Tuesday, November 19, 2024
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CM रघुवर दास ने इतना गांजा फूँका है कि प्रेस वाली भी… आपत्तिजनक टिप्पणी पर कॉन्ग्रेसी नेता हिरासत में

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए यूथ कॉन्ग्रेस नेता अभिजीत राज को 29 मई (बुधवार) को सुबह 10:30 बजे पुलिस ने हिरासत में लिया। पूरे दिन हिरासत में रखने के बाद शाम को उन्हें निजी मुचलके पर छोड़ दिया गया। दरअसल, कॉन्ग्रेसी नेता ने 27 मई को सोशल मीडिया पर एक फ़ोटो शेयर की जिसमें एक महिला पत्रकार झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का साक्षात्कार ले रही थीं। इस फ़ोटो में महिला पत्रकार ने अपनी नाक पर हाथ रखा हुआ था। कॉन्ग्रेसी नेता ने इसी फ़ोटो को शेयर करते हुए लिखा, “इतना गांजा फूंका है कि प्रेस वाली भी नाक बंद कर ली, ये है झारखंड के मुख्यमंत्री महोदय, जय हो खाजपा।”

इस फ़ोटो को शेयर करते समय यह दावा किया गया कि झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास कथित रूप से नशे की हालत में थे और वो ऐसी हालत में एक न्यूज़ चैनल की महिला पत्रकार को इंटरव्यू दे रहे थे। बता दें कि कॉन्ग्रेस नेता के इस पोस्ट को 1000 से अधिक लोग शेयर कर चुके हैं। इसके लिए फेसबुक पर अभिजीत राज को ट्रोल भी किया गया। एक यूज़र ने अपने ट्विटर हैंडल से लिखा, “ ऐसी हार के बाद कांग्रेस वालों का पागल होना स्वाभाविक है। अब देखिए, इनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की हालत देखिए। एसी कमरे में रहने के बाद पसीने छूट रहे हैं, तो इनका पागल होना बनता है। वैसे भी गर्मी अधिक है, तो क्या करें।”

आपको बता दें कि फ़ोटो में जो महिला पत्रकार हैं वो ABP न्यूज़ चैनल की निधि श्री हैं। उन्होंने कॉन्ग्रेस नेता अभिजीत राज की बातों का खंडन किया और ट्वीट किया कि सामान्य बातचीत के दौरान जैसे किसी इन्सान का हाथ उसके नाक या माथे पर चला जाता है, ऐसा ही उस वक्त हुआ। उन्होंने लिखा कि उनकी इस तस्वीर को ग़लत तरीक़े से फैलाया जा रहा है।

इसके अलावा निधि ने यह भी बताया कि यह फ़ोटो 23 मई, 2019 की है, जिस दिन लोकसभा चुनावों की मतगणना हुई थी। उस दिन मुख्यमंत्री रघुवर दास का यह साक्षात्कार चैनल पर भी प्रसारित हुआ था। हालाँकि, अभिजीत राज ने थाने में दिए गए अपने बॉन्ड में लिखा कि उसने सोशल मीडिया पर जो फ़ोटो शेयर की थी वो किसी को ठेस पहुँचाने के लिए नहीं की थी, और अगर उससे किसी को ठेस पहुँची हो तो वो उसके लिए क्षमाप्रार्थी है।

मीडिया का सामना नहीं करेंगे कॉन्ग्रेस व सपा नेता, टीवी चर्चाओं में हिस्सा न लेने का निर्णय

लोकसभा चुनाव 2019 में करारी हार के बाद बड़े राजनीतिक दलों को गहरा सदमा लगा है। कॉन्ग्रेस और समाजवादी पार्टी ने आधिकारिक रूप से टीवी न्यूज़ बहस व चर्चाओं में हिस्सा न लेने की बात कही है। कॉन्ग्रेस पार्टी के कम्युनिकेशन प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने एक ट्वीट के माध्यम से बताया कि अगले एक महीने तक पार्टी का कोई भी प्रवक्ता किसी भी प्रकार की टीवी परिचर्चा में हिस्सा नहीं लेगा। पार्टी ने निर्णय लिया है कि किसी भी प्रवक्ता को इन बहसों में नहीं भेजा जाएगा। इसके अलावा उन्होंने सभी मीडिया चैनलों व संपादकों से निवेदन किया है कि कॉन्ग्रेस प्रवक्ताओं या पार्टी की तरफ से बहस में भाग लेने के लिए प्रतिनिधियों को न बुलाएँ।

कॉन्ग्रेस अकेली पार्टी नहीं है जो मीडिया से भाग रही है। समाजवादी पार्टी ने भी अपने सभी मीडिया पैनलिस्ट का मनोनयन तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है। इसका अर्थ है कि सपा द्वारा जब तक नए पैनलिस्ट के नामों की घोषणा नहीं की जाती, तब तक पार्टी का पक्ष रखने के लिए मीडिया चैनलों पर नेता नहीं जाएँगे। कॉन्ग्रेस की ही तरह सपा ने अभी मीडिया चैनलों से अपने नेताओं को पार्टी का पक्ष रखने के लिए न बुलाने का निवेदन किया है। हारे हुए राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे निर्णय लेना यह बताता है कि अभी वे मीडिया का सामना करने की स्थिति में नहीं हैं।

इस लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस को जहाँ सिर्फ़ 52 सीटें आईं, सपा सिर्फ़ 5 पर सिमट कर रह गई। मुलायम-अखिलेश को छोड़ कर यादव परिवार के सभी नेता हार गए। बसपा से गठबंधन का पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ और नेतृत्व अभी आत्ममंथन के दौर में है। वहीं कॉन्ग्रेस में तो अध्यक्ष के पद छोड़ने या न छोड़ने को लेकर ही घमासान मचा हुआ है, शीर्ष नेताओं पर अपने पुत्रों को पार्टी के ऊपर तरजीह देने को लेकर निशाना बनाया जा रहा है। राहुल गाँधी ने नेताओं से मिलना-जुलना बंद कर दिया है।

जाहिर है कि ऐसी स्थिति में इन दोनों ही पार्टी के प्रवक्ताओं को न्यूज़ डिबेट के दौरान तरह-तरह के सवालों के जवाब देने पड़ते, इसीलिए, दोनों दलों ने यह निर्णय लिया है। राजनीतिक दलों का बिना मीडिया के सामने आए गुज़ारा भी नहीं चलने वाला, इसीलिए, देखना यह है कि कब तक इन दलों में आत्ममंथन का दौर चलता है और इनके नेता टीवी चर्चाओं में दिखाई देते हैं।

