Friday, October 4, 2024
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राहुल गाँधी भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक अस्थिरता के शिकार: विकीलीक्स की बात आज भी प्रासंगिक

राहुल गाँधी आजकल जिस तरह के ‘ख़ुलासे’ कर रहे हैं, उस हिसाब से उनकी मानसिक अवस्था पर बहुतों को ‘दोबारा’ संदेह होने लगा है। हाल ही कि बात है जब उन्होंने मनोहर पर्रीकर के घर अचानक पहुँच कर उनका हाल-चाल पूछा और मीडिया में आकर उन्हें राफ़ेल की चर्चा में खींच लिया। इस पर गोवा मुख्यमंत्री ने एक बयान जारी करके उन्हें समझाया कि इस तरह की हरकत अशोभनीय और निम्न स्तर की है।

हालाँकि, जो लोग राहुल गाँधी को सुनते-पढ़ते रहते हैं उनके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। राहुल गाँधी को मानसिक रूप से बालक मानकर कई लोग ख़ारिज कर चुके हैं क्योंकि उन्होंने आलू से सोना बनाने से लेकर राफ़ेल के कम से कम पाँच दाम तो बताए ही हैं।

इसी सन्दर्भ में 5 साल पहले विकीलीक्स के एक केबल में उनके पिता राजीव गाँधी के मित्र रह चुके वरिष्ठ पत्रकार सईद नक़वी का कथन याद आ जाता है, और हम सोचने लगते हैं कि 14 सालों के बाद भी उनकी मानसिक स्थिति में बहुत ज़्यादा सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया है।

विकीलीक्स के एक केबल के अनुसार,राजनीतिक गलियारों में अच्छी पहुँच रखने वाले, गाँधी परिवार के बेहद क़रीबी, राजीव गाँधी के दोस्त, वरिष्ठ पत्रकार सईद नक़वी ने एक बातचीत में कई चौकाने वाली बातें कहीं। उन्होंने कहा कि जब सोनिया गाँधी ने राहुल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो उन्हें ख़ुशी हुई लेकिन जल्दी ही सोनिया के कुछ बेहद क़रीबी लोगों से बातचीत के आधार पर नक़वी ने कहा कि राहुल गाँधी कई कारणों से कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। नक़वी ने सबसे बड़ी वजह बताई कि राहुल गाँधी ‘पर्सनालिटी प्रॉब्लम’ से ग्रसित हैं, जिसकी वजह से वह भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक अस्थिरता के शिकार हैं और यह उनके प्रधानमंत्री न बनने के लिए पर्याप्त कारण है।

विकीलीक्स केबल का स्क्रीनशॉट

नक़वी ने यह भी कहा कि उसके कॉन्ग्रेस सूत्रों के अनुसार राहुल गाँधी के बारे में कहा जाता है कि वो अमेठी सांसद के रूप में पूरी तरह असफल रहे हैं। कॉन्ग्रेस की आशा थी कि राहुल गाँधी के दम पर वो उत्तर प्रदेश में पार्टी में नई जान डालेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और पार्टी ने हाथ खड़े कर लिए। उनका मानना था कि ‘राहुल गाँधी पार्टी को फ़ायदे से ज़्यादा हानि ही पहुँचा रहे हैं।’ साथ ही, राज्यों की कॉन्ग्रेस  ईकाइयों में उनके आने से उद्देश्य के उलट नुकसान हो जाता है।

आगे केबल में दावा किया गया है कि राहुल गाँधी की इस तरह की कैंपेनिंग के कारण कार्यकर्ताओं में निराशा भर गई कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी को पछाड़कर  कॉन्ग्रेस कभी भी सत्ता नहीं पा सकेगी।

केबल का स्क्रीनशॉट

उन्होंने दावा किया कि गाँधी वंशवादी राजनीति का कोई भविष्य नहीं था क्योंकि गाँधी परिवार के पास प्रधानमन्त्री पद का कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं है, जिसके पास प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होने का “जरुरी करिश्मा” हो। उन्होंने कहा था कि इंदिरा गांधी इस वंश की अंतिम ऐसी प्रभावी सदस्य थीं जो पास प्रधानमंत्री पद के लिए सक्षम और योग्य थी। और अगर उनकी हत्या नहीं होती तो राजीव गाँधी कभी चुनाव नहीं जीत पाते। नक़वी ने कहा कि कॉन्ग्रेस सदस्यों का आम मत यही है कि राहुल गाँधी की राजनीतिक क्षमता राजीव गाँधी से भी बहुत काम है।

नक़वी ने कहा कि गाँधी परिवार हमेशा चाहता था कि राहुल गाँधी की बहन प्रियंका गाँधी राजनीति में प्रवेश करे, क्योंकि वह होनहार और समझदार मानी जाती थी। सोनिया गाँधी एक ‘इतालवी माँ’ हैं, और “एक भारतीय माँ” की तरह ही अपने बेटे राहुल गाँधी को लेकर एक सुरक्षात्मक भावना रखती हैं। नक़वी का अनुमान है कि सोनिया गाँधी अपने फ़ैसले के ख़िलाफ़ गई और राहुल गाँधी को उसकी बहन की जगह ‘वारिस’ के रूप में चुना।

विकीलीक्स केबल का स्क्रीनशॉट

बीमार पर्रीकर को निशाना बनाकर राजनैतिक हित साधना छिछोरापन है, राजनीति नहीं

कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के बयान की निंदा करते हुए गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने उनके इरादों पर सवाल खड़ा किया है। बता दें कि राहुल गाँधी गोवा में अचानक पूर्व रक्षा मंत्री से मिलने पहुँच गए थे। इसके बाद बयान देते हुए राहुल ने कहा था कि मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने उनसे मुलाकात के दौरान बताया कि पीएम मोदी ने राफेल डील बदलते वक्त उनसे नहीं पूछा। राहुल गाँधी ने उस मुलाक़ात के बाद कहा था:

“मैं कल पर्रिकर जी से मिला था। पर्रिकर जी ने स्वयं कहा था कि (राफेल) डील बदलते समय पीएम ने हिंदुस्तान के रक्षा मंत्री (तब मनोहर पर्रिकर) से नहीं पूछा।”

बता दें की एडवांस पैंक्रियाटिक कैंसर से पीड़ित पर्रिकर काफ़ी दिनों से बीमार चल रहे हैं। कई सरकारी कार्यक्रमों के दौरान उनके नाक में पाइप लगे देखा गया है। बीमारी के बावजूद कार्यभार संभल रहे पर्रिकर की कई लोगों ने प्रशंसा भी की। पर्रिकर ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर राहुल के दावों की पोल खोलते हुए कहा कि उनके व्यवहार से वो काफ़ी आहत हुए हैं।

मनोहर पर्रिकर का बयान (पेज 1)
मनोहर पर्रिकर का बयान (पेज 2 )

प्रिय श्री राहुल गाँधी,
कल यानी 29 जनवरी 2019 को, बिना किसी पूर्व सूचना के आप मेरे स्वास्थ्य का हाल पूछने मेरे यहाँ आए थे। दलगत भावना से ऊपर उठकर एक अस्वस्थ व्यक्ति का हाल जानना एवं उसके उत्तम स्वास्थ्य की कामना करना, राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन की अच्छी परंपरा है, अतः मुझे भी आपका मेरा हाल जानने के लिए कार्यालय आना अच्छा लगा। आपके आने पर मैंने आपका स्वागत मेरे स्वास्थ्य एवं बीमारी प्रति आपकी अच्छी भावना के संदर्भ में किया।

