झारखंड में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो इस राज्य की सत्ता भाजपा से छिटक कर विपक्षी झामुमो-कॉन्ग्रेस-राजद गठबंधन की झोली में जाकर गिर गया। नतीजों के बाद सोशल मीडिया में भारत का वह नक्शा जमकर शेयर किया गया जो बता रहा था कि देश में भाजपा शासित राज्यों की संख्या कम हो रही है। लेकिन, रविवार (29 दिसंबर 2019) को रॉंची के मोरहाबादी मैदान में जब हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो विपक्ष वैसा रंग नहीं जमा पाया, जैसा कर्नाटक में मई 2018 में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में दिखा था।
इसके कारण क्या हैं? क्या विपक्ष अब भी लोकसभा चुनाव की करारी शिकस्त के सदमे से उबर नहीं पाया है? क्या मोदी मैजिक के और गाढ़ा होने के डर अब विपक्ष एक मंच पर जुटने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है? उसे डर सता रहा है कि मंच से विपक्षी एकता का हुंकार भरने वाले क्षेत्रीय क्षत्रप मंच से उतरते ही फिर उसी तरह अपनी-अपनी राह पकड़ लेंगे जैसा उन्होंने कुमारस्वामी के शपथ लेने के बाद किया था?
जवाब तलाशने से पहले कर्नाटक के उस प्रकरण को फिर से याद करते हैं। विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। लेकिन बहुमत से थोड़ा दूर रह गई थी। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले जनता दल (एस) और कॉन्ग्रेस ने सत्ता के लिए गठजोड़ कर लिया। ठीक वैसे ही जैसे अभी हाल में हमने महाराष्ट्र में देखा है। जनता दल (एस) के कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उन्हें शपथ लेते देखने के लिए सोनिया गॉंधी, मायावती, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, राहुल गॉंधी, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, सीताराम येचुरी, चंद्रबाबू नायडू, नारायणसामी, पिनरई विजयन जैसे विपक्षी खेमे के नेता जुटे। माया का हाथ पकड़े सोनिया की तस्वीर पर तो पूरा लिबरल गिरोह ही निहाल हो गया था। इस तस्वीर को दिखाकर मोदी की विदाई का दंभ भरने वालों की कमी न थी।
लेकिन, आम चुनावों के नतीजों ने साबित किया कि ऐसे जमावड़ों से मोदी मैजिक और गहरा हो जाता है। यही कारण है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तो रॉंची पहुॅंच गईं, लेकिन सोनिया और मायावती नजर नहीं आईं। सोनिया को शपथ ग्रहण में शामिल होने का न्योता खुद हेमंत सोरेन 10 जनपथ आकर दे गए थे। इसी तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल भी नहीं दिखे। उनके प्रतिनिधि के तौर राज्यसभा के सांसद संजय सिंह दिखे। वापमंथी खेमे से न माकपा महासचिव येचुरी थे और न केरल के सीएम विजयन। भाकपा के डीराजा जरूर दिखे। लालू यादव रॉंची के ही जेल में बंद हैं। हेमंत के साथ राजद के एकमात्र विधायक को भी शपथ लेनी थी तो राजद नेता और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को आना ही था और वे आए भी। साथ में शरद यादव भी थे। दक्षिण की भागीदारी के नाम पर डीएमके नेता स्टालिन की मौजूदगी दिखी जो कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण में नहीं आए थे।
विपक्षी नेताओं के जुटान का हेमंत का प्रयास उद्धव ठाकरे के शपथ ग्रहण से भी फीका हो जाता यदि कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गॉंधी नहीं आते। उनके साथ कॉन्ग्रेस शासित दो राज्यों राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल भी थे। उल्लेखनीय है कि उद्धव के शपथ ग्रहण में राहुल गॉंधी नहीं पहुॅंचे थे।
