इतिहास में मौजूद हजारों किस्से-कहानियाँ इस बात का सबूत हैं कि हमारा देश जातिव्यवस्था का भुक्तभोगी रहा है। देश में लोकतंत्र आने के बाद भी जाति/धर्म पर राजनीति लगातार होती रही। नतीजतन आजतक इससे मुक्ति नहीं पाई गई, और जाति का प्रभाव अब भी हमारे समाज में कुरीति की तरह मौजूद है। जाति के नाम पर बनी कई क्षेत्रीय पार्टियाँ इसका जीवंत उदहारण हैं कि संविधान भले ही सभी नागरिकों को समानता का अधिकार औपचारिक रूप से प्रदान करता हो लेकिन व्यवहारिक जिंदगी में समाज की कड़वी सच्चाई अब समाज से उठकर राजनीति की मुख्यधारा बन चुकी है और इसका अनुसरण अब ‘निष्पक्ष’ मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा भी लगातार किया जा रहा है।
हालिया उदहारण के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर को पढ़ा जा सकता है। शपथ ग्रहण समारोह को अभी एक दिन भी नहीं बीता है कि मीडिया ने इस तरह की खबर बनानी शुरू की जिसकी शायद ज़रूरत नहीं। 30 मई को जिन मंत्रियों ने शपथ ली, उनकी जाति-धर्म पर शोध हुए और खबरें बना दी गईं। जाति और धर्म का एंगल देकर निष्कर्ष ये निकाला गया कि मोदी सरकार ने भले ही ‘सबका साथ-सबका विकास’ करने की कितनी ही कोशिश क्यों न की हो, लेकिन उनकी मंत्रिपरिषद की सूची में ऊँची जाति वालों का ही आधिपत्य है।
मंत्रियों का नाम और उनकी पार्टी का उल्लेख करके ‘समझाया’ गया कि कौन सा नेता समाज के किस तबके का प्रतिनिधि है। मसलन, अल्पसंख्यक नेता के रूप में सिर्फ़ मुख्तार अब्बास नकवी ने कल शपथ ली, जबकि हरसिमरत कौर और हरदीप पुरी के रूप में दो सिख नेताओं को शपथ दिलवाई गई, अनुसूचित जनजाति के सिर्फ़ 6 नेता कैबिनेट में शामिल हैं और अनुसूचित जनजाति से सिर्फ़ 4 नेताओं को चुना गया है। इन बिंदुओं को खबर में अलग से उल्लेखित किया गया कि मंत्रिपरिषद में नौ ‘ब्राहमण’ नेताओं को जगह दी गई है।
अब सोचने वाली बात है कि खुद को ‘निष्पक्ष’ कहने वाला मीडिया जिन राजनेताओं की जाति/धर्म से जनता को परिचित करवा रहा है, उसका क्या औचित्य है? जिनका जीवन-मरण इन बिंदुओं पर टिका है वो कहीं न कहीं से जाति खोज ही लेंगे, लेकिन सार्वजनिक स्तर पर क्या मीडिया संस्थानों को इस तरह की खबर करनी चाहिए? क्या इसका प्रभाव एक बड़े पाठक वर्ग पर नहीं पड़ेगा जो इस खबर को पढ़ने के साथ ही खुद को सरकार से अलग मान लेगा? क्या होगा अगर निर्वाचित सरकार से सकारात्मक उम्मीद की जगह, नकारात्मक अवधारणा कायम कर ली जाएगी?
तब तो सरकार जो भी करेगी हमें सब हमारे विरोध में ही लगेगा। क्या मीडिया हम से यही चाहता है कि हम आशा में नहीं बल्कि घुटन में पाँच साल गुजारें? ऐसे मुद्दे उठाकर आखिर क्यों नेगेटिव माहौल का निर्माण किया जा रहा है, जब चुने गए मंत्री वहीं निर्वाचित नेता हैं जिनपर जनता ने इन चुनावों में अपना विश्वास दिखाया है। अगर उन्हें जाति-धर्म में उलझना होता, तो वो मतदान के समय ही उलझ चुके होते। फिर अब ऐसी बातों को क्यों उकेरा जा रहा है?
