Friday, November 22, 2024
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सुश्री शेहला जी, राजनीति तो आपने घंटा नहीं छोड़ी है और किसी को फर्क भी घंटा नहीं पड़ता

सुश्री शेहला जी को लगता है कि कश्मीर भारत से अलग है, या कश्मीर भारत में कुछ अलग जगह है। कश्मीर ने भारत में जुड़ना स्वीकारा, वहीं से उसकी अपनी स्वायत्तता खत्म हो जाती है। आप एक संप्रभु राष्ट्र के भीतर, स्वयं एक अलग राष्ट्र मान कर नहीं रह सकते।

सुश्री शेहला जी ने आवाम को बताया कि वो आने वाले चुनावों से स्वयं को अलग कर रही हैं, क्योंकि ये सब एक दिखावा है। सुश्री रशीद ने यह भी कहा कि भारत सरकार सब-कुछ स्टेज-मैनेज्ड तरीके से दुनिया को बरगलाने के लिए कर रही है। सुश्री रशीद काफी क्षुब्ध थीं और इस अवस्था में भी उन्होंने अंग्रेजी में लम्बा पोस्ट टाइप किया, इसके लिए उन्हें मैं निजी तौर पर साधुवाद देना चाहता हूँ।

सुश्री शेहला जी कश्मीरन है, वामपंथन भी हैं, और श्री कन्हैया कुमार जी की सहयोगी भी रही हैं। साथ ही, कई बार इन्हें उमर ‘टुकड़े-टुकड़े’ खालिद के समर्थन में भी देखा गया है। सुश्री शेहला जी का बहुत छोटा इतिहास फेक न्यूज फैलाने, भारत-विरोधी गतिविधियों को हवा देने और भारत सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने जैसे घिसे-पिटे जुमलों से पटा पड़ा है। लोग इन्हें सिर्फ इसलिए भी जानते हैं कि ‘भैंस पूँछ उठाएगी, तो गाना नहीं गाएगी, गोबर ही करेगी’। ये सिर्फ एक फिल्मी मुहावरा है, जिसका उद्देश्य भैंस प्रजाति का अपमान नहीं है, अतः पेटा एक्टिविस्ट शांत रहें।

सुश्री रशीद ने अपने पोस्ट में कई बातें लिखी हैं, जिससे पोस्ट लम्बा ज़रूर हो गया, लेकिन उसका कसाव जाता रहा। कसाव से तात्पर्य अपनी मूल बात को कहने के लिए कम शब्दों के प्रयोग से है। अंग्रेजी में एक कहावत है, जो मैं जानता हूँ पर नहीं लिखूँगा। सुश्री शेहला जी ने इतना लम्बा लिखा है कि प्रतीत होता है कि अपने इस शाब्दिक दस्त के माध्यम से ‘बड़ा है तो बेहतर है’ को ध्येय वाक्य मानती हैं। जबकि कई बार ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’ वाला तरीका बेहतर होता है।

सुश्री शेहला जी ने लेख के अंत में नाम के नीच ‘एक्टिविस्ट’ शब्द का प्रयोग किया है, जबकि आम जानकारी यही बताती है कि ‘एक्टिवा’ नामक दुपहिया वाहन पर बैठने भर से आप एक्टिविस्ट नहीं बन जाते। ख़ैर, हर लाइन में मारक मजा देने वाली वामपंथन ने एक पैराग्राफ में लिखी जा सकने वाली जहरीली बात को बहुत लम्बा खींच दिया है। लब्बोलुआब यह है कि भारत सरकार लाखों कश्मीरियों को सता रही है, बच्चों को किडनैप कर रही है, लोगों को एम्बुलेंस की सुविधा नहीं दे रही है और प्रखंड विकास समिति के चुनावों की घोषणा बाहरी दुनिया को ‘यहाँ सब सामान्य है’ बताने के लिए कर रही है।

भारत सरकार को किसी को कुछ नहीं दिखाना है

सुश्री शेहला कहती हैं कि ये पूरा उपक्रम भारत सिर्फ इसलिए कर रहा है ताकि दुनिया को दिखा सके कि यहाँ सब सामान्य है। यहाँ पर, पूरे लेख की तरह, सुश्री रशीद गलत हैं, क्योंकि कश्मीर पर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में आए तमाम देशों को, जिसमें अमेरिका भी शामिल है, सीधे शब्दों में कह दिया कि कश्मीर का मसला भारत का मसला है, और इस पर किसी को कोई राय रखने का, सुझाव देने का कोई हक नहीं है। भारत सरकार वहाँ जो भी कर रही है वो एक संप्रभु राष्ट्र का मामला है, जिसमें किसी भी तरह का विदेशी हस्तक्षेप अवांछनीय है।

