मीडिया का प्रोपेगेंडा कैसे काम करता है, इसको TheTelegraph के झूठ से समझिए। TheTelegraph का झूठ विचार को लेकर नहीं बल्कि पत्रकारिता के साथ है, खबरों के साथ है। भ्रामक हेडलाइन, गुमराह करने वाली तस्वीरें और बेहद अतार्किक आँकड़े, दक्षिणपंथी सत्ता-विरोधी मीडिया गुटों का यह प्रमुख हथियार हमेशा से ही रहा है। लेकिन यह चिंता का विषय तब बन जाता है, जब द टेलीग्राफ़ (The Telegraph) जैसे प्रोपेगेंडा-प्रमुख, कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के बीच भी ऐसे कुत्सित प्रयास करने से बाज नहीं आते।
द टेलीग्राफ़ ने उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति द्वारा दलित से खाना ना लेने की घटना को बेहद भ्रामक तरह से पेश करने का नया कारनामा किया है। इसमें उसने आरएसएस की छवि खराब करने का एक और असफल प्रयास किया है। लेकिन, अब कम से कम यह तो स्पष्ट है कि दलितों की तुलना कोरोना वायरस से करने वाले द टेलीग्राफ के लिए अस्पृश्यता और छुआ-छूत समाजिक चिंतन से कहीं अधिक उसके अपने निजी प्रोपेगेंडा का हिस्सा है और इससे अधिक कुछ नहीं।
अस्पृश्यता, क्वारंटाइन में भी – TheTelegraph के झूठ का फैक्ट चेक
द टेलीग्राफ़ ने उत्तर प्रदेश की एक घटना में 3 तरह की कलाकारी कर के पेश की है, जो निम्नवत हैं –
शीर्षक – खबर का शीर्षक है: “क्वारंटाइन में भी अस्पृश्यता” (Untouchability, even in quarantine)
फीचर फोटो – इस खबर के साथ बेहद अप्रासंगिक तस्वीर लगाई गई है, जिसमें कि आरएसएस की ड्रेस पहने कुछ लोग खाना खिला रहे हैं।
आरोपित का नाम – इस घटना में दलित से खाना ना लेने वाले का नाम सिराज अहमद है, जो कि ना ही खाना परोसने वाला आरएसएस कार्यकर्ताओं में से एक है, ना ही पीड़ित दलित! सिराज वह आदमी है, जिसने दलित प्रधान के हाथों से खाना लेने से इनकार कर दिया था।
दलित महिला प्रधान के हाथ बना भोजन नहीं करने पर सिराज अहमद पर केस दर्ज
वास्तव में, यह घटना गत 10 अप्रैल को घटी है। घटना उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले की है, जहाँ ग्राम प्रधान लीलावती देवी ने भुजौली खुर्द गाँव के स्कूल में बने क्वारंटाइन सेंटर में रसोईया ना होने की वजह से खुद ही क्वारंटाइन में रखे गए पाँच लोगों के लिए खाना बनाया था।
इन पाँच लोगों में से 2 मुस्लिम थे। इनमें से एक सिराज अहमद नाम के व्यक्ति ने दलित के हाथ बना खाना खाने पर बिरादरी से बहिष्कृत हो जाने की बात कहकर भोजन करने से इंकार कर दिया था।
इस घटना के बाद ग्राम प्रधान ने उप जिलाधिकारी देश दीपक सिंह और खंड विकास अधिकारी रमाकांत यादव को इस बारे में सूचना दी और पुलिस से लिखित शिकायत की। उन्होंने बताया कि इस मामले में सिराज अहमद के खिलाफ दलित अत्याचार विरोधी अधिनियम के तहत केस दर्ज किया गया है।
TheTelegraph का झूठ व्यापक स्तर तक
बंगाल से छपने वाले इस दैनिक अंग्रेजी ‘द टेलीग्राफ’ ने इस एक खबर के जरिए कई निशाने साधने की कोशिश की है। सबसे पहला मकसद तो यह कि लोगों का ध्यान खींचने में सफलता। क्योंकि भारत में ‘कॉन्ग्रेस काल’ से वैचारिकता दासता का प्रतीक यह तथाकथित समाचार पत्र निरंतर ही ऐसी हरकतें करता आया है, जिस कारण यह चर्चा का विषय बना रहा।
हाल ही में यही वामपंथी अखबार देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पर अपमानजनक और जातिसूचक व्यंग्य करते हुए उन्हें वायरस तक कह चुका है। अब द टेलीग्राफ़ के दोगले स्तर की पहचान यहीं पर की जा सकती है, कि महज कुछ दिन पहले ही समाज के वंचित समुदाय के किसी व्यक्ति को उसकी निजी गरिमा और पद को नजरअंदाज करते हुए उन्हें ‘वायरस’ तक कह देता है और कुछ ही दिन में अस्पृश्यता जैसे गंभीर विषय पर ज्ञान देते हुए एक हेडलाइन में बेचता नजर आता है।
द टेलीग्राफ के लिए अपनी विषैली मानसिकता के प्रसार के लिए तथ्यों से लेकर नैरेटिव को लेकर झूठ और भ्रम परोसना कोई नई बात नहीं है, वह सावरकर से लेकर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पर अपमानजनक व्यंग्य करता हुआ पाया गया है।
एक सबसे बड़ा ध्येय जो टेलीग्राफ का इस खबर के पीछे रहा, वह ये कि आरएसएस की छवि को धूमिल करने का प्रयास! इस रिपोर्ट में द टेलीग्राफ ने सभी बातों से ऊपर फीचर इमेज के लिए चुनी गई तस्वीर को रखा है, जिसमें आरएसएस के लोगों को खाना परोसते हुए दिखाया गया है, ताकि पहली दृष्टि में भ्रामक शीर्षक के साथ यही सन्देश जाए कि सिराज अहमद ने नहीं बल्कि खाना परोसने में आरएसएस लोगों को साथ जातिगत भेदभाव कर रहा है।
वास्तविकता तो यह है कि आरएसएस के कार्यकर्ता देशभर में क्वारंटाइन में भी वंचित, बेसहारा और भूखे लोगों को राशन उपलब्ध कराने से लेकर लोगों को हर प्रकार की मदद उपलब्ध करवा रहा है। लेकिन द टेलीग्राफ यहाँ पर बस यही साबित करता नजर आता है कि वह एक ‘घृणोपजीवी’ है और वह कभी भी विरोधी विचारधारा के कार्यों से संतुष्ट नहीं रहेगा। क्योंकि यदि वह ऐसा समझौता करता है, तो उसका अस्तित्व ही कुछ शेष नहीं रह जाता।