Wednesday, November 6, 2024
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बहुत हुआ सम्मान, नहीं सहूँगी अपमान, केजरीवाल के Unfollow करने पर अलका लाम्बा का दर्द

आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री के सरकारी कार्यक्रमों से लगातार नज़रअंदाज़ की जा रही आम आदमी पार्टी की तेजतर्रार विधायक अलका लांबा आजकल बेहद आहत हैं। उनकी बेचैनी तब और बढ़ गई जब AAP अध्यक्ष अरविन्द केजरीवाल ने उन्हें ट्विटर पर अनफॉलो कर दिया।

ट्विटर पर दिल्ली के मुख्यमंत्री और AAP अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल के द्वारा ‘अनफॉलो’ किए जाने पर अलका लांबा ने बताया कि उन्हें पार्टी से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया था।

रविवार (फरवरी 03, 2019) शाम ट्विटर पर अलका लंबा ने एक ट्वीट किया कि “उसने (केजरीवाल) मुझे अनफॉलो कर लिया है, मुझे इसे किस तरह से लेना चाहिए?” इसके बाद उन्होंने एक मीडिया समूह से बात करते हुए कहा कि उनका इशारा आम आदमी पार्टी अध्यक्ष केजरीवाल की तरफ ही था।  

अलका लाम्बा के अनुसार, “अगर मुझे पार्टी से वह सम्मान और प्रतिक्रिया नहीं मिलती है, जिसकी मैं हकदार हूँ, तो मैं पार्टी के लिए काम करना बंद कर दूँगी”।

देखा गया है कि विगत वर्ष दिसंबर माह में अलका लांबा द्वारा दिल्ली विधानसभा में राजीव गाँधी के भारत रत्न वापसी के प्रस्ताव लेकर आने के बाद से आम आदमी पार्टी अध्यक्ष अरविन्द केजरीवाल के साथ उनका मनमुटाव बढ़ गया था।

अरविन्द केजरीवाल के इस व्यवहार से अलका लाम्बा इतनी आहत हुई है कि वो ट्विटर पर शायरी भी कर रही हैं। एक ट्वीट में लिखा है, “मेरी राजनीति की उम्र हो इतनी साहेब, तेरे नाम से शुरू तेरे नाम पे ख़त्म।”

AAP में अलका लाम्बा की स्थिति वर्तमान में बहुत दुखद चल रही है। उनका कहना है, “आम आदमी पार्टी कम से कम मेरी स्थिति को लेकर स्टेंड तो क्लियर करे। मेरे चांदनी चौक इलाके के AAP कार्यकर्ताओं और आम लोगों का ‘मोरल डाउन’ हो रहा है। वे पूछते हैं कि पार्टी का आपसे अचानक व्यवहार क्यों बदल गया है।”

अलका का कहना है कि पार्टी के नेता उनसे क्यों नाराज हैं, इसका कारण तो कम से कम सार्वजनिक किया जाना चाहिए, ताकि किसी प्रकार की भ्रम की स्थिति तो न रहे।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह पूछे जाने पर कि वह विधानसभा चुनाव किस पार्टी से लड़ेंगी, उन्होंने कहा कि वह पिछले 25 साल से राजनीति में हैं, वह किसी पार्टी के टिकट की मोहताज नहीं है।” यह पूछे जाने पर कि क्या वह पार्टी के कार्यक्रमों में शामिल हो रही हैं? उन्होंने कहा, “जब मुझे बुलाया ही नहीं जा रहा है तो कार्यक्रमों में किस हैसियत से जाऊँगी?”


लोकतंत्र Vs तृणमूलतंत्र: एक ख़तरनाक चलन की शुरुआत

ममता बनर्जी का रवैया भारत में इस्लामिक शासन की याद दिलाता है। जब इस्लामिक आक्रांता किसी राज्य या क्षेत्र को जीत लेते थे, तो वहाँ एक गवर्नर बिठा कर आगे निकल लेते थे। समय-समय पर गवर्नर बाग़ी हो उठते थे और अपना अलग राज्य कायम कर लेते थे। कई बार उन्हें इसके लिए अपने आका से युद्ध करनी पड़ती, तो कई बार वो चोरी-छिपे ऐसा करने में सफल हो जाते थे। ममता बनर्जी आज उसी इस्लामिक राज व्यवस्था की प्रतिमूर्ति बन खड़ी हो गई है, जो आंतरिक कलह, गृहयुद्ध और ख़ूनख़राबे को जन्म देता है, लोकतंत्र को अलग-थलग कर अपनी मनमर्जी चलाने को सुशासन कहता है।

पूरी घटना: एक नज़र में

आगे बढ़ने से पहले उस घटना और उसके बैकग्राउंड के बारे में जान लेना ज़रूरी है, जिसके बारे में हम चर्चा करने जा रहे हैं। दरअसल, शारदा चिटफंड और रोज़ वैली चिटफंड घोटाले वाले मामले में CBI को कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार की तलाश थी। हालाँकि, एजेंसी पहले से ही कहती आई है कि पश्चिम बंगाल सरकार जाँच में सहयोग नहीं कर रही है। चिट फंड घोटालों में ममता के कई क़रीबियों के नाम आए हैं और यही कारण है कि राफ़ेल पर चीख-चीख कर बोलने वाली ममता बनर्जी अपने लोगों को बचाने के लिए इस हद तक उत्तर आई है

रविवार (फरवरी 3, 2019) को जब CBI के अधिकारीगण राजीव कुमार के बंगले पर पहुँचे, तब बंगाल पुलिस ने न सिर्फ़ केंद्रीय एजेंसी की कार्यवाही में बाधा पहुँचाई, बल्कि उनके साथ दुर्व्यवहार किया और अपराधियों की तरह उठा कर थाने ले गए। सैंकड़ों की संख्या में पुलिस फ़ोर्स ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) और प्रवर्तन निदेशालय (ED) के आधिकारिक परिसरों को घेर लिया। पुलिस यहीं नहीं रुकी, जाँच एजेंसियों के अधिकारियों के आवासीय परिसरों को भी नहीं बख़्शा गया।

स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए ममता बनर्जी सक्रिय हुई और उन्होंने राज्य पुलिस की इस निंदनीय कार्रवाई को ढकने के लिए इसे राजनीतिक रंग से पोत दिया। सबसे पहले वो राजीव कुमार के आवास पर गई और उसके बाद केंद्र सरकार पर ‘संवैधानिक तख़्तापलट’ का आरोप मढ़ धरने पर बैठ गई। ख़ुद को अपनी ही न्याय-सीमा में असहाय महसूस कर रहे केंद्रीय एजेंसियों के अधिकारीयों ने राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी का दरवाजा खटखटाया, जिसके बाद तनाव थोड़ा कम हुआ और एजेंसियों के दफ़्तरों को ‘गिरफ़्त’ से आज़ाद किया गया। महामहिम त्रिपाठी ने राज्य के मुख्य सचिव को तलब कर रिपोर्ट माँगी।

