Friday, March 29, 2024
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राहुल तुम ‘नेहरू-दा’ हो, ‘नेरूदा’ मत बनो: अम्बानी को एक लाख करोड़ का ठेका तो यूपीए ने भी दिया था

अगर क्रोनी कैपिटलिज्म ही चल रही है तो फिर कॉन्ग्रेस पार्टी रैनबैक्सी, बिरला, टाटा, वीडियोकॉन, वेदांता, जिंदल आदि कम्पनियों से चंदा क्यों लेती रही है?

पाब्लो नेरूदा लिखते हैं, “मैं तुम्हारे साथ वही करना चाहता हूँ, जो बसंत चेरी के पेड़ों के साथ करता है’। पूरी कविता में प्रकृति के अवयवों बिम्ब नायक के प्रेम की अनुभूति को अभिव्यक्त करते हैं। नेरुदा को साहित्य का नोबेल मिला था। वहीं, अपनी जीवन की एकमात्र उपलब्धि, किसी विशेष परिवार में, किसी विशेष समय-काल में पैदा हो कर, उसी के सहारे अपने पूरे व्यक्तित्व को दो बैलों के पाले को अकेले ही खींच कर ले जाने वाले राहुल गाँधी भी कविता करते रहते हैं। ये बात और है कि नेरूदा की ही तरह उनकी कविताएँ भी विलक्षण ही हैं, कारण भले ही अलग हों।

राहुल गाँधी की एक कविता देखिए: मोदी सरकार के लिए: अलग विचार रखने वाले विद्यार्थी देशद्रोही हैं। चिंतित नागरिक अर्बन नक्सल हैं। प्रवासी श्रमिक कोरोनावाहक हैं। बलात्कार पीड़िताएँ अनाम हैं। आंदोलनरत किसान खालिस्तानी हैं। और, क्रोनी कैपिटलिस्ट सबसे अच्छे मित्र हैं।”

‘ला बेले डेम सॉन्स मेर्सी’ लिखने वाले कवि जॉन कीट्स कहते हैं कि कविता अगर इतनी ही सहजता से न आए जैसे पत्ते पेड़ों पर आते हैं, तो अच्छा है कि वो न लिखी जाए। राहुल गाँधी की सहजता और बहाव ही उन्हें विलक्षण बनाता है। उन्हें किसी भी बात पर कविता आ जाती है। हैं तो कॉन्ग्रेसी लेकिन वामपंथी चिरकुटों वाले शब्दों के प्रयोग से वो कभी पीछे नहीं हटते क्योंकि उन्हें पता है अगर आप किसी ट्वीट में किसान, मजदूर, छात्र, लड़की, नागरिक आदि लिख दो तो साल में सत्रह नोबेल मिल सकते हैं।

कविताओं को ले कर फेसबुक के मित्र राजीव मिश्रा लिखते हैं, “‘किसान अन्न उपजा रहा है तो खाने को मिल रहा है, वेनेजुएला में किसानों ने अन्न उपजाना बन्द कर दिया तो लोग भूखे मर रहे हैं’ लिखना सेंटिमेंटल बात है, पर निष्कर्ष गलत है। एक कोमल हृदय कवि आपके दर्द पर पिघल कर बहुत ही मार्मिक कविता लिख देगा, पर उससे आपकी बीमारी ठीक नहीं हो जाएगी। एक निष्ठुर, कठोर हृदय डॉक्टर भी अगर तार्किक होगा, तो आपकी बीमारी और उसका इलाज बता सकेगा।”

बाकी, आपको पता ही है कि दस साल के समाजवाद ने वेनेजुएला की तेल आधारित अर्थव्यवस्था से नागरिकों को फ्री खाने की आदत लगाई और सारे उद्योग-सेवाएँ ऐसी बर्बाद हो गईं कि अब वहाँ 90-95% जनता गरीबी से जूझ रही है। कविता करने वाले नेता लोग यही चाहते हैं। उन्हें अचानक उन किसानों से प्रेम हो जाएगा जिनके घरों से सैकड़ों लोग, उनकी ही बनाई नीतियों के कारण आत्महत्या करते रहे हैं।

