ऐसा नहीं है कि ढाई साल की सोनम (बदला हुआ नाम, अलीगढ़ घटना की पीड़िता बच्ची) की हत्या पहली बार हुई है। ऐसा भी नहीं हुआ है कि पहली बार आपसी रंजिश के कारण इस तरह का अपराध हुआ हो। ऐसा भी तो नहीं है कि ये साम्प्रदायिक एंगल पहली बार आया हो। ये देश इतना व्यापक है, और यहाँ नकारात्मक तौर पर भी इतनी विविधताएँ हैं कि आप अपने मन से भी कुछ बना कर बोल देंगे कि ‘राह चलते मुस्लिम को हिन्दू ने धक्का मारा’, या ‘मुस्लिमों ने की आगजनी’, तो वो घटना आपको सही में किसी ख़बर की शक्ल में मिल जाएगी।
इस देश में कुछ और भी चीज़ें हैं जो बहुत सामान्य हो गई हैं। हर साल पाँच से सात चुनाव होते हैं। हर साल देश में विचारधाराओं की जंग होती रहती है। हर समय आपको, हर अपराध को हमारे देश का लिबरल हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखता हुआ मिल जाएगा। आखिर आप सोचिए कि लिबरल जैसे शब्द गाली क्यों बन गए हैं जबकि ये तो सकारात्मक शब्द हैं? क्योंकि, हमारे देश में ऐसे लोग हद दर्जे के नंगे और दोगले क़िस्म के हैं। मुझे ‘दोगला’ शब्द इस्तेमाल करना पड़ रहा है क्योंकि इससे बेहतर कुछ मिला नहीं जो इनकी सोच का प्रतिनिधित्व कर सके। ये गाली नहीं है, विशेषण है जो हमारे देश के छद्मबुद्धिजीवियों ने बहुत मेहनत से कमाया है।
हम उस समय में जी रहे हैं जब हमारे ही देश का वो हिस्सा जिसने केंकड़े-सी प्रवृत्ति के कारण, सिर्फ टाँग खींचने के (अव)गुण के बल पर अपनी पहचान अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बना ली है। हम उस समय में जी रहे हैं जब बेकार हो चुके अभिनेता और अभिनेत्रियाँ, फुँक कर मंद हो चुके तथाकथित निर्देशक अपनी कला के एकमात्र स्रोत के रूप में अपने बापों या माँओं के उस उद्योग में होने को ही बता सकते हैं। हमारा दौर वह है जहाँ अपनी बातों को वजन देने के लिए 300 तथाकथित कलाकार चिट्ठी लिख कर सिग्नेचर कैम्पेन चलाते हैं कि फ़लाँ को वोट मत दो।
जब आपका प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्यकार, कलाकार, या लम्बे समय तक सत्ता में पैठ बना चुका नेता ही खोखला निकले तो आपकी छवि सही हो भी नहीं सकती। साथ ही, जब भारत जैसे फ़ाइनल फ़्रंटियर को सपाट करने का सपना बाहर के समुदाय विशेष और ईसाईयों के लिए सतत प्रयास वाला कार्य हो जाए, तो आपकी छवि सही नहीं हो पाएगी। जब आपके मीडिया के सम्मानित लोग दस डॉलर लेकर वाशिंगटन पोस्ट में लेख लिखते हैं, और उस वाशिंगटन पोस्ट को भारतीय समाज पर लिखे गए रिपोर्ट का सत्यापनकर्ता मान कर भारतीय मीडिया स्खलित होने लगता है, तब आपकी छवि बर्बाद ही हो पाएगी, अच्छी नहीं।
आप जरा सोचिए कि क्या मंगलयान छोड़ने पर भारत को भैंसपालक बता कर उपहास करने की धृष्टता करने वाला न्यूयॉर्क टाइम्स भारतीय समाज को लेकर कभी सकारात्मक रिपोर्टिंग कर पाएगा? आप जरा सोचिए कि लगातार फेक न्यूज छाप कर, फेक न्यूज पर फर्जी रिसर्च छाप कर, टुटपँजिए लौंडों के ब्लॉग को लीड ख़बर बनाने वाला, नस्लभेदी, कॉलोनियल मानसिकता से सना हुआ, पत्रकारिता का बेहूदा मापदंड बीबीसी, या बिग बीसी, कभी भारत को लेकर नकारात्मक बातों को हवा देने से बाज़ आएगा? जी नहीं, नहीं आएगा। इसलिए आप उनकी तरफ देखना बंद कीजिए।