विद्या लक्ष्मी योजना: 10 से अधिक विभागों की स्कॉलरशिप, 35 बैंकों की 95 लोन स्कीम – ऐसे उठाएँ फायदा

बढ़ती महंगाई के दौर में बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए लोन लेना एक बहुत आम बात होती जा रही है। कई बार जानकारी न होने के कारण हम बेहतर विकल्प चुनने से चूक जाते हैं, जिसके कारण बाद में पछताते हैं। हम जगह-जगह भटकने से ज्यादा कोशिश करते हैं कि एक ही जगह पर हमें लोन की हर जानकारी मिल जाए। हमारी इसी इच्छा को पूरा करने के लिए मोदी सरकार हमारे लिए विद्या लक्ष्मी योजना लेकर आई है। इस योजना के जरिए सरकार बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने में दो तरह से सहायता करती है। पहला तो उन्हें केंद्र के 10 से अधिक मंत्रालयों और विभाग की स्कॉलरशिप योजनाओं के माध्यम से पैसे दिलाए जाते हैं और दूसरा 35 बैंकों द्वारा चलाई जा रही 95 लोन स्कीमों के साथ उन्हें पैसा मिलता है।

आप सोच रहे होंगे कि इस योजना का फायदा आप किस तरह उठा सकते हैं? तो आइए इस योजना के बारे में हम आपको जरूरी जानकारी देते हैं।

दरअसल, विद्यालक्ष्मी योजना एक पोर्टल (https://www.vidyalakshmi.co.in/Students/) के रूप में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर मौजूद है। जहाँ आप स्कॉलरशिप या फिर शिक्षा लोन के लिए आसानी से आवेदन कर सकते हैं। इस योजना के तहत आपको हर बैंक में अलग से फॉर्म भरने की आवश्यकता नहीं है।

इस योजना से शिक्षा संबंधी लोन लेना बेहद सहज हो गया है क्योंकि इसके पोर्टल पर लोन के लिए कॉमन एप्लिकेशन फॉर्म (CAF) मौजूद है। इस फॉर्म का फॉर्मेट Indian Banker Association से पारित है। खास बात ये है कि देश के 35 बैंकों ने इस पोर्टल पर शिक्षा लोन की 95 योजनाओं को रजिस्टर कर रखा है। इससे आपको हर बैंक की जानकारी अलग से लेने की आवश्यकता नहीं है। इन बैंकों में इलाहाबाद बैंक, पीएनबी, केनरा बैंक, आईडीबीआई बैंक, विजय बैंक आदि शामिल हैं।

इस योजना का लाभ उठाने के लिए आपको प्रधानमंत्री विद्या लक्ष्मी योजना के पोर्टल पर लॉगिन करना होगा। लॉगिन से ही आपका रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। इसके बाद आप लोन के लिए अप्लाई कर सकते हैं। इस योजना के तहत आपको अपनी सुविधा के हिसाब से लोन के लिए आवेदन करना होगा। लोन की मंजूरी मिलते ही आपको इसी पोर्टल पर उसकी जानकारी भी मिल जाएगी।

ध्यान रखें:

लेकिन ध्यान रखें कि लोन आवेदन करने का मतलब यह नहीं होता है कि आपको लोन मिल गया। इसलिए आवेदन करने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखें। सबसे पहले लोन की पात्रता जाँच लें, ये सारी जानकारी इस पोर्टल पर मौजूद है। हो सकता है कि बैंक आपसे अधिक जानकारी या फिर दस्तावेज माँगे, इसके लिए आपको यह जानकारी बैंक को देनी होगी। इसके बाद बैंक की जाँच को 15-20 दिन में पूरा करने का प्रयास करें, वरना लोन ऐप्लिकेशन को स्वीकारा नहीं जाएगा। आवेदन करते समय अपना मोबाइल नंबर और ई-मेल आईडी सही से भरें, क्योंकि बैंक आपको संपर्क करने की कोशिश कर सकता है। सबसे मुख्य बात – आप एक बार में केवल 3 बैंकों में आवेदन कर सकते हैं। साथ ही हर बैंक की केवल एक ही लोन स्कीम में आवेदन कर सकते हैं।

इसके अलावा आप स्कॉलरशिप के लिए इस लिंक पर भी क्लिक कर सकते हैं-http://scholarships.gov.in/

BJP ने तोड़ा बड़ा मिथक, आधी से भी अधिक ‘अल्पसंख्यक बहुल’ सीटों पर किया कब्ज़ा

लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम को खंगालने पर कई बातों का पता चलता है और कई मिथक भी टूटते हुए नज़र आते हैं। भाजपा पर अक्सर विपक्षी नेताओं व राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा अल्पसंख्यक विरोधी होने का ठप्पा लगाया जाता रहा है लेकिन इस चुनाव के आँकड़े दिखाते हैं कि भाजपा समाज के सभी वर्गों का विश्वास जीतने में सफल रही है। भाजपा ने इस बार 90 ऐसे जिलों में 50% से अधिक सीटों को हासिल किया है, जो अल्पसंख्यक बहुल (Minority Concentration Districts) हैं। इन जिलों में यूपीए सरकार ने ही अल्पसंख्यक बहुल माना था। 2008 में कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के अनुसार, इन जिलों में सामाजिक-आर्थिक और बुनियादी सुविधाएँ राष्ट्रीय औसत से नीचे हैं।

कुल 79 ऐसी लोकसभा सीटें हैं, जो अल्पसंख्यक बहुल हैं। इन 79 में से 41 पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की है। अर्थात, कुल अल्पसंख्यक बहुल लोकसभा सीटों में से 51.8% पर भाजपा ने कब्ज़ा किया। ये पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन है। 2014 में भाजपा ने ऐसी 34 सीटों पर जीत दर्ज की थी, यानी इस वर्ष से 7 सीटें कम। वहीं मुख्य विपक्षी दल कॉन्ग्रेस की बात करें तो अल्पसंख्यक बहुत सीटों पर पार्टी का प्रदर्शन गिरा है। 2014 में कॉन्ग्रेस ने 12 अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर जीत दर्ज की थी, इस वर्ष पार्टी आधे पर आकर लटक गई और 6 ऐसी सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी।

