Saturday, April 20, 2024
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उम्माह के पैरोकार इक़बाल ने कैसे बदल दिया था ‘सारे जहाँ से अच्छा’ तराना: कट्टरपंथी थे Pak के जनक

पाकिस्तान के जनक अल्लामा इक़बाल को भारत में सेक्युलर साबित करने की क्यों मची है होड़? इक़बाल, जिसने पहली बार भारत विभाजन की बात की, जिसने भारत को धमकाया और जिसकी विचारधारा की आड़ में मजहबी कट्टरता ऐसी फैली कि देश में आग लग गई। एक बात और... उनका परिवार पहले कश्मीरी पंडित था, जिसने बाद में इस्लाम स्वीकार कर लिया।

अल्लामा इक़बाल, जिन्हें मुफ्फकिर-ए-पाकिस्तान कहा जाता है, यानी पाकिस्तान का विचारक। ये सही भी है क्योंकि सबसे पहले ‘टू नेशन थ्योरी’ की बात इन्होंने ही की थी। इन्हें शायर-ए-मशरिक, अर्थात पूरब का शायर भी कहा जाता है। इक़बाल को हाकिम-उल-उम्मत, अर्थात उम्माह का विद्वान भी कहा गया है। यहाँ उम्माह आते ही आप समझ गए होंगे कि इसका अर्थ है मुस्लिमों का शासन। यही मुहम्मद इक़बाल की विचारधारा भी थी- पूरी दुनिया के मुस्लिम एक राष्ट्र के रूप में हैं। ‘तराना-ए-मिल्ली’ का सार यही है कि पैगम्बर मुहम्मद ही सारी दुनिया के मुस्लिमों के नेता हैं। इन्होंने इस्लाम में राष्ट्रवाद की भावना होने की बात को ही नकार दिया।

अल्लामा इक़बाल के बारे में एक बात जाननी ज़रूरी है कि उनका परिवार पहले कश्मीरी पंडित था, जिसने बाद में इस्लाम स्वीकार कर लिया था। उनका जन्म नवंबर 8, 1877 को सियालकोट में हुआ था। इक़बाल के ‘तराना-ए-हिंदी’ को न सिर्फ़ भारत में पढ़ाया गया बल्कि इसे देशभक्ति दिखाने के लिए भी गाया जाता रहा है। इक़बाल, जिसने पहली बार भारत विभाजन की बात की, जिसने भारत को धमकाया और जिसकी विचारधारा की आड़ में मजहबी कट्टरता ऐसी फैली कि देश में आग लग गई। कट्टरवाद के उस जनक को भारत में पूजा जाना आश्चर्यजनक है। हाँ, पाकिस्तान में उनका सम्मान होना समझ में आता है।

अल्लामा इक़बाल के दोनों तराने और उनके बीच का अंतर

इक़बाल ने ‘सारे जहाँ से अच्छा’ अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान 1904 में लिखा था। इसे मूलतः बच्चों के लिए लिखा गया था, जो देशभर में लोकप्रिय हुआ। समय के साथ सिर्फ़ इक़बाल ही नहीं बदले बल्कि उन्होंने अपने तराने को भी तोड़-मरोड़ के बदल दिया। मोहम्मद इक़बाल उस समय गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में लेक्चरर थे। उनके एक छात्र लाला हरदयाल ने उन्हें एक कार्यक्रम को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया था, जहाँ उन्होंने ‘सारे जहाँ से अच्छा’ गाया। उन्होंने भाषण देने की जगह अपने इस तराने को ही गाया और सभा में लोगों ने इसकी खूब प्रशंसा की। हरदयाल ने बाद में ग़दर पार्टी की स्थापना की और सिविल सर्विस को ठोकर मार कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे।

अब आते हैं कट्टरपंथी इक़बाल पर, जिन्होंने ‘तराना-ए-मिल्ली’ लिख कर इस्लाम के शासन की बात की और उनकी देशभक्ति तेल लेने चली गई। ‘तराना-ए-हिंदी‘ की पहली पंक्तियाँ तो आपको याद ही होंगी। इसका अर्थ भी सभी को लगभग पता ही है- हिंदुस्तान बाकी सारी दुनिया से अच्छा है और ये एक ऐसा चमन है, जिसमें हम सब बुलबुल के रूप में रहते हैं । वो पंक्तियाँ कुछ इस तरह से हैं:

