Sunday, October 13, 2024
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कॉन्ग्रेस के लिए प्रचार करता था भिंडरांवाले, कैंपों में फारूक अब्दुल्ला ने लगाए थे खालिस्तानी नारे: जगजीत चौहान से लेकर ‘ब्लू स्टार’ तक की कहानी

अप्रैल 1982 में पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह ने गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को पत्र लिखकर एक महत्वपूर्ण सूचना दी, “दो सौ आदमियों के साथ भिंडरांवाले आनलाईसेंस्ड हथियार लेकर दिल्ली आ रहा है।” पूर्व सूचना मिलने के बाद भी केंद्र सरकार ने उसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए।

90 के दशक के शुरुआती सालों में खालिस्तानी चरमपंथियों ने अपनी करेंसी, पोस्टल स्टैम्प इत्यादि जारी करने शुरू कर दिए थे। उन्होंने ‘रिजर्व बैंक ऑफ खालिस्तान’ भी खोल लिया था, जिसका एक गवर्नर भी नियुक्त कर दिया। यही नहीं, कनाडा में एक दूतावास भी बना लिया, जिसका पता ‘Republic of Khalistan, Office of the Consul-General, Johnston Building, Suit 1-45 Kingsway, Vancouver, B.C. Canada V5T3H7, Phone No. 872-321’ था। इसी दौरान, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने 7 फरवरी, 1982 को खुलासा किया कि खालिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ से मान्यता मिल सकती है।

तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार को इन सभी घटनाक्रमों की पूरी जानकारी थी और इन भारत विरोधी घटनाक्रमों के लिए उन्हें विपक्षी दलों के समक्ष लगातार जवाबदेही भी देनी पड़ रही थी। तभी, अप्रैल 1982 में ‘खालिस्तान नेशनल आर्गेनाईजेशन’ ने प्रेस रिलीज के माध्यम से लंदन स्थित इंडिया हाउस के सामने एक और दूतावास खोलने की घोषणा कर दी।

वास्तव में, यह खालिस्तानी आंदोलन 1980 से पहले एकदम निष्क्रिय हो चुका था, लेकिन इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी के बाद अचानक इस चरमपंथी आंदोलन को न सिर्फ भारत बल्कि विदेशों में भी समर्थक मिलने लगे थे। इसके पीछे जगजीत सिंह चौहान नाम के एक व्यक्ति का हाथ था। वह 1967 से 1969 के बीच पंजाब विधानसभा का उपसभापति और पंजाब का वित्त मंत्री रह चुका था। तब पंजाब में पंजाब जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस के गठजोड़ से लक्ष्मण सिंह गिल मुख्यमंत्री थे।

चौहान के मन में खालिस्तान को लेकर अपनी ही एक अलग दुनिया थी, जिसके लिए उसे पैसे और समर्थन दोनों चाहिए था। भारत में ऐसा संभव नहीं था। भारत सरकार में पूर्व नौकरशाह, बी. रमन अपनी पुस्तक ‘The Kaoboys of R&AW: Down Memory Lane’ में लिखते है, “ब्रिटेन में पाकिस्तानी उच्चायोग और अमेरिकी दूतावास सिख होम रुल मूवमेंट के लिए आपसी संपर्क में थे।” बस इसी बात का फायदा चौहान को मिल गया। वह जल्दी ही लंदन पहुँच गया और वहाँ अपने स्थानीय प्रयासों से इन दूतावासों से संपर्क साधने लगा। कुछ आंशिक सफलताओं के बाद उसे पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह याह्या खान ने पाकिस्तान मिलने के लिए बुला लिया।

दरअसल, पाकिस्तान 1971 में भारत से मिली हार का बदला खालिस्तान अलगाववादी आंदोलन को उभार कर लेना चाहता था। साल 1974 से ही पाकिस्तान द्वारा यह प्रचारित करना शुरू कर दिया गया कि जब भारत की सहायता से बांग्लादेश बन सकता है तो पाकिस्तान की सहायता से खालिस्तान क्यों नहीं बन सकता?” मगर इस काम के लिए तत्कालीन पाकिस्तान सरकार को चौहान में कोई खास दम नजर नहीं आया और उन्होंने उससे अपना रुख मोड़ लिया. तभी, पाकिस्तान को ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का नेतृत्व मिल गया। उनका खालिस्तान की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं गया। अब चौहान के पास अपने इस आंदोलन को फिलहाल स्थगित करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था।

