क्या मजबूत पत्थरों से बनी ऊँची चारदीवारी और बुर्जों से घिरे किसी एक हजार साल पुराने राजमहल का कोई हिस्सा किसी की निजी संपत्ति हो सकता है, जिसकी एक दीवार को तोड़कर सीमेंट और लोहे का दरवाजा लगा दिया गया हो और कोई इस तरफ ऐसी-वैसी निगाह न देखे इसके लिए पुरानी दीवार पर एक साइन बोर्ड टाँग दिया गया हो- ‘निजी संपत्ति, उदयपुर पैलेस, खसरा नंबर-822, वार्ड नंबर-14।’
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मध्य प्रदेश के विदिशा शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर उदयपुर नाम के एक प्राचीन नगर में देश के जाने-माने इतिहासकार डॉ. सुरेश मिश्र के साथ घूमना एक यादगार अनुभव रहा। आठ हजार आबादी की इस बस्ती में हजार-बारह सौ साल की इमारतें आज भी काफी हद तक बची हुई है।
पूरा नगर अपने पुराने डिजाइन पर ऊबड़-खाबड़ हालत में मौजूद है, जहाँ परमार राजवंश के वास्तुशिल्प के अनुसार दीवार-दरवाजे, मंदिर, महल, तालाब, बावड़ी, कमरे, दीवारें और गलियाँ हैं। इनसे गुजरते हुए लगता है कि आप अतीत में लौटकर सदियों पहले के खोए हुए वैभव की सैर कर रहे हैं।
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इस जगह की प्रसिद्धि नीलकंठेश्वर मंदिर से है, जो राजा भोज के बाद की पीढ़ी में हुए महाराज उदयादित्य ने बनवाया था। इस नगर का नाम उदयपुर भी उनसे ही जुड़ा है। उस दौर में राजा के युवराजों को राजधानी से दूर के महत्वपूर्ण नगरों और सैन्य ठिकानों की कमान सौंपी जाती थी।
एक तरह से राज्य शासन चलाने के पारिवारिक प्रशिक्षण का यह हिस्सा था। जैसे मगध में सम्राट बनने के पहले अशोक के पिता बिंदुसार ने उन्हें अवंति का राज्यपाल बनाकर उज्जैन भेजा था। बहुत संभव है युवराज उदयादित्य अपने पिता के समय परमारों के राज्य की सीमा पर स्थित उदयपुर भेजे गए हों।
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हो सकता है कि उदयादित्य ने ही इस नगर की विकास योजना बनाई हो और अपनी वंश परंपरा के अनुसार बेहतरीन निर्माण किए हों, जो उनके राजा बनने के बाद भी जारी रहे होंगे। वर्ना ऐसे मंदिर गाँव-गाँव में हैं, लेकिन चौकोर दुर्ग से सुरक्षित नगर के भीतर एक विशाल चारदीवारी और बुर्जों से घिरे राजमहल की रूपरेखा इस इलाके में सिर्फ यहीं हैं।
डॉ. सुरेश मिश्र ने अफसोस के साथ कहा कि पूरे नगर को नए सिरे से सहेजने की जरूरत है। यहाँ कई इमारतें, महल और मंदिर बचे हुए हैं, जो भारत के सदियों पुराने स्थापत्य का एक शानदार परिचय दे रहे हैं। अगर इन्हें न बचाया गया तो हमारी आँखों के सामने यह धूल में मिल रहा है।
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अब कोई विदेशी आक्रांता यह बर्बादी नहीं कर रहे। इसके जिम्मेदार हम हैं। पत्थर की खदानों ने निर्माण के लिए आवश्यक बुनियादी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई। आबादी का जितना विस्तार है, प्राचीन नगर का उससे ज्यादा है। एक बड़े हिस्से की इमारतें धीरे-धीरे ढह रही हैं।
महल का काफी कुछ हिस्सा आज भी ऐसा है, जिसे सहेजा जा सकता है। यह पूरे जिले में एकमात्र ऐसी जगह है, जिसे एक शानदार पर्यटन केंद्र के रूप में ऐसा विकसित किया जा सकता है कि लोगों को एक पूरा दिन यहाँ बिताकर अपने अतीत में झाँकने का मौका मिले।
मूल शिव मंदिर के अलावा भी और कई पुराने मंदिर और बावड़ियाँ हैं, जो किसी चमत्कार से ही बचे रह गए हैं। इस्लामी हमलावरों से यह नगर अछूता नहीं रहा है। इसके सबूत मंदिर में ही दिखाई देते हैं, जहाँ मूर्तियों को तोड़ा गया है। यह आश्चर्य की बात है कि फिर भी यह मंदिर अपने मूल आकार में बचा रह गया और यह नगर भी।
हर दिन दूर-दूर से लोग उदयपुर आते हैं। ज्यादातर सिर्फ 11वीं सदी के मंदिर के दर्शन करने आते हैं और वे भी सिर्फ महादेव की पूजा-अर्चना के लिए। गर्भगृह से बाहर आकर वे हक्के-बक्के से गर्दन ऊँची करके मंदिर के स्थापत्य को देखते हैं।
मोबाइल आजकल सबके पास हैं सो फोटो खींचना फूल चढ़ाने जैसी आवश्यक रस्म बन गई है ताकि सोशल मीडिया पर प्रसारित कर सकें। इक्का-दुक्का ही कोई पत्थरों पर उकेरे इस चमत्कार की डिटेल में जाना चाहता होगा। न के बराबर। उन्हें इतिहास में कोई रुचि नहीं है।
जब ऐसा है तो यह भी स्वाभाविक है कि ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत के स्थानीय नुमांइदे भी एक अजीब बेफिक्री में हों। उन्हें भी कोई परवाह नहीं रही कि हजार साल पुराने इस हीरे की सही साज-सँभाल करने लायक वे इस नगर को विकसित करने के बारे में सोचते।
उनकी नजर में यह पुरातत्व वालों का काम है। जब ऐसा है तो यह भी स्वाभाविक है कि सिविल सेवाओं की परीक्षाएँ पास करके प्रशासन तंत्र में आने वाले भी नेत्रहीन, मूक, बधिर, विकलांग और मंदबुद्धि हों, जो अपने हिस्से का तीन-चार साल का कार्यकाल काटकर अगले प्रमोशन की घात में बैठे रहें।
और परमारों के नाम पर लैटरहेड पर माैजूद तरह-तरह के संगठन भी किसी क्षत्रिय महासभा की एक शाखा के रूप में साल में एक दिन अपनी शिराओं में बहते क्षत्रिय रक्त की अनुभूति के लिए केसरिया साफे बाँधकर शोभायात्राएँ निकाल लेते होंगे, उन्हें भी अपने महान पूर्वजों के स्मारकों की बरबादी और कब्जे की कहानी से क्या लेना-देना?
