महाराष्ट्र के विरार के एक अस्पताल में आग लगने से तेरह लोगों की मृत्यु हो गई। कोविड अस्पतालों में होनेवाली यह अकेली दुर्घटना नहीं है। इससे पहले नासिक के एक अस्पताल में ऑक्सीजन टैंक लीक होने से चौबीस लोगों की मृत्यु हो गई थी।
दो दिन पहले ही मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर बेंच ने महाराष्ट्र सरकार को राज्य में COVID रोकने के लिए पर्याप्त कोशिशें न कर पाने का दोषी बताते हुए अपनी टिप्पणी में कहा था कि ‘आपको भले ही शर्म न आए पर हमें शर्म आती है कि हम इस घिनौने और घटिया समाज के सदस्य हैं’।
उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी उस समय आई जब महाराष्ट्र सरकार ने न्यायालय के उस आदेश का पालन करने में असमर्थता प्रकट की जिसमें न्यायालय ने सरकार को नागपुर के लिए ऐंटी बायआटिक इंजेक्शन रेमडेशेविर के दस हज़ार वायल ख़रीदने का आदेश दिया था।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चीनी वायरस COVID-19 की दूसरी लहर बहुत तेज है और देश के अधिकतर राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है। पर ऐसा क्यों है कि महाराष्ट्र सरकार के संक्रमण रोकने के प्रयास शुरू से ही असफल दिखाई देते रहे हैं? कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि दरअसल राज्य संक्रमण की पहली लहर पर भी असरदार तरीक़े से क़ाबू पाने में असफल रहा।
इन सब के ऊपर राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर गंभीरता का आलम यह है कि पिछले बीस दिनों में कोविड केयर अस्पतालों में आग लगने की दो घटनाएँ हो चुकी हैं। ऑक्सीजन टैंक लीक होने की घटना अभी बिलकुल ताज़ा है। जनवरी महीने में भंडारा जिले के एक अस्पताल में आग लगने की घटना हुई थी, जिसमें दस बच्चों की मृत्यु हो गई थी। कोविड संक्रमण के बाद केयर यूनिट बने पर उनमें व्यवस्था और बेड की कमी की समस्या एक वर्ष में कम हुई ही नहीं।
स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर अधिकतर सरकारें गंभीर नहीं दिखाई देतीं, पर महाराष्ट्र सरकार की बात ही अलग है। पिछले एक वर्ष में कोविड के गंभीर संकट के बावजूद सरकार की प्राथमिकताओं को लेकर मीडिया और समाज में बहस होती रही है, फिर चाहे वह गठबंधन की आपसी खींचतान हो या प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार। ऊपर से केंद्र के साथ राज्य सरकार का समन्वय किसी से छिपा नहीं है। स्वास्थ्य संकट के इस काल में राज्य सरकार की केंद्र को पत्र लिखने से लेकर वैक्सीन की कमी का हल्ला करने तक पर्याप्त राजनीति भी किसी से छिपी नहीं है।
ऊपर से असंवेदनशीलता देखिए कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि अस्पताल में आग लगने से तेरह लोगों की मृत्यु राष्ट्रीय मीडिया लायक़ समाचार नहीं है। कौन से रसातल में पहुँच गई है सरकारी संवेदना? हम किसी दुर्घटना को क्या अब ऐसे आँकेंगे कि उसकी ख़बर राष्ट्रीय मीडिया लायक़ है या लोकल मीडिया लायक़? क्या यह देखकर कार्रवाई होगी कि कितने अख़बारों ने उस ख़बर को फ़्रंट पेज पर छापा या कितने न्यूज़ चैनल ने उसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया? सरकारें यह कौन सा विमर्श चलाना चाहती हैं?
आज अस्पताल में लगी आग में तेरह लोगों की मृत्यु के तुरंत बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने जाँच के आदेश तो दे दिए पर इस आदेश की बात पर एक प्रश्न उठता है कि क्या हम फिर दशकों पीछे जा रहे हैं जिसमें सरकारें दुर्घटनाओं को रोकने से अधिक जाँच कमीशन बैठाने को लेकर गंभीर रहती हैं? साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि ऐसे जाँच कमीशन से क्या फ़ायदा जिसकी रिपोर्ट समय पर नहीं आती या आती भी है तो क़ानूनी दाँव-पेंच की वजह से अक्सर उस पर कार्रवाई नहीं होती। कई बार तो कार्रवाई होने तक ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों के रिश्तेदार भी शायद नहीं बचते।
हर बार जब ऐसी दुर्घटना होती है, बहस वही पुराने मुद्दे पर पहुँच जाती है कि अस्पताल का प्लान कैसा था? कैसे पास हुआ था? क्या प्लान के पास होने में कोई भ्रष्टाचार हुआ था? क्या पर्याप्त सुविधाएँ थीं जो अस्पताल में होनी चाहिए? ये ऐसे प्रश्न हैं जो दशकों से अपनी जगह टिके हुए हैं। कोई कोशिश भी नहीं करता कि उनका उत्तर दे जिससे नए और आधुनिक प्रश्न उठें जो हमारे विकास की गवाही भी दें।
पर नहीं। हम इन्हीं पुराने प्रश्नों को खड़ा करके बहस करते रहेंगे ताकि ख़ुद को एक सजग समाज के रूप में प्रस्तुत कर सकें। बहस करके काम पर चल देंगे और अपनी इस जड़ता को मुंबई स्पिरिट या दिलेर दिल्ली की संज्ञा देकर मन को सांत्वना देते रहेंगे।