लेकिन आज सुबह समाचार पत्रों में जिस ढंग से आपके ‘विजिट’ को लेकर बयान प्रकाशित हुए हैं, उन्हें पढ़कर मुझे आश्चर्य भी हुआ और मैं आहत भी हूँ। आपको कोट करते हुए सामाचार पत्रों में प्रकाशित है कि आपने कहा है, “बातचीत में मैंने आपको बताया है कि राफ़ेल प्रोसेस में मैं कहीं नहीं था, या मुझे कोई जानकारी नहीं थी।”

मेरे लिए यह अत्यंत निराशाजनक और आहत करने वाली बात है कि मेरे स्वास्थ्य का हाल जानने के बहाने आपने अपने निम्न स्तरीय राजनीतिक हितों को साधने का कार्य किया है, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा।

आपसे 5 मिनट की हमारी भेंट में ना तो ‘राफ़ेल’ का जिक्र हुआ और ना ही मैंने राफ़ेल संबंधी कोई चर्चा की। उन 5 मिनटों में इस संबंध में कोई चर्चा नहीं हुई। इस तरह की कोई बात मेरी और आपके बीच न तो हाल की मीटिंग में हुई थी और ना ही पहले कभी हुई।

मैंने पहले भी कई बार स्पष्ट किया है और इस पत्र के माध्यम से फिर कह रहा हूँ कि राफ़ेल सौदा इंटर गवर्नमेंट एग्रिमेंट (IGA) और डिफेंस प्रोक्योरमेंट प्रोसिज़र के नियमों के तहत हुआ है। इसमें दूर-दूर तक कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। यह पूरी खरीद प्रक्रिया राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकताओं के आधार पर तय नियामकों के तहत हुई है।

शिष्टाचार भेंट के बहाने मेरे घर आकर, फिर इतने निम्न स्तर का झूठ आधारित राजनीतिक बयान देना, आपके मेरे घर आने के आने उद्देश्यों और इरादों को उजागर करता है। आपके मेरे घर आने पर यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न और संदेह का घेरा भी है।

जैसा कि सभी जानते हैं, इन दिनों मैं बीमारी में अपने जीवन के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हूँ। फिर भी अपने पूर्व के अनुशासनपूर्ण जीवन एवं वैचारिक शक्ति के माध्यम से गोवा की जनता की सेवा में निरंतर लगा हूँ, और लगा रहूँगा। मैंने सोचा था कि आपका आना और आपकी शुभकामनाएँ मेरे लिए इस प्रतिकूल स्थिति में सम्बल प्रदान करेगी, लेकिन मैं नहीं समझ सका कि आपके आने का वास्तविक इरादा क्या था।

घोर निराशा के साथ मुझे आपको लिखना पड़ रहा है कि आप सच को स्वीकारिए और सामने लाइए। साथ ही, यह भी निवेदन करूँगा कि किसी बीमार और अस्वस्थ व्यक्ति को अपने अवसरवादी राजनीति का शिकार बनाने की नीयत मत रखिए। मैं सदैव गोवा की जनता की सेवा में हर पल तत्पर हूँ।

सादर
मनोहर पर्रीकर

वहीं राहुल गाँधी के बयान के बाद राजनैतिक गलियारों में हड़कंप मच गया और उनके दावों को लेकर कानाफूसी तेज़ हो गई। राहुल गाँधी राफ़ेल को लेकर तरह-तरह के दावे करते रहे हैं और आँकड़ों को भी बार-बार बदलते रहे हैं। ऐसे में, पर्रिकर द्वारा राहुल गाँधी के ताजा बयानों की निंदा करते हुए उन्हें अपनी अवसरवादी राजनीति के लिए किसी बीमार व्यक्ति के नाम का सहारा न लेने की सलाह दी।

हृदय से सेक्युलर और गाँधीवादी थे नाथूराम गोडसे

नाथूराम गोडसे का गाँधी की हत्या करना किसी भी दृष्टि से सही नहीं ठहराया जा सकता। परंतु यह भी सत्य है कि भले ही कोई कितना भी बड़ा अपराधी हो उसे अपनी बात रखने का अधिकार होता है और समाज का यह दायित्व है कि उसकी बात सुनी जाए।

दुर्भाग्य से गाँधी जी की हत्या से जुड़े हर पहलू पर विमर्श होता है किंतु गोडसे के पक्ष पर बात नहीं होती। जैसा कि शंकर शरण कहते हैं: “नाथूराम गोडसे के नाम और उनके एक काम के अतिरिक्त लोग उनके बारे में कुछ नहीं जानते।”

गाँधी जी की हत्या करने के आरोप में गोडसे पर मुकदमा चला था। उस मुकदमे की कार्यवाही में गोडसे ने अपनी बात पाँच घंटे लंबे वक्तव्य के रूप में रखी थी। यह वक्तव्य 90 पृष्ठों का था जो 1977 के बाद प्रकाशित हुआ। महत्वपूर्ण यह नहीं कि गोडसे के वक्तव्य में गाँधी की आलोचना थी, सोचने वाली बात यह है कि गोडसे की उस आलोचना का आजतक किसी ने उत्तर नहीं दिया।

नाथूराम गोडसे द्वारा गाँधी जी की आलोचना की कभी समीक्षा नहीं की गई, न ही एक व्यक्ति के रूप में उनका मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया। एक उदाहरण से समझते हैं। हम गाँधी जी से पहले हुए महापुरुषों के हत्यारों की खोज करें तो पाएँगे कि अब्राहम लिंकन की हत्या करने वाले जॉन विल्क्स बूथ का नाम गूगल पर ढूंढने पर हमें करीब 56 लाख से अधिक परिणाम मिलते हैं। लेकिन जब हम गोडसे का नाम सर्च करते हैं तो मात्र 4 लाख से कुछ अधिक ही परिणाम प्राप्त होते हैं।

विकिपीडिया पर खोजने पर जॉन विल्क्स बूथ पर एक लंबा सा प्रामाणिक कहलाने लायक लेख मिलता है जिसमें उन्हें ‘actor who assassinated Abraham Lincoln’ कहा गया है। लेकिन विकिपीडिया पर ही गोडसे के ऊपर एक छोटा और एकपक्षीय दृष्टिकोण वाला लेख है जिसमें पहली लाइन में ही गोडसे को ‘right wing advocate of Hindu nationalism’ घोषित कर दिया गया है। बूथ वाला लेख देखेंगे तो उसमें एक दो नहीं बल्कि 192 फुटनोट और दर्जनों पुस्तकों का संदर्भ दिया गया है। जबकि नाथूराम गोडसे पर मात्र 29 नोट्स और कुल जमा सात पुस्तकों का संदर्भ दिया गया है।

यह एक छोटा सा उदाहरण है यह बताने के लिए कि किसी हत्यारे का भी पक्ष होता है और उसके जीवन तथा विचारों की भी विवेचना की जानी चाहिए भले ही वह विचार अनुकरणीय न हो। जब तक किसी के विचारों पर शोध नहीं होगा उसे गलत समझने या न समझने की भूल यह समाज करता रहेगा। गोडसे को उसकी करनी की सज़ा मिली किंतु दुर्भाग्य से वामपंथी बुद्धिजीवियों ने गोडसे के पक्ष और उसके चिंतन पर न शोध किया न करने दिया। हम ध्यान से सोचें तो आज भी कोई ठीक-ठीक नहीं बता पाता कि गोडसे ने गाँधी जी को क्यों मारा था हालाँकि अपने उत्तर को उचित ठहराते हुए लोग एकदम से राइट या लेफ्ट ज़रूर मुड़ जाते हैं।