एक-दो सालों के बाद खबर आई कि पाकिस्तान में सेना ने तख्ता पलट कर मार्शल लॉ लागू कर दिया है। वहाँ अब मोहम्मद जिया-उल-हक के हाथों में सत्ता आ गई थी। इसमें चौहान को एकबार फिर खालिस्तान आन्दोलन को जीवित करने का अवसर दिखाई दिया। हालाँकि, भारत में तब जनता पार्टी से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए थे। अतः चौहान के लिए स्थितियाँ एकदम अनुकूल नहीं थीं। फिर भी उसने अपनी कोशिशें जारी रखी। जैसे मई 1978 में, चौहान अपने लंदन के कुछ साथियों के साथ भारत आया और तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी से भी मिला। उसका उद्देश्य स्वर्ण मंदिर में एक ट्रांसमीटर स्थापित करवाना था, जिसके लिए आडवाणी ने मंजूरी नहीं दी। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 18 जून, 1984)

साल 1980 में इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी के साथ ही चौहान ने ब्रिटेन और कनाडा में खालिस्तान आन्दोलन को तेजी से हवा देनी शुरू कर दी। सबसे पहले ओटावा में वह चीनी अधिकारियों से मिला लेकिन चीन ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उसके बाद, वह हॉन्गकॉन्ग भी गया और वहाँ से बीजिंग जाने के कई असफल प्रयास किए लेकिन चीन ने उसे अपने यहाँ आने की मंजूरी नहीं दी। चीन से कोई समर्थन न मिलने के बाद, अमेरिका की उसमें दिलचस्पी बन गई।

चौहान ने वाशिंगटन की कई यात्राएँ की जबकि भारत सरकार ने उसके पासपोर्ट को अवैध घोषित कर दिया था। एकबार अमेरिका के स्टेट सेक्रेटरी ने उसे बिना पासपोर्ट के ही मिलने के लिए बुला लिया। चौहान को ब्रिटेन द्वारा भी एक पहचान पत्र जारी किया गया था। अप्रैल 1983 में बीबीसी ने चौहान के साथ मिलकर 40 मिनट का एक प्रोपोगेन्डा वीडियों जारी किया, जिसके अंतर्गत खालिस्तान गणतंत्र का विचार, नक्शा, और पासपोर्ट दिखाए गए। जब यह मामला भारतीय संसद में विपक्ष द्वारा उठाया गया तो केंद्रीय गृह मंत्री के पास कोई उपयुक्त जवाब नहीं था।

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में के.एन. मालिक की 3 अक्टूबर, 1981 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, “चौहान का अमेरिकन सिक्यूरिटी कौंसिल के चेयरमैंन, जनरल डेनियल ग्राहम से बेहद निजी सम्बन्ध थे। इसी ने चौहान को पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा खान से मिलवाया था।”

इसी दौरान अमेरिका में एक खालिस्तानी नेता गंगा सिंह ढिल्लों उभरने लगा था। उसकी शादी केन्या मूल की एक सिक्ख महिला से हुई थी, जिसकी जनरल जिया की पत्नी से अच्छी खासी दोस्ती थी। दरअसल, जिया की पत्नी भी युगांडा से थी। इन दोनों महिलाओं के पहले से आपसी संपर्कों के चलते गंगा सिंह का जनरल जिया के साथ सम्बन्ध स्थापित हो गया। उसने वाशिंगटन में ननकाना साहिब फाउंडेशन की शुरुआत की और पाकिस्तान अक्सर आने-जाने लगा।

गंगा सिंह ढिल्लो ने अमेरिका में खालिस्तान आन्दोलन को 1975 में शुरू किया था। बाद में उसे, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी, ISI के माध्यम से पाकिस्तान गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी का संस्थापक सदस्य बनाया गया था। पाकिस्तान में गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की शुरुआत 1993 में ISI के पूर्व जनरल डायरेक्टर जनरल जावेद नासिर ने की थी। उसे अमेरिका के दवाब में ISI से हटाया गया था क्योंकि नासिर पर दुनियाभर में आतंकी गतिविधियों को फैलाने के पुख्ता साक्ष्य उपलब्ध है।

