कॉन्ग्रेस और कम्युनिस्टों का साथ चोली-दामन का रहा है। कब एक, दूसरे में परिवर्तित हो जाए, कहा नहीं जा सकता है। आखिर, ‘दुर्घटनावश हिंदू’ और देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब अंग्रेजों से ‘ट्रान्सफर ऑफ पावर’ किया था, तो सब कुछ जस का तस ही रखा। केवल चेहरे बदले, बाक़ी नेहरू के पास न तो भारत का विज़न था, न ही भारत को किसी भी तरीके से वह बदलना चाहते थे, तो अंग्रेजों और मुगलों का भारत ही उनकी नज़र में सब कुछ था, जिसके सबसे तीसरे दर्जे के नागरिक हिंदू थे।
नेहरू जीवन भर ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ ही करते रहे, इस क्रम में वह भारत को कभी समझे ही नहीं। हर एक हिंदू प्रथा, वस्तु, स्मारक या व्यक्ति उनके लिए न्यूनतम मज़ाक और अधिकतम घृणा का पात्र था। इसीलिए, सोमनाथ के जीर्णोद्धार के जुर्म में उन्होंने राजेंद्र बाबू को दमे से मरने दिया, अपने अंग्रेज दोस्तों को सपेरों और नजूमियों से तो मिलवाया, पर भारत की महान सभ्यता और संस्कृति पर लौह-कपाट जड़ दिए।
जब उन्होंने राष्ट्रवादी तरीके से इतिहास-लेखन तक को बाधित किया, तो भला कम्युनिस्टों से बेहतर अधिकारी कौन होता, जो शिक्षा को विकृत करे। तथाकथित लौह-महिला इंदिरा ने उस विष-बेल को बाकायदा सींचकर इतना जड़ीभूत कर दिया कि आज हम जो रोमिला, चंद्रा, हबीब आदि की विषैली शिक्षाएँ देख रहे हैं, वही मुख्यधारा बन चुकी है, यहाँ तक कि आर्य-आक्रमण का सिद्धांत, सभी तरह से खारिज होने के बाद भी पढ़ाया जा रहा है।
खैर, विषयांतर हो गया। हमारे समय कैंपस में एसएफआइ (SFI), एआइएसएफ (AISF) और आइसा (AISA) का जोर था। उसके एक नेता थे बत्तीलाल बैरवा, जो कि फिलहाल कॉन्ग्रेस में हैं। एक हुआ करते थे, नासिर हुसैन। साक्षात ज़हर की पुड़िया। वह कॉन्ग्रेस से राज्यसभा में पाए जा रहे हैं। हमारे जूनियर संदीप सिंह तो खैर आजकल राहुल बाबा के ही दाहिने हाथ हैं, उनकी किचन-कैबिनेट के सदस्य हैं।
अब, एक बार फिर से थोड़ा पीछे जाइए। याद कीजिए, जब कन्हैया कुमार का कांड हुआ, तो देश की तमाम यूनिवर्सिटीज में या तो पहले या बाद से तथाकथित आंदोलन चल रहे थे। चाहे वह गजेंद्र चौहान के बहाने IIFT का हो, या फिर नकली दलित रोहित वेमुला की आत्महत्या (जो दरअसल, उसके कॉमरेड की वजह से ही की गई) के बहाने हैदराबाद यूनिवर्सिटी का बवाल हो, या टीआइएसएस का मसला हो या जाधवपुर का। योजना यह थी कि एक नहीं बीस-पच्चीस कन्हैया तैयार किए जाएँ। एक जिग्नेश पहले ही तैयार किया जा चुका था। उसी क्रम में जेएनयूएसयू के पूर्व अध्यक्ष मोहित पांडे, शहला रशीद और कन्हैया को तैयार किया जा रहा था। एक तरह से 1977 टाइप फर्जी माहौल तैयार करने की योजना थी, जहाँ विद्यार्थियों को आगे कर राहुल बाबा की ताजपोशी करानी थी।
अफसोस। सोशल मीडिया के इस दौर में यह योजना परवान न चढ़ सकी और बिहार में पहले लालू प्रसाद ने और फिर तेजस्वी ने कन्हैया को घास न डाली।
कन्हैया कुमार के बारे में एक सबसे बड़ा दुष्प्रचार क्या है? यही न कि वह बहुत अच्छा बोलता है। मुझे अपने देश के लोगों पर तरस आता है। क्या हमारी मेधा इतनी सिकुड़ गई है, इतनी कम हो गयी है कि यह आदमी भी वक्ता हो गया?
कम्युनिस्टों में भी एकाध लोग ठीक-ठाक पढ़े-लिखे होते थे। जेएनयू के उस जमाने में एक तरफ बत्तीलाल बैरवा थे, तो दूसरी तरफ कविता कृष्णन भी थीं, वीजू कृष्णन भी थे। बत्तीलाल हमें हँसाने के काम आते थे, पर व्यक्तिगत स्तर पर मैं कविता या वीजू को उनकी विचारधारा के लिए कितना भी कोसूँ, वे कम से कम तथ्यों या सबूतों के साथ बात करते थे, उनकी भाषा बताती थी कि वक्तृता किसे कहते हैं। (इसका कविता जी के मौजूदा ट्वीट्स से अंदाज़ा न लगाएँ)।
कन्हैया को यह लेखक देखता भी नहीं है, सुनता भी नहीं है, क्योंकि उसका जो तथाकथित क्रांतिकारी भाषण एड-ब्लॉक पर हुआ था, वह दो सेकंड सुनकर मैं समझ गया था कि यह निहायत ही बदतमीज, तथ्यविहीन, दो कौड़ी की गटरछाप भाषा बोलने वाला आदमी है। मुझे इसके साथ मंच शेयर करने को कहा जाए, तो मैं नहीं करूँगा, क्योंकि मुझे शर्म आती है कि यह गंदा वक्ता मेरा जूनियर है, जो सिवाय मुँह चियारने के, गलतबयानी के और कुछ नहीं करता। (हर एक कम्युनिस्ट बिल्कुल यही करता है)
कन्हैया की देह-भाषा देखिए, उसका उच्चारण देखिए, उसका पूरा व्यवहार देखिए। क्या आपको शर्म नहीं आती कि वह आदमी आज की पीढ़ी के लिए शानदार वक्ता है, सत्ता से प्रश्न पूछने वाला क्रांतिकारी है, राजसत्ता को चुनौती देनेवाला है। क्या यही शिक्षा-पद्धति हमने बनाई है, क्या यही आदर्श हमने तैयार किए हैं?
(पहला भाग यहाँ पढें। अगले भाग में अब कन्हैया से यह कहानी कम्युनिस्टों के कुकर्म की गौरवगाथा की ओर आगे बढ़ेगी)
— व्यालोक पाठक