न्यायालय में नाथूराम गोडसे द्वारा दिए गए वक्तव्य की वृहद् समीक्षा भारत के बाहर केवल डॉ कोएनराड एल्स्ट ने अपनी पुस्तक “Why I Killed the Mahatma” में की है। डॉ एल्स्ट लिखते हैं कि गोडसे हृदय से सेक्युलर विचारधारा के व्यक्ति थे। गोडसे ने अपने वक्तव्य में यह स्वीकार किया है कि उन्हें गाँधी जी के सभी मतों का समान रूप से आदर करने और सभी पंथों की पवित्र पुस्तकों का आदर करने से कोई समस्या नहीं थी बल्कि वे (गोडसे) तो इसे अच्छा मानते थे। गाँधी की हत्या के कारण को भी गोडसे शुद्ध रूप से ‘राजनैतिक’ मानते हैं।

गोडसे यह भी मानते हैं कि ब्रिटिश के आने से पहले यह अवधारणा स्थापित थी कि हिन्दू और मुस्लिम तमाम अंतर्विरोधों के होते हुए भी एक साथ रह सकते हैं। अंग्रेज़ों ने भारत आकर हिन्दू और मुस्लिमों के बीच की खाई को बढ़ाया और अपनी शक्ति में वृद्धि करने के लिए इसका इस्तेमाल किया। गोडसे के इस विचार से डॉ एल्स्ट यह निष्कर्ष निकालते हैं कि गोडसे ने भारत के विभाजन का ज़िम्मेदार अंग्रेज़ों को माना था न कि मज़हबी इस्लामी विचारधारा को।  

गोडसे पूरी तरह से सेक्युलर और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। उनका मानना था कि सभी भारतीयों को समान अधिकार मिलने चाहिए। गोडसे के चिंतन में गलती तब हुई जब उन्होंने बँटवारे का ज़िम्मेदार पूरी तरह से गाँधी जी को मान लिया। गोडसे ने यह मान लिया था कि गाँधी चाहते तो बँटवारा न होता। यह सोचकर उन्होंने गाँधी जी की हत्या कर दी थी। पाकिस्तान के निर्माण से गोडसे के मन में यह बात बैठ गई कि हिन्दुओं के साथ पक्षपात हुआ है।

इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि गोडसे हृदय से गाँधीवादी थे। डॉ एल्स्ट के अनुसार कुछ मुद्दों पर संघ, सावरकर और हिन्दू महासभा की विचारधारा गाँधी से मिलती जुलती थी। नाथूराम गोडसे ने कॉन्ग्रेस सदस्य न होते हुए भी अपने जीवन में छुआछूत को कोई स्थान नहीं दिया था। जवानी के दिनों में उन्होंने महार जाति के एक बच्चे की जान बचाई थी जिसके कारण उन्हें घरवालों के गुस्से का शिकार होना पड़ा था।

गोडसे ने छुआछूत की मान्यताओं को दरकिनार करते हुए दलितों के साथ बैठकर खाना भी खाया था। यही नहीं वे गाँधी के अहिंसा के विचार में भी विश्वास रखते थे। सन 1938 में हिन्दुओं के प्रति भेदभाव के विरुद्ध हैदराबाद के मुस्लिम बहुल क्षेत्र में नाथूराम गोडसे ने हिन्दू महासभा के एक दल का नेतृत्व किया था। यह प्रदर्शन पूरी तरह अहिंसात्मक था। इस प्रदर्शन के कारण गोडसे को साल भर के लिए जेल भेज दिया गया था।

लिबरल बुद्धिजीवी आशीष नंदी ने अपने अध्ययन में गोडसे और गाँधी के विचारों में कई समानताएँ पाईं। नंदी के अनुसार दोनों पक्के राष्ट्रवादी थे। दोनों यही मानते थे कि मूल समस्या भारत के हिन्दुओं के साथ है। इसीलिए गोडसे ने बँटवारे का ज़िम्मेदार एक ‘हिन्दू’ अर्थात गाँधी जी को माना था। यद्यपि गोडसे ने जिन्नाह को मारने का विचार किया था लेकिन उन्होंने गाँधी की हत्या की क्योंकि वे मानते थे कि पाकिस्तान के निर्माण को गाँधी रोक सकते थे।

गाँधी जी की हत्या गोडसे ने किसी संगठन या व्यक्ति से प्रेरित होकर नहीं की थी। गोडसे ने अपने वक्तव्य में सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भी आलोचना की थी। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि गाँधी जी की हत्या में किसी संगठन का प्रत्यक्ष हाथ था। संघ, नाथूराम गोडसे और सावरकर की आलोचना कई प्रकार से की जा सकती थी किंतु स्वतंत्र भारत में वामपंथी इतिहासकारों ने स्वस्थ आलोचना को स्थान ही नहीं दिया।

नाथूराम गोडसे को लेकर विभिन्न प्रकार की अफ़वाहें और ओछी बातें की गईं। यहाँ तक कहा गया कि सावरकर और गोडसे के बीच होमोसेक्सुअल संबंध थे। इसमें कोई सच्चाई नहीं लेकिन यह अफवाह इतनी अधिक फैलाई गई कि इसे अकादमिक विमर्श का भाग मान लिया गया। किसी राजनैतिक हत्यारे के बारे में ऐसी बेहूदा बातें शायद ही कभी की गईं। इसीलिए आज आवश्यकता है एक ऐसे नैरेटिव की जिसमें किसी के मत के प्रत्येक पक्ष का तात्विक विश्लेषण किया जा सके।   

चीन की चुनौती से निपटने के लिए मोदी सरकार का नया कदम

भारतीय वायुसेना ने एक नया कारनामा कर के इतिहास रच दिया है। हाल ही में वायुसेना ने देश के सबसे ऊँचे हवाईअड्डों में से एक- पाक्योंग एयरपोर्ट पर अपना परिवहन विमान AN-32 को उतार कर नया कीर्तिमान स्थापित किया। यह एयरपोर्ट सामरिक रूप से भी भारत के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण है। भारतीय वायुसेना (IAF) के ‘Antonov-32 (AN- 32)’ ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट को पाक्योंग एयरपोर्ट पर सफलतापूर्वक लैंड कराया गया। यह एयरपोर्ट भारत-चीन सीमा से सिर्फ 60 किमी की दूरी पर स्थित है। राजधानी गंगटोक से इसकी दूरी क़रीब 16 किमी है।

IAF के एक उच्चाधिकारी ने इस बारे में विशेष जानकारी देते हुए बताया:

“यह इस एयरफील्ड पर एएन -32 श्रेणी के विमानों द्वारा पहली लैंडिंग है, जो भारत के उच्चतम हवाई अड्डों में से एक है।”