गंगा सिंह ढिल्लों 1978 में जिया के बुलावे पर पहली बार पाकिस्तान गया था। उसके बाद, अप्रैल 1980 और मार्च 1981 में फिर से दो बार उसने पाकिस्तान की लगातार यात्राएँ की। वह नवम्बर 1981 और मई 1982 में चंडीगढ़ में आयोजित सिख एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में भी खालिस्तानी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए हिस्सा लेना चाहता था। मगर भारत सरकार ने ढिल्लों के बजाय उसकी पत्नी और बेटे को भारत आने की मंजूरी प्रदान कर दी। (टाइम्स ऑफ इंडिया – 4 नवम्बर 1981)

अब इन सभी गतिविधियों से स्पष्ट हो गया कि खालिस्तान के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। (द ट्रिब्यून – 14 जनवरी 1982) इस तथ्य पर संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री निहार रंजन लश्कर ने भी सरकार की तरफ से स्वीकृति जता दी। (लोकसभा – 3 मार्च, 1982)

दरअसल, पाकिस्तान अब सार्वजनिक रूप से खालिस्तान को अपना समर्थन देने लगा था। द ट्रिब्यून की 28 फरवरी, 1982 को प्रकाशित के खबर के अनुसार, पाकिस्तान के जनरल जिया ने अधिकारिक रूप से वैंकूवर स्थित खालिस्तान के कथित काउंसल जनरल, सुरजान सिंह को उनके देश (खालिस्तान) के लिए शुभकामना सन्देश भेजा था। यह पत्र उन्होंने उर्दू में लिखा जोकि इंडो-कैनेडियन टाइम्स में प्रकाशित हुआ था।

‘पाकिस्तान पीपल्स पार्टी’ के एक प्रमुख नेता ने एकबार ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के संवाददाता को बताया था कि 1980 में लंदन स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग में ब्रिगेडियर स्तर के 5 सैन्य अधिकारियों को नियुक्त पाकिस्तान और खालिस्तानी नेताओं के बीच समन्वय एवं निर्देश देने के लिए तैनात किया गया था। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 20 दिसंबर, 1984)

पाकिस्तान द्वारा विदेशों में खालिस्तानी अलगाववादी समाचारों के प्रचार-प्रसार के लिए भी कई हथकंडे अपनाए गए थे। साल 1964 के आसपास ‘देश परदेस’ नाम से एक पंजाबी साप्ताहिक निकलता था, जिसका 1984 में 10,000 के आसपास सर्कुलेशन था। उस दौर में इस पत्रिका का उपयोग पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जमकर किया। ऐसे ही, लन्दन के सिक्खों में ‘वतन’ नाम से एक उर्दू पत्रिका बहुत प्रचलित थी, जिसे 1984 में जनरल जिया के मंत्रिमंडल के एक पूर्व सदस्य, चौधरी ज़हुल इलाही ने खालिस्तान को प्रचारित करने के लिए शुरू किया था। लंदन में ‘जंग’ नाम से भी एक पाकिस्तानी समाचार-पत्र खालिस्तानी गतिविधियों को प्रचारित करता था। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 20 दिसंबर 1984)

लंदन स्थित हैवलॉक रोड पर सिंह सभा गुरुद्वारा पकिस्तान की खालिस्तानी गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। भारतीय उच्चायोग के किसी अधिकारी को वहाँ अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। जबकि दूसरी तरफ पाकिस्तानी अधिकारियों का गुरुद्वारे में आना-जाना वहाँ लगा रहता था। यही नहीं, पाकिस्तानी मंत्रियों को गुरुद्वारे द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका था। इसी गुरुद्वारे के माध्यम से जरनैल सिंह भिंडरांवाले को 100,000 पौंड से अधिक की राशि भेजी जा चुकी थी। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 20 दिसंबर, 1984)

जरनैल सिंह भिंडरांवाले को किसने तैयार किया?