इसलिए भारत किसको क्या दिखाने के लिए कर रहा है, ये सुश्री शेहला जी के कई भ्रमों मे से एक है। कश्मीर से लौटे एक डॉक्टर ने हमें बताया कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य है, लोगों में उत्सुकता भी है, और कुछ आशंका भी। लेकिन यह कहना कि सारे लोग परेशान हैं, ऐसा मानना गलत है। ‘नेशनल मेडिकोज़ ऑर्गेनाइज़ेशन’ के बैनर तले डॉक्टर प्रशांत वत्स ने कहा कि वो कई संवेदनशील इलाकों में भी गए, जहाँ उन्होंने लोगों से बात भी की।

बातचीत से यह सामने आया कि अलगाववादी वहाँ के लोगों को धमकी दे रहे हैं कि अगर उन्होंने दुकान खोले तो अच्छा नहीं होगा। साथ ही, कई बड़े मॉल और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स इन्हीं अलगाववादियों के स्वामित्व में हैं तो उनके न खुलने से, लोगों की उपस्थिति कम जरूर है, लेकिन वो सरकार के कारण नहीं है। सुरक्षा-व्यवस्था थोड़ी कड़ी है, क्योंकि वहाँ आतंकी स्थिति को बिगाड़ने के लिए मौके की तलाश में हैं। इससे, आम लोगों को थोड़ी तकलीफ जरूर होगी, लेकिन ये उन्हीं की सुरक्षा के लिए हैं।

लेकिन, सुश्री शेहला और उनके गिरोह के लिए कलेजे में ठंढक तो ये खबर पहुँचाएगी कि ‘अनंतनाग में आतंकियों ने फेंका ग्रेनेड, 10 लोग घायल’ क्योंकि ‘लाखों लोग परेशान हैं’ के कोरस गाने के पीछे का लक्ष्य तो यही है कि दो महीने हो गए, और सुश्री रशीद के अरमानों के अनुसार घाटी में अशांति क्यों नहीं फैली? जबकि उम्मीद तो यह थी कि सड़कों पर पत्थरबाज निकलते और ट्रकों से आतंकी। घाटी में खूब रक्तपात होता, पाकिस्तान दुनिया को बताता कि भारत के कश्मीर विभाजन से नाखुश हैं लोग। फिर प्राइम टाइम डिबेट होता, कॉन्ग्रेस और वामपंथी नेता, छात्र नेता और उनके समर्थक बताते कि मोदी ने इस खूनखराबे की नींव रख दी है। मिशन पूरा!

लेकिन ऐसा हुआ नहीं, घाटी शांत रही

ये सब नहीं हुआ, और किसी को मौका ही नहीं मिला यह नैरेटिव बनाने का कि कश्मीरी इस विभाजन से दुखी हैं। वहाँ से लौटे लोग, जो वाकई में संवेदनशील इलाकों के लोगों से बातचीत कर चुके हैं, वो लोगों के बीच के भ्रम की स्थिति की ज़रूर बात करते हैं, लेकिन उन्होंने किसी भी मानवाधिकार के हनन का, या ‘वो भारत में नहीं रहना चाहते’ जैसी अलगाववादी बातों का समर्थन नहीं किया। इसलिए, जिनकी दाल नहीं गली, जिनका सपना पूरा नहीं हुआ, जो वाकई में इस विभाजन से नाराज हैं, उन मुट्ठी भर आतंकियों, जिहादियों या उनके हिमायतियों के स्थानविशेष में दर्द तो, उर्दू में नुक़्ता वाला एक शब्द है, लाज़मी है ना!