इन आँकड़ों को देखने के बाद कई विश्लेषकों की राय है कि मुस्लिमों ने इस बार किसी एक पार्टी के लिए थोक में मतदान नहीं किया। अगर सभी जीते उम्मीदवारों की बात करें तो इस बार 27 मुस्लिम उम्मीदवार जीत दर्ज कर संसद पहुँचे हैं। लेकिन, इनमें भाजपा के एक भी सांसद नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि भाजपा ने मुस्लिम उम्मीदवारों को मौक़ा नहीं दिया था। भाजपा ने इस चुनाव में कुल 6 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे और सभी के सभी हार गए। सबसे ज्यादा मुस्लिम सांसद तृणमूल कॉन्ग्रेस के हैं। ममता बनर्जी की पार्टी के पास 5 मुस्लिम सांसद हैं जबकि कॉन्ग्रेस 4 मुस्लिम सांसदों के साथ दूसरे नम्बर पर आती है।

राजग की बात करें तो रामविलास पासवान की लोजपा के पास 1 मुस्लिम सांसद है। सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा को सबसे ज्यादा फायदा पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक बहुल लोकसभा सीटों पर हुआ। 49% मुस्लिम जनसंख्या वाले रायगंज (उत्तर दिनाजपुर जिला) में भाजपा प्रत्याशी देबश्री चौधरी ने 60,000 से भी अधिक मतों से जीत दर्ज की। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार ने जीत दर्ज करने में सफलता नहीं पाई थी। यहाँ तक कि इस बार 23% मुस्लिम जनसंख्या वाले दरभंगा में भी भाजपा प्रत्याशी गोपालजी ठाकुर ने जीत दर्ज की।

असम में 45% और 34% मुस्लिम जनसंख्या वाली 2 लोकसभा सीटों पर कॉन्ग्रेस ने जीत का पताका लहराया। कुल मिला कर देखें तो इस बार मुस्लिमों ने एक होकर किसी पार्टी के लिए वोट नहीं किया। भाजपा को मुस्लिम सीटों पर मिली बढ़त पार्टी के लिए राहत की बात है क्योंकि कई मीडिया रिपोर्ट्स में यह बताया जाता है कि मुस्लिम ख़ुद को भाजपा के शासनकाल में असुरक्षित महसूस करते हैं और उनके साथ अत्याचार होता है। मुस्लिम वोटरों ने इस मिथक को इस बार तोड़ दिया है।

मोदी शपथ ग्रहण समारोह: पुलवामा में वीरगति को प्राप्त जवानों के परिजन भी होंगे शामिल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आज गुरुवार (मई 30, 2019) को होने वाले शपथ ग्रहण समारोह में ख़ास अतिथियों की सूची बढ़ती ही जा रही है। बंगाल में चुनावी हिंसा के कारण मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के बाद अब पुलवामा हमले में वीरगति को प्राप्त जवान के परिजनों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने वेबसाइट पर प्रकाशित ख़बर में अपने सूत्रों के हवाले से बताया, “अतिथियों की सूची में पश्चिम बंगाल स्थित नदिया की ममता विश्वास भी शामिल हैं। ममता के बेटे सुदीप उन 40 सीआरपीएफ जवानों में से एक थे, जो पाकिस्तान समर्थिक आतंकियों द्वारा अंजाम दिए गए आत्मघाती हमले में वीरगति को प्राप्त हो गए।

सुदीप की माँ ममता आज गुरुवार को ही दिल्ली पहुँचने वाली हैं। वीरगति को प्राप्त 27 वर्षीय सुदीप के पिता भी इस समारोह में आने के लिए इच्छुक थे लेकिन स्वास्थ्य कारणों से वह यात्रा नहीं कर सके। पश्चिम बंगाल के हावड़ा के बबलू संतरा भी पुलवामा हमले में वीरगति को प्राप्त हुए थे लेकिन उनके परिवारजनों द्वारा अब तक पीएम मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने की पुष्टि नहीं की गई है। टाइम्स ऑफ इंडिया के सोर्स ने इस पर टिपण्णी करते हुए कहा, “वीरगति को प्राप्त जवानों व उनके परिवारों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से यह सम्मान देना उनके लिए सरकार का रुख दिखाता है, जो देश की सेवा करते हुए बलिदानी हो गए। ये ममता बनर्जी के उन आरोपों को भी ध्वस्त करता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि इस समारोह को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है।

बता दें कि इस कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के शिरकत करने की पूरी व्यवस्था की गई है। उनकी यात्रा से लेकर दिल्ली में ठहरने व खाने-पीने तक की सुविधा का ख्याल रखने के लिए भाजपा पदाधिकारियों को लगाया गया है। मीडिया रिपोर्ट्स में इन ख़बरों के आने के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस समारोह में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। ममता का दावा है कि बंगाल में कोई राजनीतिक हत्याएँ नहीं हुई हैं और ये सभी लोग पारिवारिक विवाद और व्यक्तिगत लड़ाइयों के कारण मारे गए। बंगाल में मारे गए भाजपा कार्यकर्ताओं के परिजन बुधवार को दिल्ली रवाना हुए। हावड़ा में उन्हें विदा करने के लिए जिला भाजपा की पूरी मंडली स्टेशन पर उपस्थित थी।

वहीं प्रभात ख़बर ने बताया कि पुलवामा में वीरगति को प्राप्त जवान बबलू संतरा के परिवार को भी समारोह में हिस्सा लेने के लिए बुलाया गया है। पीएम नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में BIMSTEC के राष्ट्राध्यक्षों समेत 8 देशों के नेताओं को आमंत्रित किया गया है। बिम्सटेक में भारत समेत दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के वे 7 देश शामिल हैं, जो बंगाल की खाड़ी से जुड़े हुए हैं। इन देशों में भारत के अलावा बांग्लादेश, म्यांमार, श्री लंका, थाईलैंड, नेपाल और भूटान शामिल हैं। इनके अलावा भारत ने किर्गिस्तान के राष्ट्रपति और मॉरीशस के प्रधानमंत्री को भी शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्योता दिया है।

कुल मिला कर देखें तो 7000 अतिथियों के इसमें शामिल होने की बात कही जा रही है। प्रधानमंत्री के साथ कई केंद्रीय मंत्री भी इस समारोह में हिस्सा लेंगे।

गोरों से स्वीकृति खोजते अमर्त्य सेन, नोबेल का मेडल घटिया तर्क को सुनहरा नहीं बना सकता

“अमर्त्य सेन ने इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखा है” – इस वाक्य मात्र से आपने जो कुछ अंदाजा लगा लिया, उससे बहुत ज्यादा कुछ अलग नहीं लिखा है। वही घिसा-पिटा राग कि मोदी को तो केवल 37% वोट मिले हैं (अतः इस्तीफा दे देना चाहिए), कॉन्ग्रेस की बेहतर रणनीति होनी चाहिए थी, भाजपा को इतना पैसा कहाँ से मिला (और पार्टियाँ क्यों कंगली हैं), इत्यादि। लेकिन एक-आध ऐसी बातें भी लिखीं, जिन्हें पढ़ कर हँसी आ गई कि एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री वह सब कैसे नहीं सोच पाया, जो मैं आधी नींद में होकर भी सोच सकता हूँ।

ऐसे में सवाल भी उठने लगता है कि क्या नोबेल पुरस्कार ही ओवररेटेड है और किसी को भी, राजनीति और विचारधारा का हित साधने के लिए दे दिया जाता है, या नरेन्द्र मोदी की जीत के धक्के से अमर्त्य सेन के दिमाग में अर्थशास्त्र वाले हिस्से पर गंभीर चोटें आईं हैं?

