Tuesday, March 19, 2024
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रूठे कॉन्ग्रेसियों के लिए मौसम अच्छा… पर सचिन पायलट न सिद्धू हैं और न राजस्थान की आबोहवा पंजाब जैसी

पंजाब कॉन्ग्रेस में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री के तौर पर चुनौती देनेवाला कोई नेता नहीं था। नवजोत सिंह सिद्धू जो लड़ाई लड़ रहे थे वह उनके अपने कद और वर्चस्व की लड़ाई अधिक थी। इसकी तुलना में राजस्थान इकाई में सचिन पायलट को पिछले विधानसभा चुनावों के समय से ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता रहा है।

लगता है रूठने वाले कॉन्ग्रेसियों के दिन फिरने का मौसम चल रहा है। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू में अपना भविष्य स्थापित करने के बाद कॉन्ग्रेस हाईकमान की नज़र अब राजस्थान पर है। दल के वरिष्ठ नेता केसी वेणुगोपाल और अजय माकन ने शनिवार (24 जुलाई 2021) को जयपुर का दौरा किया। प्रदेश के विधायकों, मंत्रियों और अन्य नेताओं के साथ बैठक की। इन बैठकों के बाद प्रदेश में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूतपूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के कैम्पों के बीच लगभग एक वर्ष से चल रही राजनीतिक लड़ाई के समाधान की आशा जगी है। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के विवाद को फिलहाल मिले विराम के पश्चात दल, उसके नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच यह आशा अवश्य जगी होगी कि राजस्थान में चल रहे राजनीतिक विवाद का भी कोई समाधान निकलने वाला है।

वैसे तो अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी की ओर से जयपुर पहुँचे अजय माकन ने राज्य में अलग-अलग गुट और नेताओं के साथ अपनी बैठकों के बाद यह बयान दिया कि प्रदेश इकाई में नेताओं के बीच किसी तरह का विवाद नहीं है। पर उनका यह बयान औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं लगता। उनके बयान से प्रश्न यह उठता है कि यदि विवाद नहीं है तो फिर उनके और प्रदेश के कॉन्ग्रेसी नेताओं के बीच एक साथ इतनी बैठकों का कारण क्या है? यदि कोई विवाद नहीं है तो फिर पायलट कैंप पिछले एक वर्ष से बीच-बीच में सक्रिय क्यों हो जाता है? क्यों इस सक्रियता की वजह से प्रदेश कॉन्ग्रेस में राजनीतिक भूचाल आ जाता है? यदि विवाद नहीं हैं तो फिर राजनीतिक विश्लेषक सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच किसी तरह की समानता क्यों खोजने लगते हैं? या फिर सचिन पायलट को उप मुख्यमंत्री पद से क्यों हटाया गया? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर औपचारिक बयानों में नहीं मिलेंगे।

पंजाब में कॉन्ग्रेस पार्टी का जो अंदरूनी विवाद था वह फिलहाल दब गया है और भविष्य में प्रदेश में पार्टी की राजनीति चाहे जिस ओर रुख करे, इस समय तो यही लगता है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हालात से समझौता कर लिया है। पार्टी हाईकमान द्वारा पंजाब इकाई में राजनीतिक विवाद के समाधान खोजने के कारण ही राजस्थान में लंबे समय से चल रहे विवाद के समाधान की आशाएँ जगी हैं। पर यहाँ जो बात गौर करने वाली है वो यह है कि राजस्थान और पंजाब इकाइयों में बागी नेताओं में असंतोष और उससे उपजे राजनीतिक विवाद में अंतर है।

पंजाब कॉन्ग्रेस में कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री के तौर पर चुनौती देनेवाला कोई नेता नहीं था। नवजोत सिंह सिद्धू जो लड़ाई लड़ रहे थे वह उनके अपने कद और वर्चस्व की लड़ाई अधिक थी। इसकी तुलना में राजस्थान इकाई में सचिन पायलट को पिछले विधानसभा चुनावों के समय से ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार माना जाता रहा है। ऐसी सोच के पीछे पहला कारण यह है कि सचिन पायलट में पार्टी कार्यकर्ता और समर्थक भविष्य का नेता देखते रहे हैं। दूसरा कारण यह कि पिछले विधानसभा चुनावों के पहले से ही प्रदेश की राजनीति में सचिन पायलट की सक्रियता काफी बढ़ गई थी और कुछ पार्टी नेताओं, समर्थकों और राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना था कि प्रदेश में पार्टी की जीत का श्रेय पायलट को अधिक जाता है।