1977 में पंजाब में विधानसभा चुनाव हरने के बाद, पूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने संजय गाँधी को एक सलाह दी। उन्होंने दो सिक्ख संतो के नाम संजय को सुझाए, जिसमें से एक दमदमी टकसाल गुरुद्वारा दर्शन प्रकाश के जत्थेदार, जनरैल सिंह भिंडरांवाले था। उन्हें यह गद्दी पूर्व जत्थेदार, संत करतार सिंह की अमृतसर में एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु के बाद मिली थी।

कुलदीप नायर अपनी पुस्तक, ‘Beyond the Lines, An Autobiography’ में लिखते है, “संजय के दोस्त, संसद सदस्य कमलनाथ याद करते है, ‘पहले संत से जब हम मिले तो वे साहसी कम दिखाई दिए। भिंडरेवाला की आवाज में दम था और वह हमें काम का आदमी लगा। हम उसे कभी-कभार पैसे भी दिया करते थे लेकिन हमने यह नहीं सोचा कि वह आतंकवादी बन जाएगा’।”

जी.बी.एस. सिधु अपनी पुस्तक ‘The Khalistan Conspiracy’ में आगे लिखते है, “संजय गाँधी को जनरैल सिंह भिंडरांवाले के धार्मिक कार्यों में कोई रुचि नहीं थी। वे तो उसका इस्तेमाल सिक्ख जनता को रिझाने और अकाली दल को सत्ता से हटाने के लिए करना चाहते थे।” आमतौर पर इन सभी षड्यंत्रों का केंद्र दिल्ली स्थित 1, अकबर रोड का बँगला हुआ करता था, जिसे कई लेखकों ने ‘अकबर रोड गैंग’ के नाम से भी पहचानते है।

भिंडरांवाले का इस्तेमाल कांग्रेस (आई) द्वारा 1980 के लोकसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस प्रत्याशियों के प्रचार में भी किया गया था। इसमें अमृतसर से पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष आर.एल. भाटिया, गुरुदासपुर से सुखबंस कौर भिंडर (पंजाब के डीजीपी, प्रीतम सिंह भिंडर की पत्नी), और तरणतारण से गुरदयाल सिंह ढिल्लों (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष, 1969-1971; 1971-1975) शामिल थे। मार्क टुली और सतीश जैकब अपनी पुस्तक ‘Amritsar: Mrs Gandhi’s Last Battle’ में लिखते है कि इन प्रत्याशियों ने अपने चुनावी पर्चों तक में यह लिखवाया हुआ था कि ‘भिंडरांवाले का हमें समर्थन मिला हुआ है।’

ढिल्लों यह चुनाव अकाली दल के प्रत्याशी से हार गए और उन्हें इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कनाडा का भारतीय राजदूत बनाकर भेजा था। जबकि वहाँ उस समय खालिस्तानी अलगाववाद अपने चरम पर पहुँचा हुआ था। ढिल्लों के भिंडरांवाले के साथ संबंध पहले ही सार्वजनिक हो गए थे। इसलिए, यह कोई अचानक बना संयोग तो नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया कृत्य अधिक लगता है।

लोकसभा चुनावों में इंदिरा गाँधी की जीत के साथ ही तत्कालीन पंजाब सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। वहाँ विधानसभा के फिर से चुनाव हुए और इसबार कॉन्ग्रेस को बहुमत हासिल हो गया। इंदिरा गाँधी ने ज्ञानी जैल सिंह के प्रतिद्विन्दी दरबारा सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया। ज्ञानी जैल सिंह को केंद्र में गृह मंत्री का पद मिल गया। केंद्र और राज्य दोनों स्थानों पर कॉन्ग्रेस की सरकार होने के बाद भी पंजाब में लॉ एंड आर्डर की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती चली गई। खालिस्तानी चरमपंथी हर आए दिन किसी-न-किसी प्रमुख व्यक्ति की हत्या करते रहे और केंद्र की कॉन्ग्रेस सरकार के इशारे पर उन्हें रोकने की कोशिशों में लगातार नीरसता दिखाई देने लगी।