दूरदर्शन ने कॉन्ग्रेस का प्रसारण इसलिए कम किया क्योंकि जनता पक गई थी

जैसे शादियों में फूफा नाराज रहते हैं कि उनके बिट्टू को केवल तीन रसगुल्ले मिले, जबकि उनके साढ़ू के चिंटू को पाँच, उसी तरह अमर्त्य सेन को भी शिकायत है कि दूरदर्शन ने कॉन्ग्रेस को भाजपा से आधी फुटेज क्यों दी। उनके नोबेल-लेवल के अर्थशास्त्री दिमाग में पता नहीं यह कैसे नहीं आया कि जब किसी प्रॉडक्ट (कॉन्ग्रेस की विचारधारा और राजनीति) की जनता में डिमांड (स्वीकार्यता, जो कि कॉन्ग्रेस के 2014 से लेकर 2019 तक लगातार सिमटते जनाधार से नापी जा सकती है) नहीं है तो उसकी सप्लाई (प्रसारण) बम्पर डिमांड वाले प्रॉडक्ट जितनी कैसे हो सकती है, और क्यों होनी चाहिए?

कॉन्ग्रेस के पास ऐसा था क्या, जिसमें लोगों की ऐसी दिलचस्पी होती कि लोग दूरदर्शन लगाते केवल कॉन्ग्रेस को सुनने के लिए? दिग्विजय सिंह ने खुद माना कि कॉन्ग्रेस ने पढ़ना-लिखना (यानी, नए मूल विचार बनाना) नेहरू के बाद ही बंद कर दिया था, और सीपीआई से उधारी की विचारधारा पर गाड़ी दौड़ा रही थी। दूसरी ओर भाजपा, संघ परिवार, दक्षिणपंथ के साथ 70 साल सांस्कृतिक, वैचारिक परिदृश्य में, एलीट समुदाय में अछूत की तरह व्यवहार किया गया, इसलिए भाजपा को लेकर उत्सुकता जाहिर तौर पर रही, जिसका उन्हें  फायदा मिला और उनकी डिमांड ऊँची रही।

इसके अलावा सोशल मीडिया पर तो भाजपा सरकार का कब्जा नहीं था। अधिकांश टीवी चैनल लगातार मोदी के खिलाफ जहर उगल रहे थे, और कॉन्ग्रेस को पेट भरकर फुटेज दे रहे थे- क्या फायदा हुआ उसका? इसके बाद भी प्रॉडक्ट जनता द्वारा नकार दिया गया यानी, स्पष्ट है कि प्रॉडक्ट में ही खोट था। और अमर्त्य सेन कहना चाहते हैं कि खोटे माल पर भारत के लोगों की गाढ़ी कमाई के टैक्स से चल रहे दूरदर्शन का निवेश किया जाना चाहिए था? सवाल यह है कि इन्होंने अर्थशास्त्र का नोबेल ऐसे ही सार्वजनिक सम्पत्ति की बर्बादी की वकालत कर जीता था क्या?

(Edit: अभी देखा कि सेन साहब सच में रेवड़ी बाँटने वाली वेलफेयर इकोनॉमिक्स के ही अर्थशास्त्री हैं।)

जो मीडिया अपने देश में खत्म हो रहा है, उसका सर्टिफिकेट अमर्त्य सेन को ही मुबारक

अमर्त्य सेन का अगला दुःख है कि मोदी के राज में ले मोंडे, दी ज़ाइत, बीबीसी, गार्जियन वगैरह ने भारत की नकारात्मक रिपोर्टिंग की है। “इनटॉलेरेंस”, “मुस्लिम भय में हैं”, वगैरह के शिगूफे जमकर चलाए हैं। और भाजपा के समर्थकों को इस बात से ‘चिंतित होना चाहिए’ कि मोदी ने भारत की अंतररष्ट्रीय मीडिया में छवि बिगड़ गई है। तो पहली बात तो यह अमर्त्य सेन के लिबरल गैंग के ही लोग थे, जिन्होंने कॉलम रंग-रंग कर भारत की छवि डुबोई है- अगर इतनी चिंता थी तो न लिखते। अमर्त्य सेन ने कभी बाहरी मीडिया में देश की बेइज्जती करने वालों की आलोचना की? पहले खुद देश की टोपी बाहर उछलने के बाद अब उसका ठीकरा मोदी पर क्यों फोड़ना? और अगर उन लोगों ने जो लिखा है, वह सही है तो उस पर कायम रहिए।

दूसरी बात यह विदेशी मीडिया भारत के बारे में जानता क्या है- इनके इंटरनेशनल अफेयर्स एडिटर को अगर इंटरनेट बंद करके भारत के पाँच शहरों के नाम पूछे जाएँ तो और बाकियों की तो दूर की बात, जिस बीबीसी के आधे गोरे जर्नलिस्ट अपने ट्विटर पर ‘लव इंडिया’ लिखते हैं, वह भी फेल हो जाएगा। ऊपर से गोरों का श्रेष्ठताबोध इनमें इतना ज्यादा है कि अपने देश में नस्लवाद से लड़ने का दम भरने वाला न्यू यॉर्क टाइम्स भारत में साड़ी के लौटते फैशन पर चिंता प्रकट करता है, क्योंकि अगर भारतीय अपना सांस्कृतिक परिधान पहन रहे हैं तो शर्तिया पिछड़े युग में लौट रहे हैं। इसके अलावा इनके खुद के देश में इन अख़बारों की कुछ नहीं चलती- इनके लाख न चाहने के बाद भी ब्रिटेन में ब्रेक्सिट हो ही गया, अमेरिका में ट्रम्प भी आ ही गया, और मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर उसने कोई बड़ी मूर्खता खुद नहीं की तो वह इन्हें ठेंगा दिखा कर फिर से लौटेगा। तो ऐसे वाहियात और हमारी ज़मीन से कटे लोगों के सर्टिफिकेट अमर्त्य सेन जैसे शैम्पेन लिबरल्स के गैंग को ही मुबारक।