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा

आज भारत में कथित बुद्धिजीवियों का ही एक बड़ा वर्ग है जो फैज अहमद फैज और मुहम्मद इक़बाल को पूजने में लगा हुआ है और चाहता है कि बाकी लोग भी ऐसा ही करें। ऊपर वाले तराने के ठीक 4 साल बाद यूरोप से लौटे मुहम्मद इक़बाल की ‘तराना-ए-मिल्ली‘ की पहली पंक्तियाँ देखिए, जो बताता है कि किस तरह उनके मन में भारत के लिए कोई सम्मान था ही नहीं और उनकी नज़र में इस्लाम ही एकमात्र सत्ता थी:

चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा

इसका अर्थ है कि चीन और अरब हमारे हैं, हिंदुस्तान भी हमारा ही है। हम तो मुस्लिम हैं और ये सारी दुनिया ही हमारी है। यहाँ चीन का तात्पर्य पूरे मध्य एशिया से था। इसकी अगली पंक्तियों में उन्होंने लिखा है कि एक अल्लाह को मानना मुस्लिमों की साँस में, सीने में बसता है। इसकी अगली पंक्ति में वो लिखते हैं कि मुस्लिमों को मिटाना इतना आसान भी नहीं है। इसके बाद वो मंदिरों और मूर्ति पूजा का मखौल उड़ाते हुए लिखते हैं कि उन सबमें उनके ख़ुदा का घर सबसे ऊपर का स्थान रखता है। इसका एक अर्थ ये भी है कि मुस्लिमों का काबा जो है, उसका स्थान दुनिया के सारे मंदिरों से भी ऊपर है, सबसे ऊँचा।

इस्लाम की बात करते हुए इक़बाल लिखते हैं कि वो सब तलवारों से साए में बड़े हुए हैं और वो अर्धचंद्र का खंजर है न, वही उनके कौम की निशानी है। इस्लामिक मुल्कों के झंडों पर प्रतीकों में अर्धचंद्र और तारे मिलते हैं, यहाँ ‘क़ौमी निशाँ’ की बात इस्लाम के लिए ही हो रही है, इसमें कोई शक नहीं। हिंदी तराने में हिमालय को भारत का संतरी बताने वाले मुहम्मद इक़बाल के लिए अब पहाड़ियों में भी इस्लाम घुस गया। तभी तो उन्होंने लिखा कि पश्चिम की वादियों में इस्लामी अजान ही गूँजता रहा और किसी में इतनी ताक़त नहीं हुई कि वो मुस्लिमों को आगे बढ़ने से रोक सके। इसके बाद इक़बाल स्पेन और टिगरिस के बहाने धमकाते हैं कि किस तरह इस्लाम ने वहाँ अपनी सत्ताएँ स्थापित की।

दोनों ही तरानों में इक़बाल का टोन बदलता नज़र आता है। एक में वो राष्ट्रवाद की बात करते हैं, दूसरे में उसी को नकार कर इस्लाम का बखान करते हैं। अंतर इतना है कि हिंदी तराने में इस्लाम की झलक मिलती है लेकिन ‘तराना-ए-मिल्ली’ में राष्ट्रवाद को नकार दिया जाता है। ‘तराना-ए-हिंदी’ की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर के ये कहा जाता है कि इक़बाल ख़ूब सेक्युलर थे, असल में इससे बड़ा मजाक कुछ हो ही नहीं सकता है। इक़बाल ने ‘हिन्दोस्ताँ हमारा’ से ‘सारा जहाँ हमारा’ तक का जो सफर तय किया, उसमें उनकी सोच नहीं बदली बल्कि उनके भीतर छिपी हुई सोच ही सामने आई। 1930 में उनका कट्टरवाद लाखों को अपने आगोश में ले लेता है।

