Tuesday, March 19, 2024
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‘द वायर’ हो या ‘स्क्रॉल’, बंगाल में TMC की हिंसा पर ममता की निंदा की जगह इसे जायज ठहराने में व्यस्त है लिबरल मीडिया

उम्मीद की जाती है कि एक 'विश्लेषक' निष्पक्ष होगा लेकिन NDTV पर ऐसा नहीं होता। असली बात तो ये है कि न मुख्यधारा की मीडिया और न ही इन बुद्धिजीवियों को पश्चिम बंगाल की कोई चिंता है। ये बुद्धिजीवी और मुख्यधारा के मीडिया संस्थान इस मामले में मिलजुल कर तय करते हैं कि कौन सी हिंसा 'सही' है और कौन गलत।

पश्चिम बंगाल में रविवार (मई 2, 2021) को मतगणना के बाद चुनाव परिणामों में TMC की जीत क्या हुई, उसके गुंडों ने राज्य भर के कई इलाकों में भाजपा के दफ्तरों को जलाने से लेकर कार्यकर्ताओं की हत्या और उनके घरों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। इस बीच लिबरल मीडिया क्या कर रहा है? उसका पूरा जोर इन घटनाओं को छिपाने, इन्हें सही ठहराने या फिर इनके महिमामंडन पर ही है।

आइए, देखते हैं कि लिबरल गिरोह के कुख्यात मीडिया संस्थान ‘स्क्रॉल’ और ‘द वायर’ ने बंगाल हिंसा पर क्या लिखा। दोनों ने जो लेख लिखे, वो एक तरह से एक ही लाइन पर थे और उनका उद्देश्य था कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल के गुंडों द्वारा की जा रही हिंसा को ‘महज पार्टी पॉलिटिक्स’ बता कर ख़ारिज करना। ऐसा दिखाना जैसे ये सामान्य घटनाक्रम हो। ‘स्क्रॉल’ ने लिखा, “क्यों बंगाल में नतीजों के बाद हो रही हिंसा को भाजपा द्वारा सांप्रदायिक बताना गलत है।”

‘द वायर’ ने अनुमान लगा लिया कि ये एकतरफा नहीं है

ये हेडलाइन ही ‘द वायर’ के नैरेटिव की पोल खोल देता है। ये दिखाना चाह रहा है कि हिंसा अगर सांप्रदायिक है तो वो बहुत बुरी है और बाकी तो जैसे ठीक है। ये नैरेटिव न सिर्फ दोहरी रणनीति से भरा है, बल्कि देश के तथाकथित अभिजात्य वर्ग की मानसिकता को दिखाता है। इसने बंगाल में हो रही हिंसा की न तो निंदा की है और न ही उसे गलत बताया है। इसका सारा जोर भाजपा द्वारा इसे सांप्रदायिक बताए जाने के आरोपों पर है।

इस लेख में लिखा है, “फलाँ-फलाँ कारण हैं जो बताता है कि भाजपा का इन दंगों को सांप्रदायिक बताना गलत है। सभी समुदायों के लोगों पर हमले हुए हैं – हिन्दू या मुस्लिम। ये भाजपा के दावों के विपरीत है। एक ही पैटर्न है इस हिंसा का और वो है राजनीतिक।” इस लेख में इसने ये तक माना है कि हिंसा के पीछे तृणमूल कॉन्ग्रेस ही है। लेकिन, इसका जोर इस पर न होकर इस हिंसा के ‘सांप्रदायिक न होने’ के दावे को साबित करने पर है।

‘द वायर’ आखिर क्या सन्देश देना चाहता है? यही कि हमें बंगाल में हो रही हिंसा को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए और न ही इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए, क्योंकि ये सांप्रदायिक नहीं है इनके हिसाब से? क्या जिन भाजपा, कॉन्ग्रेस और CPI(M) कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है, उनके परिजनों को ये सोच कर अच्छा महसूस करना चाहिए कि ये हिंसा ‘सांप्रदायिक’ नहीं थी। इसका नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं है।