सुश्री शेहला जी कहती हैं कि ये सब कहना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। सही बात है, प्रोपेगेंडा फैलाना, झूठ बोलना और फर्जी जानकारी फैलाना उनकी नैतिक जिम्मेदारी तब से है जब से वो इस ‘जिहाद’ में कूदी हैं। अगर एक अलगाववादी, जो पता नहीं किस तर्क से यह मानती है कि कश्मीर के लोगों को ‘आजादी’ का अधिकार है, उस स्थान के विभाजन के बाद शांतिपूर्ण होने, किसी बड़े हिंसक हमले का शिकार न होने, गृहयुद्ध जैसी स्थिति की अनुपस्थिति पर प्रपंच नहीं फैलाएगी तो और क्या करेगी?

इन्होंने हाल ही में, देहरादून में कश्मीरी लड़कियों के बंधक बना लिए जाने की फेक न्यूज फैलाई थी। इसी तरह, आज के पोस्ट में उनके तमाम आरोप बेबुनियाद हैं कि सरकार बच्चों को किडनैप कर रही है, एम्बुलेंस नहीं आ रहे, लाखों लोग बंदी बन कर रहे रहे हैं। ये बातें किसी कमरे में बैठ कर टाइप की गई हैं, क्योंकि अलगाववादियों ने खुद ही डर का माहौल बनाया हुआ है कि कश्मीर के चार जिलों के लोग बाहर न निकलें, दुकानें न खोले वरना उनकी जान ले ली जाएगी। सरकार ने तो सुनिश्चित किया है कि आतंकी और उनके मौसेरे भाई सड़कों पर एके47 ले कर न घूमें, और पत्थरबाजों को एक दिन के पांच सौ रूपए की दिहाड़ी न दें।

सब नाटक है जी!

सुश्री शेहला जी बताती हैं कि जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय दबाव भारत पर बढ़ रहा है, भारत सरकार उन्हें एक चुनाव प्रक्रिया दिखा कर बताना चाहती है कि सब कुछ सही है। मैं भी खबरें पढ़ता हूँ और सिवाय चार-पाँच यूजूअल सस्पैक्ट्स की काल्पनिक कहानियों के, जिसमें न तो नाम होते हैं, न ही कोई सबूत, बस यह लिखा जाता है कि ‘कुछ लोगों ने बताया’, ‘सूत्रों के अनुसार’, ‘नाम न छापने की शर्त पर’, कश्मीर पर कोई भी खबर अब नहीं दिखती। वो इसलिए नहीं दिखती कि सीधा तर्क यह है कि जो कश्मीरी कट्टरपंथी नाराज ही है, वो अपना नाम क्यों नहीं बताता, उसकी वीडियो ये पत्रकार क्यों नहीं लगाते? शुरू में बीबीसी, वाशिंगटन पोस्ट, अल जजीरा, आदि ने फेक न्यूज फैलाई थीं, लेकिन अब किसी भी राष्ट्राध्यक्ष या किसी भी काम के नेता का स्टेटमेंट नहीं आ रहा।

चुनाव इसलिए हो रहे हैं क्योंकि चुनाव ज़रूरी हैं। वहाँ की पूर्व सरकारों ने पंचायत चुनाव तक बंद कर रखे थे और कश्मीर को एक अलग तरह से विकास से दूर रखा गया। बाकी प्रदेशों की तुलना में दस-गुणा फंड पाने के बावजूद कश्मीर में विचित्र तरह की उदासीनता व्याप्त है। सरकारी पैसों को परिवारों और आतंकियों की भेंट चढ़ा कर, आम लोगों को ‘आजादी’ और ‘स्पेशल स्टेटस’ का झुनझुना पकड़ा कर इन नेताओं ने खूब मूर्ख बनाया है। मोदी सरकार ने लोगों को लोकतान्त्रिक प्रकिया का हिस्सा बनाने के लिए एक अस्थाई बात को निरस्त किया और वहाँ के लोगों को सही मायनों में भारतीय बनाने के लिए एक पहल की। इसलिए कुछ जिहादियों को दर्द हो रहा है।

हम तो पैदा भी नहीं हुए थे

सुश्री शेहला जी को लगता है कि कश्मीर भारत से अलग है, या कश्मीर भारत में कुछ अलग जगह है। कश्मीर ने भारत में जुड़ना स्वीकारा, वहीं से उसकी अपनी स्वायत्तता खत्म हो जाती है। आप एक संप्रभु राष्ट्र के भीतर, स्वयं एक अलग राष्ट्र मान कर नहीं रह सकते। सुश्री रशीद ने अपने बापों-दादाओं के पाप से यह कह कर हाथ धो लिया कि कश्मीरी पंडितों का ‘पलायन’ दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी, लेकिन वर्तमान पीढ़ी तो उस वक्त पैदा भी नहीं हुई थी।