शनिवार (फ़रवरी 2, 2019) की रात को जब पुलिस ने घेराबंदी हटाई, तब केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) ने केंद्रीय जाँच एजेंसियों के अधिकारियों के निवास एवं दफ़्तर (निज़ाम पैलेस और CGO कॉम्प्लेक्स) को अपनी सुरक्षा में ले लिया। CRPF के वहाँ तैनात होने के बाद अब अंदेशा लगाया जा रहा है कि भविष्य में भी तनाव कम होने की उम्मीद नहीं है और बंगाल सरकार ने दिखा दिया है कि वो किस हद तक जा सकती है। जिस तरह से डिप्टी पुलिस कमिश्नर मिराज ख़ालिद के नेतृत्व में पुलिस ने CBI अधिकारियों को पकड़ कर गाड़ी के अंदर डाला और उन्हें थाने तक ले गई, उसे देख कर तानाशाही भी शरमा जाए

CBI अधिकारी को पकड़ कर ले जाती बंगाल पुलिस।

मीडिया में एक फोटो काफ़ी चल रहा है, जिसमे बंगाल पुलिस CBI के एक अधिकारी को हाथ और गर्दन पकड़ कर उसे गाड़ी के अंदर ढकेल रही है, जैसे वह कोई अपराधी हो। अपने ही देश में, देश की प्रमुख संवैधानिक संस्था के अधिकारी के साथ एक अपराधी वाला व्यवहार देश के हर नागरिक के रोंगटे खड़े करने की क्षमता रखता है। यह जितना दिख रहा है, उस से कहीं ज्यादा भयावह है। यह एक ऐसे ख़तरनाक चलन की शुरुआत है, जिसे आदर्श मान कर अन्य तानाशाही रवैये वाले नेता भी व्यवहार में अपना सकते हैं।

संवैधानिक संस्था की कार्रवाई का राजनीतिकरण

वैसे यह पहला मौक़ा नहीं है, जब CBI और ED जैसी केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का राजनीतिकरण किया गया हो। ऐसी कार्रवाइयों का पहले भी विरोध हो चुका है और इनके राजनीतिकरण के प्रयास किए जा चुके हैं। लेकिन, इनकी कार्यवाही में इतने बड़े स्तर पर बाधा पहुँचाने की कोशिश शायद पहली बार की गई है। और, सबसे बड़ी बात यह कि ‘उलटा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार पर ही तानाशाही का आरोप मढ़ धरने पर बैठ कर, नया नाटक शुरू कर दिया है।

इस बात पर विचार करना जरूरी है कि ममता बनर्जी ने अपनी इस पटकथा का मंचन क्यों किया? दरअसल, राज्य पुलिस सत्ताधारी तृणमूल कॉन्ग्रेस से वफ़ादारी की हद में इतनी उग्र हो गई कि उन्होंने CBI अधिकारियों की बेइज्जती की। वो अधिकारी, जो भारतीय न्याय-प्रणाली के अंतर्गत अपना कार्य कर रहे थे। बंगाल पुलिस और राज्य सरकार ने ऐसा व्यवहार किया, जैसे पश्चिम बंगाल भारतीय गणराज्य के अंतर्गत कोई क्षेत्र न होकर एक स्वतंत्र द्वीपीय देश हो

CBI के अधिकारियों के साथ मिल-बैठ कर भी बात किया जा सकता है। लेकिन, बंगाल पुलिस ने ममता बनर्जी के एजेंडे के अनुसार कार्य किया क्योंकि उन्हें पता था कि कुछ भी गलत-शलत होता है तो मैडम डैमेज कण्ट्रोल के लिए खड़ी हैं। जब ममता बनर्जी ने देखा कि राज्य पुलिस ने ऐसा निंदनीय कार्य किया है, तो वो तुरंत डैमेज कण्ट्रोल मोड में आ गई और और उसी के तहत चुनावी माहौल और कथित विपक्षी एकता के छाते तले इस घटना को राजनीतिक रंग दे दिया।

ममता बनर्जी जानती थी कि उनके एक बयान पर विपक्षी नेताओं के केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ ट्वीट्स आएँगे। ममता बनर्जी जानती थी कि अगर वो धरने जैसा कुछ अलग न करें तो सारे मीडिया में बंगाल पुलिस की किरकिरी होनी है। ममता बनर्जी जानती थी कि अगर इस घटना का इस्तेमाल कर केंद्र सरकार और मोदी को 10 गालियाँ बक दी जाए, तो पूरी मीडिया और पब्लिक का ध्यान उनके बयान और धरने पर आ जाएगा। अपनी नाकामी, सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल और बंगाल में तानाशाही के इस अध्याय को छिपाने के लिए ममता ने ये स्वांग रचा। लालू यादव, राहुल गाँधी, उमर अब्दुल्लाह, देव गौड़ा सहित सभी विपक्षी दलों का समर्थन उन्हें मिला भी।

लोकतंत्र में अदालत है तो डर कैसा?

भारतीय लोकतंत्र के तीन खम्भों में से न्यायपालिका ही वह आधार है, जिस पर विपक्षी दल भरोसा करते हैं (या भरोसा करने का दिखावा करते हैं)। हालाँकि, पूर्व CJI दीपक मिश्रा के मामले में उनका ये भरोसा भी टूट गया था। वर्तमान CJI रंजन गोगोई के रहते जब आलोक वर्मा को हटाया गया, तब उन्हें भी निशाना बनाया गया था। अगर लोकतंत्र पर भरोसा करने का दिखावा करना है, तो आपको अदालत की बात माननी पड़ेगी। अगर ऐसा है, तो फिर ममता बनर्जी किस से भय खा रही है?

दरअसल, इस भय की वज़ह है। प्रधानमंत्री के बंगाल में हुए ताज़ा रैलियों, रथयात्रा विवाद प्रकरण, अमित शाह का बंगाल में हुंकार भरना और फिर भाजपा द्वारा वहाँ स्मृति ईरानी को भेजना- इस सब ने ममता को असुरक्षित कर दिया है। बंगाल को अपना एकतरफा अधिकार क्षेत्र समझने वाली ममता बनर्जी को मृत वाम से वो चुनौती नहीं मिल पा रही थी, जो उन्हें उनके ही राज्य में भाजपा से मिल रही थी। वो मज़बूत विपक्षी की आदी नहीं है, इसी बौखलाहट में उन्होंने केंद्रीय संवैधानिक एजेंसियों को डराना-धमकाना शुरू कर दिया है।

भाजपा को राज्य में मिल रहे जनसमर्थन ने ममता की नींद उड़ा दी है। उन्हें अपना सिंहासन डोलता नज़र आ रहा है। तभी वो CBI और ED के अधिकारियों के निवास-स्थान तक को अपने घेरे में लेने वाले बंगाल पुलिस की तरफदारी करते हुए खड़ी है। यह भी सोचने लायक है कि जिस तरह से अधिकारियों के घरों को पुलिस द्वारा घेरे के अंदर लिया गया, उस से उनके परिवारों पर क्या असर पड़ा होगा? सोचिए, उनके बीवी-बच्चों के दिलोंदिमाग पर पश्चिम बंगाल की सरकार की इस कार्रवाई का क्या असर पड़ा होगा?