विमान के क्रू का नेतृत्व कमांडर एसके सिंह ने किया। एयरक्राफ्ट में सैन्य स्क्वाड्रोन्स में कुल 43 जवान शामिल थे। बता दें कि सितम्बर 2018 में प्रधानमंत्री मोदी ने सिक्किम के इस पहले एयरपोर्ट का उद्घाटन किया था। समुद्र तल से 4,500 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित पाक्योंग देश का 100वाँ एयरपोर्ट है। पिछले वर्ष वायुसेना ने अपने ‘Dornier-128’ विमान को इस एयरपोर्ट पर उतारा था। इस से पहले कई बार उसे यहाँ उतारने की कोशिश की गई थी लेकिन मौसम के कारण स्थगित करना पड़ा था।

वायुसेना द्वारा 1.7 किमी रनवे वाले इस हवाई अड्डे पर विमान उतारने के पीछे वहाँ स्थित सैनिकों और उसकी सामग्री की गतिशीलता को बढ़ावा देना है। इस से पहले 14 जनवरी को अरुणाचल प्रदेश के तेजू हवाई अड्डे पर भी C-130J विमान को उतरा गया था।

भारत-चीन सीमा पर तनाव को देखते हुए यह एक सुखद समाचार है क्योंकि क्षेत्र भारतीय सेना की गतिशीलता जितनी सुगम होगी, सीमा की सुरक्षा भी उतनी ही मज़बूत होगी। हाल ही में अमेरिका ने भी इस बात का अंदेशा जताया है कि भारत और चीन में सीमा विवाद को लेकर तनाव बना रहेगा। चीन भी सीमा से सटे अपने इलाकों में इंफ़्रास्ट्रक्चर बढ़ाने का कार्य तेज़ी से कर रहा है। इसे मद्देनज़र रखते हुए भारत ने भी क्षेत्र में विकास कार्यों को नई गति दी है। दोकलाम गतिरोध के बाद भारत लगातार उत्तर-पूर्व के राज्यों में पर्यटन और ट्रांसपोर्टेशन को बढ़ावा दे रहा है।

कितने करप्ट हैं हम: 5 वर्षों में 16 स्थान ऊपर चढ़ा भारत, कम हुआ भ्रष्टाचार

ताज़ा भ्रष्टाचार सूचकांक को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी का ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’ वाला वाक्य चरितार्थ हो रहा है। अगर हम मंगलवार (जनवरी 29, 2019) को आई रिपोर्ट से 2013 के डाटा की तुलना करें, तो पता चलता है कि भारत ने इस मामले में काफ़ी तरक्की की है। इस तुलनात्मक अध्ययन से पहले हाल के आँकड़ों पर नजर डाल कर देखते हैं कि विश्व के अन्य देशों में भारत का स्थान क्या है, और ऐसे कौन से देश हैं जो भ्रष्टाचार के मामले में भारत से आगे या पीछे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी ‘ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल (Transparency International)’ प्रत्येक वर्ष सभी देशों की एक सूची जारी करता है, जिस से यह पता चलता है कि किस देश में कितना भ्रष्टाचार है। इसके लिए सभी देशों को एक रेटिंग दी जाती है, जिसके घटने बढ़ने से पता चलता है कि भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है। जिस देश का स्कोर जितना ज्यादा होगा, वह उतना कम भ्रष्ट होगा। जिस देश का रैंक जितना नीचे होगा, वहाँ भ्रष्टाचार भी ज्यादा होगा।

पिछले 6 वर्षों में भारत 16 स्थान ऊपर चढ़कर साल 2018 में 78वें पोजिशन पर है

अपने विश्लेषण में ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल (TI) ने 88 स्कोर के साथ डेनमार्क और 87 स्कोर के साथ न्यूज़ीलैंड को विश्व का सबसे कम भ्रष्ट देश पाया है। एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र में न्यूज़ीलैंड के बाद ऑस्ट्रेलिया आता है, जिसका स्कोर 85 है। TI ने कहा है कि ये दोनों लोकतान्त्रिक देश हैं और इन्होने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफलता पाई है लेकिन सिंगापुर और हॉन्गकॉन्ग जैसे अलोकतांत्रिक जैसे देश भी हैं, जिन्होंने भ्रष्टाचार को नियंत्रण में रखा है।

स्कोर की बात करें तो भारत ने पिछले 6 वर्षों में 5 अंकों की छलांग लगाई है

इस क्षेत्र में 41 ‘Corruption Perceptions Index (CPI)’ स्कोर के साथ भारत ने अपनी रेटिंग में पिछले वर्ष (2017) के मुक़ाबले सुधार किया है। उस वर्ष भारत का CPI स्कोर 40 था जिसमे 1 अंक का सुधार आया है। पहली नज़र में देखने पर भले ही यह मामूली लगे, लेकिन इस सिक्के के और भी पहलू हैं। 2013 में भारत का CPI स्कोर 36 था। यानी कि देश में जड़ तक फ़ैल चुके भ्रष्टाचार को कम करने के लिए देश एक बार एक एक सीढ़ी चढ़ रहा है। भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति कैसी थी, इसका अंदाज़ा 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन की व्यापकता के पैमाने से मापा जा सकता है। 2013 में 94वें रैंक से भारत अब 78वें रैंक पर पहुँच गया है- यानी 16 स्थानों की छलांग।

ताज़ा रिपोर्ट में TI ने भारत के बारे में चर्चा करते हुए में कहा है:

“जैसे कि भारत अब आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयार हो रहा है, इसके CPI स्कोर में महत्वपूर्ण सुधार आया है, जो 40 से बढ़ कर 41 हो गया। 2011 में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ सार्वजनिक आंदोलन (अन्ना हजारे अनशन) के बावज़ूद, जहाँ जनता ने सरकार से माँग की कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाए और विस्तृत जान-लोकपाल एक्ट को लागू करे, ये आंदोलन ख़त्म हो गए और इनका कोई ख़ास असर नहीं हुआ। ज़मीनी स्तर पर भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कुछ भी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार नहीं किया गया।”

TI ने भारत को ‘Countries to Watch’ की सूची में रखा है। इसका अर्थ है कि संस्था को उम्मीद है कि जिस तरह से साल दर साल भारत की रैंकिंग और सूचकांक में सुधार आते जा रहे हैं, उस से आगे बेहतर परिणाम आने की उम्मीद है। वहीं अगर 2013 की बात करें तो, उस दौरान अपने रिपोर्ट ने केंद्र स्तर पर नित नए भ्रष्टाचार के ख़ुलासों को भारत के ख़राब प्रदर्शन का कारण बताया था। TI ने 2013 में कहा था:

“भारत का ख़राब CPI स्कोर एक विडम्बनापूर्ण स्थिति का परिचायक है- यहाँ भ्रष्टाचार ने विकास को बाधित कर रखा है। पिछले दो वर्ष में देश को हिला कर रख देने वाले बड़े पैमाने पर लगातार हो रहे भ्रष्टाचार से प्रभावी रूप में निपटने में असमर्थता- यह सब अभी भी कायम है।”

अगर हम TI के दोनों बयानों की तुलना करें तो पता चलता है कि हमारे देश ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर काफ़ी तरक़्क़ी की है। जहाँ उस समय अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार की बात करती थी, अब भारत को पॉजिटिव नजरों से देखते हुए ऐसे देशों की सूची में रखती है, जिनका प्रदर्शन बेहतर होने की उम्मीद है। जहाँ उस समय बात होती थी कि भ्रष्टाचार ने विकास को बाधित कर रखा है, अब एजेंसी भारत के प्रदर्शन को ‘महत्वपूर्ण सुधार’ बताती है। उस समय एजेंसी भारत को भ्रष्टाचार से निपटने में असमर्थ बताती थी।