टैगोर के भारत को हिंदुत्व से अलग नहीं किया जा सकता

अमर्त्य सेन इस पर भी चिंता जताते हैं कि मोदी का भारत नेहरू-टैगोर-गाँधी का भारत नहीं है। तो पहली बात तो इन तीनों के भारत बहुत ही अलग थे- गाँधी जहाँ भारत को दोबारा ग्रामीण पिछड़ेपन में घसीट लेना चाहते थे और नाममात्र के हिन्दू थे, वहीं नेहरू का भारत-दर्शन विशुद्ध रूप से आर्थिक-भौतिक-नास्तिक था और गाँधी के उलट वह भारत में औद्योगीकरण और शहरीकरण के पक्षधर थे। वहीं टैगोर इन दोनों से अलग भारत की उसी धार्मिक आत्मा को खुद में रचाए-बसाए थे। अपनी किताब ‘परिचय’ के ‘आत्मपरिचय’ भाग में वह साफ लिखते हैं कि जबकि इस्लाम और ईसाईयत का “केवल मेरा पंथ सही” दुनिया को त्रस्त किए है तो केवल हिन्दू धर्म ही रास्ता दिखा सकता है। वह राष्ट्रवाद शब्द के भले ही खिलाफ थे क्योंकि उन दिनों राष्ट्रवाद की समझ यूरोप में राष्ट्रवाद के नाम पर हुई अमानवीयता के इर्द-गिर्द थी, पर आधुनिक हिन्दू राष्ट्रवाद जैसे बिना किसी गैर-हिन्दू नागरिक के व्यक्तिगत अधिकारों  किए हिन्दू आदर्शों पर राष्ट्र-निर्माण का आकांक्षी है, वह टैगोर के स्वप्न के भारत का दुश्मन नहीं है।

तो कुल मिलाकर अमर्त्य सेन जैसे ‘सम्मानित’ विद्वान को चाहिए कि अपने सम्मानित होने का भी सम्मान करें, और जनादेश की भी गरिमा अक्षुण्ण रखें। देश में बदलाव का दौर है और उनकी रेवड़ीनॉमिक्स तो वैसे ही अप्रासंगिक है- बेहतर होगा वे खुद अप्रासंगिक हो जाने से खुद को बचाएँ।

बंगाल में हिंदू हो रहे हैं एकजुट और साथ कर रहे हैं वोट, आँकड़े तो यही बताते हैं

पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के नतीजों ने देशवासियों को चौंकाया है। सभी पूर्वग्रह और अपेक्षाओं को झूठा साबित करते हुए, भाजपा ने पश्चिम बंगाल राज्य में 40.25% वोट-शेयर हासिल किया, जबकि वाम दल दहाई अंक के वोट-शेयर तक पहुँचने में भी नाकाम रहे।

यह सच है कि भगवा लहर ने भाजपा को पश्चिम बंगाल में 18 लोकसभा सीटों पर पहुँचा दिया, जबकि TMC 23 सीटों पर आ गई और वाम दल अपना खाता भी नहीं खोल पाए।

यह परिणाम बताते हैं कि पश्चिम बंगाल के इतिहास में पहली बार धर्म के आधार पर वोटिंग हुई है, ना कि राजनीति के आधार पर। CSDS के मतदान के बाद किए गए सर्वे बताते हैं कि भाजपा के पीछे बड़े स्तर पर हिंदुत्व का एकीकरण था, जबकि मुस्लिम मतदाताओं ने ममता बनर्जी को अपना समर्थन दिया।

साभार: द हिन्दू

भाजपा को हिन्दुओं से मिलने वाला वोट प्रतिशत वर्ष 2014 के 21% से बढ़कर आश्चर्यजनक रूप से 2019 में सीधा 57% तक पहुँच गया। जबकि, इसके विपरीत TMC को 40% से 32 पर आ गए और वाम दल को मिले मतों का प्रतिशत 29 से सीधा 6 पर आ गया।  

यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इस बार भाजपा को मिलने वाला मत प्रतिशत जातिगत मुद्दों से हटकर सभी वर्गों में बढ़ा है। अपर कास्ट, ओबीसी, दलित, आदिवासियों ने बड़े स्तर पर भाजपा को अपना मत दिया जबकि, अन्य दलों का मत प्रतिशत गिरा है। इस प्रकार, भाजपा को मिलने वाला यह मत प्रतिशत दर्शाता है कि यह जातिगत मुद्दों को पीछे छोड़ते हुए स्पष्ट रूप से हिंदुत्व का एकीकरण था।

नतीजतन, मुस्लिमों के बीच TMC का वोट-शेयर 2014 में 40% से बढ़कर इस साल 70% हो गया। हालाँकि, बीजेपी ने अपना वोट-शेयर 2% से बढ़ाकर 4% कर लिया, लेकिन ‘लहर’ की दिशा बिल्कुल स्पष्ट है। इन आँकड़ों से यह भी निश्चित तौर से माना जा सकता है कि चुनाव में वाम दल के पतन का कारण तृणमूल नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी है।

अब तक बंगाल में राजनीतिक विचारधारा के आधार पर ही मतदान होते देखे जाते थे, लेकिन अब, जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, वहाँ पर धार्मिक पहचान के आधार पर मतदान देखने को मिलेंगे।

हम उम्मीद कर सकते हैं कि अब और ज्यादा हिन्दू मिलकर भाजपा को वोट देने वाले हैं और इसी प्रकार मुस्लिम भी एकीकृत होकर TMC को अपना मत देने वाले हैं। इन परिस्थितियों में यह भी तय है कि आने वाले समय में ‘वाम’ विचारधारा का कोई रखवाला देखने को नहीं मिलेगा। वाम दल का भविष्य इस प्रकार बंगाल में ख़त्म हो चुका है।

मुलायम को नहीं दिए वोट तो दलित बस्ती वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, आयोग ने लिया संज्ञान

उत्तर प्रदेश एससी/एसटी आयोग ने मुलायम सिंह यादव के पक्ष में वोट नहीं देने के लिए एससी समुदाय के सदस्यों के खिलाफ की गई हिंसा का स्वतः संज्ञान लिया है। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में मैनपुरी सीट से समाजवादी पार्टी के मुखिया महागठबंधन के उम्मीदवार थे। आयोग ने एसएसपी मैनपुरी को उपद्रवियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने और उनके खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।