पहले से ही लिखी जा रही थी पटकथा

जो पश्चिम बंगाल और वहाँ चल रहे राजनीतिक प्रकरण को गौर से देख रहे हैं, उन्हें पता है कि शनिवार को जो भी हुआ, उसकी पटकथा काफ़ी पहले से लिखी जाने लगी थी। इसे समझने के लिए हमें ज़्यादा नहीं, बस 10 दिन पीछे जाना होगा, जब बंगाली फ़िल्म प्रोड्यूसर श्रीकांत मोहता को सीबीआई ने कोलकाता से गिरफ़्तार किया था। ममता के उस क़रीबी को गिरफ़्तार करने में CBI को कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी, इस पर ज़्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया। लेकिन जिन्होंने उस प्रकरण को समझा, उन्हें अंदाज़ा लग गया था कि आगे क्या होने वाला है?

उस दिन जब CBI मोहता को गिरफ़्तार करने उसके दफ़्तर पहुँची, तब उसने पुलिस को फोन कर दिया। सबसे पहले तो उसके निजी सुरक्षाकर्मियों ने CBI को अंदर नहीं जाने दिया, उसके बाद क़स्बा थाना की पुलिस ने CBI की कार्यवाही में बाधा पहुँचाई। पुलिस ने उस दिन भी जाँच एजेंसी के अधिकारियों से तीखी बहस की थी। कुल मिला कर यह कि ममता राज में बंगाल सरकार की पूरी मशीनरी सिर्फ़ और सिर्फ़ मुख्यमंत्री और उनके राजनैतिक एजेंडे को साधने के कार्य में लगी हुई है।

अगर ममता बनर्जी सही हैं, तो उन्हें अदालत से डर कैसा? जब सुप्रीम कोर्ट भी राजीव कुमार को फ़टकार लगा कर ये हिदायत दे चुका है कि वो सुबूतों से छेड़छाड़ करने की कोशिश न करें, तब बंगाल सीएम सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के पालन करने की बजाय अपने विपक्ष के साथियों की बैसाखी के सहारे क्यों आगे बढ़ रही है? क्या अब केंद्रीय एजेंसियाँ और अन्य संवैधानिक संस्थाएँ सत्ताधारी पार्टियों से जुड़े दोषियों पर कार्रवाई न करें, इसके लिए उन्हें इस स्तर पर डराया-धमकाया जाएगा? अगर यही तृणमूल कॉन्ग्रेस का लोकतंत्र है, तो उत्तर कोरिया की सरकार इस से बेहतर स्थिति में है।

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने राज्य में सीबीआई को न घुसने देने का निर्णय लिया था। ममता बनर्जी ने भी यही निर्णय लिया था। कहीं न कहीं ममता को इस बात का अंदाज़ा हो गया था कि जिस तरह से चिट फंड घोटालों में एक-एक कर तृणमूल नेताओं के नाम आ रहे हैं, उस से उनकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं। इसी क्रम में उन्होंने सीबीआई को राज्य में न घुसने देने की घोषणा कर ये दिखाया कि वो कितना लोकतंत्र के साथ है, लेकिन शायद ही किसी को पता हो कि ममता विपक्षी दलों के साथ में ही अपना भी भविष्य देख रही थी।

15 की उम्र में ISIS से लगाव, आतंकी से शादी… 2 बच्चों के साथ अब 19 साल की जर्मन घर लौटने को बेताब

आतंकवादी संगठन ISIS में शामिल हुईं जर्मनी की 19 साल की लियोनोरा अब अपने घर लौटना चाहती हैं। वह जब 15 साल की थीं तब उन्होंने अपना घर छोड़कर ISIS ज्वाइन किया था। आतंकवाद पर लगाम लगाने के लिए अमेरिकी सैनिक लगातार सीरिया और ईराकी सीमा के पास मैजूद ISIS के आतंकियों खि़लाफ़ लड़ रहे हैं।

लियोनोरा फिलहाल यहाँ के एक नजदीकी गाँव में रह रही हैं, जो अमेरिकी सैनिकों के कब्जे में है। बता दें कि, लियोनोरा की तरह हजारों बच्चों और परिवारों के भविष्य का कुछ पता नहीं है कि क्या होगा? लियोनोरा के दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। वह रोते हुए बताती हैं कि वह जब 15 साल की थी तब वह सीरिया आई थी, उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया था।

लियोनोरा कहती हैं कि ‘अब समय आ गया है जब घर लौट जाया जाए।’ वह कहती हैं, मैं पहले आतंकवादी समूह डी-फैक्टो सीरियाई के लिए एक गृहणी के तौर पर काम करती थी। बता दें कि सीरिया के कुर्दिश अधिकारियों ने ISIS के सैकड़ों लड़ाकों को फ़िलहाल हिरासत में रखा है। साथ ही उनके हजारों पत्नियों और बच्चों को विस्थापितों के शिविरों में रखा गया है।

कुर्द के अधिकारी बार-बार पश्चिमी सरकारों से अपने इन नागरिकों को वापस लेने के लिए कहते रहे हैं। लेकिन उनकी सरकार कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है। लियोनोरा बताती हैं कि उन्होंने जर्मनी के आतंकी मार्टिन लेमके से शादी की थी और उनकी तीसरी पत्नी बनीं थीं।

बता दें कि, अमेरिकी सुरक्षाबलों ने उनके पति लेमके को हिरासत में ले रखा है। वह दावा करती हैं कि लेमके ने ISIS के लिए एक तकनीशियन के रूप तकनीकी सामान, कंप्यूटर, मोबाइल की मरम्मत का काम किया। वह कहती हैं कि अब वह अपनी जिंदगी आजादी से जीना चाहती हैं, आईएसआईएस में शामिल होने को वह अपनी सबसे बड़ी गलती बताते हुए कहती हैं कि वह अब अपने परिवार के पास जर्मनी लौटना चाहती हैं, उन्हें अपनी इस हरक़त पर बहुत पछतावा है।

2 मार्च है नए ‘रेप कानून’ के तहत मिलने वाली पहली फाँसी की तारीख़

मध्य प्रदेश की एक अदालत ने सतना में 4 साल की बच्ची से बलात्कार के दोषी स्कूल शिक्षक के ख़िलाफ़ डेथ वॉरंट जारी कर दिया है। अपराधी महेंद्र सिंह गोंड को 2 मार्च को जबलपुर जेल में मृत्युदंड दिया जाएगा।

12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कारियों के लिए मौत की सजा के प्रावधान के तहत यह पहली फाँसी होगी। हालाँकि, आरोपित बलात्कारी के पास अभी सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति के पास जाने का विकल्प खुला है।

सतना की जिला अदालत ने महेंद्र सिंह गोंड के ख़िलाफ़ डेथ वॉरंट जारी कर दिया है। गोंड ने बीते साल 4 साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार किया था। बलात्कार के दोषी स्कूल टीचर ने इस कदर दरिंदगी दिखाई थी कि बच्ची को कई महीने दिल्ली के एम्स अस्पताल में गुजारने पड़े और कई सर्जरी से गुजरना पड़ा था।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार रेप के दोषी महेंद्र सिंह गोंड को फाँसी देने के लिए 2 मार्च की तारीख़ तय की गई है। अधिकारियों ने बताया कि अगर सुप्रीम कोर्ट इस आदेश पर स्टे नहीं लगाता है तो उसे 2 मार्च को ही फाँसी दे दी जाएगी। अपराध और सजा मिलने के बीच सिर्फ 7 महीने का अंतर है। अगर उसे 2 मार्च को फाँसी दे दी जाती है, तो नए रेप कानून के तहत मिलने वाली इस तरह की यह पहली सजा-ए-मौत होगी।