ये पंक्ति सुश्री शेहला रशीद के नेतागीरी की तरह ही वाहियात है, क्योंकि आप जब कश्मीरी पंडितों के मार-काट को ‘पलायन’ जैसे सुविधाजनक शब्द में नाप देती हैं, और वर्तमान पीढ़ी की बात करती हैं, तो फिर वर्तमान में जो हो रहा है उसको क्यों नहीं स्वीकार रहीं? आपको अपने बापों-दादाओं के पाप सर पर नहीं लेने, लेकिन उनका अजेंडा पूरा लेना है कि ‘हमको चाहिए आजादी’। ये तरीका वैचारिक दोमुँहेपन वाली गली से हो कर जाता है।

सुश्री शेहला जी इतनी क्यूट हो जाती हैं कि वो कह बैठती हैं कि अभी तक की हर सरकार ने कश्मीर में बस कठपुतलियों को राज करने के लिए बिठाया था। इसमें प्रमुख कठपुतलियाँ शेख अब्दुल्ला, फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, मुफ्ती मोहम्मद सईद और वो महबूबा मुफ्ती हो जाएँगी जिन्होंने उनके ट्वीट को रीट्वीट किया है। फिर, राज कौन करेगा?

इनके हिसाब से वो मुट्ठी भर आतंकी कश्मीर घाटी के लाखों लोगों का भविष्य तय करेंगे क्योंकि उनको ‘आजादी’ चाहिए। अगर आजादी सबको चाहिए होती तो फिर विधानसभा चुनाव में इतने लोग कहाँ से आते हैं? क्या हम ये मान लें कि पूरी दुनिया में चलने वाला लोकतंत्र कश्मीर के लिए अलगाववादतंत्र के हिसाब से चले? क्योंकि कश्मीर स्पेशल है? और जेएनयू में हजार वोट पाकर विद्यार्थी संघ की वाइस प्रेसिडेंट बनना उसे यह अधिकार दे देता है कि वो लोकतान्त्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर सके?

मैं अपने लोगों के दमन का भागी नहीं हूँ

नहीं, हम इन जिहादियों और आतंकियों के हिमायतियों को यह हक नहीं दे सकते। ज़रूरत है कि इन्हें पनपने से पहले गर्म लोहे से दाग दिया जाए। क्योंकि ये नासूर कैंसर बन कर फैल रहा है, इसे काट कर हटाना ही एकमात्र उपाय है। आज शेहला रशीद अपने आप को, पता नहीं किस तरीके से, सारे कश्मीरियों का प्रतिनिधि मान कर यह कहती फिर रही है कि वो इस चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बन कर ‘अपने लोगों’ के दमन का भागीदार नहीं बनना चाहती।

पहली बात तो यह है कि आखिर किसने, और कब, सुश्री शेहला जी को अपना प्रतिनिधि माना? कोई रैली हो, जहाँ उन्हें ध्वनि मत से कश्मीरियों की नेत्री मान लिया गया हो, किसी मस्जिद में बड़े नेताओं की बैठक में उन्हें हायर टेबल की हेड घोषित किया गया हो, किसी पत्थरबाजों की महासभा ने उन्हें पवित्र पत्थर दे कर अपने नेतृत्व की बागडोर दे दी हो? ऐसा कभी हुआ नहीं, लेकिन वामपंथी मीडिया गिरोह और लम्पट महासभा के लोगों ने इन्हें हवा दी और ये स्वयं ही खुद को अतिगम्भीरता से लेते हुए, पूरी दुनिया, और ब्रह्मांड के जीवों को बता रही हैं कि सात महीने पहले जो राजनैतिक जीवन इन्होंने बिना तेल के दिए शाह फैजल के साथ हो कर शुरू किया था, वो सतमासु हो कर मर गया है।