ऐसे में सचिन पायलट की पार्टी में स्थिति काफी हद तक वैसी ही है जैसी मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया की थी। कम से कम इस मामले में पायलट और सिद्धू में कोई समानता नहीं है। इन दोनों नेताओं के बीच समानता केवल असंतोष तक ही है। ऐसे में सबका ध्यान इस बात पर रहेगा कि पार्टी हाईकमान राजस्थान इकाई में उपजे राजनीतिक विवाद के लिए किस तरह का समाधान लेकर आता है।

पंजाब में जो कुछ हुआ उसे देखते हुए अशोक गहलोत चौकन्ने अवश्य हुए होंगे। उन्हें शायद इस बात की चिंता होगी कि दल का केंद्रीय नेतृत्व पंजाब में मिले समाधान से उत्साहित होगा और हो सकता है कोई ऐसा कदम उठाए जिससे कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह ही उनका कद भी छोटा प्रतीत हो। यह ऐसी बात है जो गहलोत को चिंतित अवश्य करेगी। एक और बात इस समय गहलोत के पक्ष में जाती नहीं दिख रही और वो यह है कि पिछले कई महीनों में प्रदेश में प्रशासन की स्थिति कमज़ोर हुई है।

प्रशासनिक अव्यवस्था के कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिसकी वजह से केवल मुख्यमंत्री गहलोत की ही नहीं, बल्कि दल के केंद्रीय नेतृत्व की भी आलोचना हुई है। भ्रष्टाचार, हत्या और बलात्कार की ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं जिनकी वजह से प्रदेश नेतृत्व इस समय कठघरे में खड़ा है। कोरोना महामारी को लेकर राज्य में फैली अवयवस्था ने गहलोत सरकार की विश्वसनीयता घटाई है। टीकाकरण के दौरान टीकों की बर्बादी हो या फिर स्वास्थ्य मंत्री के गलत कारणों से समाचार में बने रहने की कला, राज्य सरकार की किरकिरी लगातार हुई है। उधर दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार की खबरें समाचार पत्रों का स्थायी फीचर हैं।

यह ऐसा समय है जब सचिन पायलट सरकार में नहीं हैं। ऐसे में सरकार को मिल रही बदनामी किसी भी तरह से उनके हिस्से आने से रही। ये ऐसी बातें हैं जो पायलट और उनके कैंप को लंबे चले राजनीतिक विवाद में एक तरह की बढ़त सी देती है। ऐसे में फिलहाल अशोक गहलोत के लिए खतरे की घंटी बज रही होगी पर जो बात उनके पक्ष में जाती है वह ये है कि फिलहाल राज्य में पंजाब की तरह विधानसभा चुनाव अगले वर्ष नहीं हैं। ऐसे में गहलोत के लिए राजनीतिक दांव-पेंच के लिए काफी जमीन है।

यही कारण है कि राज्य में किसी बड़े उलट-फेर की संभावना कम दिखाई दे रही है और फिलहाल वर्तमान मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कोई बड़ा खतरा दिखाई नहीं दे रहा। अधिकतर संभावना यही है कि चूँकि प्रदेश में मंत्रियों की संख्या बढ़ाई जा सकती है इसलिए पायलट कैंप के कुछ विधायकों को मंत्री पद देकर फिलहाल पायलट को शांत करने की कोशिश की जाएगी। हाँ, यह समाधान कितना स्थायी होगा या गहलोत क्या कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह ही कोई भी समाधान स्वीकार कर लेंगे, यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर समय के साथ ही मिलेगा। पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि पार्टी के अंदरूनी विवादों का स्थायी समाधान फिलहाल संभव नहीं दिखाई देता।

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