आप उनकी तरफ देखना बंद इसलिए कीजिए क्योंकि सत्ता के खिलाफ लिखने से लेकर, नकारात्मक बातों को उस पूरे समाज का नमूना बता कर पेश करना पत्रकारिता नहीं है। पत्रकारिता यह नहीं है कि कठुआ की पीड़िता नाम की मासूम बच्ची की हत्या आठ लोगों ने कर दी तो उसे ऐसे दिखाया गया कि यहाँ का हर हिन्दू, दूसरे मजहब की हर बच्ची की हत्या या बलात्कार करने की फ़िराक़ में रहता है। पत्रकारिता यह नहीं है कि जुनैद सीट के झगड़े में मरता है और बताया जाता है कि हिन्दुओं में असहिष्णुता है। पत्रकारिता यह नहीं है कि प्रकाश मेशराम नामक पुलिस वाले के ऊपर समुदाय विशेष के गौतस्कर भागते हुए गाड़ी चढ़ा कर मार देते हैं, और वो ख़बर होमपेज तक नहीं पहुँच पाती।
फिर आप कहाँ देखेंगे जब सोनम की हत्या कोई जाहिद कर देगा? आपको लगता है कि साड़ी और ब्लाउज़ सिलवाने पर ध्यान देने वाली, फ़िल्मों के पास होने पर तख्ती लगवाने वाली, खास नेताओं की गोद में कूदने वाले, भेड़ चाल में शरीक होने वाले लोग आपकी आवाज बनेंगे? वो नहीं बनेंगे क्योंकि पीड़ित बच्ची, जो ढाई साल की थी, उसका नाम सोनम शर्मा है, शबनम, सलमा, या जाहिदा नहीं, और उसे मारने वाले का नाम राजेश, सुरेश, रमेश या गौतम नहीं है।
अब ये दोगले लोग, जो वैश्विक स्तर तक भारत जैसे देश को दुनिया का रेप कैपिटल बना आए, जबकि भारत बलात्कार के मामले में शीर्ष दस देशों में भी कहीं नहीं आता, चुप हैं क्योंकि यहाँ हिन्दू और दूसरा मजहब तो है, लेकिन पात्रों के संदर्भ बदल गए हैं। इससिए इनसे उम्मीदें मत पालिए। हाँ, उनके नाम लेकर बुलाइए इन्हें क्योंकि इन्हें याद दिलाना ज़रूरी है कि तुम्हें आम जनता अब कैसे देखती है।
अब यह कहा जा रहा है कि पुलिस स्टेटमेंट में तो सोनम के रेप की पुष्टि नहीं हुई है। पुलिस स्टेटमेंट और डॉक्टर की टिप्पणी में तो उस बच्ची के उन अंगों का भी गायब होना लिखा हुआ है। पुलिस के स्टेटमेण्ट का इंतजार तो इशरत जहाँ से लेकर अमित शाह और मोदी तक के किसी भी मामले में नहीं किया गया था। पुलिस स्टेटमेण्ट का इंतजार तो कठुआ की पीड़िता के भी रेप कन्फर्म होने तक नहीं किया गया था।
यहाँ पर दूसरी बात और है कि समुदाय विशेष के व्यक्ति का आरोपित होना ही इन दोगलों की पूरी जमात के लिए चुप्पी साधने के लिए काफी होता है। इन्हें जब गाली पड़ती है तो ये बाहर आकर कहते हैं कि इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। ये बहुत ही गम्भीर मुद्रा में बताते हैं कि बच्ची को इंसाफ़ मिलना चाहिए, मजहब तलाश करने से कुछ नहीं मिलने वाला।
जबकि सत्य यह है कि जब पहली बार हिन्दू-मुस्लिम हुआ, और तुमने लिख कर हमें बताया कि अपराधी का हिन्दू होना भर ही उसमें धर्म और मज़हब का एंगल ले आता है, तो फिर यहाँ भी वही तर्क क्यों न इस्तेमाल किया जाए? अपराधी के अपराध करने के पीछे की मंशा अगर यह रही हो कि वो मजहब विशेष का है इसलिए उसका बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी जाए, तो समझ में आता है कि उस अपराधी ने धर्म को आधार बना कर अपराध को अंजाम दिया।
