आज हम 1977 के उस चुनाव को याद करने जा रहे हैं, जिसमें जनता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को देश पर आपातकाल थोपने की सज़ा दी थी। एक ऐसा चुनाव, जिसकी पटकथा में एक 75 वर्षीय बूढ़े की क्रांति का ज़िक्र आता है। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई की जुगलबंदी को जनता ने सर-आँखों पर बिठाया और जनता पार्टी ने कॉन्ग्रेस को चारो खाने चित कर दिया था। आपातकाल के दौरान हुए अत्याचारों से त्रस्त जनता ने पिछले चुनाव में 352 सीटें जीतने वाली कॉन्ग्रेस को 189 पर समेट दिया। कॉन्ग्रेस को 217 सीटों का भारी नुक़सान हुआ। आपातकाल के दौरान विपक्षी नेताओं और उनके समर्थकों के साथ जैसा व्यवहार किया गया, उससे समझा जा सकता है कि जनता के गुस्से का कारण क्या था?
लेकिन आज मीडिया में कुछ ऐसे कुकुरमुत्ते पैदा हो गए हैं, जो भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय को जायज ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। जैसे, हमारी नज़र स्क्रॉल के एक लेख पर पड़ी, जिसमें महज वोट प्रतिशत के आधार पर यह साबित करने की कोशिश की गई है कि लोग आपातकाल से नाराज़ नहीं थे। स्क्रॉल के प्रोपेगंडा को हम यहाँ बिंदु दर बिंदु काटते चलेंगे और उसे सच्चाई का एक ऐसा आइना पेश करेंगे, ताकि उन्हें एक तानाशाही रवैये को जायज ठहराने के लिए शर्मिंदगी महसूस हो। शोएब दानियाल द्वारा लिखे गए इस आर्टिकल में दावा किया गया है कि एक ऐसा ‘नैरेटिव तैयार कर दिया गया’ कि आपातकाल का समय बहुत बुरा था जबकि ऐसा कुछ नहीं था। प्रोपेगंडा पोर्टल पर प्रकाशित प्रोपेगंडा आर्टिकल के प्रोपेगंडा लेखक का प्रोपेगंडा ट्वीट:
शोएब ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बयानों का ज़िक्र किया है। नरेंद्र मोदी ने लिखा था कि आपातकाल भारतीय इतिहास के सबसे अंधकारमय काल में से एक था। हालाँकि, शोएब दावा करते हैं कि 3000 वर्षों के इतिहास में ऐसा अंधकारमय समय कई बार आया। शोएब का कहना सही है। बख्तियार ख़िलजी द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय व लाखों पुस्तकों को जला देना, मुस्लिम शासकों द्वारा विजयनगर साम्राज्य को जीत कर थोक में महिलाओं का बलात्कार करना, अकबर के जीतने के बाद मुग़लों द्वारा दिल्ली में नरमुंडों का पहाड़ खड़ा किया जाना, ब्रिटिश शासन, औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार और तैमूर की क्रूरता जैसे कई काले अध्याय हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं।
आख़िर पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ब्रिटिश राज से आपातकाल की तुलना करते हुए क्यों न कहें कि वो देश की स्वायत्तता पर निर्मम हमला था? आडवाणी ने उस विभीषिका को झेला है। जो व्यक्ति 19 महीनों तक सिर्फ़ इसीलिए जेल में रहा क्योंकि उसने भारतीय लोकतंत्र के अंतर्गत विपक्ष का हिस्सा रहना पसंद किया था, क्या उसे अपनी पीड़ा व्यक्त करने का अधिकार नहीं? आडवाणी ने 2010 में लिखा था कि आपातकाल को भूल जाना लोकतंत्र को क्षति पहुँचाने जैसा होगा। नेहरू द्वारा स्थापित समाचारपत्र नेशनल हेराल्ड में तंजानिया के ‘एक पार्टी सिस्टम’ को ‘मल्टी पार्टी सिस्टम’ जितना ही ताक़तवर बताया गया। आपातकाल के दौरान उन अत्याचारों के प्रत्यक्ष गवाह व पीड़ित रहे आडवाणी कहते हैं:
“आपातकाल के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सभी लोग लोकतंत्र के सेनानी थे। आज और भविष्य की पीढ़ियों को लोकतंत्र की रक्षा हेतु उनके योगदानों को पढ़ाया जाना चाहिए। आपातकाल वाले दौर को सिलेबस में शामिल किया जाना चाहिए। उस दौरान प्रेस को पूरी तरह सेंसर किया जाता था। आपातकाल या सरकार की आलोचना की किसी को भी अनुमति नहीं थी। इंदिरा ने मीडिया को झुकने को कहा तो वो रेंगने ही लगा।”