उन दिनों ‘पंजाब केसरी’ आमतौर पर भिंडरांवाले अथवा खालिस्तान के खिलाफ अधिक लिखता था। इसलिए समाचार-पत्र के संस्थापक लाला जगत नारायण की भिंडरांवाले के समर्थकों ने 9 सितम्बर ,1981 को हत्या कर दी। उस दिन भिंडरांवाले, हरियाणा के हिसार में मौजूद था। मुख्यमंत्री दरबारा सिंह ने डीआईजी ऑफ पुलिस, डी.एस. मंगत को तुरंत हिसार जाकर भिंडरांवाले को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। कुलदीप नायर इस सन्दर्भ में लिखते है, “ज्ञानी जैल सिंह ने हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल को फ़ोन कर सन्देश भेजा कि न उन्हें इस मामले में फँसना है और न ही भिंडरांवाले को गिरफ्तार होने देना है।” सतीश जैकब आगे की जानकारी देते हुए लिखते है कि इस एक फ़ोन के बाद खुद भजनलाल ने अपने अधिकारियों को भिंडरांवाले को जितना संभव हो सके वहाँ तक सकुशल छोड़ने के आदेश दिए थे। इस प्रकार भिंडरांवाले को 300 किलोमीटर दूर अमृतसर में उसके गुरुद्वारे तक सुरक्षित पहुँचा दिया गया।

भिंडरांवाले की गिरफ़्तारी को लेकर दरबारा सिंह एकदम अड़े हुए थे। उन्होंने पंजाब के मुख्य सचिव को एस.के. सिन्हा से मिलने के लिए भेजा। सिन्हा उस दौरान सेना में पश्चिमी कमांड के लेफ्टिनेट जनरल पद पर तैनात थे। उन्होंने, पंजाब के मुख्य सचिव को बताया कि यह सेना का काम नहीं है। जी.बी.एस. सिधु लिखते है, “दो दिन बाद सिन्हा को प्रधानमंत्री कार्यालय से भिंडरांवाले को गिरफ्तार करने का सन्देश मिला। उन्होंने रक्षा मंत्री आर. वेंकटरमण से इस मामले पर चर्चा की। अगले दिन रक्षा मंत्री ने सिन्हा को निर्देश दिए कि सेना को नहीं बल्कि स्थानीय पुलिस को इस काम के लिए लगाया जाएगा।”

विमान अपहरण

आखिरकार, एक लम्बे गतिरोध के बाद भिंडरेवाला को गिरफ्तार नहीं बल्कि बातचीत के माध्यम से समर्पण करने के लिए मना लिया गया। उसे पहले फिरोजपुर जेल और बाद में लुधियाना के एक रेस्ट हाउस में नजरबन्द किया गया। कुछ दिनों बाद, 29 सितम्बर, 1981 को खबर आई कि दिल्ली से अमृतसर होते हुए श्रीनगर जा रहे इंडियन एयरलाइन के एक विमान को दल खालसा के पांच चरमपंथियों ने अपहरण कर लिया है। तब विमान में 117 यात्री सवार थे। उन सभी को विमान सहित लाहौर ले जाया गया। अपहरणकर्ताओं ने इन यात्रियों की रिहाई के बदले भिंडरांवाले की रिहाई की माँग की। हालाँकि, पाकिस्तान सरकार ने कार्रवाई करते हुए विमान को यात्रियों सहित उनके चंगुल से छुडा लिया।

चौधरी चरण सिंह ने ‘आनंद बाजार पत्रिका’ के एक अंक का हवाला देते हुए लोकसभा में 27 अप्रैल, 1983 को बताया कि इस विमान अपरहण के अपहरणकर्ताओं को ज्ञानी जैल सिंह का समर्थन हासिल था। उन्होंने कहा, “हाईजैकिंग करने वाले लोग, उनका जो लीडर था, वह गिरफ्तार हो गए। पुलिस के सामने उसने जो कंफेशन किया और कहा कि हमारे 17 बहुत बड़े-बड़े एक्टिव सिम्पेथाइजर्स है, 17 ऑफिसर्स जय जिनमें लीडिंग पब्लिक लाइफ के लोग है। वह उनके नाम बताता है। इस आर्टिकल में उन लोगों के नाम लिखे हुए है जो कि ज्ञानी जैल सिंह के दोस्त है, उनके अजीज है, उनके अपोइंटी है।” चौधरी चरण सिंह के लोकसभा में उनके इस भाषण के लिए 15 अगस्त, 1983 से पहले जान से मारने कि धमकी का एक पत्र मिला था। उसपर पता – दल खालसा, कमरा नंबर 32, गुरु नानक निवास था।