परमार लिख लेने से हर कोई राजा भोज या उदयादित्य तो हो नहीं जाता! मैंने कुछ समय पहले विदिशा जिले के एक कलेक्टर को इस नगर में जीवित बचे रह गए इतिहास को सहेजने की दृष्टि से कुछ सुझाव और निवेदन एक पत्र में लिखे थे। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर की तर्ज पर अगर कुछ काम हो तो उदयपुर मध्यप्रदेश में राजधानी भोपाल के काफी पास पर्यटन मानचित्र पर चमक सकता है।
कलेक्टर का नाम भी किसी प्राचीन सूयर्वंशी राजवंश की तरह काफी प्रभावशाली था, जिसका जिक्र मैंने उस पत्र में विशेष रूप से किया था कि आपके नाम से लगता है कि यह पराक्रम आप कर सकते हैं-‘परमवीर अशोकचक्र वीर बहादुर महाप्रतापी कुंअर विक्रमसिंह।’ मुझे बड़ी उम्मीद थी कि वे कम से कम कागजों पर एक योजना ही बनाते, कोई मीटिंग करते।
हो सकता है कुछ क्रांतिकारी रचना फाइलों में रखकर चले गए हों। अक्सर नाम भी एक किस्म का फरेब रचते हैं। विजय नाम होने से भर से कोई विजेता नहीं हो सकता! कलेक्टर या कमिश्नर हो सकता है। राजधानी भोपाल की नाक के नीचे सिर्फ डेढ़ सौ किलोमीटर दूर एक पूरा और पुराना नगर अपने एक हजार साल पुराने वैभव में बचा हुआ जैसे दम तोड़ रहा है, लेकिन ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक की यात्रा करने वाले जनता के प्रतिनिधियों और प्रशासनिक पराक्रमियों ने इसे घूरे की तरह रखकर छोड़ा है।
जैसा कि सब जानते हैं, उनकी प्राथमिकताओं में खदानें, कब्जे, निर्माण, बजट, कमीशन, सेटिंग, तबादले, प्रमोशन, टिकट, चुनाव जैसे ऐतिहासिक कर्म सबसे ऊपर रहे हैं। दृष्टि होती तो दूरदृष्टि की अपेक्षा उनसे होती। मैं यह प्रसंग इसलिए लिख रहा हूँ कि अखबारों से पता चला है कि सरकार अवैध कब्जे करने वाले माफियाओं का हालचाल जरा जोर से ही पूछ रही है।
मैं ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि अवैध कब्जे सिर्फ शहरों में नहीं हैं, जहाँ झुग्गी-झोपड़ी प्रकोष्ठ और ठेला-गुमटियों को संरक्षण देने वालों ने नर्क का नजारा पेश किया है। उदयपुर की गलियों के कोनों, तिराहों, सड़कों और दीवारों पर हरी चादरों के टुकड़े हाल ही में डाले गए हैं।
मासूम ग्रामवासी हिंदू किसी परमज्ञानी मौलवी के हवाले से यहाँ किसी पीर (रहमतउल्लाअलैह) के प्रकट होने की ब्रेकिंग न्यूज हाथ जोड़कर थमा देते हैं। ज्योतिष का जानकार नहीं हूँ लेकिन भविष्यवाणी कर सकता हूँ कि यहाँ आने वाले सालों में रौनकदार मजारें बनेंगी, जहाँ कौमी एकता के उर्स और मुशायरों में यही जनप्रतिनिधि पधारेंगे और यही महाप्रतापी अफसर उनके इंतजामों में लगेंगे।
उदयपुर की शिराओं में सूखता भारतीय संस्कृति का वैभव तब दम तोड़ चुका होगा। परमार वंश के महाराजा उदयादित्य के राजमहल के एक बंद दरवाजे पर टँगा वह साइनबोर्ड नए इतिहास की घोषणा कर रहा है- ‘निजी संपत्ति, उदयपुर पैलेस, वार्ड नंबर-14, खसरा नंबर-822, काजी सैयद इरफान अली, काजी सैयद महबूब अली, काजी सैयद अहमद अली।’
नोट: ऑपइंडिया के लिए यह लेख विजय मनोहर तिवारी ने लिखा है।