अगर भारत के पड़ोसी देशों की बात करें तो एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान उत्तर कोरिया के बाद सबसे भ्रष्ट देश है। CPI स्कोर 33 के साथ पकिस्तान भारत से ख़ासा पीछे है और बांग्लादेश 26 CPI स्कोर के साथ सबसे भ्रष्ट देशों की सूची में शामिल है। चीन का रैंक 87 है तो पकिस्तान 117वें स्थान पर है। दोनों ही देश भारत से पीछे हैं। यह दिखाता है कि एशिया-पैसिफ़िक क्षेत्र में भारत अपने पड़ोसी देशों के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन कर रहा है।

गाँधी की तमाम कमज़ोरियों के बाद भी उनके योगदान को नकारना मूर्खता है

वैसे तो पूरी मानवजाति ही व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर स्वयं के परिपेक्ष्य में विरोधाभासी है, पर इसमें भी भारतीय सबसे आगे हैं।

कुछ दिन पहले भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। हमने देखा कि उन्हें एक उच्चकोटि के देशभक्त राजनेता की तरह प्रस्तुत किया गया और उन्हें इस सम्मान के लिए उचित व्यक्ति सिद्ध करने में हम जैसे राष्ट्रवादियों ने ही सबसे अधिक तर्क दिए, बावजूद इसके कि वे राष्ट्रपति कार्यकाल के अतिरिक्त जीवनपर्यंत एक कॉन्ग्रेसी रहे।

हम नेताजी सुभाषचंद्र बोस को एक मिथकीय चरित्र के रूप में देखते हैं। वे थे भी। उनकी मृत्यु आज तक एक रहस्य ही है। सुभाष बाबू की कथित अस्थियाँ जापान में हैं। जब प्रणव मुखर्जी विदेश मंत्री थे, तब वे उनकी अस्थियाँ लेने जापान गए और वहाँ के विदेश मंत्री से मिलने के बाद जर्मनी गए। अस्थियों को लाने का मतलब यही होता कि सरकार यह मानकर चल रही थी कि उनकी मृत्यु विमान दुर्घटना में हो चुकी थी।

जर्मनी में सुभाष बाबू का भुला चुका परिवार रहता है। यह भी बड़े ताज्जुब की बात है कि इस देश की जनता स्वतंत्रता-पश्चात के एक शहीद प्रधानमंत्री की विदेशी मूल की पत्नी को सिर आँखों पर बिठाता है, उन्हें राष्ट्रीय पार्टी का अध्यक्ष बनाता है और वे भारतीय राजनीति में बहुत गहरा दखल रखती हैं। पर नेताजी जैसे कद के राष्ट्रनायक की विदेशी मूल की पत्नी श्रीमती एमिली शेंकल (मृत्यु 1996) का नाम तक नहीं जानता।

प्रणव मुखर्जी 1995 में सुभाष की बेटी श्रीमती अनीता फाफ और उनके पति श्री मार्टिन फाफ से मिले। अनीता ने अस्थियों की सुपुर्दगी पर मौखिक सहमति दी थी पर वे अपनी माँ के जीवित रहते कुछ नहीं कर सकती थी। प्रणव श्रीमती एमिली से मिले। उनका जवाब बस इतना था कि ‘किसकी अस्थियाँ? जापान में रखी अस्थियाँ नेताजी की नहीं है। उसे कहीं भी रखा जाए, उन्हें उससे कोई मतलब नहीं।’ अफ़वाह तो यह भी थी कि प्रणव ने उन्हें ब्लैंक चेक भी दिया था जिसके उन्होंने टुकड़े कर दिए थे।

प्रणव मुखर्जी, सुभाष चंद्र बोस को नमन करते हुए

आखिर प्रणव मुखर्जी यह साबित क्यों करना चाहते थे कि नेताजी विमान दुर्घटना में ही मरे?

नेताजी की बात चली तो भगतसिंह को भी याद कर लेते हैं। भगतसिंह ने युवाओं के नाम एक चिट्ठी लिखी थी जिसका मतलब यह था कि देशवासियों को सुभाष के बजाय नेहरू का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि सुभाष के पास देश को आगे ले जाने का कोई विजन नहीं है, और नेहरू एक विचारवान व्यक्ति हैं जो जानते हैं कि देश को किस दिशा में चलाना चाहिए।

भगत सिंह नेहरू में एक भविष्यदृष्टा देखते थे, सुभाष में नहीं। उधर सुभाष ने गाँधी और नेहरू के विरोधी होने के बावजूद भी अपनी सशस्त्र सेना के दो अंगों का नाम नेहरू और गाँधी के नाम पर रखा था।

सावरकर से बड़ा गाँधी का विरोधी कौन था? पर इन्हीं सावरकर ने इंग्लैंड के इंडिया हाउस में गाँधी की प्रशंसा में पत्र पढ़ा था।

हम आज भी, तमाम दस्तावेजों के प्रत्यक्ष सुबूतों के बाद भी एक बेतुका इल्जाम लगाते हैं कि गाँधी को देश का बँटवारा नहीं करना चाहिए था। क्या इसमें कोई सच्चाई है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अतिरिक्त यदि कोई इस बँटवारे का प्रखर विरोधी था तो वो गाँधी थे। मुस्लिम लीग की ज़िद के आगे कॉन्ग्रेस ने घुटने टेक दिए थे, न कि गाँधी ने। उनका तो यह तक कहना था कि इतना खून बह गया है, और खून बह जाने दो पर राष्ट्र के टुकड़े मत करो।

हम लौह पुरुष सरदार पटेल के आभारी हैं कि उन्होंने इस देश के सैकड़ों टुकड़ों को एक करने में अथक परिश्रम किया। पर हम विभाजन के दोषियों को याद करते समय यह याद नहीं रखते कि कॉन्ग्रेस के प्रथम पंक्ति के कद्दावर नेताओं में पटेल पहले थे जिन्होंने मुस्लिम लीग की ज़िद के आगे घुटने टेक दिए थे। गाँधी और गाँधी-भक्त पटेल में बस इतना ही अंतर है कि प्रयोगात्मक सोच रखने वाले पटेल ने पाकिस्तान के बाद बचे भारत को संगठित करने का संकल्प लिया और भावुक गाँधी यह सोचते रहे कि यह बँटवारा कुछ समय का है, ‘पाकिस्तान’ भारत का अभिन्न हिस्सा है जो वक़्ती तौर पर अलग हो गया है। और यह सोच केवल गाँधी की नहीं थी, बहुतेरे लोग ऐसा सोचते थे कि पाकिस्तान जल्द ही वापस भारत से जुड़ जाएगा, हालाँकि, उनकी सोच इस विचार पर आधारित थी कि दरिद्र पाकिस्तान अपनी बदहाली पर आठ आँसू रोता हुआ ख़ुद ही वापस आने की गुज़ारिश करेगा।

संयुक्त भारत की भावुक सोच केवल गाँधी की ही नहीं थी, गाँधी को गोली मारने वाले नाथूराम भी यही चाहते थे। उनकी अस्थियाँ आज भी संयुक्त भारत की नदियों में प्रवाहित किए जाने की प्रतीक्षा कर रही हैं।

गाँधी में तमाम ऐसी बातें थी जिन्हें पसन्द नहीं किया जा सकता। ख़ुद मैंने उन पर विस्तार से लिखा है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उनमें तमाम ऐसी बातें भी थी जिन्होंने इस देश को, देशवासियों को एक दिशा दी। यह स्वीकार करने में कदाचित हमें परेशानी हो पर यह इतिहास-सिद्ध है कि हम बहुत ही लापरवाह (या कायर) नागरिक हैं। अभी का ही उदाहरण देखें, कि लापरवाही के अतिरिक्त क्या वजह है कि राममंदिर का मुद्दा आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक मुद्दा बना हुआ है?