विमान अपहरण के बदले भिंडरांवाले को रिहा करने का षडयंत्र कामयाब न हो सका. इसपर आगे की जानकारी देते हुए मार्क टुली लिखते है कि पंजाब के एक कॉन्ग्रेस नेता और दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष संतोख सिंह ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मुलाकात कर भिंडरांवाले को रिहाई का दबाव बनाया। उसने प्रधानमंत्री को धमकी दी कि अगर भिंडरांवाले को रिहा नहीं किया गया तो दिल्ली सिख गुरुद्वारा कमेटी कॉग्रेंस की वफादार नहीं रहेगी।

इस तरह के छोटे-मोटे राजनैतिक फायदे के लिए कॉन्ग्रेस ने न्याय को ताक पर रख दिया। यह कहने में कोई जल्दबाजी नहीं है कि इस एक गलती ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मौत की भी पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। जल्दी ही, बैचैन हो रहे गृह मंत्री, जैल सिंह ने संसद में बयान दिया कि भिंडरांवाले को हम रिहा कर देंगे। और एक महीने से भी कम समय तक नजरबन्द रहने के बाद, भिंडरांवाले 15 अक्टूबर, 1981 को रिहा हो गया। उस दिन भिंडरांवाले के स्वागत का लिए खुद संतोख सिंह आया था। (लोकसभा में 1 दिसंबर 1981 को समर मुखर्जी का वक्तव्य) हालाँकि, 22 दिसंबर 1981 को संतोख सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हाल ही में, कॉन्ग्रेस की सरकार में पंजाब के उप-मुख्यमंत्री (20 सितम्बर, 2021 से 16 मार्च, 2022) बने सुखजिंदर सिंह उनके ही बेटे थे।

हत्या, गिरफ्तारी, विमान अपहरण, प्रधानमंत्री की भागीदारी और रिहाई ने भिंडरेवाला को जरुरत-से ज्यादा प्रचारित कर दिया था। इस तेजी से उभरती लोकप्रियता से अकाली दल को भी खतरा महसूस होने लगा। अतः उन्होंने सितम्बर 1981 में एक प्रस्ताव पारित कर भिंडरांवाले की रिहाई भी थी।

दल खालसा और ज्ञानी जैल सिंह के संबंध

लोकसभा में 1 दिसंबर, 1981 को ‘Conspiracy against integrity of India’ चर्चा के दौरान, भाजपा के सदस्य सूरज भान ने तत्कालीन गृह मंत्री, ज्ञानी जैल सिंह पर आरोप लगाया कि दल खालसा के मुखिया हरसिमरन सिंह के साथ उनके घनिष्ठ सम्बन्ध है। उन्होंने आगे बताया, “1978 में चंडीगढ़ के अरोमा होटल में एक प्रेस कांफ्रेंस पहले दल खालसा की तरफ से हुई और उसके थोड़ी देर बाद ज्ञानी ने उसी होटल में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ली और उन दोनों प्रेस कॉन्फ्रेंस का बिल ज्ञानी ने पे किया……. ज्ञानी, होम मिनिस्टर बनने के बाद पहली बार चंडीगढ़ गए तो उसी हरसिमरन सिंह ने, जो दल खलासा का पंच है, ज्ञानी जी का बहुत शानदार रिसप्शन पंजाब यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में किया था।”

मार्क टुली और सतीश जैकब भी अपनी पुस्तक में लिखते है कि “ज्ञानी जैल सिंह का दल खालसा से लगातार संपर्क बना हुआ था। 1982 में राष्ट्रपति बनाने के बाद भी उन्होंने चंडीगढ़ के एक पत्रकार को फ़ोन करके कहा कि वह अपने समाचार-पत्र में दल खालसा की खबरों को पहले पन्ने पर प्रकाशित किया करे।”