बेंच ने बताया इसे ‘गंभीरतम अपराध’

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की एक डिविजन बेंच ने महेंद्र सिंह गोंड को दी गई सजा पर 25 जनवरी को मुहर लगा दी थी और इस घटना को ‘गंभीरतम अपराध’ की श्रेणी का बताया। जस्टिस पीके जायसवाल और जस्टिस अंजुलि पालो की बेंच ने कहा, ”अदालत ऐसे क्रूर अपराधियों पर कठोर कार्रवाई करने से पीछे नहीं हट सकती। ऐसी घटनाएँ जब तेजी से बढ़ रही हों, तो सख्ती दिखाना और जरूरी हो जाता है। यह मामला इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि आरोपी एक शिक्षक है, जिसका काम बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना होता है।” हाई कोर्ट के फैसले के बाद सतना की जिला अदालत ने दोषी के ख़िलाफ़ डेथ वॉरंट जारी कर दिया है।

बलात्कारी महेंद्र सिंह गोंड के पास अभी 2 विकल्प मौजूद हैं

जबलपुर सेंट्रल जेल ही मध्य प्रदेश की एक जेल है, जहाँ फाँसी देने की व्यवस्था है। जेल अधीक्षक गोपाल तामराकर ने बताया, “हमें फैसले की हार्ड कॉपी अभी नहीं मिली है, जो डाक के माध्यम से आती है। एक ई-मेल मिला है और उसके मुताबिक रेप के दोषी को 2 मार्च को सुबह 5 बजे फांसी दी जानी है।” दोषी महेंद्र सिंह गोंड के पास अभी 2 विकल्प मौजूद हैं। वह चाहे तो सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति के पास दया याचिका दे सकता है।

पहले न्यूनतम आय फिर कर्ज़माफ़ी… सत्ता के लिए और कितने लॉलीपॉप देंगे जनता को राहुल बाबा!

लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं राहुल गाँधी में बेचैनी बढ़ती ही जा रही हैं। वो जनता को तरह-तरह के वादे करके लुभाने की पुरज़ोर कोशिशें कर रहें हैं। कभी ग़रीब को ढ़ाल बनाने वाले राहुल न्यूनतम आय का वादा करते दिखाई पड़ते हैं तो कभी किसानों के नाम पर कर्ज़माफ़ी के मुद्दे को बार-बार दोहराते दिखाई पड़ते हैं।

चुनावों के समय में इतनी सक्रियता दिखाने वाले राहुल गाँधी भूल जाते हैं कि जिन ग़रीबों को न्यूनतम आय का सपना दिखाकर, उनकी सहानुभूति और वोट पाने की आस लगाएँ बैठे हैं, उन्हीं गरीबों के जीवन से ग़रीबी हटाने का वादा एक बार उनकी दादी ‘इंदिरा’ भी कर चुकी है।

1971 में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में ‘गरीबी हटाओ’ का नारा भुनाया गया था। लेकिन, आज 49 साल बाद भी देश में ग़रीबी हट नहीं पाई है। इसका दोष अगर कॉन्ग्रेस को न दिया जाए तो और किसे दिया जाए। परिवार द्वारा चलाई रीत को आगे बढ़ाते हुए, अब राहुल इसी ग़रीबी से राहत दिलाने का सपना दिखाकर देश के लोगों को न्यूनतम आय का और कर्ज़माफी का लॉलीपॉप दे रहे हैं। ताकि चुनाव के परिणामों तक उसके रस में जनता डूबी रहे।

कुछ दिन पहले राहुल गाँधी ने ग़रीबों के लिए न्यूनतम आय की घोषणा की और पी चिदंबरम ने उस पूरी घोषणा में लगने वाला बजट ₹5 लाख करोड़ का खेल बताया। लेकिन केंद्र सरकार ने इस लागत को खारिज़ करते हुए साफ किया कि इस योजना 5 नहीं बल्कि 7 लाख करोड़ का ख़र्चा आएगा। समझने वाला अगर कोई शख्स समझे तो समझ आएगा कि सत्ता में आने के लिए झूठ बोलना तो यहीं से शुरू हो गया है। आगे वो क्या ठाने बैठे उसकी वो ही जानें?

अभी न्यूनतम आय की घोषणा को ढ़ंग से एक हफ़्ता भी पूरा नहीं हुआ है और राहुल किसानों के लिए भी वादे करने लगे। राहुल ने कहा है कि अगर वो सत्ता में आते हैं तो किसानों की कर्ज़माफी भी करेंगे और साथ ही खाद्य उद्योग को बढ़ावा भी देंगे।

आज राहुल हर कार्य को करने का आश्वासन देने से पहले यह जरूर कहते हैं कि ‘सत्ता में आते ही’ , ‘अगर सत्ता मे आए तो’ । यह सब देखकर लगता है कि आज कॉन्ग्रेस सरकार के भीतर की इंसानियत देश के प्रति इसलिए जग गई क्योंकि सत्ता हाथ में नहीं रही है।

अगर यह देशहित भावना और फिक्र कॉन्ग्रेस सरकार नागरिकों और उनके हालात पर पहले दिखाती तो शायद केंद्र सरकार तो दूर की बात है, राज्यों में भी कॉन्ग्रेस कभी सीट नहीं हारती। आखिर, आजादी से पहले अपनी भूमिका को कायम करने वाली कॉन्ग्रेस एकमात्र पार्टी है, यह कम बात थोड़ी है, जनता में विश्वास बनाने के लिए। लेकिन, कॉन्ग्रेस से वो भी नहीं हो पाया। घोटालों और भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत कॉन्ग्रेस अब खोया यकीन दोबारा पाना चाहती है। उसके लिए साम-दाम-दंड-भेद का कोई भी रास्ता अपनाना पड़े।

आज राहुल को समझने की ज़रूरत है कि हमारे देश की जनता इतनी समझदार है कि उन्हें मालूम है उनके हित में कौन काम कर रहा है और कौन उनकी जरूरतों को मज़ाक बनाकर छलनी कर रहा है। अभी हाल ही में मायावती ने न्यूनतम आय की घोषणा को मज़ाक बताते हुए, राहुल को सलाह दी थी कि वो पहले उन राज्यों पर गौर करें जहाँ पर उनकी सरकार है, ताकि देश में लोग उनपर विश्वास दिखा सके।

एक तरफ जहाँ राहुल सत्ता में आने के बाद कर्ज़माफी करने की बात कर रहे हैं वहीं पर मध्यप्रदेश में जहाँ इस समय कॉन्ग्रेस की सरकार है वहाँ के किसान परेशान होकर सामूहिक आत्महत्या की धमकी दे रहे हैं।