राहुल गाँधी ने पाँच पंक्तियों में मोदी सरकार का पंचनामा किया है जिसमें ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ कहने को मतभिन्नता कहा गया है; प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रचने वाले, भीमा कोरेगाँव में हिंसा करने वाले, दलित आंदोलन के नाम पर चौदह लाशें गिराने वाले ‘चिंतित नागरिक’ हैं जो नक्सलियों द्वारा सैकड़ों जवानों की घेर कर की गई हत्या पर जश्न मनाते हैं; श्रमिकों को पूरे देश से एक से दूसरे जगह ले जाने को विवश करने के बाद, सरकार द्वारा कोरोना संक्रमण की चिंता जताने पर उन्हें कोरोनावाहक कहने का झूठा आरोप लादा गया; राजस्थान में बलात्कार के आँकड़ों की अनदेखी करते हुए, हाथरस को उछालने की कोशिश करने वालों को पीड़िताओं का हितैषी बताया गया है; फुट मसाज, पिज्जा, सिनेमा का आनंद लेते हुए ‘मोदी मर जा तू‘ गाने वालों को किसान बताया है; जिन कंपनियों ने करोड़ों के घर में चूल्हा जला रखा है, रोजगार दिया है, वो क्रोनी कैपिटलिस्ट हैं।

वो राहुल बाबा है, वो कुछ भी कह सकता है कि तर्ज पर, हाल ही में अर्थशास्त्री और युद्ध मामलों के जानकार बने प्रधानमंत्री बनने के लिए ही अवतरित हुए बुजुर्ग युवा फिलहाल किसान आंदोलन को ले कर चिंतित पाए गए हैं। लेकिन, जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि कविता कहने से वस्तुस्थिति नहीं बदलती, न ही प्रेम पर सुंदर पुस्तक लिखने वाला अपनी पत्नी को प्रेम करता है, ऐसा जरूरी है, तो राहुल गाँधी भी ऐसे शब्द अवश्य लिख सकते हैं, या पैसे हों तो लिखवा सकते हैं, लेकिन ‘थोथा चना, बाजे घना’ वाली बात हो जाती है।

किसानों को ले कर चिंतित क्यों हैं राहुल गाँधी?

किसानों की चिंता करना अनुचित नहीं है। नेताओं के लिए तो किसान और उसके मुद्दे अत्यंत ही आवश्यक चीजें हैं। लेकिन समस्या यह है कि ट्विटर से ही देश बदल देने वाले राहुल और मीम से चुनाव जीतने की आशा रखने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी किसानों को ले कर तो छोड़िए, अपनी पार्टी को ले कर भी कभी चिंतित नहीं रहे। अगर होते तो दस नवम्बर को बिहार में पृष्ठ भाग का बंदरछाप बन जाने के बाद दो दिन का स्वावलोकन और मंथन शिविर लगाते। ये बात और है कि वहाँ दो-चार-दस नेता हार की जिम्मेदारी सर पर ले लेते और राहुल-सोनिया को अपना माई-बाप घोषित कर के चले आते।

बिलों को ले कर राहुल गाँधी की ब्रह्मांड हिलाने वाली ‘न्याय’ स्कीम के सूत्रधार, सलाहकार वाले नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी ने गजब की गूढ़ बात कर दी। उन्होंने कहा कि किसानों को ले कर बने कानूनों में कोई समस्या नहीं है, समस्या यह है कि किसानों में सरकार को ले कर विश्वास नहीं है। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि महामारी के समय में इन कानूनों सो लाने का कोई औचित्य नहीं है।

नोबेल विजेता हैं तो वो ऐसे कुतर्क कह सकते हैं, लोग सुन भी लेते हैं। लेकिन, बनर्जी को यह बताना चाहिए कि जब कानून सही हैं, तो फिर किसानों में अविश्वास क्यों है? क्या सरकार ने इन कानूनों के बारे में ठीक से चर्चा नहीं की, किसी तय व्यवस्था को दरकिनार करते हुए कानून पास करा लिए, या फिर लोगों के पास इसके प्रावधानों की जानकारी नहीं है? जी नहीं, सरकार ने अपने कई मंत्रियों के द्वारा, मीडिया चैनलों के द्वारा, किसानों के द्वारा इन कानूनों का खूब प्रचार किया है।

रवीश जैसे लोग जितना नाच लें कि अध्यादेश ले आई सरकार, लेकिन संसद ने इन विधेयकों को पास किया है। बनर्जी जितना अविश्वास के गीत गा लें लेकिन सरकार ने इसके हर प्रावधान को ले कर खूब चर्चा भी की है। अब, अगर किसी को पिज्जा खाने और मसाज करवाने में मजा आने लगा हो, तो वो कानून के प्रावधानों को क्यों पढ़ेगा? जिसे पता हो कि वो ‘आंदोलन’ में नहीं, आंदोलन ‘करने’ के लिए आया है, तो वो किसी भी बात को क्यों मानेगा?