प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की निष्क्रियता

अप्रैल 1982 में पंजाब के मुख्यमंत्री दरबारा सिंह ने गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को पत्र लिखकर एक महत्वपूर्ण सूचना दी, “दो सौ आदमियों के साथ भिंडरांवाले आनलाईसेंस्ड हथियार लेकर दिल्ली आ रहा है।” पूर्व सूचना मिलने के बाद भी केंद्र सरकार ने उसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए। वह अपने समर्थकों के साथ तीन हफ़्तों तक दिल्ली में रहा और कनॉट प्लेस और बाबा खड़ग सिंह मार्ग पर अपने हथियारों के साथ खुलेआम घूमता रहता था।

प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की निष्क्रियता पर चौधरी चरण सिंह ने उन्हें एक पत्र लिखा, “इतने राजनीतिक महत्त्व कि बात आपकी इत्तिला में न हो, यह हो नहीं सकता। बाकायदा अखबारों में खबरें छपती है, लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं होती।” चरण सिंह ने प्रधानमंत्री गाँधी को यहाँ तक लिख दिया कि “आपने संत भिंडरांवाले को हीरो बनाया है। गुरुनानक निवास के क्या मायने है? ठीक है वह मंदिर है। क्या दुनिया के किसी मंदिर, मस्जिद अथवा गिरिजाघर में क्रिमिनल चला जाए तो उसके गिरफ्तार नहीं किया जा सकता?” (लोक सभा – 27 अप्रैल, 1983)

नक्सलियों का समर्थन

खालिस्तान और नक्सलियों के बीच गठजोड़ की कोशिशें ब्रिटेन के पूर्व डाक कर्मचारी और खालिस्तानी समर्थक बख्शीश सिंह ने की थी। इंडियन एक्सप्रेस की 27 दिसंब,र 1981 को प्रकाशित एक खबर में भी खालिस्तानियों को नक्सलियों का समर्थन प्राप्त होने का दावा किया गया था। हालाँकि, इससे पहले ही लोकसभा में 2 दिसंबर 1981 को इंदिरा गाँधी सरकार से इस मामले से यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि लॉ एंड आर्डर राज्यों का काम है।

खालिस्तानी चरमपंथियों को पाकिस्तान द्वारा हथियारों का प्रशिक्षण

”द टाइम्स ऑफ इंडिया ने 20 दिसंबर, 1984 को दावा किया कि खालिस्तानी चरमपंथियों को 1980 से ही पाकिस्तान के एबटाबाद, हस्सन अब्दल, सियालकोट, और साहिवाल में प्रशिक्षण दिया जाता रहा है। 4 सितम्बर 1982 को ब्लिट्ज ने खुलासा किया कि खालिस्तान के चरमपंथियों को पाकिस्तान में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की सहायता से प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

जब इस मामले की और परतें खुलना शुरू हुई तो पता चला कि सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि भारत में भी उनके प्रशिक्षण के कई शिविर खुले हुए थे, जिन्हें नेशनल कांफ्रेंस का समर्थन हासिल था। कॉन्ग्रेस (आई) से लोकसभा सदस्य के.पी. तिवारी ने संसद को बताया, “जम्मू और कश्मीर में रियासी के नजदीक डेरा बंदा बहादुर और पूँछ में खालिस्तानी चरमपंथियों के प्रशिक्षण शिविर चल रहे है। यह भिंडरांवाले का भतीजा अमरीक सिंह की निगरानी में चलते है। जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री (फारुख अब्दुल्ला) भी इन प्रशिक्षण शिविरों में गए थे और खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाए थे।” अमरीक सिंह, प्रतिबंधित संगठन ‘All India Sikh Students Federation’ का मुखिया था।

खास बात यह है कि केंद्रीय गृह मंत्री पी.सी. सेठी ने तिवारी के इन आरोपों को स्वीकार किया था. (लोकसभा – 16 नवम्बर 1983) अल्मोड़ा से कॉन्ग्रेस (आई) के अन्य संसद सदस्य हरीश रावत ने भी इन शिविरों की सत्यता को सदन के पटल पर रहते हुए कहा, “यह 1981-82 से वहाँ चल रहे है.” (लोकसभा – 2 दिसंबर, 1983)

