भारत देश अभी आतंकवाद की घटना से उबरा नहीं था कि न्यूजीलैंड में भी एक वीभत्स नरसंहार की घटना सामने आई है, जिसमें एक बन्दूकधारी ने लगभग 50 लोगों को मार दिया। न्यूजीलैंड के शहर क्राइस्टचर्च की मस्जिद में किए गए हमले में इस 28 वर्षीय आरोपित का नाम है, ब्रेनटेन टैरेंट! लेकिन अचानक से यह हास्य की घटना में क्यों तब्दील हो गई?
यह घटना तब तक एक सामान्य घटना थी, जब तक भारत में बैठे मीडिया गिरोह के गिद्धों को ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री ने उनके मतलब की ‘जानकारी’ नहीं उपलब्ध करवाई थी। यह ‘जानकारी’ थी इस घटना के बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन द्वारा की गई कड़ी निंदा! उन्होंने ब्रेनटेन टैरेंट नाम के उस आरोपित को ‘दक्षिणपंथी आतंकवादी’ बताकर तुरंत हमारे मीडिया गिरोह में बैठे भेड़ियों के लिए काम आसान कर दिया।
पेशे से पत्रकार किन्तु दिमाग से ‘न्यूट्रल’ सागरिका घोष और बरखा दत्त ने फ़ौरन इस लाइन को बेचकर सस्ती लोकप्रियता जुटाना शुरू कर दिया। लेकिन ‘येन केन प्रकारेण’ लोकप्रियता जुटाने की इस कला में वो अक्सर भूल जाती हैं कि वो वास्तविक मुद्दे और समस्या से एक बार फिर लोगों का ध्यान भटका चुके हैं।
जो पत्रकार पुलवामा आतंकवादी हमले के लिए जिम्मेदार जिहाद की मानसिकता को कभी जिहाद नहीं बोल पाए हैं, वो अगर इस प्रकार की घटना को तुरंत किसी ‘पंथ’ से जोड़ दें और इसे आतंकवाद घोषित करने के लिए क्रान्ति छेड़ देते हैं, तो समझ आता है कि यह सिर्फ और सिर्फ किसी विचारधारा के प्रति कुंठा के कारण ही ऐसा करते हैं। लेकिन फिर सवाल यह भी है कि अगर किसी विचारधारा के प्रति कुंठा आपको ऐसा करने पर मजबूर करती है, तो इस तरह से 49 मुस्लिमों को मारकर वीडियो बनाने वाले व्यक्ति को आप किस प्रकार से दोषी ठहरा पाएँगे?
इस घटना को दक्षिणपंथी आतंकवाद ठहराने पर प्रतिक्रिया होना भी स्वाभाविक है और वो लोग जिनके खिलाफ ऐसे मीडिया गिरोह के गिद्ध जहर भरकर बैठे हुए हैं, उन्होंने भी अपनी राय रखनी शुरू कर दी है।
दक्षिणपंथी विचारधारा को आतंकवाद से जोड़ने की हड़बड़ी कुछ लोगों में इतनी रहती है कि वो भूल जाते हैं कि ये उनकी हरकतों का ही नतीजा ही है कि लोग न्यूजीलैंड की इस घटना पर लिखना शुरू करते हैं – ‘Just for a change, it was not a Muslim person this time।’ यानि, यह चौंकाने वाली बात है कि आतंकवाद शब्द चर्चा में है और इसमें मजहब विशेष का योगदान नहीं है।
इतना ही नहीं, भारतीय मीडिया के समुदाय विशेष की इस नीच हरकत के जवाब में कुछ लोगों ने लिखा है, “न्यूज़ीलैंड में अभी एक मस्ज़िद पर हमला हुआ। फ़ॉर आ रिफ्रेशिंग चेंज, हमलावर शांतिदूत नहीं था। हमलावर न्यूज़ीलैंड का एक आम क्रिस्चियन नागरिक था। जिसे सजा देकर उसका भविष्य खराब नहीं किया जाना चाहिए, हो सकता है वो किसी हेडमास्टर का बेटा हो।” कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने एक कदम आगे जा कर इन्हीं पत्रकारिता के कलंकों पर कटाक्ष करते हुए लिखा है, “Just wondering, no one from our neutral Media Giroh has tweeted yet – “सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या।” ऐसा प्रश्न शायद इसलिए किया गया है क्योंकि पत्रकारिता से जुड़े कुछ लोगों ने पुलवामा आतंकी हमले को कॉन्सपिरेसी थ्योरी की सारी हदें पार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव जीतने की साजिश बताया था।