आपको याद दिला दें कि राज्यों में चुनाव जीतने से पहले राहुल रैलियों में यह वादा करते दिखाई पड़ते थे कि अगर वो चुनाव जीतते हैं तो 10 दिन के भीतर किसानों का कर्ज माफ़ कराएँगे। लेकिन चुनाव के तुरंत बाद मीडिया को दिए इंटरव्यू में राहुल जनता को समझाते नज़र आए कि यह इतना आसान काम नहीं हैं।

अपनी ही बातों से लगातार पलटने वाले और किसानों से दस दिन माँगकर महीना गुज़ार देने वाले राहुल अब फिर से वही सब करके जनता के साथ खेल खेलने का प्रयास कर रहे हैं।

अवॉर्ड-वापसी पार्ट- II: ‘बंद दुकानों’ को पुनर्जीवित करने का नया हथियार

मंच सज चुका है। आम चुनाव आने वाले हैं और देश चुनावी रंग में रंगने को तैयार है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे विशाल पर्व कुछ ही दिनों की दूरी पर खड़ा है। ऐसे में, कुछ ‘बंद दुकानों’ के भीतर भी लोकतंत्र सुगबुगा रहा है। तीनों लोकों में प्रसिद्धि पाने की अपनी चाहत को संतुष्ट करने के लिए उन्होंने अपनी तंत्रिकाओं में लोकतंत्र नामक करंट दौड़ाया है, ताकि 420 वॉट के शॉक से उन्हें यह याद आ जाए कि उन्हें आज तक कोई अवॉर्ड मिला भी है या नहीं। अगर मिला है, तो उसे वापस कर के एक गिरोह विशेष की वाहवाही लूटने की क्या गुंजाईश है?

मीडिया अब मणिपुरी सिनेमा की बात करेगी

इस कड़ी में रविवार (3 फरवरी 2019) ऐसे फ़िल्मकार का नाम जुड़ा, जिन्हें मणिपुर से बाहर शायद ही कोई जानता हो। हो सकता है, मणिपुरी सिनेमा में उन्होंने अच्छा कार्य किया हो, लेकिन अगर आपको पूरे भारत की मीडिया में सुर्ख़ियों में बने रहना है, तो अवॉर्ड वापसी-ज़रूरी है। अगर आप पहली वाली अवॉर्ड-वापसी अभियान में चूक गए, तो दूसरी वाली तो हाथ से जानी ही नहीं चाहिए। आख़िरी मौक़ा है, नहीं तो दिल्ली में फिर 5 वर्ष के लिए मोदी बैठ गए तो अगले महत्वपूर्ण चुनाव तक इन्तज़ार करना पड़ेगा।

कइयों को तो लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत के साथ ही उन्हें रिटायरमेंट लेना होगा, क्योंकि शायद हतोत्साह के मारे उनके अंदर विरोध-प्रदर्शन, अवॉर्ड-वापसी- इन सब के लिए ताक़त ही न बचे। भगवान जाने मौक़ा आए भी या नहीं, इसीलिए गंगा फिर से बह निकली है, हाथ धो लो। क्या पता, अगर ‘अपने वाले’ दिल्ली में आ गए तो, 2-4 नए अवॉर्ड्स के भी जुगाड़ हो जाएँ। कल जिन महाशय ने अवॉर्ड लौटाने की घोषणा की, उनका नाम अरिबम श्याम शर्मा है। मणिपुरी फ़िल्मों के निर्देशक एवं संगीतकार हैं।

वैसे यहाँ बता देना ज़रूरी है कि अरिबम शर्मा को 2006 में पद्मश्री और 2008 में लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला था। आज वो उनका कर्ज़ उतारने निकले हैं, जिन्होंने उन्हें ये अवॉर्ड दिए थे। अव्वल तो यह कि अब राष्ट्रीय मीडिया भी उनकी बात करेगा, मणिपुरी सिनेमा की बात करेगा और क्षेत्रीय फ़िल्मों में उनके योगदान की बात करेगा। अल्लाह भी ख़ुश, मोहल्ला भी ख़ुश। वैसे, अगर अख़बार या न्यूज़ पोर्टल्स को खंगाले तो शायद ही आपको ऐसी ख़बरें मिलेंगी, जहाँ मणिपुरी सिनेमा की बात की गई हो। लेकिन, आज सब इस पर बहस करेंगे।

पिछले 6 वर्षों से अरिबम शर्मा की कोई फ़ीचर फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई है। सीधा अर्थ यह कि दुकान में अस्थायी ताला लगा हुआ है। नसीरुद्दीन शाह वाले केस में भी यही बात थी। लगातार 35 फ्लॉप फ़िल्मों का बोझ अपने सर पर लिए घूम रहे शाह को भी कुछ ‘पैन-इंडिया’ सुर्ख़ियों की ज़रूरत थी, सो मीडिया ने उन्हें बख़ूबी दिया। उन्हें अपनी किताब लॉन्च करनी थी, जिसके लिए माहौल बनाना ज़रूरी था। उनको फॉर्मूला पता था, उन्होंने उसे अपनाया और चर्चा में आते ही धड़ाक से अपनी किताब जारी कर दी।

जनसमर्थन के बिना आंदोलन, आंदोलन नहीं ज़िद है

एक और बंद दुकान है, जिसका शटर रह-रह कर खुलने को होता तो है, लेकिन सफल नहीं हो पाता। पहले उस दुकान से कइयों को रोज़गार मिला करता था। उस दुकान में प्रहरी से लेकर मुंशी तक कई कर्मचारी थे। लेकिन आज सबने अपनी अलग-अलग दुकानें खोल रखी हैं वो पुराना दुकान जर्जर होकर ग्राहकों की राह देख रहा है। अपने पूर्व सहयोगियों के छोड़ कर चले जाने के ग़म का ठीकरा किस पर फोड़ा जाए, अन्ना हजारे इसी सोच में डूबे हैं। और अंततः उनका निष्कर्ष यह रहा कि अपनी ढ़लती उम्र का ख़्याल करते हुए पुराने तरीक़े से ही नई गंगा में हाथ धोया जाए।

लगे हाथ अन्ना ने भी अवॉर्ड-वापसी की घोषणा कर दी। नसीरुद्दीन शाह के फ़िल्मों की तरह अन्ना हजारे के पिछले अनशन भी फ्लॉप साबित हुए हैं। रालेगण से लेकर मुंबई और मुंबई से लेकर दिल्ली तक, अन्ना ने जितने भी अनशन किए- उनका कोई असर नहीं हुआ। 2011 में उनके अनशन का व्यापक असर हुआ था, क्योंकि जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त थी और बदलाव चाहती थी। अब उनके अनशन का असर नहीं हो रहा क्योंकि जनता समझदार है और बिना बात किसी के व्यापार में हिस्सेदार नहीं बनना चाहती।