यूपी एससी/एसटी आयोग ने कहा, “यह हमारे संज्ञान में आया है कि मैनपुरी के लोकसभा क्षेत्र में एससी-एसटी लोगों के साथ हिंसा की गई थी, जिन्होंने चुनाव में सपा उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव को वोट नहीं दिया था, उन्हें लाठी-डंडों से पीटा गया और बंदूक से हवाई फायर करके डराया गया। इसी समुदाय के सदस्यों में से एक, बीएसएफ जवान रामनरेश (रिंकू) ने घटनास्थल से भागने के बाद पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई थी।”

एक रिपोर्ट के मुताबिक, नगला मांधाता के यादवों ने उन्नाव गाँव में अनुसूचित जाति के लोगों पर मुलायम सिंह यादव को वोट न देने का आरोप लगाते हुए हमला किया।

बता दें कि बीएसएफ जवान रिंकू उर्फ फौजी पुत्र रामनरेश मंगलवार (मई 28, 2019) की सुबह करीब 8 बजे ट्यूबवेल के पास खेत में भूसा उठाने गया था। आरोप है कि तभी यादव बिरादरी के लोगों ने उस पर भी हमला बोल दिया। शोर सुनकर रिंकू के घर के लोग पहुँचे तो हमलावरों ने उनको भी लाठी-डंडों से पीटा। दहशत फैलाने के लिए हवाई फायरिंग भी की गई। रिंकू ने बताया कि मेरे गाँव के बूथ पर गठबंधन प्रत्याशी मुलायम सिंह 250 मतों से हारे हैं। इसी कारण से यादव लोगों ने हम लोगों के साथ मारपीट की है।

आयोग ने इसे गंभीर अपराध करार देते हुए पुलिस से संबंधित आईपीसी की धाराओं के तहत मामला दर्ज करने और चुनाव के बाद की हिंसा के मामलों को रोकने के लिए कहा है। इसने एससी-एसटी एक्ट 2016 के लागू प्रावधानों के तहत दोषियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के भी निर्देश जारी किए हैं। एसएसपी मैनपुरी को क्षेत्र में एससी / एसटी समुदाय के सदस्यों की सुरक्षा की समीक्षा करने के लिए घटनास्थल का दौरा करने का भी निर्देश दिया गया है। आयोग ने भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने के लिए आर्म्स गार्ड की तैनाती का भी अनुरोध किया है।

उल्लेखनीय है कि कुल मतों में से 53.75 प्रतिशत वोट पाने वाले मुलायम सिंह यादव को भाजपा प्रत्याशी प्रेम सिंह शाक्य ने 44.09 प्रतिशत मतों के साथ करारी टक्कर दी थी।

नेशनल हेराल्ड मामले में गाँधी परिवार को लगा झटका, ED ने जब्त की पंचकूला स्थित प्रॉपर्टी

ऐसा लगता है जैसे कॉन्ग्रेस परिवार के अच्छे दिनों को किसी की नजर लग चुकी है। एक ओर कॉन्ग्रेस पार्टी के तमाम नेता अपने युवा अध्यक्ष राहुल गाँधी को इस्तीफ़ा वापस करने के लिए मनाने को लेकर संघर्षरत नजर आ रही है वहीं नेशनल हेराल्ड मामले में भी कुछ ऐसे मोड़ आ रहे हैं, जिन्हें सुनकर गाँधी परिवार को अच्छा नहीं महसूस होगा।

नेशनल हेराल्ड केस में गाँधी परिवार को बड़ा झटका लगा है। रिपोर्टस के अनुसार, ED (प्रवर्तन निदेशालय) ने इस मामले में पंचकूला में स्थित प्रॉपर्टी जब्त कर ली है। इसके पहले ED ने पिछले साल गुरुग्राम और पंचकूला में ₹64 करोड़ मूल्य की कई संपत्तियों को अटैच करने का आदेश दिया था। प्रवर्तन निदेशालय की ओर से जब्‍त की गई यह संपत्ति नेशनल हेराल्‍ड और एसोसिएटेड जर्नल्‍स लिमिटेड से संबंधित है।

प्रवर्तन निदेशालय की ओर से बुधवार (मई 29, 2019) को जारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, हरियाणा के पंचकूला के सेक्‍टर 6 के प्‍लॉट नंबर सी-17 को जब्‍त किया गया है। ED के मुताबिक, हरियाणा के पूर्व मुख्‍यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा द्वारा अवैध तरीके से एसोसिएटेड जर्नल्‍स लिमिटेड (AJL) को यह संपत्ति आवंटित की गई थी। नेशनल हेराल्ड केस में ED ने पिछले साल दिसंबर में इस प्रॉपर्टी को अटैच करने के लिए आदेश जारी किया था।

बता दें, जब जमीन अलॉट की गई थी तब तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण के चेयरमैन थे, जबकि मोती लाल वोहरा एसोसिएटेड जर्नल्‍स लिमिटेड (AJL) हाउस के चेयरमैन थे। दोनों के खिलाफ दिसंबर 01, 2018 को चार्जशीट दाखिल हो चुकी थी।

आखिर क्या है पूरा मामला?

अगस्त 24, 1982 को पंचकूला सेक्टर-6 में 3360 वर्गमीटर का प्लॉट नंबर सी -17 तत्कालीन सीएम चौधरी भजनलाल ने अलॉट कराया था। कंपनी को इस पर 6 माह में निर्माण शुरू करके 2 साल में काम पूरा करना था, लेकिन कंपनी 10 साल में भी ऐसा नहीं कर पाई। अक्टूबर 30, 1992 को हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) ने अलॉटमेंट कैंसिल करके प्लॉट को रिज्यूम कर लिया।

जुलाई 26, 1995 को मुख्य प्रशासक HUDA ने एस्टेट ऑफिसर के आदेश के खिलाफ कंपनी की अपील खारिज कर दी। मार्च 14, 1998 को कंपनी की ओर से आबिद हुसैन ने चेयरमैन HUDA को प्लॉट का अलॉटमेंट बहाली के लिए अपील की। मई 14, 2005 को चेयरमैन HUDA ने अफसरों को AJL कंपनी के प्लॉट अलॉटमेंट की बहाली की संभावनाएँ तलाशने को कहा, लेकिन कानून विभाग ने अलॉटमेंट बहाली के लिए साफतौर पर इन्कार कर दिया।

अगस्त 18, 1995 को फ्रेश अलॉटमेंट के लिए आवेदन माँगे गए। इसमें AJL कंपनी को भी आवेदन करने की छूट दी गई। अगस्त 28, 2005 को हुड्डा ने AJL को ही 1982 की मूल दर पर प्लॉट अलॉट करने की फाइल पर साइन कर लिए। साथ ही कंपनी को 6 माह में निर्माण शुरू करके 1 साल में काम पूरा करने को भी कहा गया। सीएम HUDA ने भी पुरानी रेट पर प्लॉट अलॉट करने के आदेश दिए।

