पिछले दिनों दो खबरें सामने आईं थीं जिसमें गठबंधन या उनके नेताओं ने भारतीय मतदाताओं का मजाक उड़ाया था। पहली ख़बर चंद्रबाबू नायडू प्रायोजित महागठबंधन के धरने की थी, जिसपर सरकारी ख़ज़ाने से ₹11.2 करोड़ ख़र्च हुए, और वहाँ एक पोस्टर पर लिखा था कि ‘जिसके हाथों में चाय के जूठे कप पकड़ाने थे, उसके हाथों में देश पकड़ा दिया। दूसरी ख़बर कल की है जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री यह कहते पाए गए कि बारहवीं पास व्यक्ति को पिछली बार आपने प्रधानमंत्री बना दिया, इस बार किसी शिक्षित को चुनिए क्योंकि बारहवीं पास वाले को पता भी नहीं होता कि वो अपने हस्ताक्षर कहाँ कर रहा है।
ज़ाहिर है कि मर्यादा, गरिमा और बोलचाल की शालीनता से लेकर फ़ैक्ट चेक का टॉर्च लेकर घूमने वाले, आम आदमी पार्टी एवम् महागठबंधन के समर्थक इस बात से अत्यधिक प्रसन्न होंगे कि लोकतंत्र में एक बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्री को, जिसके प्रधानमंत्री बनने की बात (उम्मीदवारी) चुनाव से पहले ही बता दी गई थी, चाय के जूठे कप से लेकर पकड़ने वाला से लेकर अशिक्षित तक कहा जा रहा है।
पहले तो शिक्षित और अशिक्षित की बात कर लेते हैं कि केजरीवाल जी कहाँ ग़लत हैं। केजरीवाल जी के हिसाब से जो बारहवीं पास करके कॉलेज पास कर लेता है, वही शिक्षित है। उनके बयान से तो यही निकल कर आ रहा है, भले ही उनके समर्थक अब कुछ और बोलें। डिग्री चेक करवा ली, निकला कुछ भी नहीं। लेकिन राग वही छेड़ेंगे क्योंकि केजरीवाल जी जो कह देंगे वही परम सत्य है।
इस स्टेटमेंट में कई स्तर पर ग़लतियाँ हैं। शिक्षित होने का स्कूल या कॉलेज जाने से कोई मतलब नहीं होता। शिक्षित होने, साक्षर होने और डिग्री पाने में बहुत अंतर है। जैसे कि अरविन्द केजरीवाल के बयानों को सुनकर, उनके ट्वीट पढ़कर उनके साक्षर होने का प्रमाण तो मिलता है, लेकिन उनके शिक्षित होने पर बहुत लोगों को संदेह होता है।
फिर भी, लोकतंत्र है, और उसमें संवैधानिक तौर पर किसी निरक्षर, अशिक्षित या डिग्रीधारी लम्पट के भी चुनाव लड़ने पर पाबंदी नहीं है, इसलिए अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री होने पर मैंने कभी सवाल नहीं उठाया कि दिल्ली वालों ने किस मूढ़मति को मुख्यमंत्री चुन लिया। मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वो दिल्ली के लाखों लोगों का अपमान होगा जिन्होंने केजरीवाल को अपना वोट और समय दिया।
बावजूद इसके कि केजरीवाल ने कई बार बेहूदे बयान दिए हैं, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को बायपास कर अपने मन की बात करने की कोशिश की है, इनके कई विधायक औरतों से छेड़छाड़, बुज़ुर्गों से मारपीट से लेकर लाभ के पद जैसे मामलों में फँसे हुए हैं, दिल्ली की जनता को किसी ने यह नहीं कहा कि मैनेजमेंट कोटा से आईआईटी के थिएटर सोसायटी में पहुँचे व्यक्ति को सत्ता मत देना। जनता जाने कि उसे ऑक्सफ़ोर्ड या हार्वर्ड के सर्टिफ़िकेट वाले नेता चाहिए या तेजस्वी यादव जैसे नवीं पास!