इसे अन्ना की ढलती उम्र का असर कहें या फिर उन्हें सहयोगियों ने छोड़ कर जाने का ग़म- वो बेमौसम बरसात कराने की कोशिश कर रहे हैं। गुरु गुर ही रह गया और चेला चीनी हो गया है। अरविन्द केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन चुके हैं, किरण बेदी पुदुच्चेरी की उप-राज्यपाल हैं और जनरल वीके सिंह केंद्रीय मंत्री हैं। अन्ना को शायद इस बात का मलाल है कि केजरीवाल उनके नाम का इस्तेमाल कर आगे बढे और आज मलाई चाटने में लगे हुए हैं, क्योंकि किरण बेदी और जनरल सिंह तो पहले से ही ऊँची पदवी पर रहे थे, केजरीवाल का ग्राफ़ कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से चढ़ा।

वैसे ग़लती सरकारों की भी है। 1992 के बाद से केंद्र में कितनी सरकारें आईं और गईं लेकिन अन्ना को उनकी तरफ से पिछले 27 वर्षों से कोई अवॉर्ड नहीं मिला। इसीलिए, उन्होंने 1992 वाला पद्म भूषण ही लौटाने का निर्णय लिया है। पिछले पाँच दिनों से अनशन पर बैठे अन्ना को पता होना चाहिए कि बिना जनता के साथ के कोई भी आंदोलन सफल नहीं होता, वरन वो सिर्फ एक व्यक्तिगत विचारधारा थोपने की लड़ाई बन कर रह जाता है। और जनता का साथ पाने के लिए असली मुद्दों को उठाना पड़ता है, उनकी समस्याओं के लिए लड़ना पड़ता है, अपनी ज़िद के लिए नहीं।

महात्मा गाँधी वाली ग़लती दुहरा रहे हैं अन्ना हजारे

इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा जब वही लोग आज अन्ना की चिंता करने लगें (या फिर ऐसा दिखावा करने लगें), जिनके ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ कर उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली थी। हो सकता है 2011 के उनके विरोधी आज उनके मित्र बन जाएँ और अन्ना फिर से ठगे जाएँ। अन्ना को अपनी ज़िंदगी भर की कमाई का फ़ायदा किसी और को उठाने देने से बचना चाहिए। रालेगण सिद्धि से लेकर दिल्ली तक का उनका सफर आधुनिक महात्मा गाँधी की तरह रहा है, लेकिन अपने आसपास जिस तरह लोगों को जमा करने करने की कोशिश गाँधी ने की थी, वही ग़लती आज अन्ना दुहरा रहे हैं।

अपनी लाश पर भारत का बँटवारा करने की बात कहने वाले गाँधी की बात अंत में ख़ुद उन्हीं के लोगों ने नहीं मानी थी। ठीक उसी तरह आज अन्ना एक ख़ास गिरोह के हथियार के रूप में कार्य कर रहे हैं, भले ही अनचाहे रूप से। उन्हें न अन्ना की चिंता है और न उनकी जान की, उन्हें चिंता है तो बस सिर्फ़ अन्ना के आंदोलन से अपना मतलब निकालने की। अब देखना यह है कि नई वाली बहती गंगा (अवॉर्ड-वापसी-II) में हाथ-पाँव सब धोने उतर चुके अन्ना के इस घोषणा से किसका क्या फ़ायदा होता है?

ममता ‘धरना’ बनर्जी: CBI पहुँची सुप्रीम कोर्ट, सुनवाई कल लेकिन प.बंगाल सरकार को CJI की धमकी

कोलकाता में चल रही राजनीतिक खींचातानी के बीच केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) ने आज सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। याचिका में सीबीआई में कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से शारदा चिट फंड मामले में सहयोग करने का निर्देश देने की मांग की है। सीबीआई ने अपनी याचिका में यह भी कहा कि कई बार तलब किए जाने के बावजूद, राजीव कुमार सहयोग करने में असफल रहे। साथ ही जाँच में बाधा भी पैदा की।

सीबीआई द्वारा आज सुनवाई के लिए याचिका को सूचीबद्ध करने के बावजूद, मुख्य न्यायाधीश (CJI) रंजन गोगोई ने कहा कि सुनवाई कल यानी मंगलवार (5 फरवरी, 2019) को होगी। हालाँकि मुख्य न्यायाधीश ने चेतावनी वाले अंदाज़ में यह ज़रूर कहा कि अगर कोलकाता पुलिस कमिश्नर मामले से जुड़े सबूतों को नष्ट करने की भी सोचेगा, तो कोर्ट उस पर बहुत भारी पड़ेगा, उसे पछतावा होगा।

इससे पहले रविवार (फरवरी 3, 2019) को शारदा चिटफंड घोटाला मामले में CBI की टीम जब कोलकाता में पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के निवास स्थान पर पहुँची, तो CBI टीम को पुलिसकर्मियों ने अन्दर जाने ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, उन सीबीआई ऑफिसरों को कोलकाता पुलिस ने गिरफ़्तार भी कर लिया। हालाँकि कुछ घंटों बाद उन्हें रिहा भी कर दिया गया।

ममता बनर्जी ने सीबीआई के इस एक्शन को केंद्र सरकार से प्रेरित बताया। इसमें राजनीति को घुसाते हुए वो राजीव कुमार के समर्थन में धरने पर बैठ गईं। एक मुख्यमंत्री का किसी व्यक्ति विशेष के लिए उठाया गया ये धरनारूपी क़दम भारतीय राजनीति के लिए अनोखा है। ख़ुद को ‘धरना क्वीन’ बनाने वाली ममता को CBI की कार्रवाई पर भला ऐसी भी क्या आपत्ति हो सकती है कि वो आधी रात को ही धरने पर बैठ गईं!

CBI ऑफ़िसर्स आज पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी से मिलने की योजना बना रहे हैं।

आपको बता दें कि राजीव कुमार 1989 बैच के IPS ऑफ़िसर  हैं। राजीव कुमार के पिता उत्तर प्रदेश के चंदौसी में एक कॉलेज के प्रोफ़ेसर थे। फ़िलहाल राजीव का परिवार चंदौसी में ही रहता है। राजीव कुमार पश्चिम बंगाल पुलिस में कोलकाता कमिश्नर के पद पर तैनात हैं।

CBI ने यह दावा किया है कि राजीव कुमार की गिनती मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के क़रीबियों में है। राजीव कुमार 2013 में शारदा चिटफंड घोटाले मामले में राज्य सरकार द्वारा गठित एसआईटी के प्रमुख थे। उनके ऊपर जाँच के दौरान गड़बड़ी करने के आरोप लगे हैं। बतौर एसआईटी प्रमुख राजीव कुमार ने जम्मू कश्मीर में शारदा के चीफ़ सुदीप्त सेन गुप्ता और उनके सहयोगी देवयानी को गिरफ़्तार किया था। जिनके पास से डायरी भी बरामद की गई थी। ऐसा कहा जाता है कि इस डायरी में चिटफंड से रुपये लेने वाले नेताओं के नाम दर्ज थे। और कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार पर इसी डायरी को ग़ायब करने का आरोप है।

‘जिस दिन PM मोदी लेंगे संन्यास उस दिन मैं भी राजनीति छोड़ दूँगी’

केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने रविवार को एक समारोह में बयान दिया कि जिस भी दिन देश के प्रधानमंत्री राजनीति से संन्यास लेंगे, उस दिन वो भी राजनीति को अलविदा कह देंगी। हालाँकि स्मृति ईरानी ने यह भी कहा कि अभी नरेंद्र मोदी कई सालों तक राजनीति में रहेंगे।

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने यह बड़ा बयान पुणे के एक कार्यक्रम ‘वर्ड्स काउंट महोत्सव’ में 3 जनवरी 2019 को परिचर्चा के दौरान दिया। इस कार्यक्रम में एक श्रोता ने उनसे पूछा कि वह ‘प्रधानसेवक’ कब बनेंगी?

