Sunday, May 5, 2024
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न्याय के लिए बुलडोजर का चलना और उसका विद्युत गति से रुक जाना – दोनो ही तंत्र की विफलता का सूचक

विकास एवं प्रगति की अंतिम रेखा पर खड़े अंतिम व्यक्ति के विश्वास के बिना ना सरकार का कोई अर्थ है ना ही न्यायपालिका का। केवल वह शासन स्थिर है जिसमें न्याय के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति समान है।

दण्ड: शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति दंडम धर्म विदुर्बुधा: ।। – मनु स्मृति

“वास्तव में दण्ड ही प्रजा पर शासन करता है, दण्ड ही प्रजा की रक्षा करता है, जब प्रजा सोती है, दण्ड ही जागृत रहता है, इसी कारण विद्वान दण्ड को ही राजा का प्रमुख कार्य मानते हैं।”

मनु स्मृति का यह श्लोक मानव सभ्यता के प्रारम्भिक काल में लिखा गया और आज भी उतना ही सामयिक है जितना शताब्दियों पूर्व था। जिस समाज में आम नागरिक अपनी सुरक्षा के प्रति निश्चिंत होता है और स्वयं शस्त्र नहीं धारण करता है, वह समाज सशक्त शासन के लिए जाना जाता है, जहाँ सत्ता प्रजा के सबसे निर्बल व्यक्ति के अस्तित्व एवं अधिकार के लिए कर्मशील हो।

समाज में शासन और शासित का विभाजन इसी मूल सहमति के आधार पर निर्मित होता है और पश्चिम से आयातित सभ्यताओं को छोड़ दें तो एक सुसंस्कृत समाज में प्रत्येक आम नागरिक सैनिक नहीं होता है।

वर्तमान में एक बुलडोज़र न्याय चर्चा में है और उत्तर प्रदेश में माफिया के विरोध में प्रमुखता से उपयोग की गई यह न्याय व्यवस्था जब दंगों के उत्तर में अन्य राज्यों में प्रयुक्त हो रही है तो तुष्टिकरण की नीति का लाभार्थी रहा धार्मिक समुदाय इसके निशाने पर आ रहा है। ऐसे में जब रामनवमी तथा हनुमान जयंती की शोभा यात्राओं पर मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में हुए पथराव और हिंसक आक्रमणों के प्रत्युत्तर में शासन द्वारा इस व्यवस्था को मध्य प्रदेश के खरगौन और दिल्ली के जहाँगीरपुरी में उतारा गया तो राष्ट्रीय पटल पर सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचने के साथ प्रस्तुत हुआ।

दिल्ली में हनुमान जयंती की शोभा यात्रा पर एक हिंसक भीड़ का आक्रमण हुआ, और इसके पक्ष में बड़ी दलीलें दी गईं। एक तर्क यह था कि शोभा यात्रा की प्रशासन से अनुमति नहीं ली गई थी। समय के साथ पहले तो यह तथ्यात्मक रूप से ग़लत निकला, क्योंकि हिंदू समुदाय ने इस यात्रा की विधिवत स्थानीय पुलिस से अनुमति ली थी, परंतु स्थानीय थाना मुख्यालय को इसकी सूचना समय पर नहीं दे पाया।

इसके कारण (पुलिस की गफलत) ना सिर्फ़ यात्रा और हिंदू समुदाय पर आरोप लगे, इस हिंसक आक्रमण को न्यायसंगत सिद्ध करने का प्रयास किया गया मानो दिल्ली में क़ानून व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व जहाँगीरपुरी के अल्प-संख्यक समुदाय पर हो और प्रत्येक अवैध जुलूस को प्रतिबंधित करने के लिए पुलिस को नहीं जहाँगीरपुरी की मस्जिद के इमाम को संविधान के द्वारा उत्तरदायी बनाया गया हो।

इस हिंसक झड़प के दूसरे दिन जहाँगीरपुरी में बुलडोज़र उतरे, और शरारतपूर्ण रूप से पहले से फैलाए गए शासकीय आदेश को इस प्रकार प्रचारित किया गया मानो अनाधिकृत निर्माण के विरुद्ध हुई यह कार्यवाही हिंदू-विरोधी दंगों के विरोध में हो रही हो। जैसे जैसे सत्य उद्घाटित होता चला गया, यह भी प्रकट होता चला गया कि उत्तर प्रदेश में दंगों और आपराधिक माफिया के विरुद्ध हुई कार्रवाई से इतर दिल्ली में बुलडोज़र कांड एक सुप्त प्रशासनिक व्यवस्था, जिसमें एक कबाड़ और कथित रूप से सट्टे का कारोबारी अंसार पाँच मंज़िला भवन खड़ा कर लेता है, एक दंगे की भूमिका में पूरी तरह से निर्वस्त्र हो चुकने के बाद अपनी छवि को बचाने का प्रयास करती है।

जहाँगीरपुरी के बुलडोजर मस्जिद के बाहर की दीवार और मंदिर के बाहर के गेट के साथ कुछ छिटपुट छज्जे और ठेले हटा पाते हैं। कॉन्ग्रेस समर्थित वरिष्ठ अधिवक्ताओं का समूह, प्रशांत भूषण, दुष्यंत दवे और कपिल सिबल के साथ मिल के 10:30 बजे उस न्यायालय में अपना मामला सूचीबद्ध करा पाते हैं जो सर्वोच्च न्यायालय पश्चिम बंगाल में चुनाव के बाद सत्तारूढ़ पार्टी की हिंसा के मामले को समयाभाव के कारण संज्ञान में नहीं ले पाता है।