न सिर्फ नैतिक रूप से, बल्कि कानूनन भी ये गलत है। ये मुख्यधारा की मीडिया के जरिए एक ऐसी दुनिया और एक ऐसा माहौल बनाने पर उतारू हैं, जहाँ ये तय करेंगे कि कौन सी हिंसा जायज है और कौन सी बुरी। अमेरिका में एंटीफा भी इसी तरह काम करता है, जो हिंसा के सहारे ‘बदला’ लेता है और अपने खूनी लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश करता है। कुछ ही महीनों पहले एक एंटीफा के आरोपित को यूएस के पुलिस स्टेशन को जलाने के आरोप में 4 साल की जेल हुई

एंटीफा भी एक कट्टर वामपंथी संगठन ही तो है। उन्हें लगता है कि हिंसा और तबाही से ही लक्ष्य मिलेगा। इसी तरह ‘स्क्रॉल’ का लेख भी हास्यास्पद तरीके से बंगालियों का उनकी पसंदीदा पार्टियों के प्रति प्रतिबद्धता होती है लेकिन जाति या धर्म को लेकर नहीं। किसी प्राकृतिक कानून, धार्मिक सिद्धांत या नैतिकता के हवाले से ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उस हिंसा में मरने वालों को न्याय नहीं मिलना चाहिए, जो ‘सांप्रदायिक’ न हो।

इस लेख में कहा गया है कि बंगाल में 1977 के आसपास इस तरह की पार्टी पॉलिटिक्स और राजनीतिक पहचान का खेल शुरू हुआ और उनके जीवन में धर्म और जाति के नाम पर पहचान का मुद्दा पीछे हट गया। ‘द वायर’ के लेख में ममता बनर्जी की इस हिंसा के लिए ज़रूर नाममात्र की आलोचना की गई है लेकिन साथ सी उन्हें न सिर्फ ‘मजबूत फाइटर’, बल्कि ‘घृणा को हराने वाली’ भी बताया गया है।

ये सब तब किया जा रहा है, जब TMC के गुंडे न सिर्फ भाजपा और कॉन्ग्रेस, बल्कि CPI(M) के कार्यकर्ताओं को भी निशाना बना रहे हैं। इस हिंसा को जायज ठहराने की लिबरल मीडिया के प्रयासों का यहीं अंत नहीं होता है, बल्कि NDTV पर ‘राजनीतिक विश्लेषक’ के रूप में प्रोफेसर अनन्या चक्रवर्ती ने यहाँ तक दावा कर डाला कि बंगाल में इससे पहले राजनीतिक हिंसा हुई ही नहीं है। इस बात को TMC ही नकार देगी, जो खुद कभी लेफ्ट की हिंसा की शिकार रही है।

वैसे उम्मीद की जाती है कि एक ‘विश्लेषक’ निष्पक्ष होगा लेकिन NDTV पर ऐसा नहीं होता। असली बात तो ये है कि न मुख्यधारा की मीडिया और न ही इन बुद्धिजीवियों को पश्चिम बंगाल की कोई चिंता है। ये बुद्धिजीवी और मुख्यधारा के मीडिया संस्थान इस मामले में मिलजुल कर तय करते हैं कि कौन सी हिंसा ‘सही’ है और कौन गलत। इनके लिए एक दलित व्यक्ति पर मुस्लिम भीड़ के हमले की कोई कीमत नहीं लेकिन कोई सवर्ण किसी दलित पर हमला करे तो ये बड़ा मुद्दा है।

ये सब उस मीडिया में हो रहा है, जहाँ पश्चिम बंगाल से हमेशा से अच्छा प्रतिनिधित्व रहा है। ज्योति बासु की कम्युनिस्ट सरकार ने किस तरह से दलितों का नरसंहार करवाया था, उसे भुला दिया गया है। ये लोग मरीचझांपी नरसंहार को याद नहीं करते, क्योंकि ये ‘सेक्युलर वामपंथी’ सरकार ने करवाया था, ‘हिंदुत्व की ताकतों’ ने नहीं। लेकिन नहीं, ये ‘जायज’ है क्योंकि ये कम्युनल थोड़े था, कम्युनिस्ट था न। ‘स्क्रॉल’ और ‘द वायर’ को नए लेख लिख कर इसे स्पष्ट करना चाहिए।

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