संसद द्वारा पास किए गए कानूनों को हटाने की बात हो रही है जैसे कि संसद में जनप्रतिनिधि नहीं, कंपनियों के मालिक बैठे हुए हैं। MSP की गारंटी की बात की जा रही है, जबकि कोई यह देखने को तैयार नहीं कि सरकार MSP पर जब खरीदती है तो उसके चक्कर में होने वाले सरकारी घाटे को किसके द्वारा दिए गए टैक्स से पूरा किया जाता है। लोगों को यह नहीं जानना कि किसानों से हर साल लाखों टन अनाज आदि खरीदने के बाद सरकार उसे अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बेच भी नहीं पाती, क्योंकि उसे कम दाम में बेचने पर दोबारा घाटा लगेगा। इस कारण भी गोदामों में अनाज की बोरियाँ सड़ती हुई दिखती हैं।

एक बात और, अगर हर खरीदार MSP पर ही खरीदने को बाध्य हो जाएगा, तब जब सामानों का दाम बढ़ेगा तो महँगाई बढ़ने पर किसको घेरा जाएगा? समाजवाद की व्यवस्था, जहाँ नागरिकों को भी सामान सस्ता मिले और किसानों को भी ज्यादा पैसे, वहाँ संभव है जहाँ बजट सरप्लस में होता है। यहाँ हम हमेशा एक तरह की सब्सिडी को बढ़ाने के लिए दूसरी को घटाने में लगे रहते हैं। पूरी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पा रहा, इसलिए सरकार को उन्हें भी देखना है और दूसरों को भी।

ऐसे में समाजवादी सपने देखना सुहाना अवश्य लगता है, परंतु उसके दुष्परिणामों की चिंता किसी को नहीं। सरकार एक संतुलन बना कर चल रही है कि मंडी की व्यवस्था भी रहे और किसान उन चीजों का भी भंडारण कर सकें जो पहले सरकारी नियंत्रण में थीं, ताकि उन्हें बाद में खुले बाजार में बेच सकें। कॉन्ट्रेक्ट पर खेती का मतलब यह है कि किसान के पास एक और विकल्प है कि वो स्वयं खेती करना चाहता है या फिर, अपनी लागत के हिसाब से कंपनियों/संस्थाओं से अनुबंध कर के बाद के होने वाले आकस्मिक नुकसानों से बचना चाहता है।

अगर सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा इस कार्य में लगा दे जहाँ उसे हर सीजन में घाटा होना तय है, तो हो सकता है कि उसी किसान के घर में सिलिंडर की, बीमा की, आयुष्मान योजना की, पेंशन की, सम्मान निधि आदि की सब्सिडी नहीं पहुँच पाएगी। सरकारें पैसे नहीं छापती, बल्कि हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से जमा हुए पैसों को अलग-अलग तरीके से खर्च करती है।

विकासशील देश संतुलन ही बना कर चल सकते हैं क्योंकि सब-कुछ मुफ्त में या बिलकुल ही कम मूल्य पर देने का मतलब है कि घूम-फिर कर वह चोट भी सामान्य नागरिकों की ही जेब पर लगेगी। राहुल गाँधी यह नहीं समझते क्योंकि नोटबंदी के समय में, जो दो हजार का नोट उन्होंने निकाला था, उनका काम उतने से ही चल रहा है, आम नागरिक का काम उतने से नहीं चलता।

राहुल गाँधी को राहुल गाँधी होने की लग्जरी है। उन्हें लगातार मिलती हारों के बाद भी ‘आप ही अध्यक्ष बन जाइए’ सुनने की अनसुनी लग्जरी है। उन्हें इस बात की लग्जरी है कि वो सड़कों पर लोगों को उतार कर दस हजार लोगों पर पैसे खर्च सकें ताकि उनके राजनैतिक विरोधियों को अराजकता के दम पर झुकाया जा सके। उन्हें इस बात की लग्जरी है कि वो ट्वीट में भावुक बातें लिख कर वामी-कामी मीडिया के ललना बन सकते हैं।

उन्हें इस बात की भी लग्जरी है कि वो उन्हीं बड़ी कम्पनियों को गरिया सकते हैं जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है।