इसलिए, इन बातों का कोई औचित्य नहीं है। फिर भी, चूँकि वामपंथी मीडिया गिरोह अपनी अघोषित कश्मीरी प्रवक्ता को इतनी तवज्जो देकर, लेखों के जरिए दुनिया को यह बताना चाहता है कि देखो, कश्मीर की एक्टिविस्ट क्या कह रही है, तो ऐसे चम्पुओं पर भी लिखना ज़रूरी हो जाता है। चूँकि, मीडिया का एक धरा और वामपंथी लम्पट समूह इन बातों को ऐसे दिखाना चाहते हैं कि लोकतंत्र की हत्या हो रही है, तो यह बताना ज़रूरी हो जाता है कि लोकतंत्र वास्तव में है क्या।

लोकतंत्र हर नागरिक को अपने मत रखने का अधिकार देता है। मत न रखना भी एक तरह का मत रखना ही है। आप वो अल्पसंख्यक हो सकते हैं जो कहें कि उन्हें कोई भी पसंद नहीं। आप यह भी मत रख सकते हैं कि आपको यह देश ही पसंद नहीं, यहाँ के नियम पसंद नहीं। लेकिन नियम और कानून, संवैधानिक व्यवस्थाएँ, देश के करोड़ों लोगों के प्रतिनिधि तय करते हैं। आपके मतलब के लोग जब प्रतिनिधि बन कर जाएँ, तो बेशक वो आपकी मनोदशा को तरजीह दें, लेकिन यह मानना कि आपके या आपके जैसे सौ लोगों के विचारों की अहमियत उन लाखों कश्मीरियों के विचारों से ज़्यादा मायने रखते हैं तो जान लीजिए कि वो विचार नहीं, विकार हैं, जिनका उपचार आवश्यक है।

लिखना ही तो है, कुछ भी लिख दो कि सरकार युवाओं को लिए कुछ नहीं कर रही, लोकतंत्र की हत्या हो रही है, बच्चों को किडनैप किया जा रहा है। कोई सबूत रखने की जरूरत नहीं, क्योंकि जब इस देश के इतिहास को लिखते वक्त किसी ने सबूत नहीं माँगा कि विलियम जोन्स महोदय, ये जो आपने बेहूदगी की है, वो कल्पनाशीलता है या तथ्य, तो फिर शेहला रशीद जैसों से, जो कि वामपंथी मीडिया गिरोह की लाडली है, उससे कोई सबूत क्यों माँगेगा?

इसलिए, वो बेखौफ लिख सकती है कि भारत सरकार बच्चों को उठा रही है, लोगों को मुख्यधारा से बाहर कर रही है, और मूढ़मति इन बातों को मान लेते हैं। आप यह सोचिए कि ‘स्पेशल स्टेटस’ की चाह, और मुख्यधारा में आना, दोनों में विरोधाभास है कि नहीं? आप स्पेशल भी होना चाहते हैं, और आपको बाकियों की तरह भी होना है!

भारत सरकार ने पहली बार कश्मीरियों की सुरक्षा, विकास और अस्मिता का ख्याल करते हुए, एक अभूतपूर्व कदम उठाया है ताकि वो लाखों लोग जो लगातार आतंक के साये में जीने को मजबूर थे, भारत के हो कर भी, भारत के नहीं थे, जिन्होंने सोते-जागते मानसिक सीमाओं का आकलन किया है, जिनके लिए नेताओं द्वारा उनके हक का पैसा मार लेना एक सामान्य व्यवस्था बन चुकी थी, जहाँ जम्मू के हिन्दुओं और लद्दाख के बौद्धों को दोयम दर्जे का मान कर भेदभाव होता रहा, उन सबके साथ न्याय हो सके।

यही कारण है कि शेहला रशीद जैसे जिहादियों और आतंकियों को हिमायतियों, अलगाववादियों की भाषा बोलने वालों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना आवश्यक है। अगर आप हर दिन यह रट रहे हों कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, कश्मीरियों का दमन हो रहा है, लोकतंत्र की हत्या हो रही है, और सरकार आपके साथ कुछ भी बुरा नहीं कर रही, तो मतलब साफ है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी है, कश्मीरी लोग भी सुरक्षित हैं, और लोकतंत्र भी बरकरार है।

इसलिए अटेंशन पाने के लिए जो भी लम्बे, ढीले, कसावरहित लेख लिख लीजिए, बात तो यही है कि ये कहना भी कि आप चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनना चाहतीं, एक अलग तरह की राजनीति ही है। ये बात और है कि इस ऐलान से मोदी सरकार डर कर चुनाव बंद कराने से तो रही। फिर भी, ‘दिल के खुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है’।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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