केरल हाईकोर्ट ने 93 साल की एक वृद्ध महिला की सेवा के लिए उसके बेटे को एस्कॉर्ट परोल दे दी। दरअसल हत्या का दोषी पाए जाने पर बेटा को कोर्ट ने मौत की सजा दी थी। अब मानवीय पहलू के आधार पर न्यायमूर्ति पी. वी. कुन्हिकृष्णन ने पैरोल देने का आदेश दिया।
हालाँकि केरल कारागार एवं सुधार सेवाएँ (प्रबंधन) अधिनियम और केरल कारागार एवं सुधार सेवाएँ (प्रबंधन) अधिनियम के मुताबिक मौत की सजा पाए कैदियों को पैरोल नहीं दिया जा सकता है।
न्यायमूर्ति पी. वी. कुन्हीकृष्णन ने कहा, “हालाँकि यह सच है कि दोषी किसी भी ‘मानवीयता’ का हकदार नहीं है, क्योंकि उसने एक व्यक्ति की उसकी माँ, पत्नी और बच्चे के सामने बेरहमी से हत्या की है। लेकिन कोर्ट कैदी की तरह बर्ताव नहीं कर सकता।”
कोर्ट ने कहा,
“अगर कोई कहता है कि कैदी की माँग गलत है तो उन्हें पूरी तरह झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन कोर्ट कैदी की तरह अमानवीय रुख नहीं अपना सकता। कैदी ने एक परिवार को अनाथ कर दिया। भारत ऐसा देश नहीं है, जहाँ ‘आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत’ जैसी सजा दी जाती हो। हमारा देश न्याय करते समय अपनी मानवता, करुणा और सहानुभूति के लिए जाना जाता है। यह देखना संवैधानिक न्यायालय का कर्तव्य है कि सजा पूरी होने तक कैदी की बुनियादी जरूरतों और बुनियादी अधिकारों की रक्षा की जाए।”
कैदी ने सत्र न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी। कैदी की पत्नी ने जेल अधिकारियों से भी अनुरोध किया था, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद उसने एस्कॉर्ट पैरोल के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट को उसने बताया कि 93 साल की माँ बिस्तर पर पड़ी हैं और बुरी तरह बीमार हैं।
हाईकोर्ट ने कहा कि जब मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रहा एक कैदी कोर्ट से गुहार लगाता है कि वह अपनी बीमार माँ को देखना चाहता है, तो न्यायालय अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता, भले ही उसने हत्या करते समय मृतक और उसके रिश्तेदारों के साथ अमानवीय व्यवहार किया हो, जिसे ट्रायल कोर्ट ने सही पाया है।
कोर्ट ने जेल अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे दोषी को उसकी माँ से मिलने के लिए एस्कॉर्ट पैरोल पर ले जाएँ और उसकी माँ के साथ कम से कम 6 घंटे बिताने दें। इस दौरान एस्कॉर्टिंग पुलिस निगरानी करती रहे।