मीडिया में मौजूद ऐसी खबरों को पढ़ने के बाद लगता है कि जाति-धर्म में उलझाने का काम अब सिर्फ़ राजनेताओं का नहीं रहा है बल्कि मीडिया भी इसमें अपनी विशेष भूमिका निभा रहा है। अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से विमुख हो चुका मीडिया ऐसी खबरों को करते समय भूल रहा है कि भाजपा को मिला प्रचंड बहुमत इस बात का सबूत है कि इन चुनावों में जाति-धर्म से उठकर लोगों ने मोदी सरकार को वोट दिया है। मोदी सरकार किसी विशेष जाति के कारण पूरे देश भर में 303 सीटें हासिल कर पाने में सक्षम नहीं हुई है, उनकी ये जीत इस बात का सबूत है कि अब देश की जनता अपने प्रतिनिधि से जाति-धर्म की जगह देश की अखंडता को बनाए रखने की उम्मीद करती है।
ये बात सच है कि एक समय था जब भाजपा पार्टी की विचारधारा को कट्टर हिंदुत्व का आईना माना जाता था, लेकिन आज ऐसा नहीं है। देश में जाति की जकड़ मजबूत होने के बावजूद भी अलग-अलग समुदायों ने मोदी को वोट देकर ये साबित किया है कि वो खुद भी ऐसी सोच से उबर रहे हैं, जो देश को बाँटती है। सीएसडीएस की वेबसाइट पर मौजूद आँकड़े और दलित एवं मुस्लिम बहुल इलाकों में दर्ज हुई मोदी सरकार की जीत बताती है कि इस सरकार पर जनता को यकीन है तभी वो सत्ता में लौटे हैं। (भाजपा ने इस बार 90 ऐसे जिलों में 50% से अधिक सीटों को हासिल किया है, जो अल्पसंख्यक बहुल (Minority Concentration Districts) हैं।)
इस ऐतिहासिक जीत को ‘लहर’ का नाम देकर सीमित नहीं किया जा सकता, व्यक्ति विशेष की ‘लहर’ तभी होती है जब व्यक्तित्व या नीतियाँ प्रभावशाली हो। 2014 में मोदी के व्यक्तित्व में जनता को एक बेहतर विकल्प दिखा और मोदी लहर उमड़ गई, लेकिन 2019 सत्ता में सरकार की वापसी उनके काम को देखते हुए हुई है। पिछले 5 सालों में अगर आप गौर करेंगे तो मालूम चलेगा कि अपराधों को भी राजनैतिक चेहरा देकर मोदी सरकार पर सवाल उठाए जाते थे, ताकि मोदी सरकार की छवि धूमिल हो।
बिलकुल यही काम अब फिर शुरू हो गया है, पहले मंत्रियों की जाति के आँकड़े निकाले गए हैं, फिर बेवजह के सवाल तैयार किए जाएँगे, फिर आपसी रंजिश जैसे मामलों का ठीकरा भी मोदी सरकार की नीतियों के माथे फोड़ दिया जाएगा और फिर घूम-फिरा कर बहस यहाँ रोकी जाएगी कि अगर मोदी सरकार वाकई सबका साथ-सबका विकास चाहती है तो ऊँची जाति वाले नेताओं की संख्या पार्टी में क्यों ज्यादा है?
अंत में एक और बात। गाँव-शहर के वार्ड कमिश्नर से लेकर सांसद तक ‘प्रतिनिधित्व’ ही करते हैं। हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती और बेहतर बात यही है कि हर स्तर पर जन-प्रतिनिधि लोक कल्याण के लिए चुने जाते हैं। अब अगर मंत्रालय में प्रतिनिधित्व देखा जाए तो फिर क्या भारत की हर जाति, जनजाति, धर्म, मज़हब, पेशा आदि को आधार बना कर मंत्रालयों में मंत्री बनाना संभव है? अभी चर्चा ‘दलित-सवर्ण’ का है, कल को ये लोग अपना नया एंगल बनाने के लिए दलितों में भी ‘किस जाति को कितने मंत्रालय मिले’, ‘कौन-सा मंत्रालय ज़्यादा बड़ा है’, ‘किस मंत्रालय का प्रभाव व्यापक है’ आदि मुद्दे चर्चा में नहीं आएँगे?
मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी सकारात्मक तरीके से निभानी चाहिए न कि समाज में पहले से प्रचलित दरारों को और बड़ा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इस तरह के लेख जनता के बीच गलत डिबेट की शुरुआत करते हैं जिसकी नकारात्मकता वृहद् तौर पर प्रभाव छोड़ती है।
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