मोरहाबादी मैदान में चंद्रबाबू नायडू का न होना तो समझ में आता है। जब कुमारस्वामी ने शपथ लिया था उस वक्त वे एनडीए से बाहर निकल आए थे। विपक्ष को एक कुनबे की बॉंधने की कोशिश में थे। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। अब उनकी राजनीतिक हैसियत ही वह नहीं रही कि वे विपक्षी एकता का दंभ भर सकें। लेकिन, महाराष्ट्र में भाजपा को सत्ता से दूर रखकर विपक्ष की आँखों के तारे बने कथित किंगमेकर शरद पवार भी झारखंड के जमावड़े से दूर ही रहे।
लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली गैर मौजूदगी थी कॉन्ग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गॉंधी की। वे उद्धव के शपथ ग्रहण में भी नहीं पहुॅंची थीं। उस समय उन्हें न्योता देने के लिए उद्धव ठाकरे ने अपने विधायक बेटे आदित्य ठाकरे को 10 जनपथ भेजा था। बावजूद इसके उनके मुंबई नहीं पहुॅंचने के कारणों को समझना मुश्किल नहीं था। असल में कॉन्ग्रेस और शिवसेना विचारधारा के स्तर पर दो विपरीत ध्रुव पर खड़े थे। ऐसे में वहॉं सोनिया का न होना असहज करने वाले मुश्किल सवालों को टालने की रणनीति हो सकती है।
लेकिन, झारखंड में उनके साथ ऐसी दुविधा न थी। हेमंत सोरेन की पार्टी झामुमो के साथ कॉन्ग्रेस पहले भी मिलकर चुनाव लड़ चुकी है। दोनों दल केंद्र और राज्य की सरकार में साथ भी रहे हैं। हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में मंत्री भी हुआ करते थे। इतना ही नहीं इस बार के विधानसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस ने झारखंड में 16 सीटें जीती है। अलग राज्य बनने के बाद से हुए विधानसभा चुनावों में उसका यह अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है।
बावजूद इसके सोनिया का नहीं पहुॅंचना बताता है कि कर्नाटक के अनुभव और आम चुनावों के नतीजे उन्हें विपक्षी एकता का संदेश देने से रोक रहे हैं। वे जानती हैं कि ऐसी एक और कोशिश मोदी के रंग को और गहरा कर देगा। मतदाताओं को उनके साथ और मजबूती से खड़ा करेगा। अगले कुछ महीनों में दिल्ली में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में केजरीवाल के साथ मंच साझा करना दिल्ली में दोनों दलों को असहज कर सकता था। बंगाल में भी टीएमसी, वाम दलों और कॉन्ग्रेस के एक साथ आने की सूरत नहीं दिख रही।
लेकिन, इस फीके रंग ने भी भाजपा को तंज कसने का मौका दे दिया है। शपथ ग्रहण के बाद बिहार के स्वास्थ्य मंत्री और बीजेपी नेता मंगल पांडे ने ट्वीट किया, “झारखंड में हुए आज शपथ ग्रहण समारोह में पूरब से चिटफंड पहुॅंचा था तो दक्षिण से 2G। वही उत्तर से चारा घोटाला तो मध्य से नेशनल हेराल्ड। रही-सही कसर मुख्यमंत्री जी के पिता जी के कोयला घोटाला ने पूरी कर दी।”
झारखण्ड में हुए आज शपथ ग्रहण समारोह में पूरब से चिट फण्ड पंहुचा था , तो दक्षिण से 2G वही उत्तर से चारा घोटाला तो मध्य से नेशनल हेराल्ड और रही सही कसर मुख्यमंत्री जी के पिता जी के कोयला घोटाला ने पूरी कर दी |
— Mangal Pandey (@mangalpandeybjp) December 29, 2019
यानी, मंच पर विपक्ष का रंग भले न जम पाया हो भाजपा को बैठे-बिठाए एक मुद्दा जरूर मिल गया है, जिसका शोर बिहार के विधानसभा चुनावों में भी अगले साल सुनाई पड़ सकता है।
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…तो झारखंड के CM होंगे हेमंत सोरेन, लेकिन इनकी संपत्ति 5 साल में दोगुनी से अधिक, 10 साल में 11 गुनी!