत्रिक विमर्श के लिए खतरे की घंटी है। इसलिए नहीं कि एक केंद्रीय मंत्री की गिरफ्तारी हुई बल्कि इसलिए कि यह गिरफ्तारी आम आलोचना की प्रक्रिया में एक राजनीतिक टिप्पणी करने के कारण हुई। हाल में कुछ आलोचनाओं और उन पर आई प्रतिक्रिया को देखा जाए तो यह कह सकते हैं कि भारत की राजनीति आज उस बिंदु पर है जहाँ कुछ नेताओं या उनके द्वारा चलाई जा रही सरकारों की नीतियों की आलोचना या उन पर प्रतिकूल टिप्पणी करना बिना किसी खतरे की तैयारी के लगभग असंभव सा है।

कुछ समय पहले तक यह बात पत्रकारों या आम नागरिकों पर लागू होती थी। पर आलोचना या राजनीतिक टिप्पणी की सुविधा अब विपक्ष के नेताओं के लिए भी उपलब्ध नहीं रही। इससे पहले महाराष्ट्र सरकार या सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री ठाकरे की आलोचना करने वाले आम नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार किया, वह राजनीतिक घटनाओं की सूची का हिस्सा है। अर्नब गोस्वामी को कैसे और किन परिस्थितियों में गिरफ्तार किया गया, वह भारत भर ने देखा। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की आलोचना करने वाले आम नागरिकों की पिटाई से लेकर गिरफ्तारी तक सब कुछ किया गया। कुछ मामलों में सोशल मीडिया पर आलोचनात्मक कमेंट के लिए लोगों को दूसरे राज्यों से भी गिरफ्तार करके मुंबई ले जाया गया। 

अब यह सब आम नागरिकों या पत्रकारों तक सीमित न रहकर राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के साथ होने लगा है। देखा जाए तो राणे की गिरफ्तारी ने एक ऐसी राजनीतिक परंपरा की नींव डाल दी हैए जिसके आगे चलकर और मजबूत होने की संभावना है। सबसे मजे की बात यह है कि जिस बयान के चलते नारायण राणे की गिरफ्तारी हुई उससे घटिया बयान उद्धव ठाकरे अन्य नेताओं के लिए कई बार दे चुके हैं। राणे की गिरफ्तारी के बाद सोशल मीडिया में उद्धव ठाकरे का एक ऐसा वीडियो वायरल हुआ जिसमें वे योगी आदित्यनाथ को न केवल ढोंगी बता रहे हैंए बल्कि उन्हें चप्पलों से मारने की सिफारिश करते नज़र आ रहे हैं।

राजनीतिक आलोचना को लेकर पिछले कई वर्षों में जो कुछ महाराष्ट्र में होता रहा है, कुछ उसी तरह की राजनीति अन्य कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में भी देखी गई। कॉन्ग्रेस के टूलकिट के मामले में छत्तीसगढ़ में संबित पात्रा के खिलाफ एफआईआर कुछ इसी राजनीतिक सोच का परिणाम थी। सोशल मीडिया पर नेताओं की आलोचना को लेकर झारखंड में भी एफआईआर हो चुके हैं। पश्चिम बंगाल में राजनीतिक विरोधियों के साथ वर्षों से क्या हो रहा है, वह पूरे देश के सामने है। इन सब के बावजूद केंद्र में सत्ताधारी दल भाजपा की नीतियों में तथाकथित फासिज्म का आविष्कार कर लेने वालों को इन राज्यों में आलोचना के परिणामस्वरूप होने वाले गिरफ्तारी, पिटाई या अन्य राजनीतिक चालें दिखाई नहीं देती। यह बात लोकतांत्रिक राजनीति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। 

शिवसेना, कॉन्ग्रेस पार्टी, एनसीपी या तृणमूल कॉन्ग्रेस और इन दलों के नेता समझते तो हैं कि आलोचना और राजनीतिक टिप्पणियाँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग हैं पर वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते। हर आलोचना का जवाब गिरफ्तारी या पिटाई नहीं हो सकती। आलोचना से सरकार कमजोर नहीं दिखे इसलिए एक कमजोर सरकार ही आलोचना का जवाब ऐसे कदम उठाकर देती है। इसके अलावा एक बात और है राजनीतिक दलों को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बढ़ने की वजह से आम भारतीय के लिए अपनी बात रखने के साधन बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में आलोचना से लेकर सराहना तक, सब बढ़ेगी और निकट भविष्य में आलोचना के प्रति सहनशील और सराहना के प्रति विनम्र होना राजनीतिक दलों और उसके नेताओं के लिए सबसे बड़ा होमवर्क होगा। 

ऐसे राजनीतिक क़दमों का नफा या नुकसान तो अलग बहस का विषय है पर यह तय है कि राजनीतिक विरोधियों के प्रति बदले की ऐसी भावना न तो लोकतांत्रिक संस्कृति के लिए शुभ है और न ही राजनीतिक परम्पराओं के लिए। दलों को यह स्वीकार करना होगा कि राजनीति में आलोचना के प्रति सहनशीलता किसी भी लोकतंत्र के परिष्कृत होने की निशानी है। ऐसे में यदि कुछ दल सहनशील रहें और कुछ सहनशील न रहे तो उबड़-खाबड़ राजनीतिक धरातल का निर्माण होगा और इससे नेताओं और दलों के आचरण में सुधार की गुंजाइश रहेगी। ऐसे में भाजपा नेता और लद्दाख के युवा सांसद जम्यांग सेरिंग नामग्याल के प्रसिद्ध संसदीय भाषण की एक पंक्ति उधार लेते हुए कहा जा सकता है कि- सुनने की क्षमता रखिए।

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