उस दौर में जब गुलामी हमारी नसों में बहती थी, रक्त में घुली-मिली हुई थी, कुछ वीरों के अतिरिक्त किसी को कोई छटपटाहट नहीं महसूस होती थी। वीर तब भी थे, बहुतेरे नेता थे पर वे नागरिकों को अपने साथ, आज़ादी के उद्देश्य के साथ बाँधे रखने में सर्वथा असफल थे। गाँधी से पहले कॉन्ग्रेस बस अभिजात्य वकीलों का गुट भर था जो साल में एक बार मीटिंग करता और पारित प्रस्तावों को ब्रिटिश सरकार के पास सविनय प्रेषित कर देता। वे गाँधी थे जिन्होंने ग़रीब जनता तक को आंदोलन में जोड़ा।

कमज़ोर भारतीयों से यह अपेक्षा करना निरी मूर्खता थी कि वे सभी रक्तरंजित क्रांति करते। एक नेता उपलब्ध संसाधनों का अधिकतम उपयोग करता है। गाँधी के सामने संसाधन थे वे नागरिक जो घर से निकलने में डरते थे, गोरी चमड़ी के सामने जिनकी रूह काँपती थी। भगत, सुभाष जैसे नेता और उनका अनुसरण करने वाली जनता का प्रतिशत इस मुल्क की विशाल जनसंख्या के सामने नगण्य था, नगण्य है। गाँधी ने उस कमज़ोर जनता को अपनी शक्ति बनाया और उसका प्रभावी उपयोग किया।

बात विरोधाभास से चली थी। देखिए कि हम आज के एक संगठन को बहुत प्यार देते हैं, एक नेता में अपना भविष्य देखते हैं। और यही संगठन, यही नेता जिस महात्मा के आगे बारम्बार सिर नवाता है उसे गाली देते हैं! व्यक्ति का मूल्यांकन उसके समस्त कार्यों से होना चाहिए, न कि उसकी एक कमज़ोरी से जो कि आपमें, हम में या किसी भी व्यक्ति में हो सकती है।

कानून के साथ खेलोगे, तो भगवान ही बचा सकते हैं: कार्ति चिदंबरम से SC

कार्ति चिदंबरम को ‘एयरसेल-मेक्सिस डील’ और ‘आईएनएक्स मीडिया’ केस में जाँच एजेंसियों के साथ सहयोग न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई। चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों के बेंच ने कार्ति से कहा, “यदि आप कानून के साथ खेलते हैं, तो केवल भगवान ही आपकी मदद कर पाएँगे। हम आपके पीछे पड़ जाएँगे। आप जाँच में सहयोग नहीं कर रहे थे। हमारे पास कहने को बहुत कुछ है, लेकिन अभी वो समय नहीं है। आगे से यदि आपने जाँच में जरा-सा भी असहयोग दिखाया, तो हम आप पर बहुत भारी पड़ेंगे।”

सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदम्बरम के बेटे कार्ति चिदम्बरम की विदेश जाने की इजाज़त संबंधी याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा, “10 से 26 फरवरी के बीच आप जहाँ जाना चाहते हैं, जा सकते हैं। लेकिन आपको जाँच एजेंसियों के साथ सहयोग करना ही होगा।”

कार्ति चिदम्बरम को विदेश जाने की अनुमति देने के एवज़ में कोर्ट ने ₹10 करोड़ सिक्यॉरिटी के तौर पर जमा कराने को कहा है। साथ ही कार्ति को देश लौटने और जाँच में सहयोग देने संबंधी अंडरटेकिंग भी भरने का आदेश कोर्ट ने दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कार्ति को ‘एयरसेल-मेक्सिस डील’ और ‘आईएनएक्स मीडिया’ केस में 5, 6, 7 और 12 मार्च को ED (प्रवर्तन निदेशालय) के सामने पेश होने का आदेश दिया।

कार्ति चिदम्बरम की कंपनियों का घाल-मेल

कार्ति चिदम्बरम ने अगले कुछ महीनों के लिए फ़्रांस, स्पेन, जर्मनी और यूके जाने की अनुमति माँगी थी। इन देशों में होने वाली इंटरनेशनल टेनिस टूर्नामेंट का आयोजन टोटस टेनिस लिमिटेड (Totus Tennis Ltd) के द्वारा किया जा रहा है। टोटस टेनिस लिमिटेड की मालिकाना कंपनी चेस ग्लोबल एडवाइज़री सर्विसेज़ है। कार्ति इसी चेस ग्लोबल एडवाइज़री सर्विसेज़ के मालिक हैं।

‘एयरसेल-मेक्सिस डील’ और ‘आईएनएक्स मीडिया’ मामले में आरोपित कार्ति को हर बार विदेश जाने से पहले सुप्रीम कोर्ट सेआज्ञा लेनी पड़ती है।

आज शाम होगी राम मंदिर निर्माण के लिए तारीख की घोषणा

आज की तारीख़ पर देशभर में अगर लोगों के आँख-कान किसी मुद्दे पर लगे हुए हैं, तो वह राम मंदिर निर्माण है। वर्षों से अधर में लटके इस एक निर्णय को लेकर हर व्यक्ति में उत्साह है। जनता की सबसे बड़ी दिलचस्पी है कि जल्द से जल्द इस मुद्दे को सुलझाया जा सके।

अयोध्या राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण मामले पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई निरंतर टलने के बाद भी बयानबाज़ी का सिलसिला जारी है। कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद सरकार से अध्यादेश लाने की माँग करते आ रहे हैं, तो कुछ का मानना है कि इसका निपटारा सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से ही किया जाना चाहिए। RSS, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना, बीजेपी और संत समाज ने भी लगातार मंदिर निर्माण के लिए अपने-अपने सुझाव दिए हैं।

इसी बीच, अयोध्या में चल रही धर्म संसद में धर्मगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने राम मंदिर बनाने के लिए तारीख़ का ऐलान करने का दावा किया है। उन्होंने कहा है कि आज यानि बुधवार (जनवरी 30, 2018), शाम 5 बजे वो धर्म संसद में पहुँचकर मंदिर निर्माण की तारीख़ की घोषणा करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट में अटकी सुनवाई को लेकर साधू समाज और मंदिर निर्माण की माँग कर रहे लोगों में इस मामले को लेकर काफ़ी नाराज़गी देखी जा रही है। धर्म संसद में राम मंदिर निर्माण सहित कुल 18 मुद्दों पर चर्चा होगी। उन्होंने बताया कि राम मंदिर निर्माण को लेकर साधु समाज एकजुट है और इसमें कोई मतभेद नहीं।

