Friday, April 19, 2024
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नीलकंठेश्वर मंदिर का रास्ता हुआ साफ, दूर से दिखने लगा इतिहास: इरफान, महबूब, अहमद ने कर लिया था राजमहल पर कब्जा

30 फुट चौड़ा रास्ता दस फुट की संकरी और दमघोंटू गली में बदल गया था। लेकिन वक्त बदला। लोग न जाने कहाँ-कहाँ से आ रहे हैं। वे दर्शन करने, फूल-पत्ती अर्पित करने, अपनी कामनाओं के विष की पोटली शिव के कंठ पर टाँगने और...

57 साल के राजा मियाँ ने अपने हिस्से की आठ फुट ज्यादा जमीन मंदिर के रास्ते को चौड़ा और बेहतर बनाने के लिए आगे आकर दी है। राजा मियाँ ने इस बात का इंतजार नहीं किया कि सरकारी अमला आकर हिदायत या समझाइश दे। जो काम जरूरी है, वह कल पर नहीं टाला।

उनकी पहल ने 40 कारोबारियों को कई दशकों से बने उन दुकान और मकानों को पीछे करने का रास्ता खोल दिया, जिनसे एक 30 फुट चौड़ा रास्ता दस फुट की संकरी और दमघोंटू गली में बदल गया था। यह गली दुनिया भर के लोगों को भारतीय स्थापत्य कला के एक बेमिसाल नमूने की तरफ ले जाती थी।

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में उदयपुर का एक हजार साल पुराना नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर है, जो अब दूर से नजर आने लगा है। वाराणसी तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचंड बहुमत का केंद्र है। उनका अपना चुनाव क्षेत्र।

ऐसी ही दमघोंटू गलियों में बाबा विश्वनाथ की विरासत सदियों से किसी की राह तक रही थी। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 150 किलोमीटर दूर विदिशा जिले में आठ हजार आबादी के उदयपुर में बाबा विश्वनाथ नीलकंठेश्वर के नाम से विराजे हैं। परमार राजवंश के शासक शिव के उपासक रहे और अपने ढाई-तीन सौ साल के राज में अपने विशाल राज्य में अनगिनत मंदिर, पाठशालाएँ और छात्रावास बनवाए।

बुंदेलखंड की सीमा पर उदयपुर उनके राज्य के सबसे व्यस्त व्यावसायिक केंद्रों में से एक था, जहाँ चारों तरफ दुर्ग से घिरे नगर में एक राजमहल, कई बावड़ियाँ, दरवाजे, मंदिर, चौक-चबूतरे, कचहरी सदियों तक बनाए गए थे। गूगल मैप से पूरी नगर रचना को आज भी देखा-समझा जा सकता है, जो ऊपर पहाड़ी तक की गई किलेबंदी तक विस्तृत है।

परमारों के बाद भारत के इतिहास की एक लंबी अमावस का दौर है, जब लुटेरों के अंतहीन अंधड़ों ने भारतीय पहचान को जड़ से मिटाने की जिद्दी कोशिशें कीं। इस इलाके में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश, अलाउद्दीन खिलजी, मोहम्मद तुगलक, शेर शाह सूरी के हमले, लूट और कब्जे क्रम से हैं। मुगलों के बाद नवाबों के नाम से नए कब्जेदारों की घातें हैं।

बाबर का चंदेरी पर हमला 1528 में हुआ और तब तक दूर से चुपचाप भारत की तबाही देख रहा उदयपुर चंदेरी सूबे का हिस्सा हो गया। पचास साल कोई कुछ न कहे तो किराएदार ही मालिक हो जाता है। फिर यह तो सदियों की खामोशी थी।

उदयपुर चश्मदीद है। भुक्तभोगी है। 1080 का एक शिलालेख महाराजा उदयादित्य से हमारा परिचय कराता है, जो मंदिर प्रांगण में ही है। हर दिन की एक रात है। हर रात की एक सुबह भी है।