दस मिनट की सुनवाई में न्यायालय अवैध निर्माण के विरोध में हुई प्रशासनिक कार्यवाही पर रोक लगा देता है। चलता हुआ बुलडोज़र गुप्ता जी और झा जी की दुकानों को रौंद के शांत हो जाता है। प्रशासन को पुनः चार-चार, पाँच-पाँच तलों के भवन दिखने बंद हो जाते हैं। जिन अनाधिकृत क़ब्ज़ाधारकों के घरों तक प्रशासन नहीं पहुँच पाता, उनकी क़ानून को जेब में रखने की छवि और अधिक बल पाती है। अपराध के विरोध में सत्ता के ग़ैर-अनुपातिक कोप का जो भय हज़ारों की संख्या में सड़क पर उतरने वाली भीड़ पर पड़ना चाहिए वो उन छह-सात लोगों जैसे सलीम शेख़, अंसार, गुल्फ़ाम आदि को पुलिस की पकड़ में पहुँचाता है जिनके लिए अदालत और पुलिस के चक्कर सामान्य जीवन के अंग हैं।

शीघ्र ही ज़मानत पा कर दिल्ली में सत्ता में बैठी पार्टी का कार्यकर्ता अंसार दोबारा अपने धंधों में लग जाएगा, अवैध शरणार्थियों की नागरिकता के प्रमाण तैयार कराएगा, क्योंकि वह एक विस्तृत तंत्र का छोटा सा पुर्ज़ा मात्र है। वह उस तंत्र का भाग है, जो चार वर्ष की बच्ची के हत्यारे के भविष्य के प्रति आशावान है, जो आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता इरफ़ान को हीरा गुजराती की बहन के बलात्कार के आरोप में ज़मानत दे देता है और दिन दहाड़े इरफ़ान एक पीड़ित, दलित भाई की हत्या कर देता है।

लोकतंत्र में राजा एक व्यक्ति नहीं है, एक व्यवस्था है जिसमें न्यायपालिका, कार्यपालिका और राजनैतिक नेतृत्व आता है। इन तीनों में से एक की भी कमी से प्रशासनिक दंड खोखला हो जाता है। लोकतंत्र के इन तीनों अंगों में मनुष्य ही हैं, जो उस मनुष्य से भिन्न नहीं है जो ठेला खींचता हैं, जो शिक्षा देता है, जो लेख लिखता है, जो घरों की रसोइयों में भोजन की व्यवस्था करता है, बसें चलाता है। वह अपनी सुरक्षा इन लोगों के सुपुर्द विश्वास के आधार पर करता है। जब इन तीनों में से कोई अंग असंतुलित होता है, जनता सशंकित हो जाती है। जब न्यायालय भिन्न मामलों को अलग-अलग दृष्टि से देखता है तो उसमें एक चिंतित कर देने वाली स्वेच्छाचारिता परिलक्षित होती है। जब पुलिस अपने कार्य में सतर्क नहीं होती है, उचित या अनुचित कारणों से, तो न्याय के विचित्र साधन प्रकट होते हैं।

न्याय व्यवस्था के साधन के रूप में बुलडोज़र का चलना और उसका विद्युत गति से रुक जाना, दोनो ही तंत्र की विफलता का सूचक है। ऐसे साधन की आवश्यकता तब ही होती है जब अंसार का पाँच तल्ले का मकान बिना प्रशासन और पुलिस को दिखे खड़ा हो जाता है और उसे इतना दुस्साहसी बना देता है कि वह अन्य धार्मिक उपक्रमों के प्रति असहिष्णु हो उठता है। यदि वह एक मंज़िल के घर में किराए पर होता और अपनी योग्यता के अनुसार वैध मार्गों से जीविकोपार्जन करता तो उसमें प्रशासन को धता बताने का साहस ही ना होता।

सहसा उठाए गए प्रयासों से समाचार पत्र तो भर सकते हैं परंतु एक सहज नैतिक और न्यायिक व्यवस्था के खोखलेपन को ऐसे कदम भर नहीं सकते। न्याय के लिए सबसे हानिकारक विवेकहीनता और स्वेच्छाचारिता है। यदि शोभा यात्रा अवैध भी रही हो तो जिस राष्ट्रीय राजधानी ने वर्षों तक सड़कें रोक कर बैठे अवैध प्रदर्शन असहाय अदालतों और मौन प्रशासन के सामने देखे हों, वह एक दिन की शोभा यात्रा पर न्यायपालिका के बदले हुए तेवर ना समझ सकेगा ना स्वीकार कर सकेगा।

विकास एवं प्रगति की अंतिम रेखा पर खड़े अंतिम व्यक्ति के विश्वास के बिना ना सरकार का कोई अर्थ है ना ही न्यायपालिका का। यह सरकार, न्यायपालिका और प्रशासन के लिए आत्मावलोकन का अवसर है। बुलडोज़र उस बीमार हुए पौधे का सड़ा हुआ फल है जिसकी जड़ें गल चुकी हैं। जड़ों की चिकित्सा के बिना समाज ना सुरक्षित हो सकता है ना ही विकसित। शासित की सुरक्षा के लिए शासक का दंड का निष्पक्ष और सशक्त होना आवश्यक है। इसी मूलभूत समझ पर के सभ्य समाज खड़ा रहता है।

अरस्तू के अनुसार – केवल वह शासन स्थिर है जिसमें न्याय के समक्ष प्रत्येक व्यक्ति समान है। शासन सतर्क हो तथा भय एवं लोभ के बिना कार्य करे तो ही भारत सुरक्षित होगा। बुलडोज़र न्याय-व्यवस्था के अभावों का विकल्प नहीं है। उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र का उद्देश्य एवं परिणाम दिल्ली में बुलडोज़र के उपयोग से भिन्न है।

मूल लेख को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

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Saket Suryesh
Saket Suryeshhttp://www.saketsuryesh.net
A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.

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