इसी सवाल के जवाब में स्मृति ने कहा, “कभी नहीं। मैं देश के अच्छे नेताओं के साथ राजनीति में कार्य कर रही हूँ। इस मामले में मैं बेहद सौभाग्यशाली रही हूँ कि मैंने पहले स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता के नेतृत्व में कार्य किया और अब मैं मोदी जी के साथ काम कर रही हूँ।”

स्मृति ने कहा कि जिस दिन भी पीएम नरेंद्र मोदी राजनीति से संन्यास लेंगे, मैं भी खुद को भारतीय राजनीति से अलग कर लूँगी।

उन्होंने श्रोताओं से कहा, “आप लोगों को लग रहा होगा कि मोदी सत्ता में ज्यादा समय नहीं टिकेंगे, लेकिन मैं आप लोगों को बता दूँ, वो यहाँ कई सालों तक रहने वाले हैं।”

आपको बता दें कि इसी समारोह में जब स्मृति से पूछा गया कि वह इस साल आगामी लोकसभा चुनावों में राहुल गाँधी के ख़िलाफ़ अमेठी से चुनाव लड़ेंगी? तो उन्होंने कहा कि इसका फ़ैसला उनके पार्टी के प्रमुख अमित शाह द्वारा किया जाएगा।

माघी अमावस्या पर मौन साधना का महत्व, कुम्भ का दूसरा शाही स्नान

हिंदी कैलेंडर के माघ महीने की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मौनी या माघी अमावस्या कहते हैं। यह तिथि अगर सोमवार के दिन पड़ती है, तो इसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। कहते हैं, सोमवार हो और साथ ही कुम्भ लगा हो तब इसका प्रभाव अनन्त गुना फलदाई हो जाता है।

इस साल 2019 में मौनी अमावस्या सोमवार 4 फरवरी को है। इस दिन चंद्रमा मकर राशि में सूर्य, बुध, केतु के साथ हैं और वृहस्पति वृश्चिक राशि में हैं, जिससे कुम्भ का प्रमुख शाही स्नान का योग भी बन रहा है। इस बार मौनी अमावस्या पर कई योग मिलकर महायोग बना रहे हैं। सोमवती योग के साथ, यह श्रवण नक्षत्र में भी है। ज्योतिष के हिसाब इस बार पाँच दशकों में अति दुर्लभ योग बन रहा है। कुम्भ मेले का दूसरा शाही स्नान माघ मौनी अमावस्या के दिन ही है।

इस माह को भी कार्तिक माह के समान पुण्य प्रद माना गया है। गंगा तट पर इसी पुण्य प्रताप के लिए भक्त जन, साधु-संत एक महीने तक कुटी बनाकर गंगा सेवा, ध्यान, तप एवं आध्यात्मिक साधना करते हैं। कहते हैं कि इस दिन पवित्र संगम में देवताओं का निवास होता है, इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है।

प्रयागराज कुम्भ में मौनी अमावस्या के विशेष स्नान के लिए एकत्रित श्रद्धालु

मौनी अमावस्या शरद-संक्रांति के बाद की दूसरी या महाशिवरात्रि से पहले की अमावस्या होती है। मौनी अर्थात मौन साधना का दिवस, आमतौर पर मकर संक्रांति से लेकर शिवरात्रि तक का समय योगिक परम्परा में साधना के लिए श्रेष्ठ माना गया है।

मौनी अमावस्या पर मौन साधना के माहात्म्य पर प्रकाश डालते हुए सदगुरु कहते हैं, “अस्तित्व की हर वो चीज जिसको पाँचों इंद्रियों से महसूस किया जा सके, वह दरअसल ध्वनि की एक गूँज है। हर चीज जिसे देखा, सुना, सूँघा जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके या जिसे स्पर्श किया जा सके, ध्वनि या नाद का एक खेल है। मनुष्‍य का शरीर और मन भी एक प्रतिध्वनी या कंपन ही है। लेकिन शरीर और मन अपने आप में सब कुछ नहीं है। वे तो बस एक बड़ी संभावना की ऊपरी परत भर हैं, वे एक दरवाजे की तरह हैं। बहुत से लोग ऊपरी परत के नीचे नहीं देखते, वे दरवाजे की चौखट पर बैठकर पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं। लेकिन दरवाजा अंदर जाने के लिए होता है। इस दरवाजे के आगे जो चीज है, उसका अनुभव करने के लिए चुप रहने का अभ्यास ही मौन कहलाता है।”

मौन क्या है? कितना प्रभावी है, इसका अनुभव आप सभी ने किया होगा। आमतौर पर अंग्रेजी शब्द साइलेंस मौन के बारे में बहुत कुछ नहीं बता पाता है। संस्कृत में मौन और नि:शब्द दो महत्वपूर्ण शब्द हैं। मौन का अर्थ आम भाषा में चुप रहना होता है, यानी आप कुछ बोलते नहीं हैं। नि:शब्द का अर्थ है, जहाँ शब्द या ध्वनि नहीं है। अर्थात, शरीर, मन और सारी सृष्टि के परे। ध्वनि के परे जाने का मतलब ध्वनि की गैरमौजूदगी नहीं, बल्कि ध्वनि से आगे जाना है।

कुम्भ में विचरण करते साधु-संत

आज जब हर जगह विज्ञान का बोलबाला है तो कहीं न कहीं सनातन ज्ञान-विज्ञान की परम्परा को गौड़ साबित करने की होड़ मची है। ऐसा वे लोग कर रहे हैं जिन्होंने कुछ भी स्वतः तलाशा नहीं है। उनकी नज़र में भौतिकता ही जीवन का पर्याय है। बस एक को अच्छा साबित करने के चक्कर में दूसरी सभी परम्पराओं, मान्यताओं को खारिज़ करने में ख़ुद को खपाए जा रहे हैं।

माना कि विज्ञान ने प्रचलित ज्ञान को तकनीक के माध्यम से सुलभ बनाकर लोगों तक पहुँचाया, आज वही लोग सुविधाभोगी होकर, भौतिकता में ही सुख खोजने लगे। निरंतर ख़ोज की सनातन परम्परा विलुप्त सी होती गई। जिसे सुखद कहा जाए या दुःखद, पर उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आज कुछ भी समझाने के लिए विज्ञान की भाषा में बात करनी पड़ती है। जबकि विज्ञान स्वयं निरंतर ख़ोज की प्रक्रिया में आगे बढ़ता हुआ उन्नति करता गया और लोग अपनी मूलभूत सनातन क्षमता खोते गए। विशेष पर्वों से जुड़ी मान्यताएँ, आध्यात्मिक साधनाएँ हमें पुनः अपने गौरव और उनके पीछे छिपी रहस्यों के प्रति जागरूकता के साथ पुनः उन्हें समझने में योगदान देती हैं।