एक समाचार चैनल से बातचीत के दौरान शंकराचार्य ने कहा कि राम मंदिर बनने का रोड मैप तैयार है। जया, भद्रा, नंदा और पूर्णा, 4 शिलाओं के साथ शिलान्यास की तैयारी की गई है। इस पर उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप भी लगाया कि उन्होंने राम मंदिर को लेकर उदासीनता बरती है।

फेसबुक लव स्टोरी: जब पीएम मोदी ने दो दिलों को मिलाया

दो अनजान लोग फेसबुक पर मिले, दोनों में प्यार हुआ और फिर उन्होंने शादी कर ली। लेकिन ये सुन कर आप चौंक जाएंगे कि इस पूरी कहानी के पीछे नरेंद्र मोदी हैं। यह बात ख़ुद उस व्यक्ति ने ट्वीट कर बताई। जय दवे नमक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के साथ फ़ोटो ट्वीट कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि वो और उनकी पत्नी पीएम मोदी के कारण शादी के बंधन में बंधे हैं।

जय दवे ने ट्वीट कर पीएम को धन्यवाद दिया।

जय के अनुसार, एक लड़की ने नरेंद्र मोदी के समर्थन में किए उनके कमेंट को लिखे किया, जिसके बाद उनका प्रेम परवान चढ़ा। जय ने पीएम को टैग करते हुए लिखा:

“नरेंद्र मोदी जी हम आपके कारण शादी के बंधन में बंधे हैं। मैंने राहुल गाँधी के फेसबुक पेज पर आपके समर्थन में कॉमेंट किया और इस सुंदर लड़की ने मेरे कॉमेंट को लाइक किया। हमने बात की, एक-दूसरे से मिले और पाया कि हम दोनों आपका समर्थन करते हैं क्योंकि हम भारत के लिए जीना चाहते हैं। इसलिए हमने शादी करने का फैसला कर लिया।”

दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा सहित कई लोगों ने इस जोड़े को बधाई दी। इसके बाद यह ट्वीट डिलीट हो गया, जिसके बाद लोगों ने जय को ट्रोल करना शुरू कर दिया। इस पर जवाब देते हुए उन्होंने दो और ट्वीट किया। उन ट्वीट्स में जय ने बताया:

“मैं कुछ और डिलीट करना चाहता था लेकिन गलती से वह ट्वीट डिलीट हो गया। मीडिया और सोशल मीडिया में एक गलतफहमी है कि मैंने ट्रोल होने के डर से वह ट्वीट डिलीट किया है। सच यह है कि मोदी जी की तरह ही मैं भी ट्रोलिंग और आलोचना का आदी हो चुका हूँ। देश की ओर मेरा कमिटमेंट ट्रोल्स से प्रभावित नहीं होगा। जय हिंद।

जय की लव स्टोरी काफ़ी वायरल हो रही है और लोग उनकी प्रेम कहानी को पसंद भी कर रहे हैं। यह सोशल मीडिया पर भी काफ़ी शेयर किया जा रहा है।

एक वीर और भी था… गाँधीजी के साथ जिनकी पुण्यतिथि हर वर्ष मनाई जानी चाहिए

30 जनवरी 1948- यह वो तारीख़ है, जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या कर दी गई थी। यह विडम्बना ही है कि अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी के जीवन का अंत हिंसा से हुआ। इसीलिए इस दिन को हम ‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाते हैं। लेकिन एक और व्यक्ति था, जिसकी मृत्यु इसी दिन हुई थी, गाँधीजी के निधन से 420 वर्ष पहले। एक ऐसा शख़्स, जिसने इस्लामिक आक्रांताओं को भारत की धरती पर प्रवेश करने से रोकने के लिए सारे प्रयास किए, लेकिन तकनीक के सामने असफल रहा। मेवाड़ की जब भी बात आती है तो हमें महाराणा प्रताप याद आते हैं लेकिन आज हम उस शूरवीर की बात करने जा रहे हैं जो जज़्बा, वीरता, हठधर्मिता और देशभक्ति के मामले में प्रताप से भी दो क़दम आगे था।

अब तक आप समझ गए होंगे- हम यहाँ राणा सांगा की बात करने जा रहे हैं। उनका भी स्वर्गवास 30 जनवरी यानी आज के ही दिन हुआ था। महाराणा सांगा की मृत्यु के साथ ही दिल्ली में मुग़ल सत्ता स्थापित होने का मार्ग प्रशस्त हो गया और देश तब तक इस्लामिक आक्रांताओं का ग़ुलाम रहा, जब तक उन्हें 18वीं शताब्दी के बाद सिखों, मराठों और अंग्रेजों के वर्चस्व का सामना न करना पड़ा। लेकिन यह सब कुछ सिर्फ़ एक युद्ध के परिणाम से तय हो गया था। वह था- खानवा का युद्ध।

16वीं शताब्दी की शुरुआत में जब बाबर ने काबुल पर कब्ज़ा किया, तभी से उसके मन में एक ही शब्द घूम रहा था और वह था- हिंदुस्तान। अपने पूर्वज तैमूर की कहानियाँ सुन कर बड़ा हुआ बाबर को ज्ञात था कि कैसे तैमूर ने झटके में शहर के शहर तबाह किए थे और हजारों को मौत के घाट उतारा था। वह तैमूर द्वारा पंजाब में जीते गए कुछ क्षेत्रों को वापस हथियाना चाहता था। जब बाबर ने दिल्ली में लोदी को हरा कर उसके सारे धन-वैभव पर कब्ज़ा जमाया, तब आम धारणा यह थी कि वह भी तैमूर की तरह लूटपाट कर वापस चला जाएगा लेकिन अति-महत्वकांक्षी बाबर के इरादे नेक नहीं थे।

बाबर के दिल्ली में साम्राज्य स्थापित करने की ख़बर सुनते ही राणा सांगा के कान खड़े हो गए। राणा का मानना था कि बाबर का दिल्ली में बैठना लोदी से भी बड़े ख़तरे का संकेत था। बाबर के अनुसार, राणा के पास 2 लाख सैनिकों की एक मज़बूत सेना थी। राणा ने बाबर के ख़िलाफ़ कई राजाओं का गठबंधन बनाने की हरसंभव कोशिश की और उसमें वह बहुत हद तक सफल भी हुए। राजस्थान के राजपूत राज्य, जैसे- हरौती, जालौर, सिरोह, डूंगरपुर, धुंधर और अम्बर। तुर्क़-अफ़ग़ान के अवशेषों पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना का स्वप्न लिए राणा ने बाबर के इरादों की भनक लगते ही उसे सबक सिखाने का मन बना लिया था।

दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए महाराणा सांगा ने अफ़ग़ान तक की भी मदद ली। उन्होंने विशाल सेना-सेनापतियों की एक ऐसी फ़ौज खड़ी की, जिसके ‘जय एकलिंग’ का नाद करते ही आसमान भी थर्रा कर काँप उठता था।

बाबर ने इस युद्ध को हिन्दू बनाम मुस्लिम बना दिया। जैसा कि आज के ज़िहादी आतंकी कहते आए हैं, उसने राणा के साथ युद्ध को इस्लाम की रक्षा से जोड़ कर अपनी सेना में जोश भर दिया। बाबर ने अपने सिपहसालारों से क़ुरानशरीफ़ पर हाथ रख कर राणा जैसे जिहादी ताक़त को ख़त्म करने की शपथ दिलाई। खानवा में हुए युद्ध से एक शाम पहले बाबर ने एक ऐसा उत्तेजित भाषण दिया- जिसने भावी युद्ध को कथित काफ़िर बनाम इस्लाम के रक्षक से जोड़ दिया। बाबर ने इस्लाम की आन, बान और शान की हिफ़ाज़त के लिए अपनी सेना से एक सच्चे मुस्लिम की तरह लड़ने का वादा लिया। सच्चे मुस्लिम की परिभाषा में फ़िट बैठने के लिए उसने शराब के मर्तबान पटक डाले और शराब छोड़ने की क़सम खाई।