हालाँकि, इसके बाद भी वो एक धार्मिक अपराध नहीं है। इसके बाद भी आप यह नहीं कह सकते कि हिन्दू ने दूसरे समुदाय वाले का रेप किया। नैतिकता, सामाजिकता, विवेक और न्यायसंगत बात यह है कि आप लिखें और बोलें कि बच्ची का बलात्कार हुआ और अपराधी ने धर्म को आधार बना कर ऐसा किया। आप इस अपवाद सदृश अपराध को उदाहरण जैसा बना कर नहीं लिख सकते।
लेकिन, आपने पहले कठुआ की पीड़िता को इंसाफ़ दिलाने के नाम पर दोगलई दिखाते हुए, अपनी सफ़ेद तख़्तियों पर ‘हिन्दू’, ‘देवीस्थान’, ‘हिन्दुस्तान’ जैसे शाब्दिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया है तो फिर आपको विपरीत विचारधारा वाले तो याद दिलाएँगे ही कि दोगलो, अब किस बिल में छुपे हुए हो। आपको तो गालियाँ पड़ेंगी ही कि जब कठुआ की पीड़िता के समय पूरा हिन्दू समाज पर ही शर्मिंदगी का बोझ डाला जा रहा था तो फिर आज समुदाय विशेष पर वही कृपा क्यों नहीं की जा रही?
यहाँ बात किसी सोनम या कठुआ की पीड़िता की नहीं है। मैं यह जानता हूँ कि सामाजिक अपराध का बोझ किसी भी धर्म या मज़हब पर तब तक नहीं डाला जा सकता जब तक सामूहिक रूप से, व्यवस्थित तरीक़ों से ऐसी घटनाओं को वृहद् स्तर पर अंजाम दिया जाए। मजहबी दंगों का भी बोझ हर जगह के हिन्दू या दूसरे मजहब वाले नहीं उठा सकते क्योंकि वो एक छोटे से इलाके के कुछ लोग करते हैं। इसलिए अख़लाक़ की मौत पर मैं संवेदनशील हो सकता हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन मैं एक भारतीय या हिन्दू के तौर पर शर्मिंदा नहीं हो सकता।
इन बलात्कार या मौतों पर मेरे धर्म या राष्ट्र की धार्मिक किताब या संविधान की सहमति नहीं है। अगर ऐसा होता तो बेशक मैं कहता कि हम किस धर्म या राष्ट्र का हिस्सा हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। ठीक उसके विपरीत, ये जो नौटंकीबाज़ कलाकार और साहित्यकार जब किसी भी वैश्विक या सामाजिक मंच पर हमारे समाज या देश की छवि बर्बाद करते हैं, तब हर भारतीय नागरिक का यह संवैधानिक कर्तव्य बनता है कि इनका मुँह बंद किया जाए। इनका मुँह बंद करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये एक सामाजिक अपराध को राजनैतिक बनाते हुए पूरे धर्म और देश की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि इन निर्लज्ज लम्पटों को छोड़ना या इग्नोर करना भी गलत है। गलत बात को देख कर चुप रहना भी अपराध ही है। इसलिए, इनकी बिलों में हाथ डालना पड़े तो बेशक डालिए, ये चिंचियाते रहें, इन्हें पूँछ पकड़ कर बाहर निकालिए और इनसे पूछिए कि वो जो ट्वीट तुमने लिखा है कि हमें इसका राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए, वो तुम्हारे उसी बाप ने लिख कर दिया है जिसके नाम के कारण तुम हीरो और हीरोईन बने फिरते हो, या किसी पेड़ के नीचे नया ज्ञान प्राप्त हुआ है।