दक्षिणपंथी अगर चाहें तो तख्तियाँ पकड़कर यूट्यूब पर उसे वायरल कर ब्रेनटेन टैरेंट को भटका हुआ नौजवान साबित करने का अभियान चला सकते हैं। या उसे निर्दोष साबित करने और क्षमायाचना के लिए इंटरनेट पर ऑनलाइन पिटीशन भी साइन करवा सकते हैं। लेकिन उन्हें आतंकवाद को आतंकवाद कहना आता है, ना कि गोदी मीडिया की तरह आतंकवादियों को विक्टिम कार्ड जैसे खिलौने देकर उन्हें समर्पण के बजाए गौरवान्वित महसूस करवाते हैं।
खुद को अन्य लोगों से ज्यादा सभ्य और पढ़ा-लिखा बताने वाला यह मीडिया गिरोह जब आतकंवाद को दक्षिणपंथ से जोड़ने का प्रपंच रचता है तो प्रतिक्रिया में लोग उन्हीं की भाषा में जवाब देकर अपना विरोध जताते हैं। इसके बाद यदि यही लोग न्यूजीलैंड में हुई 49 लोगों की मौत की खबर पर सोशल मीडिया पर जाकर ‘HAHA’ और ‘दिल’ बनाकर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं, तो ये सब मात्र आपके द्वारा उन्हें लगातार लज्जित किए जाने के प्रयासों पर प्रतिक्रिया मात्र है और आपने इस पर शिकायत करने का अधिकार खो दिया है।
आतंकवादी बुरहान वानी के प्रति उसके नाम की वजह से सहानुभूति रखकर उसे एक हेडमास्टर का बेटा बताने वाली बरखा दत्त कल से एक क्रांतिकारी अभियान पर हैं। बरखा दत्त किसी भी शर्त पर चाहती हैं कि आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट को आतंकवादी घोषित किया जाए। यह दोहरा नजरिया ही इन लोगों को पत्रकार नहीं बल्कि सामाजिक ट्रॉल की उपाधि देता है और दक्षिणपंथी इन्हें पत्रकारिता का आतंकवाद कहने से नहीं हिचकिचाते हैं।
49 लोगों की हत्या पर HAHA करने वालों को एक बार सोचना चाहिए कि उनकी प्रतिक्रिया करने का तरीका तार्किक नहीं है। सवाल कीजिए तो जवाब मिलता है कि पुलवामा में जिहाद के नाम पर घटी आतंकवादी घटना पर भारतीय बलिदानी सैनिकों की मृत्यु की खबर पर ऐसे लोगों ने इसी प्रकार की अतार्किक प्रतिक्रिया दी थी, जिनके नाम में उनका मजहब नहीं ढूँढा जाना चाहिए। उनका मानना है कि यदि वो इस मीडिया गिरोह के लाडले हैं तो फिर ये लाडले बनने का अधिकार दक्षिणपंथियों को भी अवश्य मिलना चाहिए।
वास्तव में, यदि देखा जाए तो पुलवामा आतंकवादी घटना के बाद पाकिस्तान जैसे देश भी भारत को शान्ति और मानवता का पाठ पढ़ाते नजर आ रहे थे। इसमें इसी पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने काफी चरमसुख की प्राप्ति की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी और भारतीय सेना को पाकिस्तान को सबक सिखाने का दृढ़ निश्चय लेता देख इमरान खान की हाँ में हाँ मिलाने और उसकी तारीफ करने वाला यह पत्रकारिता का धूर्त गिरोह यह भूल जाना चाहता है कि यही वो शांतिदूतों का देश पाकिस्तान है, जो लगातार हमारे देश में आतंकवाद को प्रोत्साहन देता रहा है। ये वही शांतिदूत हैं जो पिछले कई दशकों से भारत देश को लगातार खून और आतंकवाद का तोहफा देते आए हैं।
क्या है आतंकवाद की जड़
अब यदि भारत देश की सहिष्णुता की तुलना करें तो हम देखेंगे कि कल न्यूजीलैंड में हुई इस घटना के आरोपित ब्रेनटेन टैरेंट ने एक मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) जारी कर लिखा था, “न्यूज़ीलैंड की डेमोग्राफी तेज़ी से बदल रही है, बाहर से इस्लामिक लोग तेज़ी से अंदर आ रहे हैं और अपने आप को मल्टीप्लाई कर रहे हैं, उसे रोको।”
अगर देखा जाए तो ब्रेनटेन टैरेंट का मुद्दा बहुत सरल था, सारी उथल-पुथल के बीच उसे भी सुना जाना चाहिए। वो एक हिंसक मानसिकता के द्वारा पीड़ित व्यक्ति था, जिसका मकसद समाज और अपनी सरकार को एक सन्देश देना था। बेशक ब्रेनटेन मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति था, लेकिन उसके अंदर ये घृणा मात्र एक दिन में नहीं उपजी थी। यह निरंतर हुई कुछ घटनाओं का ही परिणाम था, जिसने उसे इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर किया।
आरोपित ब्रेनटेन ने 49 लोगों को मार गिराने के पीछे कारण देते हुए इबा (Ebba) का जिक्र किया और कहा कि ऐसा कर के उसने Ebba का बदला लिया है। Ebba गूँगी-बहरी बच्ची थी, जो स्कूल से लौटते समय एक चोर की गाड़ी का शिकार हुई थी। यह हादसा 7 अप्रैल 2017 के दिन स्टॉकहॉम में हुई थी। Ebba स्कूल से आ रही थी और एक वैन ने Ebba को कुचल दिया। वैन चलाने वाला एक मुस्लिम शरणार्थी था। उस समय कल की घटना का आरोपित ब्रेनटेन यूरोप भ्रमण पर था और इस घटना ने उसके मन मष्तिष्क पर गहरा आघात पहुँचाया था। ब्रेनटेन ने अपने घोषणापत्र में लिखा है कि इस्लाम को अन्य धर्म पसन्द नहीं हैं और इस्लाम को जो शरण देता है, इस्लाम उसे भी अपना शिकार बनाने से नहीं चुकता है। इस प्रकार यह क्रिया पर प्रतिक्रिया का उदाहरण है। लेकिन मानवता को ताक पर इस तरह के घृणित कदम सिर्फ कोई पीड़ित मानसिकता का ही व्यक्ति कर सकता है और इस मानसिकता का कोई धर्म नहीं होता है।
साधन की पवित्रता
महात्मा गाँधी हमेशा साधन की पवित्रता पर बल देते थे। हिंसा और आतंकवाद किसी भी तरह से साधन और समाधान नहीं माने जा सकते हैं। इसी तरह से अपनी मानसिकता को ऊँचा साबित करने के लिए अन्य किसी मानसिकता को नीचा बताने का निरंतर प्रयास भी एक पवित्र साधन नहीं हो सकता है। अब आतंकवादियों के आतंकवाद की तुलना भारतीय मीडिया गिरोह के पत्रकारों से कर के देखिए। ये भी सिर्फ दूसरी मानसिकता और विचारधारा से ही संघर्षरत नजर आते हैं, जिस कारण इसे ‘पत्रकारिता का आतंकवाद’ कहा जाना चाहिए। इसी संघर्ष में हमारे देश का यह मीडिया गिरोह हर मुद्दे की प्रासंगिकता को नष्ट कर देता है, उसकी गंभीरता को हास्य का विषय बना देता है।
हमें अपनी वर्तमान स्थिति से बहुत ऊपर उठने की जरूरत है। आतंकवाद को समाधान समझना सिर्फ पीड़ित मानसिकता का स्वर है। इसे ‘पंथ’ और ‘वाद’ में बाँटकर हम इससे ‘इम्यून’ नहीं हो सकते। इस तरह की घटनाओं का शिकार कोई भी व्यक्ति हो सकता है, इसलिए मृतकों के शवों पर अपनी घृणित विचारधारा की दुकान चलाना और दूसरे को नीचा दिखाना ना ही सागरिका घोष को शोभा देता है और ना ही सोशल मीडिया यूज़र्स को! यह समझना जरुरी है कि आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष सामूहिक संघर्ष होना चाहिए। हम सबका प्रयास आतंकवाद का धर्म और पंथ तलाशना नहीं बल्कि ‘लेफ्ट-राइट-मुस्लिम-ईसाई’ छोड़कर आतंकवाद को जड़ से मिटाना होना चाहिए।