खानवा का युद्ध भारतीय इतिहास का एक ऐसा युद्ध है, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। सांगा के बलिदान के बाद दिल्ली में मुग़ल सत्ता की स्थापना हुई लेकिन इस युद्ध में देश की माटी की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाले राणा सांगा ने जिस वीरता और देशभक्ति का परिचय दिया- उसकी मिसाल इतिहास में शायद ही कहीं और मिले। युद्ध की शुरुआत में ही राणा सांगा ने बाबर की सेना पर ऐसा हमला किया, जिस से पूरी इस्लामिक फ़ौज में हड़कंप मच गया। राणा के ताबरतोड़ आक्रामक से बाबर की सैन्य संरचना बिखर सी गई।

लेकिन, राणा सांगा एक जगह चूक गए थे। बाबर ने जिस तरह पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराया था, उस से उन्होंने कोई सीख नहीं ली थी। भारतीय वीरों की उस सूची में राणा का भी नाम है, जिन्होंने अपनी वीरता के बावज़ूद दुश्मन के छल, कपट और पैंतरेबाज़ी का अंदाज़ा लगाना उचित नहीं समझा। युद्ध के पहले बाबर ने युद्धस्थल का पूरी तरह मुआयना किया था। किस तरफ से, कहाँ और किस ओर वार करना है- ये सब उसने पहले ही सुनिश्चित कर लिया था। खानवा और आगरा की दूरी 35 मील के क़रीब है।

राणा सांगा ने इन सब की जरूरत नहीं समझी। अपनी हाथी सेना और तलवारबाज़ों की क्षमता पर भरोसा करने वाले राणा को इस बात का अंदाज़ा न था कि बाबर की तोपों के सामने वीरता का प्रदर्शन कर बलिदान तो दिया जा सकता है, लेकिन तीर और भाले से मशीनों को शायद ही जीता जा सकता है। मालवा और गुजरात की संयुक्त सुल्तानी सेना को धुल चटाने वाले राणा सांगा बाबर की पैंतरेबाज़ी ने वाक़िफ़ न थे। उन्होंने संगठन, सेना और रणनीति- इन सब पर ध्यान दिया था, लेकिन दुश्मन की चाल को समझने की कोशिश न करना उन्हें भारी पड़ा।

बाबर ने खानवा में भी पानीपत वाला तरीका ही आज़माया। उसने ख़ुद को मध्य में रख बाकी दोनों तरफ से सेना का ऐसा चक्रव्यूह बनाया, जिस से एक बार में कई तरफ से आक्रमण किया जा सके। अगर राणा पानीपत के युद्ध से थोड़ी भी सीख ले लेते, तो शायद इस तकनीक की काट की योजना तैयार कर सकते थे। तन-बदन पर लगे अनगिनत घावों से जूझते राणा सांगा ने सीधा बाबर की तरफ प्रस्थान किया और दुश्मन के मुखिया का ही काम तमाम करने के लिए पूरी ताक़त से धावा बोला।

लेकिन बीच में ही राणा की सेना बिखर गई। बाबर द्वारा कई तरफ से हो रहे आक्रमण और तोपों द्वारा काफ़ी कम दूरी से किए जा रहे फायर ने राणा के योद्धाओं को तितर-बितर कर डाला। हालाँकि, राजपूत सेना की हार देख योद्धाओं ने राणा को युद्धस्थल छोड़ने की सलाह दी। हठी राणा ने साफ़ मना कर दिया। हालाँकि, किसी तरह राणा को वहाँ से निकाल लिया गया लेकिन उनके ज़ख्म ऐसे थे, कि वह फिर युद्ध में लौट नहीं सके। राणा के जाते ही उनकी सेना की हार हुई और बाबर ने इस्लामिक साम्राज्य को एक नया विस्तार दिया। साम्राज्यवाद का यह रथ बाद में क़रीब दो दशकों के लिए रुका, जिसका श्रेय शेरशाह सूरी और हेमचन्द्र विक्रमादित्य को जाता है।

लेकिन राणा हार मानने वालों में से नहीं थे। अपनी पराजय उन्हें स्वीकार न थी। इतिहासकार प्रदीप बरुआ लिखते हैं कि अगर बाबर ने तोपों की मदद नहीं ली होती और पानीपत वाली रणनीति न दोहराई होती, तो शायद दिल्ली में मेवाड़ का केसरिया ध्वज फहरा रहा होता। इस युद्ध के बाद राणा का गठबंधन बिखर गया।

लेकिन इस युद्ध में राणा सांगा ने जिस तरह का प्रदर्शन किया, उसकी तुलना महाभारत काल के योद्धाओं से की जा सकती है। राणा के शरीर पर 80 ज़ख्म थे। पहले की कई युद्धों में लड़ते-लड़ते उनका एक हाथ जा चुका था। एक ही आँख से देख पाते थे, दूसरी युद्ध की बलि चढ़ गई थी। एक ही पाँव से ठीक से चल पाते थे, दूसरा अपाहिज हो चुका था। फिर भी उन्होंने बाबर से टक्कर लेने का निर्णय लिया और उसे नाकों चने चबाने को मज़बूर किया। यह जज़्बा प्रशंसनीय है।

आज (30 जनवरी) के दिन ही 1528 में उनका स्वर्गवास हो गया। ज़ख्मों से जूझ रहे राणा दिल्ली में बैठे बाबर को फिर से ललकारने की योजना तैयार कर रहे थे। लेकिन, उनके दरबारियों और अन्य राजाओं को ये पसंद नहीं था। उन्हें दिल्ली और आगरा कब्ज़ा कर बैठा बाबर अपराजेय नज़र आ रहा था। उनके निधन के बाद भी बाबर उन्हें अपना सबसे बड़ा ख़तरा मानता रहा, जब तक वह निश्चित नहीं हो गया कि राणा सचमुच नहीं रहे। कुछ इतिहासकारों का दावा है कि बीमार राणा के दोबारा युद्ध की योजना से तंग आकर उनके ही लोगों ने उन्हें ज़हर दे दिया था।

जो भी ही, अगर हम अहिंसा के पुजारी गाँधीजी को याद करते हैं, तो 30 जनवरी को वीरों के वीर महाराणा सांगा को भी याद करना चाहिए। राणा ने जिस जज़्बे की नींव रखी, उस पर चल कर प्रताप, हेमू और बाजीराव जैसे कितने योद्धा अमर हो गए। राणा का अखंड हिन्दू साम्राज्य का स्वप्न भले ही उनके जीवन रहते सफल न हो पाया हो, लेकिन उनके व्यक्तित्व से पूरा राजस्थान प्रेरणा लेता है, उनकी वीरता भारत के कण-कण में समाहित है।

References:

  1. Medieval India: From Sultanat to the Mughals Part – II (By Satish Chandra)
  2. The State at War in South Asia (By Pradeep Barua)