केजरीवाल का तो इतिहास ऐसा रहा है कि बच्चों की क़सम खाने से लेकर जिस ममता, राहुल, शरद पवार, लालू को समय-समय पर भ्रष्टाचार का तमग़ा बाँटते फिरते थे, आज उन्हीं के साथ खड़े होकर भ्रष्टाचार से लड़ने की बातें कर रहे हैं। जनता को यह दिखता हो, तो भी वो केजरीवाल को वोट करे, फिर भी मुझे जनता की समझ पर सवाल करने का कोई हक़ नहीं क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ऐसा करना गलत नहीं।
दूसरी ख़बर ‘चाय के जूठे कप’ वाली है। आप एक बार रुक कर सोचिए कि इस पर क्या प्रतिक्रिया दी जाए। महागठबंधन की राजनीति का स्तर यह है, और शायद यही है। ये दुर्भाग्य है देश का कि सारी विपक्षी पार्टियाँ मिलकर भी सरकार को मुद्दों पर घेरने में असफल रही है। यही कारण है कि बात इस पर अटक जा रही है कि जिसके हाथ में चाय का जूठा कप देना था, उसे सत्ता दे दी!
फ़र्ज़ी के एकेडमिक डिबेट करने लगूँ तो इन लोगों को इतनी बार इस बात पर लानतें भेजी जा सकती है कि कम पड़ जाए, लेकिन सामान्य स्तर पर ही देखते हैं कि ये सोच कहाँ से आती है। ऐसे ही पकौड़ा तलने वाली बात को ऐसे घुमाया गया था मानो यह कहा गया हो कि पकौड़ा तलना ही रोजगार है। आखिर चाय और पकौड़ों से इतनी चिढ़ क्यों है?
क्या इस संवैधानिक ढाँचे में चाय के जूठे कप धोनेवाले को चुनाव लड़ने पर मनाही है? क्या इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा तीसरी क्लास में असफल रह चुकी महिला नहीं बन सकती? क्या क़ानून या संविधान ऐसा करने से किसी को रोकता है? अगर शिक्षित होना एक शर्त होती तो आख़िर केजरीवाल मुख्यमंत्री का पर्चा कैसे भर लेते हैं? उनसे अशिक्षित और असभ्य व्यक्ति तो भारतीय राजनीति के इतिहास में कहीं नहीं दिखता जो अपने बच्चों की क़सम खाता है, ताकि अपनी छवि को भुना सके!
आख़िर क्या कारण है कि सारे लोग एक साथ आ रहे हैं और फिर भी एक क़ायदे का मुद्दा नहीं मिल रहा। कमाल की बात तो यह है कि स्टूडियो से भी पार्टियों को समुचित समर्थन मिल रहा है, कई लोग अख़बारों और चैनलों के ज़रिए ऑफ़िसों से ही रैलियाँ कर रहे हैं, फिर भी जो मुद्दा उठाते हैं, वो टिक नहीं पाता।
सुप्रीम कोर्ट से ठुकराए जाने पर कोर्ट को नकार देते हैं। कैग की रिपोर्ट माँगते रहे, जब आई तो उसको नकार दिया। डिबेट की बात की और लोकसभा में चर्चा हुई तो उस वक्त पेपर के जहाज उड़ाने लगे। नौकरियों पर घेरा तो पीएम ने उस पर भी समुचित जवाब दे दिया। राफेल पर हर संस्था ने बता दिया की डील सस्ती है। गंगा साफ दिखने लगी, सड़क-फ्लायओवर-वाटर वे बन रहे हैं।
कॉलेज और उच्च शिक्षा संस्थान जितनी तेज़ी से इस सरकार ने बनाए, उतनी तेज़ी तो पिछली सरकारों ने नहीं ही दिखाई थी। किसानों के लिए लगातार काम हो रहे हैं। वित्तीय समावेशन हेतु कार्य हो रहे हैं। स्वच्छता अभियान से लेकर उज्ज्वला तक ग्रामीण लोगों की जीवनशैली में बदलाव आ रहा है। बिजली हर घर में लगभग पहुँच चुकी है। मज़दूरों के लिए निश्चित मज़दूरी और बीमा की व्यवस्था हो रही है। ग़रीबों और वंचितों को आरक्षण के दायरे में लाकर सही मायनों में आरक्षण का लाभ पहुँचाने की कोशिश शुरू की जा रही है।
देश में करोड़ों लोगों के सर पर छत आई है, पीने का पानी उपलब्ध कराया जा रहा है, बिजली पहुँच रही है, घर में एक बैंक खाता है, डायरेक्ट सब्सिडी उन तक पहुँच रही है, उनका इलाज मुफ़्त में बड़े अस्पतालों में हो रहा है, लोग अपना काम शुरू करते हुए लाखों नए जॉब का सृजन कर रहे हैं, व्यापारियों को टैक्स देने में आसानी हो रही है, करोड़ों लोग इनकम टैक्स के दायरे से बाहर हुए हैं, कई करोड़ नए टैक्सदाता जुड़े हैं, भारत विश्व की पाँचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बना, विकास दर लगातार स्थिर और बेहतर है, लेकिन विपक्ष का मुद्दा है कि मोदी कितना पढ़ा-लिखा है!