एसोसिएटड जर्नल लिमिटेड (AJL) के अखबार नेशनल हेराल्ड के लिए पंचकूला में नियमों के खिलाफ जमीन आवंटन का आरोप है। इस मामले में सतर्कता विभाग ने मई 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर केस दर्ज किया गया है। यह मामला हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण (HUDA) की शिकायत पर दर्ज हुआ है, चूँकि मुख्यमंत्री HUDA के पदेन अध्यक्ष होते हैं। यह गड़बड़ी हुड्डा के कार्यकाल में हुई, इसलिए उनके खिलाफ यह मामला दर्ज हुआ है। हरियाणा अर्बन डेवलपमेंट अथॉरिटी (HUDA) को करीब ₹62 लाख का नुकसान पहुँचाए जाने का आरोप है।

लाल सलाम से खेलने वाले बच्चे ने थामी भगवा लहर, कहानी एक Stupid Common बंगाली की

क्या कोई बंगाली बंगाल से जुदा हो सकता है भला! मेरी समझ से शायद नहीं। पैसे और पेट की खातिर चले आप जहाँ जाओ, दिलो-दिमाग से बंगाल को कैसे काट पाओगे यार! मेरी नियति भी कुछ ऐसी ही है। मैं सिर्फ पैदाइश से बंगाली हूँ। परवरिश से झारखंडी। बंगाल का न तो वोटर आईडी मेरे पास है और न ही कोई स्थायी पता। लेकिन यार-दोस्तों के साथ चाय सुड़कते हुए या सुट्टा मारते हुए, जितनी समझ के साथ मैं झारखंड की राजनीति पर चर्चा कर लेता हूँ, बंगाल की राजनीति पर उससे कम ज्ञान दे पाऊँगा, ऐसा नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैं बंगाली हूँ 🙂

किशोरावस्था तक शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब साल में 2-3 बार सेरामपोर जाने के लिए महीनों प्लानिंग न की हो। करता भी क्यों नहीं! यही वो जगह थी जहाँ न किताबों का बोझ होता था, न टीचर की किच-किच। यहीं अपने घर में मैं बेफिक्र खेलता था और नानी घर में पाता था असीम प्यार। मतलब मेरा पैतृक घर और नानी घर इसी सेरामपोर में है और आस-पास ही है। गर्मी और दुर्गा पूजा की छुट्टियों में दादाजी के साथ और कभी-कभार पापा के साथ जब भी टाटा से यहाँ जाता, कलकत्ता (तब कलकत्ता ही था) होकर जाता। ये जो यात्रा होती थी, ये बड़ी रंगीन होती थी। और मैं रंगों की दुनिया में खो जाता था।

…वो लाल रंग

बस हो या ट्रेन, जहाँ से मुझे लाल रंग दिखने लगते थे, मेरे उत्साह बढ़ता जाता था। किलोमीटर या दूरी का ज्ञान तो नहीं था लेकिन हर गुजरते घरों के ऊपर लहराते लाल झंडे मुझे यह अहसास कराते थे कि अब घर नजदीक है। एक बात और! टाटा वाले दादाजी और यहाँ वाले दादाजी अचानक से बदल जाते थे। झुर्री चढ़ी अपने हाथों को जोड़कर सबको प्रणाम बोलने वाले दादाजी अचानक से सबको लाल सलाम बोलने लग जाते थे। मुझे बहुत हैरानी होती थी लेकिन हद से ज्यादा प्यारे होने के बावजूद मैंने कभी उनसे इसका कारण नहीं पूछा। पता है क्यों? क्योंकि मैं भी उनके साथ जब लाल सलाम बोलता था तो मुझे बदले में सब लोग प्यार से देखते थे, सिर पर हाथ फेरते थे।

मेरी तरह और भी कई बच्चे छुट्टियों में घर आते थे। सब के साथ धमाचौकड़ी मचाता था। लेकिन चचेरे भैया (बहुत बड़े, कॉलेज जाते थे) मेरे बेस्ट फ्रेंड थे। कारण था उनकी साइकल। वो अपनी साइकल चलाने भी देते थे और घूमाने भी ले जाते थे। हर शाम वो कॉलेज के पास जाते थे एक चाय की दुकान पर। वहाँ उनके दोस्त भी आते थे, सब लोग देर तक गप्पें मारते थे। मैं बिसकुट-लेमनचूस खाने में लगा रहता था। लेकिन जैसे ही कोई लाल सलाम बोलता था, कान खड़े हो जाते थे। पता नहीं क्यों लेकिन मुट्ठी भींच कर लाल सलाम बोलने से मैं प्यार करने लगा था।

हर हर बासु, घर घर बासु

नहीं यह नारा नहीं था। लेकिन 7वीं-8वीं आते-आते जब अखबार पढ़ने लगा, खबरें समझने लगा तब सेरामपोर जाने और लाल सलाम करने के अलावा जो एक चीज मुझे समझ आई, वो था – ज्योति बासु। हर गली, हर नुक्कड़, चाय की दुकान या कॉलेज का कैम्पस – ज्योति बासु से शुरू हुआ गप्प ज्योति बासु पर ही खत्म होता था – भले ही बहस और तेज आवाज में क्यों नहीं। और हाँ, अंत में लाल सलाम तो होता ही था।

बंगाल तब ज्योति बासु को चुनता नहीं था, प्यार करता था। फिर एक दिन पता चला कि (शायद 9वीं में था मैं तब) कोई बुद्धदेब हैं, जो ज्योति बासु की कुर्सी पर बैठे हैं। आप यकीन मानिए, इसके बाद मैं जब-जब सेरामपोर गया, तब-तब लाल सलाम की गूंज तो फिर भी कानों तक आ ही जाती थी, ज्योति बासु या बुद्धदेब जैसा नाम कभी सुनने को नहीं मिला। पब्लिक का प्यार फ्रस्टेशन में बदल चुका था। लोग अब गप्प नहीं करते थे। हमेशा बहस करते थे। बहस में खुद को, सिस्टम को और राजनीति को सिर्फ कोसते थे। शायद लोगों का मोहभंग हो चुका था, लेकिन मेरा नहीं। मैं तब भी सेरामपोर को उतना ही प्यार करता था, जितना पहले और जितना अब करता हूँ।