कुम्भ जैसे पर्व हमारी धार्मिक, आध्यात्मिक साधना पद्धतियों को समझने के केंद्र भी हैं। सनातन परम्परा में गूढ़ हमारी सारी साधनाएँ अस्तित्व की अनुभूति के साथ उसके परे जाने के विज्ञान पर ही आधारित हैं। आज यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पूरा अस्तित्व ही ऊर्जा की एक प्रतिध्वनि या कंपन है। इंसान हर कंपन को ध्वनि के रूप में महसूस कर सकता है। सृष्टि के हर रूप के साथ एक खास ध्वनि जुड़ी हुई है। ध्वनियों के इसी जटिल संगम को ही हम सृष्टि के रूप में महसूस कर रहे हैं। सभी ध्वनियों का आधार नि:शब्द है। नि:शब्द अर्थात शून्यता। सृष्टि के किसी अंश का सृष्टि के स्रोत में रूपांतरित होने की कोशिश ही मौन है। एक ऐसा आयाम जो जीवन और मृत्यु के परे हो, मौन या नि:शब्द कहलाता है। कमाल की बात ये है कि मौन की साधना इंसान कर नहीं सकता, इसमें सिर्फ़ हुआ जा सकता है।

सद्गुरु इस बात पर जोर देते हैं कि मौन का अभ्‍यास करने और मौन होने में अंतर है। अगर आप किसी चीज का अभ्यास कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप वह नहीं हैं। अगर आप पूरी जागरूकता के साथ मौन में प्रवेश करने की चेष्‍टा करते हैं तो आपके मौन होने की संभावना बनती है।

शाही स्नान को जाते अखाड़े

संगम में स्नान और इसके माहात्म्य के संदर्भ में प्रचलित है सागर मंथन की कथा। कहते हैं जब सागर मंथन से भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए, उस समय देवताओं एवं असुरों में अमृत कलश के लिए खींचा-तानी शुरू हो गई। इससे अमृत की कुछ बूंदें छलक कर प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में जा गिरी। यही कारण है कि यहाँ की नदियों में स्नान करने पर अमृत स्नान का पुण्य प्राप्त होता है।

माघ की महिमा शास्त्रों में भी बखानी गई है। कहा गया है, सत युग में जो पुण्य तप से मिलता था, द्वापर में हरि भक्ति से, त्रेता में ज्ञान से, कलियुग में दान से, लेकिन माघ महीने में संगम स्नान हर युग में अन्नंत पुण्यदायी होगा।

ऐसे में माघ माह की मौनी अमावस्या पर प्रयागराज कुम्भ में हैं तो बहुत अच्छा, नहीं तो कहीं भी गंगा स्नान कर इस दिन के माहात्म्य का स्वतः अनुभव करें। हो सके तो मौन रहें और ख़ुद अनुभव करें कि क्यों मौन को नाद से भी प्रभावशाली माना गया है।

तिरुपति में 12वीं शताब्दी के मंदिर से तीन हीरे-जड़ित स्वर्ण मुकुट गायब

तिरुपति स्थित गोविंदराजा स्वामी मंदिर से तीन स्वर्ण मुकुट के चोरी होने की ख़बर आई है। सभी मुकुट में हीरे जड़े हुए थे। इन मुकुटों का वजन 1.3 किलोग्राम बताया जा रहा है। मुकुट के चोरी होने का समाचार फैलते ही मंदिर प्रशासन में हड़कंप मच गया। तिरुमाला तिरुपति देवस्थान मंदिर के संयुक्त कार्यकारी अधिकारी पी भास्कर के अनुसार, पुजारियों ने देखा कि श्री गोविंदराजा स्वामी मंदिर में स्थित 18 मंदिरों में से एक मंदिर में रखा मुकुट गायब हो गया है।

नियमानुसार, मंदिर शाम 5 बजे श्रद्धालुओं के लिए बंद हो जाता है। प्रतिदिन की तरह जब पूजा-अनुष्ठान संपन्न हुआ, तब मंदिर को बंद कर दिया गया। इसके 45 मिनट बाद जब पुजारियों ने मंदिर का गेट खोला, तो उन्होंने देखा कि तीन मुकुट गायब हैं। आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित यह मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। साप्ताहिक शोभा-यात्रा से पहले देवताओं के सर से मुकुट का चोरी हो जाना बहुत से सवाल खड़े करता है।

‘मंदिरों का शहर’ नाम से प्रसिद्ध तिरुपति के गोविंदराजा स्वामी मंदिर में 18 उप-मंदिर हैं। पुलिस ने रात को मंदिर में तलाशी अभियान भी चलाया। सुरक्षा अधिकारियों को शक है कि ये मुकुट शनिवार (जनवरी 2, 2019) की सुबह होने वाले सुप्रभात सेवा के बाद ही चोरी कर लिए गए थे, लेकिन पुजारियों ने बाद में ध्यान दिया। इसमें मंदिर के किसी कर्मचारी की मिलीभगत हो सकती है।

तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (TTD) के अधिकारियों के अनुसार, जाँच के दौरान मंदिर के कर्मचारियों से भी पूछताछ की जाएगी। ‘द न्यूज़ मिनट’ वेबसाइट के अनुसार, तिरुपति शहरी क्षेत्र के पुलिस अधीक्षक ने बताया कि उन्हें सतर्कता अधिकारियों द्वारा इस मामले की शिकायत मिली है और पुलिस ने केस भी दर्ज कर लिया है। उन्होंने कहा:

“हालाँकि, अभी तक हमें कोई सफलता नहीं मिली है, लेकिन 2 डिप्टी एसपी के नेतृत्व में पुलिस की 6 टीम सभी दिशाओं में लगातार नज़र बनाई हुई है। मुख्य सतर्कता अधिकारी से आधिकारिक शिकायत मिलने के बाद मामला दर्ज किया गया है।”

TTD के सतर्कता अधिकारी सीसीटीवी फुटेज को भी खंगाल रहे हैं, ताकि चोरों का पता लगाया जा सके। मामले के प्रकाश में आते ही भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया और राज्य सरकार की चुप्पी पर सवाल उठाए। उन्होंने चंद्रबाबू नायडू सरकार पर मंदिरों की देखरेख में कोताही बरतने का आरोप मढ़ा और माँग की कि जल्द से जल्द मामले की तह तक पहुँचा जाए।

गोविंदराजा स्वामी मंदिर को 12वीं शताब्दी में संत रामानुजाचार्य द्वारा बनवाया गया था। यह तिरुपति के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है और चित्तूर जिले के सबसे बड़े मंदिर परिसरों में से एक है। भगवन विष्णु के इस मंदिर में वह योग-निद्रा की मुद्रा में विराजमान हैं। मुकुटों के चोरी होने के बाद इलाक़े में यह ख़बर तेजी से फ़ैल गई, जिसके बाद मंदिर परिसर के बाहर स्थानीय लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई।