Saturday, April 27, 2024
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जलियाँवाला बाग नरसंहार: रवींद्रनाथ टैगोर करना चाहते थे विरोध सभा, क्यों नहीं मिला महात्मा गाँधी और कॉन्ग्रेस का साथ?

टैगोर ने नरसंहार के खिलाफ एक विरोध सभा आयोजित करने की कोशिश की। चित्तरंजन दास समेत किसी भी नेता का उन्हें समर्थन नहीं मिला। उन्होंने सीएफ एंड्रूज को गाँधी के पास अनुरोध करने के लिए भेजा। तब महात्मा गाँधी ने जवाब दिया कि वह सरकार को शर्मिंदा नहीं करना चाहते।

13 अप्रैल 1919 दिन बैसाखी का था। उस दिन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में अग्रेंजों के काले कानून रौलेट एक्ट और अमृतसर के 2 नेताओं डॉ. सैफुद्दीन किचलू, डॉ. सतपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी। इस सभा में स्वतंत्रा संग्राम सेनानी भाषण देने वाले थे। शहर में उस समय कर्फ्यू लगा हुआ था, हजारों की संख्यों में लोग इकट्ठा हुए थे। जब ब्रिटिश हुकूमत ने जलियाँवाला बाग पर इतने लोगों की भीड़ देखी, तो वह परेशान हो गए। वह भारतीयों की आवाज कुचलना चाहते थे और उस दिन अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी हदें पार कर दी।

जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर नाम के अंग्रेज अफसर ने बिना कोई चेतावनी दिए उस सभा में मौजूद 5 हजार से अधिक लोगों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया और देखते ही देखते सभा स्थल लाशों के ढेर में बदल गया। गोलियों का निशाना बनने वालों में जवान, महिलाएँ, बूढ़े-बच्चे सभी थे। जनरल डायर की गोलियों का शिकार वो लोग भी बने, जो केवल जलियाँवाला बाग में मेला देखने आए थे।

गोलियाँ चलते ही वहाँ अफरातफरी की स्थिति हो गई और लोग अपनी जान बचाने के लिए भागने लगे। इस दौरान फायरिंग और भगदड़ में भी सैकड़ों लोग मारे गए। जलियाँवाला बाग उस समय मकानों के पीछे रहा एक खाली मैदान था और वहाँ तक जाने या बाहर निकलने के लिए सिर्फ एक संकरा रास्ता था और चारों ओर मकान थे। भागने का कोई रास्ता नहीं था इसलिए फायरिंग के समय कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद कुएँ में कूद गए लेकिन अधिकतर लोगों के ऐसा करने से कुआँ देखते ही देखते लाशों से भर गया।

उस वक्त अमृतसर में क‌र्फ्यू लगा हुआ था इसलिए घायलों को इलाज के लिए कहीं ले जाया नहीं जा सका। लोगों ने वहीं तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। ब्रिटिश सरकार के अनुसार जलियाँवाला बाग के इस नरसंहार में 379 लोग मारे गए थे और 1200 घायल हुए थे। लेकिन पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियाँवाला बाग का दौरा किया था। उन्होंने मरने वालों की संख्या 1000 से ऊपर बताई थी।

जनरल डायर के आदेश पर हजारों लोगों की जान ले ली गई। जगह-जगह ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध हो रहा था… देश का खून खौल रहा था लेकिन मोतिलाल नेहरू ब्रिटिश हुकूमत की तारीफ करने में जुटे हुए थे। कॉन्ग्रेस का 34वाँ अधिवेशन अमृतसर में बुलाया गया था। पहले दिन यानी 27 दिसंबर, 1919 को मोतीलाल नेहरू अपने अध्यक्षीय भाषण में ब्रिटिश शासन की शान में कसीदे पढ़ रहे थे।

उस दौरान जॉर्ज फ्रेडेरिक (V) यूनाइटेड किंगडम के राजा और भारत के सम्राट कहे जाते थे। उनके उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ़ वेल्स, एडवर्ड अल्बर्ट (VIII) का 1921 में भारत दौरा प्रस्तावित था। अधिवेशन में मोतीलाल ने सर्वशक्तिमान भगवान से प्रार्थना करते हुए भारत की समृद्धि और संतोष के लिए एडवर्ड की बुद्धिमानी और नेतृत्व की सराहना की। मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश शासन की उदारता और अपनी निष्ठा का भी जिक्र किया।

यानी जलियाँवाला बाग के नरसंहार के अभी 6-7 महीने भी नहीं हुए थे, मोती लाल नेहरू और कॉन्ग्रेस का अग्रेंजो के प्रति पूरी तरह हृदय परिवर्तन हो चुका था। जैसे इतनी बड़ी नरसंहार की घटना कोई मामूली घटना हो। कॉन्ग्रेस इस हत्याकांड का विरोध नहीं कर रही थी।

क्रूरता की हद लाँघने वाले जनरल डायर की ब्रिटिश पार्लियामेंट भी तारीफ कर रही थी और मोतीलाल नेहरू भी अग्रेजों का विरोध करने के बजाय उनके शान में कसीदे पढ़ रहे थे।

ब्रिटिश संसद और जनरल डायर

जिस ब्रिटिश शासन की मोतीलाल नेहरू तारीफ़ कर रहे थे वहाँ की ब्रिटिश संसद जनरल डायर का गुणगान कर रही थी। पार्लियामेंट ऑफ़ यूनाइटेड किंगडम की 19 जुलाई, 1920 को एक प्रस्ताव में कहा गया, “जनरल डायर बहुत क्षमता वाले अधिकारी हैं, उससे भी ज्यादा, उन्होंने कुशलता और मानवता के गुणों से अत्यंत प्रभावित किया हैं।” ब्रिटेन का यह नजरिया क्रूरता, फासीवाद और तानाशाही का एक उदाहरण था। इससे भी खतरनाक और शर्मनाक था लेकिन कॉन्ग्रेस ने ब्रिटिश पार्लियामेंट के इस प्रस्ताव पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं देना… विरोध करना तो बहुत दूर की बात है।

ब्रिटिश सरकार ने 1920 में डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित की। इस रिपोर्ट के मुताबिक नरसंहार के दिन 5000 से ज्यादा लोग वहाँ मौजूद थे। डायर के साथ 90 लोगों की फौज थी जिसमें 50 के पास राइफल्स और 40 के पास खुर्की (यानी छोटी तलवार) थी। डायर ने लिखित में बताया था कि जितनी भी गोलियाँ चलाई गई, वह कम थी। अगर उसके पास पुलिस के जवान ज्यादा होते तो जनहानि भी अधिक हुई होती। जनरल डायर यह तय करके आया था कि अगर उसके आदेश नहीं माने गए तो वह गोलियाँ चला देगा और हुआ भी यही। बिना चेतावनी के लगातार 10 मिनट तक वह गोलियाँ चलवाता रहा।

जलियाँवाला बाग में मृतकों की संख्या

एक ब्रिटिश अधिकारी जेपी थॉमसन ने एचडी क्रैक को 10 अगस्त, 1919 को पत्र लिखा, “हम इस स्थिति में नहीं हैं जिसमें हम बता सकें कि वास्तविकता में जलियाँवाला बाग में कितने लोग मारे गए। जनरल डायर ने मुझे एक दिन बताया कि यह संख्या 200 से 300 के बीच हो सकती है। उसने बताया कि उनके फ्रांस के अनुभव के आधार पर 6 राउंड शॉट से एक व्यक्ति को मारा जा सकता है। उस दिन कुल 1650 राउंड गोलियाँ चलाई गई। उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने डायर के अनुमान के आधार पर 291 लोगों के मारे जाने की पुष्टि कर दी। इसमें 186 हिन्दू, 39 मुस्लिम, 22 सिख और 44 अज्ञात बताए गए। इस प्रकार वहाँ मरने वालों की संख्या निर्धारित की गई। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)

डिसऑर्डर इन्क्वायरी कमेटी ने तो 379 लोगों की जान और इसके तीन गुना लोग घायल होने की बात कही। पंडित मदन मोहन मालवीय ने जलियाँवाला बाग का दौरा किया था। उन्होंने बताया कि मरने वालों की संख्या 1000 से ऊपर है। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, होम पॉलिटिकल, 23-1919)

इस नरसंहार पर कॉन्ग्रेस ने एक तरह से अंग्रेजों के सामने हथियार डाल दिए थे, विरोध तो दूर। कॉन्ग्रेस ब्रिटिश हुकूत की तारीफ में जुटी हुई थी। कसीदें पढ़ रही थी। दूसरी ओर इस क्रूरतम घटना पर कवींद्र रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार की नाइटहुड उपाधि वापस लौटा दी।

नरसंहार से तीन दिन पहले 10 अप्रैल 1919 को पंजाब में किसी भी समाचार के प्रसार पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ मार्शल लॉ लागू किया गया। नतीजा ये हुआ कि पंजाब शेष भारत से पूरी तरह कट गया। मार्शल लॉ और सेंसरशिप के कारण दुनिया को तुरंत इस जेनोसाइड का पता नहीं चल सका।

18 अप्रैल 1919 को महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों के दमन के लिए अंग्रेजों के बजाय अपने देशवासियों को ही जिम्मेदार ठहराते हुए सत्याग्रह वापस ले लिया। इससे अंग्रेज और भी खुलेआम दमन और अपमान के लिए प्रेरित हुए। रवींद्रनाथ को नरसंहार की तत्काल जानकारी नहीं मिली। एक-दो दिन के भीतर महात्मा गाँधी द्वारा आंदोलन वापस लेने की खबर अखबार में छपी।

टैगोर ने गाँधी के नेतृत्व पर भरोसा जताया और शांतिनिकेतन से कोलकाता चले गए तथा वहाँ नरसंहार के खिलाफ एक विरोध सभा आयोजित करने की कोशिश की, लेकिन चित्तरंजन दास समेत किसी भी नेता का उन्हें समर्थन नहीं मिला। उन्होंने सीएफ एंड्रूज को गाँधी के पास यह अनुरोध करने के लिए भेजा। तब महात्मा गाँधी ने जवाब दिया कि वह सरकार को शर्मिंदा नहीं करना चाहते। इसके बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद नाइटहुड की उपाधि त्यागने का फैसला लिया और हाथ से लिखकर एक पत्र वायसराय को भेजा।

ये विरोध की अकेली आवाज थी, लेकिन उन्होंने देश के साथ-साथ बाहर के लोगों को भी अपने यादगार गीत ‘एकला चलो रे’ को सच साबित कर दिखाया।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1919 की अमृतसर कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के उस त्याग का कोई जिक्र नहीं हुआ, जबकि वायसराय काउंसिल से सीएस नायर के इस्तीफे की प्रशंसा की गई। यहाँ तक कि पट्टाभि सीतारमैया ने भी द हिस्ट्री ऑफ द इंडियन कॉन्ग्रेस में रवींद्रनाथ के इस साहसिक कृत्य का कोई जिक्र नहीं किया।

रवींद्रनाथ का त्याग अनूठा था, उनमें लोकप्रिय होने की कोई इच्छा नहीं थी। गंभीर संकट के क्षणों में वह आम लोगों के साथ खड़े हुए।

वहीं अमर बलिदानी भगत सिंह घटनास्थल से रक्तरंजित मिट्टी उठा कर अपने घर ले गए और देश को स्वाधीन कराने का संकल्प लिया। इस नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी ऊधम सिंह ने 21 वर्ष बाद 1940 में ब्रिटेन जाकर जनरल डायर को गोलियों से भून दिया। जो इतिहास हम सब जानते ही हैं। जलियाँवाला बाग नरसंहार के सभी बलिदानियों को शत-शत नमन।

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Brijesh Dwivedi
Brijesh Dwivedihttp://www.brijeshkavi.com
Brijesh Dwivedi is a senior journalist, poet and writer. Presently he is a member of Indian Film Censor Board. He has worked in high positions in many media institutions of the country. In which the head is - News18 india (Senior Producer), National Voice (Deputy News Editor), Haryana News (Output Editor) A2Z News (Programming Head). Brijesh Dwivedi has participated in many many Kavi Sammelan.

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