स्क्रॉल के आर्टिकल में आगे बताया गया कि कॉन्ग्रेस को मिलने वाले मतों की संख्या में वृद्धि हुई। आगे इसी लेख में बता दिया जाता है कि ऐसा जनसंख्या वृद्धि के कारण हुआ। 1971 और 1977 में हुए चुनावों में कुल मतों की तुलना करना बेहूदगी ही होगी क्योंकि 6 वर्षों में भारत जैसे देश में जनसंख्या काफ़ी तेज़ी से बढ़ती है और यहाँ चुनाव में मत प्रतिशत देखे जाते हैं। 1971 के मुक़ाबले 1977 में कॉन्ग्रेस को 9.3% कम वोट मिले, जो 2014 में कॉन्ग्रेस के ख़राब प्रदर्शन के ही सामान हैं। लेकिन अब हम आपको बताते हैं कि स्क्रॉल के इस दावे में खोत (गलती) कहाँ है। दरअसल, स्क्रॉल इस लेख में यह ज़िक्र करना भूल गया कि इंदिरा गाँधी ख़ुद लोकसभा चुनाव हार गई थीं।
1977 में रायबरेली से इंदिरा गाँधी को राज नारायण ने 55,000 से भी अधिक मतों से हरा दिया था। इंदिरा अपने ख़ुद के ही संसदीय क्षेत्र में 16% से भी अधिक मतों से पिछड़ गई थीं। क्या यह जनता का गुस्सा नहीं दिखाता है? जब देश का सबसे ताक़तवर नेता मानी जाने वाली शख़्सियत ख़ुद की लोकसभा सीट भी न बचा पाए? इसकी तुलना 2014 से इसीलिए नहीं की जा सकती क्योंकि 2014 में राहुल गाँधी मोदी लहर के बावजूद अमेठी से जीत दर्ज करने में कामयाब रहे थे। अगर राजनीतिक शक्ति की बात करें तो इंदिरा के सामने राहुल कहाँ ठहरते हैं, ये कोई बच्चा भी बता दे। अर्थात, देश के लोकतान्त्रिक इतिहास में सबसे ताक़तवर नेताओं में से एक का खुद की सीट भी न बचा पाना स्क्रॉल के लिए जनता के गुस्से को नहीं दिखाता।
एक और बात गौर करने लायक यह है कि आज़ादी के पहले से पूरे देश में स्थापित रहने के कारण कॉन्ग्रेस का ज़मीनी संगठन उस समय इतना मजबूत था, जिसे हिला पाना और उसके समांनातर संगठन खड़ा करना एक समय लेने वाली लम्बी और जटिल प्रक्रिया थी। यह इंदिरा गाँधी और संजय गाँधी के प्रति लोगों का भारी आक्रोश ही था कि चुनाव से ऐन पहले जनता मोर्चा के नाम से एक छतरी के तले आए कुछ दलों को जनता ने पूर्ण बहुमत दे दिया। स्क्रॉल ने दक्षिण भारत में कॉन्ग्रेस के बढ़े वोट शेयर को लेकर पूरे भारत का रुख बता दिया जबकि यह ज़िक्र तक नहीं किया कि बाकी राज्यों में पार्टी का क्या हाल हुआ था।
कुछेक क्षेत्रों के आँकड़े गिना कर आपातकाल को जायज ठहराने की कोशिश की जा रही है, ये वही मीडिया है जो इंदिरा द्वारा झुकने की बात कहने पर रेंगने लगा था। शायद मीडिया के इस गिरोह विशेष को इंदिरा जैसी ही किसी शख़्सियत का फिर से इन्तजार है, ताकि उस दौरान में अस्तित्व में नहीं रहे ये प्रोपेगंडा पोर्टल्स अपनी रेंगने की फंतासी को आज पूरी कर सकें। स्क्रॉल ने आगे कॉन्ग्रेस के वोट प्रतिशत में आई कमी का कारण जगजीवन राम का पार्टी छोड़ना बताया है। स्क्रॉल का मानना है कि सिर्फ़ जगजीवन राम के चले जाने से ही कॉन्ग्रेस को दलित वोटों का नुकसान हुआ था।
2014 और 1977 की तुलना करने वाले शोएब ने यह लेख 2015 में लिखा था। तब 1980 चुनाव में इंदिरा की वापसी की याद दिलाने वाले शोएब या स्क्रॉल को यह अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि 2019 में क्या होने वाला है। अब जब 2019 लोकसभा चुनाव का परिणाम आ चुका है, शोएब को पता चल ही गया होगा कि 1977 और 2014 में उतना ही अंतर है, जितना 1980 और 2019 में। यह भी जानने लायक बात है कि 1977 में लोगों का गुस्सा कॉन्ग्रेस पार्टी से ज्यादा इंदिरा और संजय के अत्याचारों से था, उन दोनों से लोग आक्रोशित थे। उनका गुस्सा इंदिरा गाँधी के प्रति ज्यादा था, जिसकी सज़ा उन्हें मिली। प्रोपेगंडा पोर्टल्स हो सकता है कि कल अंडमान निकोबार द्वीप समूह से आँकड़े लाकर यह भी साबित करने की कोशिश करें कि आपातकाल के दौरान कोई भी विपक्षी नेता जेल में नहीं था।
इतिहास को अपने हिसाब से लिखते आए इतिहासकारों, पत्रकारों और कथित विशेषज्ञों को पता होना चाहिए कि अब उनका ज़माना लद गया है। अब लक्षद्वीप के आँकड़े लाकर पूरे भारत का रुख बताने की कोशिश नहीं चलेगी। आज आपातकाल को लेकर जनता के आक्रोश को कम कर दिखाने की कोशिश करने वाले स्क्रॉल और तब तंजानिया की ‘एक पार्टी सिस्टम’ का गुण गाने वाले नेशनल हेराल्ड में कोई अंतर नहीं है। आज का स्क्रॉल नेहरू-इंदिरा के युग का नेशनल हेराल्ड ही है, बस इनकी रेंगने की फैंटसी पूरी नहीं हुई है। आज आपातकाल को वाइटवाश करने वाले लोग कल को ये भी कहने लग जाएँ कि नालंदा में शिक्षकों को मौत के घात उतार कर लाखों पुस्तकों को जला देने वाला ख़िलजी महान था, तो आश्चर्य मत कीजिएगा।