एक इतिहासकार की हेरिटेज वॉक के बाद साल 2021 की जनवरी उदयपुर की एक नई भोर लेकर आई। यह एक उदास कस्बे की अँगड़ाई है, जो कुछ सदियों से हमसे कुछ कहना चाहता था। आजादी के बाद कुछ दशकों का इंतजार और किया। लगा कि नीलकंठेश्वर के तीसरे नेत्र की पलक बहुत हल्की सी हिली है।

इंसानों की तरह इतिहास के सब्र भी टूटते हैं। उदयपुर का सब्र टूटना ही था। उदयादित्य तो अब नहीं रहे। लोकतंत्र आ गया। अब हर नागरिक उदयादित्य है, जो अपने सेवकों को सिंहासन तक भेजता है। पुरखों की पुकार सुन ली गई। उदयपुर नींद से जाग गया।

मंदिर के बाहर आते ही गली के बाईं तरफ राजा मियाँ का आशियाना है। और आगे कोई हमीद है। सामने कोई बशीर है। बीच में रमेश हैं। प्रवीण हैं। राजकुमार हैं। सबके महान पुरखों ने एक साथ ये हैरतअंगेज निर्माण कार्य हजार साल पहले ही कर दिखाए थे।

वह सिर्फ मजदूरी या कारीगरी का हुनर नहीं था। उन्होंने पत्थरों पर जादू रच दिया था। आला दरजे की इंजीनियरिंग के साथ गणित, मूर्ति और चित्र कला के फनकारों ने जाने कहाँ-कहाँ से आकर अपने कला-कौशल की नुमाइश की होगी।

विशाल परिसरों में ये पूजास्थल दरअसल शिक्षा, संस्कृति और कला के विकसित और व्यस्त केंद्र होते थे, जहाँ देवताओं की साक्षी में एक संस्कारवान नई पीढ़ी गढ़ी जाती थी। राज्य इन्हें पोषित करता था। समाज सहेजता था। लेकिन यह इतिहास के अंधड़ों के उस पार की गौरव गाथाएँ हैं। बीच में सदियों की अमावस है। शिव के मस्तक का अर्द्धचंद्र उदयपुर में पूरी तरह खिलता हुआ हम देख रहे हैं।

कितने लोग कहाँ-कहाँ से आ रहे हैं। वे अब तक दर्शन करने, फूल-पत्ती अर्पित करने, अपनी कामनाओं के विष की पोटली शिव के कंठ पर टाँगने और तस्वीरें खिंचाने के लिए दमघोंटू गली से ऊपर सरकते हुए सिर पर चढ़े आते थे।

उदयपुर ने अपनी चादर झटकार दी है। सबसे पास का छोटा शहर है गंज बासौदा। उदयपुर के सामने ही जन्मा होगा। उदयपुर ने इसकी किलकारियाँ सुनी होंगी। फिर बड़ा होते हुए देखा होगा। अब वह पढ़-लिखकर कमाने वाला काबिल शहर हो गया है। आसपास के अनगिनत गाँवों के लोग रोजगार पाते हैं।

बच्चे भविष्य के सपने बुनने आते हैं। अपने पड़ोस में जीवन को नए सिरे से विकसित होता हुआ देखकर एक तजुर्बेकार बुजुर्ग की तरह उदयपुर बीते दशकों में कितना खुश हुआ होगा। अपनी दयनीय हालत पर उसने कभी न बासौदा से कुछ माँगा, न बासौदा से कुछ चाहा। विदिशा हो या भोपाल, हर रोज तमाम माँगने वाले ही नीलकंठेश्वर के द्वार तक आते रहे।

किसी की नजर न लगे, उदयपुर की यह अँगड़ाई कितनी हसीन है। इसका स्वागत करने का बासौदा वालों का हक पहला है। वे अब महादेव के समक्ष कुछ माँगने नहीं आ रहे। वे अपने अतीत को टटोल रहे हैं। कोई मधुर शर्मा अपनी टोली के साथ कैमरे लिए पहाड़-जंगल, गली-कूचों में झाँक रहे हैं। उनके सामने उदयपुर अपनी नई परतें खोल रहा है।