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने 18 जून, 1984 को लिखा कि जमात-ए-इस्लामी ने पाकिस्तान और खालिस्तान के पक्ष में नारे लगाए हैं। मुफ़्ती मोहम्मद सईद उस दौरान कॉन्ग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे, उन्होंने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा, “राज्य के जंगलों में ‘गुरमत’ शिविर चल रहे है जहाँ हथियारों से अकाली चरमपंथियों को प्रशिक्षण दिया जाता है।” इन चरमपंथियों को भारतीय सेना से कोर्टमार्शल किये गए पूर्व मेजर जनरल सुबेघ सिंह द्वारा प्रशिक्षित किया जाता था। (द टाइम्स ऑफ इंडिया – 22 जून, 1984)

ऑपरेशन ब्लू स्टार

अप्रैल 1983 में पंजाब सरकार ने प्रधानमंत्री गाँधी को जानकारी भेजी कि प्रतिबंधित नेशनल काउंसिल ऑफ़ खालिस्तान का कथित महासचिव बलबीर सिंह संधू, अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के किसी एक कमरे में रहता है। इसी दौरान, 19 जुलाई, 1982 को भिंडरांवाले ने मंदिर के गुरुनानक निवास पर कब्जा कर लिया था। उनके पास हथियारों सहित एक छोटी फौज भी वहाँ तैनात थी। वही से अब खालिस्तान संबंधी हर गतिविधि को अंजाम देने का काम होने लगा था।

केंद्रीय गृह मंत्री पी.सी. सेठी ने 19 अप्रैल 1983 को लोकसभा में बताया कि “स्वर्ण मंदिर के उस कमरे में प्रतिबंधित आतंकी संगठन दल खालसा के आतंकी (चरमपंथी) भी शरण लेकर रह रहे है।” पंजाब सरकार ने एसजीपीसी के माध्यम उनके समपर्ण के लिए संपर्क किया लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला।

वी. रमन अपनी पुस्तक में लिखते है, “जब इंदिरा गाँधी के पास कोई विकल्प नहीं बचा तो उन्होंने R&AW के तीन अधिकारियों को विदेशों में खालिस्तानी नेताओं से बातचीत करने के लिए भेजा। प्रधानमंत्री चाहती थीं कि यह अधिकारी उन नेताओं को इस बात के लिए राजी कर ले कि भिंडरांवाले और उसके साथी स्वर्ण मंदिर खाली कर दे। यह मुलाकात ज्यूरिख में हुई। वह खालिस्तानी नेता R&AW के प्रस्ताव से सहमत हो गया लेकिन उसने एक शर्त जोड़ दी। दरअसल वह खुद स्वर्ण मंदिर जाकर भिंडरांवाले से बातचीत करना चाहता था। भारत लौटने पर उन अधिकारियों ने प्रधानमंत्री को विस्तार से यह सब बता दिया। हालाँकि, प्रधानमंत्री ने उस खालिस्तानी नेता की शर्त को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हें डर था कि ऐसा करने पर वह स्वयं मंदिर के अन्दर भिंडरांवाले के साथ जुड़कर भारत सरकार की समस्या को न बढ़ा दे।

प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी किसी भी तरह से अगले लोकसभा चुनावों से पहले इस समस्या का हल निकालना चाहती थी। हर प्रकार के प्रयास करने के बाद जब उन्हें कोई सफलता नहीं मिली तो उन्होंने भारतीय सेना को भिंडरांवाले के चंगुल से स्वर्ण मंदिर खाली करवाने की जिम्मेदारी सौंपी। सेना और खालिस्तानी चरमपंथियों के बीच 3 से 6 जून, 1984 तक चली कार्यवाही में भिंडरांवाले मारा गया और स्वर्ण मंदिर चरमपंथियों के कब्जे से स्वतंत्र हो गया।

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Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal
Devesh Khandelwal is an alumnus of Indian Institute of Mass Communication. He has worked with various think-tanks such as Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation, Research & Development Foundation for Integral Humanism and Jammu-Kashmir Study Centre.

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