बदले झंडे, बदला नारा

स्कूल की पढ़ाई खत्म करके मैं अब दिल्ली यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट हो चुका था। दिल्ली में रहने का अपना फायदा है। फायदा मतलब आजादी है – खाने-पीने से लेकर, सोचने-समझने और राजनीति बाँचने तक की। माँ-बाप की आँखों से दूर होकर ‘स्वतंत्र’ घूमने की आजादी। ऐसे में जब-जब यूनिवर्सिटी की छुट्टियाँ होती थीं, टाटा के साथ-साथ मैं तब सेरामपोर भी जाता था लेकिन अपनी सोच-समझ के साथ। अब लाल सलाम और लाल रंग के झंडे वाला बचपन छूट गया था। गप्प हो या बहस, अब बातों को अपनी समझ के अनुसार पकड़ने लगा था। साथ ही यह भी समझ गया था कि वामपंथ की राजनीति को ममता बनर्जी जैसी जिद्दी और जीवट की पक्की महिला सिंगूर के रास्ते बंगाल से निकाल फेंकेगी। घरों पर बदले झंडे इसकी गवाही भी देने लगे थे। लोगों की बातचीत और बहस से साफ था कि वे ममता में अपना मसीहा खोज लिए थे। उन्हें विश्वास हो चला था कि बंगाल को अगर कोई फिर से आर्थिक और सांस्कृतिक ऊँचाई तक ले जा सकती है तो वो सिर्फ और सिर्फ दीदी ही है, ममता ही है।

लाल सलाम की मिट्टी खिसक रही थी। और माँ-माटी-मानुष अपनी जड़ें जमा चुकी थी। यह सब तब हो रहा था जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से निकल कर एमबीए करने गया और फिर नौकरी करने लगा। आप कह सकते हैं कि किस्मत का धनी रहा हूँ मैं। नौकरी लगी भी तो कहाँ – टाटा में, मतलब बंगाल के बगल में। मतलब बंगाली राजनीति में न सही, एक बार फिर उसके एकदम करीब आ गया मैं। ममता के आप आलोचक हों या समर्थक, सत्ता की शुरुआत में उन्होंने राज्य की मूलभूत संरचनाओं पर काम किया, इससे इनकार नहीं कर सकते। सड़कें, अस्पताल, स्कूल ये सब ममता राज में बने या बेहतर किए गए।

सत्ता, ममता और निर्ममता

बंगाल की खबरें टाटा तक पूरबइया हवा के एक झोंके भर में आ जाती है। ममता दीदी सब कुछ ठीक चला रही थीं। लेकिन इसी बीच उन्हें न जाने कहाँ से यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि सरकार चलाना और सत्ता में बने रहना दो अलग-अलग बातें हैं। और यह ज्ञान इन्हें तब प्राप्त हुआ जब दूसरी बार इन्हें बंगाल की सत्ता चाहिए थी। फिर क्या था! इन्होंने वो-वो किया जो लाल सलाम वाले करते थे। इन्होंने वो-वो भी किया, जो लाल सलाम वाले नहीं कर पाए थे। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति – चरम पर। इतनी ज्यादा कि हिन्दुओं को बंगाल में डर लगने लगा। आँकड़े आप खुद गुगल कर लीजिए – 50 से ज्यादा दंगे सिर्फ ममता काल में हुए हैं। शुरुआती दौर की सड़कें, अस्पताल, स्कूल के अलावा इन्होंने कोई और काम नहीं किया – सिवाय राजनीति के। जिन प्रमुख कामों के लिए बंगाल के वोटरों ने ममता दीदी को जिताया था, मसलन नौकरी, विकास और अर्थव्यवस्था – उन पर बंगाल में अभी तक ग्रहण लगा हुआ है।

सेकुलर का चोला ओढ़ने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण तक शायद सही होता… वो भी शायद! लेकिन ममता ने एक कदम आगे बढ़कर जो किया, वो आत्मघाती हुआ। बताता हूँ कैसे। मेरी कहानी की शुरुआत में दुर्गा पूजा का जिक्र है। वो इसलिए क्योंकि बंगाली की कहानी में दुर्गा पूजा नहीं हो, यह संभव नहीं। क्योंकि साल की शुरुआत में जब नया कैलेण्डर आता है तो हर बंगाली के यहाँ सबसे पहले दुर्गा पूजा की तारीख देखी जाती है। अगर आप गैर-बंगाली हैं, तो इसे आप अघोषित कानून मान सकते हैं। ऐसे जुनूनी समुदाय के लिए ममता ने माँ दुर्गा के विसर्जन की तारीख सिर्फ इसलिए एक दिन आगे बढ़वा दी क्योंकि मुहर्रम पर समुदाय विशेष को दिक्कत न हो। बंगाल के लिए, बंगाल की जनता के लिए यह बात सोच से परे थी। फिर से पढ़िए – बंगाल के लिए, बंगाल की जनता के लिए यह बात सोच से परे थी। यही वो मामला (इसे आप धार्मिक कह लें या सांस्कृतिक) था जिसने बंगाल की रगों में ममता के विरुद्ध सोच पनपने की जमीन तैयार की।

ममता से बड़ी जनता

बंगाल के हिंदू नाराज हों, ममता ने ऐसे काम बार-बार किए। बंगाल के हिंदुओं में डर और खौफ पैदा हो, ममता ने ऐसे काम बार-बार किए। जिस बंगाली समाज ने लाल सलाम को लात मार माँ-माटी-मानुष के लिए सत्ता का द्वार खोला था, वो छला हुआ महसूस कर रहा था। इसी समय अपनी विचारधारा पर प्रहार (दुर्गा पूजा, मुस्लिम तुष्टिकरण) होते देख आरएसएस और बीजेपी दोनों ही बंगाल में अपने पैर पसारने की ओर अग्रसर थे। छले हुए बंगाली समाज को इनमें एक उम्मीद दिखी। उम्मीद जो कभी इसी धरती के लाल श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देखी थी।

बंगाल की जनता आज सेक्युलरिज्म की परिभाषा जान भी गई है और इसकी खाल में छिपे भेड़ियों को पहचान भी गई है। उन्हें बंगाल में नौकरी चाहिए, आर्थिक उन्नति चाहिए। उन्हें यह भी पता है कि बंगाल को क्या नहीं चाहिए – झूठे वादे, डर का माहौल। ममता को बंगाल की जनता ने दिखा दिया कि वो भले तानाशाही पर उतर आईं लेकिन जनता आज भी उनसे बड़ी है और आने वाले समय में भी रहेगी। बंगाल में भगवा आया नहीं है, यह लाया गया है। और इसका पूरा श्रेय ममता बनर्जी को जाता है।

लेखक: सायन घटक, फिलहाल HDFC में मैनेजर हैं।