यूट्यूब के प्लेटफार्म नंबर-एक पर कोई अमित शुक्ला वैदिक एक्सप्रेस में जानकारियों की शानदार सवारी करा रहे हैं। कोई गगन दुबे मंदिर की भित्तियों पर मौन मूर्तियों से बात कर रहे हैं। उनके पास प्रश्न हैं। खंडित और आहत देवी उनसे अपनी व्यथा कह रही हैं। कोई प्रवीण शर्मा एक पुराने घरों की अंधेरी दीवारों से कान लगाए हैं। हर दीवार कुछ कहती है। हर स्तंभ को अपनी बारी का इंतजार है। हर बावड़ी आपके आने से प्रसन्न है।

मलबे के बड़े से ढेर के पास एक प्राचीन जैन मंदिर में कोई णमोकार मंत्र गुनगुना रहा है। वह साक्षी है कि कभी यह नगर महान तीर्थंकरों के समृद्ध अनुयायियों की व्यावसायिक और सामाजिक सेवा का भी सक्रिय केंद्र रहा होगा। आज सिर्फ तीन परिवार जैनियों के हैं।

मलूकचंद जैन के पास अपने घर के हिस्से के उस टीले की कहानी है, जिसकी खुदाई में दशकों पहले शानदार कलाकृतियों वाला एक पुराना आवास दफन था। श्रद्धा और परिश्रम से उसकी सफाई की गई थी। वही अब उनका घर है, जो कथा उदयपुर का एक प्रकाशित पृष्ठ है।

उदयपुर की इस करवट को निकट से देखने देश के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र डेढ़ महीने में दूसरी बार आए तो सबसे ताजा कहानी राजा मियाँ ने सुनाई। खुश होकर बताया कि उन्होंने अपनी ज्यादा जगह खाली की है। बिना किसी आदेश के। उदयपुर की भलाई के लिए कमाया गया यह उनके हिस्से का सवाब है।

आज के नुकसान की भरपाई कल वे लोग कर देंगे, जो दुनिया भर से इस महान विरासत के दर्शन करने आएँगे। बेशक इस काम में जनप्रतिनिधियों, प्रशासन के स्थानीय अधिकारियों, समाज के जागरूक लोगों की भूमिका भी सकारात्मक और प्रेरक है। डॉ. मिश्र ने झूमकर राजा मियाँ को गले लगा लिया। वसंत पंचमी की दोपहर गर्भगृह में भीतर नीलकंठेश्वर महादेव तक सारे शुभ समाचार पहुँच रहे थे।

गौरतलब है कि महल की एक दीवार को तोड़कर सीमेंट और लोहे का दरवाजा लगा दिया गया था और पुरानी दीवार पर एक साइन बोर्ड टाँग दिया गया था- ‘निजी संपत्ति, उदयपुर पैलेस, खसरा नंबर-822, वार्ड नंबर-14।’ इस पर काजी सैयद इरफ़ान अली, महबूब अली और अहमद अली का नाम लिखा था।

अब नीलकंठेश्वर मंदिर तक पहुँचने का रास्ता अब लगातार ठीक होता जा रहा है, क्योंकि निर्माण कार्य ने गति पकड़ ली है। जो रास्ता पहले तक मात्र 10 फ़ीट का था, वो अब 30 फ़ीट का हो गया है। मार्ग को सुगम बनाने में न सिर्फ प्रशासन, बल्कि स्थानीय लोगों ने भी खासी रुचि दिखाई और योगदान दिया। लोगों ने स्वेच्छा से अपने घरों को 10-15 फ़ीट खोद डाला और सड़क व नाली के लिए रास्ता दे दिया।

नोट: ऑपइंडिया के लिए यह लेख विजय मनोहर तिवारी ने लिखा है।

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