अगर साढ़े चार सालों में कोई सरकार इतना काम कर सकती है तो सही में मेरा सवाल यह है कि बाक़ियों ने इतने सालों में क्या किया? उनका ध्यान कहाँ था? और अगर इसे आप किसी भी तरह से टेक्नॉलॉजी आदि से जोड़कर देखते हैं, तो फिर इस सवाल का जवाब क्या है कि विपक्ष को ये सारी बातें दिखती ही नहीं? उन्हें ‘मोदी के पास कितने कपड़े हैं‘, और ‘उसके चश्मे का फ़्रेम कितने रुपए का है’ से लेकर उसकी डिग्री और उसकी पत्नी और माँ तक जाकर ख़त्म हो जाती है।
ऐसा कब हुआ है कि विपक्ष ने कोई सवाल पूछा हो, चाहे वो कितना भी बेकार क्यों न हो, और सरकार ने उसका जवाब न दिया हो? मुझे ऐसा कोई सवाल याद नहीं आता। ये बात और है कि उन्हें और पत्रकारों के गिरोह को वो जवाब नहीं मिलते जो वो सुनना चाहते हैं, तो वो कुछ और करने लगते हैं।
अमित शाह के बेटे को लेकर जो मामला बना था, और प्राइम टाइम हुए थे, उसका क्या हुआ? अजित डोभाल के बेटे पर जो काले धन और मनी लॉन्ड्रिंग की सनसनी फैलाई जा रही थी उस पर क्या हुआ? नितिन गडकरी पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे उसका फॉलोअप कहाँ तक पहुँचा? केजरीवाल ने जो दावे किए थे, उस पर कोर्ट के बाहर सेटलमेंट क्यों करना पड़ता है हर बार?
चर्चा का स्तर गिरता जा रहा है, और हर नए दिन आपको विपक्ष के डेस्पेरेशन का नया उदाहरण मिल ही जाएगा। मुद्दे हैं ही नहीं कि विपक्ष कोशिश करे मोदी को घेरने की। ग़रीब के घर में शौचालय लगाने से लेकर भारतीय वैज्ञानिकों को गगनयान में बिठाने तक, मोदी सरकार हर विभाग में बेहतर प्रदर्शन करती दिखती है।
सरकारी आँकड़ों में साफ दिखता है कि नीयत सही हो तो साढ़े चार साल में सारे काम बेहतर तरीके, और तेज़ी से, पैसे बचाते हुए, किए जा सकते हैं। भले ही केजरीवाल को कॉलेज पास लोग ही शिक्षित लगते हों, लेकिन देश की जनता जानती है कि मोदी के हाथ में जो क़लम है, उससे किन जगहों पर सिग्नेचर करना है, और किन बातों को सिस्टम से हटाना है। इसलिए, देश की जनता को मोदी के सर्टिफ़िकेट से ज़्यादा केजरीवाल के पिछले चार साल के ट्वीट्स ही देखने हैं, उन्हें फ़ैसला करने में आसानी हो जाएगी।