मुस्लिम लीग के मंच पर अध्यक्षीय सम्बोधन

दरअसल, दिसंबर 29, 1930 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में मुस्लिम लीग का 25वाँ वार्षिक सम्मलेन था और मुहम्मद इक़बाल ने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में विभाजन की ऐसी नींव रखी, जिसका खामियाजा पूरे भारत को भुगतना पड़ा। उन्होंने धमकाया कि भारत में तब तक शांति का नामों-निशाँ भी नहीं हो सकता, जब तक मुस्लिमों को अलग देश और उन्हें अपना शासन न मिले। वहाँ ऐलान कर दिया कि एक मुस्लिम कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि उसके देश की नीतियाँ इस्लामी क़ानून से अलग हों क्योंकि इस्लाम में प्रारम्भ से ही सामाजिक व्यवस्था, न्याय और अन्य चीजों के लिए अलग से ही क़ानून है, जो इसे ईसाइयत से अलग बनाता है।

उनका सीधा कहना था कि इस्लाम की मजहबी व्यवस्था को मानने वाला मुस्लिम देश का क़ानून नहीं मानेगा, अगर वो इस्लामिक कानून से अलग हो। उन्होंने सेकुलरिज्म और राष्ट्रवाद को नकार दिया। आज उन्हीं की पंक्तियों को लेकर लोग उन्हें सेक्युलर बताने के लिए तुले हुए हैं। इसके बाद इक़बाल यूरोप और पश्चिम देशों में घूम-घूम कर न सिर्फ़ मुस्लिम लीग की विचारधारा के लिए समर्थन जुटाने लगे, बल्कि फंडिंग के लिए भी जी-जान लगा दिया। उनके जितने भी लेक्चर प्रकाशित हुए, उसमें मुहम्मद को नेता मानने की बात थी और उन मुस्लिम नेताओं की भी उन्होंने निंदा की, जो ‘इस्लामी समाज की भावनाओं’ को नहीं समझते थे।

उनका कहना था कि सेकुलरिज्म एक ऐसा हथियार है, जिसका इस्तेमाल कर के हिन्दू अब मुस्लिमों की विरासत, संस्कृति और राजनीतिक प्रभाव पर हावी हो जाएँगे। उनका कहना था कि इससे मुस्लिमों का मजहबी आधार कमजोर पड़ जाएगा। उन्होंने स्पष्ट कह दिया था कि भले ही ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत लेकिन पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रान्त को एक अलग राज्य का दर्जा मिलना चाहिए, जो सत्ता चलाने के मामले में स्वतंत्र हो। वो भारत के अंदर एक ‘मुस्लिम भारत’ की स्थापना की अवधारणा को सही ठहराते थे। उन्होंने समुदाय विशेष से स्पष्ट पूछा था कि क्या वो देश का क़ानून ऐसा चाहते हैं, जो इस्लाम के अनुरूप न हो?

इक़बाल को सेक्युलर साबित करने के पीछे की मंशा क्या?

इसके बाद 1932 में भी अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में मुहम्मद इक़बाल ने ये बातें दोहराईं। एक शायर इक़बाल में से नेता इक़बाल या फिर कट्टरपंथी इक़बाल को निकाल बहार कर उन्हें सेक्युलर साबित करने की होड़ एक बेहूदा प्रतियोगिता है, जो ओसामा बिन लादेन को ‘एक अच्छा पति’ या फिर आतंकी बुरहान वानी को ‘हेडमास्टर का बेटा’ बताने वाली होड़ से अलग नहीं है। इक़बाल को इस्लामी कट्टरवाद से अलग नहीं किया जा सकता। अगर पाकिस्तान नहीं भी बनता और उनकी चलती तो आज यहाँ भारत में एक समांनातर इस्लामी सत्ता चलते रहती, जो भारत को एक नरक में तब्दील करने की ताक़त रखती।

ये भी बताते चलें कि मुहम्मद इक़बाल ने अपनी ज़िंदगी के अधिकतर हिस्से अहमदिया बन कर जिया। इसके बाद उन्होंने अहमदिया संप्रदाय को अलविदा कह दिया क्योंकि उन पर कट्टरपंथियों का दबाव था और वे लोग मानते थे कि अहमदिया विधर्मी हैं। आज पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय पर हो रहा अत्याचार किसी से भी छिपा नहीं है। वो 1931 तक अहमदिया नेताओं के संपर्क में थे और ‘ऑल इंडिया कश्मीर कमिटी’ का अध्यक्ष भी किसी अहमदिया खलीफा को बनाना चाहते थे। यानी, इक़बाल के नाम पर ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ की बात करने वालों को पता होना चाहिए कि इक़बाल ने अहमदिया पंथ क्यों छोड़ा!

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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