जब युद्ध वैचारिक होते हैं और सामने वाला सेलेक्टिव रूप से आप पर हमले बोलता है, तो आपको नैतिकता त्यागनी होगी। आप यह कह कर बैठे नहीं रह सकते कि ‘रहने दो, ये लोग तो अभी चुप हैं’। जी नहीं, इनको राजनैतिक रूप से धूल चटाने के बाद इनको तोड़ना जरूरी है, इनको मसलना जरूरी है, इनको इतना गिराना है कि ये उठने लायक न रहें।
ये सारी बातें फर्जी हैं कि विरोध का स्वर होना चाहिए, लोकतंत्र में विरोधियों का होना आवश्यक है। ये बेकार की बातें भी इन्हीं लिबरलों और वामपंथियों ने चलाई हैं। जब विरोधी इस घटिया स्तर के हों तो उनका समूल नाश अत्यावश्यक है। और हाँ, ये हम तय करेंगे कि इनका स्तर घटिया है कि नहीं। क्योंकि हमने इन्हें लगातार झेला है, हमने इन्हें दीमकों में बदलते देखा है, हमने इन्हें कुतरते देखा है, हमने इन्हें ठोस जगहों को धीरे-धीरे धूल बनाते देखा है। इसलिए हम यह जानते हैं कि इनके विरोध का स्तर घटिया और सेलेक्टिव है।
अतः, बात सोनम की तो है ही नहीं। बात कठुआ की पीड़िता की तो थी ही नहीं। बात तो हिन्दुओं को बदनाम करने की थी। बात राष्ट्र की छवि बर्बाद करने की थी कि दूसरे देश को लोग अपने देश की कम्पनियों पर दबाव बना सकें, अपने नेताओं पर दबाव बना सकें कि भारत के साथ संबंध मत रखो। आज के दौर में जब बात ग्लोबल विलेज की होती है, वैश्विक मंचों पर आपसी संबंधों की होती है, तो राष्ट्र की छवि का असर पड़ता है।
सत्ता की मलाई से दूर हो चुके लोग, किसी भी हद तक गिर कर सरकारों को हिलाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ये लोगों में डर पैदा करना चाहते हैं कि फ़लाँ सरकार तो हिन्दुओं को कह रही है कि अल्पसंख्यकों को काट दो, दंगे करा दो। लेकिन लोगों को इन पर अब विश्वास होना बंद हो चुका है। आप कभी इन लोगों के सोशल मीडिया पोस्ट के नीचे के कमेंट पढ़िए। आपको पता चलेगा कि इनकी स्वीकार्यता कितनी गिर चुकी है।
हर जगह ये गाली सुनते रहते हैं। हर पोस्ट पर लोग इन्हें घेर कर याद दिलाते हैं कि इन्होंने मुद्दों को चुन-चुन कर, उसमें जाति और धर्म देखने के बाद, राज्य में किसकी सरकार है, यह गूगल से पता लगाने के बाद अपनी भावनाओं को भाड़े के शब्दों की अभिव्यक्ति दी है।
इन घटनाओं को देख कर लगता है कि सिर्फ अपने मतलब की सरकार के आ जाने से वैचारिक युद्ध ख़त्म नहीं होता। वैचारिक युद्ध बाँस की जड़ों पर कन्सन्ट्रेटेड एसिड डाल कर, इनके दोबारा पनपने की शक्ति को ही ख़त्म करके जीते जाते हैं। इन्होंने समाज को धर्म और जाति के आधार पर बाँटा है। लोगों में भय फैलाने की कोशिश की है। इन लोगों को तब तक इनके कुकृत्यों की याद दिलाते रहना ज़रूरी है जब तक ये अपना अँगूठा उठाने से पहले अच्छी तरह से सोचने न लगें कि जो ये नौटंकी रचने जा रहे हैं, उस पर क्या प्रतिक्रिया आएगी।
सोनम या कठुआ की पीड़िता की लड़ाई प्रतीकों की लड़ाई है। इसके लिए आप सरकार का मुँह मत देखिए। इसमें आप घृणा मत लाइए क्योंकि फिर आपको दूसरी विचारधारा के लोग ख़ारिज करने लगेंगे। इसमें इनके पुराने पोस्ट और ट्वीट निकालिए, इन्हें याद दिलाइए कि घृणा फैलाने का काम तो इन्होंने किया है। इनकी पूरी खेती ही घृणा की है, हम तो बस आईना लेकर खड़े हो गए हैं।