क्रोनी कैपिटलिज्म बनाम नेहरूवियन सोशलिज्म

राहुल गाँधी और उनके ‘आंदोलनकारी’ किसानों की विचित्रता देखिए (अगर उनकी यह बात मान भी लें कि अडानी-अम्बानी कृषि के क्षेत्र में आ रहे हैं) कि इसी देश की संस्थाएँ अगर किसानों से कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग समेत अन्य तरीकों से अपनी जगह बनाना चाहती है तो उसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहते हैं, लेकिन 1991 में देश की अर्थव्यवस्था को खोलने वाली नीति के लिए क्रेडिट लेना आज भी नहीं बंद करते।

वैश्विक संदर्भ में देश की अर्थव्यवस्था को खोलना समय की माँग थी, लेकिन कॉन्ग्रेस अगर कैपिटलिज्म, यानी पूँजीवादी व्यवस्था से इतना सशंकित है, तो फिर वो इसका क्रेडिट क्यों लेता है? कोका कोला और पेप्सी ने देश के पेय पदार्थों के बाजार पर क्या डुओपॉली नहीं बना रखी है? एमेजॉन, ऊबर, फेसबुक, गूगल, सैमसंग, शाओमी, नेस्ले, होंडा, ह्यूंडाय आदि कहाँ की संस्थाएँ हैं? ये क्या अपना विशुद्ध लाभ भारत में रहने दे रही हैं?

जब आपके देश की सबसे पुरानी पार्टी को विदेशी संस्थाओं द्वारा बाजारों पर एकतरफा कब्जा करना सही लगता है, और पतंजलि, अडानी, अम्बानी का आगे आना बुरा, तब आपकी सोच के गुणसूत्रों में समस्या है। कुछ विदेशी कम्पनियाँ तो पहले से ही भारत के कृषि क्षेत्र में घुसी हुई हैं, तब किसी ने आंदोलन नहीं किया। नेस्ले और पेप्सी जैसे उद्योग सॉस, नूडल्स, चिप्स, मसाले आदि कहाँ से बनाते हैं? उनको किस नीति के तहत और किस सरकार ने बुलाया, और तब कैपिटलिज्म की याद क्यों नहीं आई?

अपनी प्रासंगिकता खोता एक पत्रकार बकैत रवीश एक दिन फेक न्यूज चला देता है कि अडानी ने सरकार के लिए गोदाम बनाए हैं, और फिर उसके हिसाब से कृषि बिल बना दिए गए। जबकि सत्य यह है कि अडानी की कम्पनी यूपीए के समय में भी FCI को भाड़े पर गोदाम (सायलोज़) उपलब्ध कराती थी। उसी तरह, हर बात पर अम्बानी को घेर लिया जाता है कि वो सरकार को जेब में रख कर चलते हैं।

अगर अम्बानी सरकार को जेब में रख कर चलते थे उन पर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट और ईडी के मामले नहीं चल रहे होते। एक और आँकड़ा देख लेते हैं कि 2004 में रिलायंस के एक शेयर की कीमत जहाँ ₹84 थी, वही 2014 में ₹558 हो गई। मोदी के आने के बाद यह आँकड़ा अभी ₹1973 का है। यूपीए के दस सालों में रिलायंस 6.6 गुणा बढ़ा, और मोदी के समय में छः सालों में इसकी वृद्धि साढ़े तीन गुणा की है। हर साल का भी औसत निकालेंगे तो यूपीए के समय में रिलायंस ने बेहतर वृद्धि पाई है।

हमारे देश में यह विसंगति है कि लोगों को बड़ी कम्पनियों से, या वेल्थ क्रिएटर्स से समस्या है। हम चीजों को वैसे ही देखना चाहते हैं जैसे हमारी फिल्मों में दिखाया जाता है। किसान शब्द सुनाई पड़ते ही हमें गरीब किसान याद आता है, लाला सुनते ही हमें कंगन रख कर सूद देने वाला बनिया नजर आता है, ब्राह्मण सुनते ही हमें व्यभिचारी और लालची, ढोंगी व्यक्ति की याद आती है, उद्योगपति सुनते ही हमें खून चूसने वाला और ऐश करने वाला इंसान दिखता है।

ये सारी कंडिशनिंग वामपंथियों ने कर रखी है। वामपंथियों की प्रकृति ही रही है कि वो अराजकतावादी होते हैं। सर्वहारा की बातें करने वालों ने कितनी बार सर्वहारा को सत्ता दी है, वो इतिहास जानता है। वामपंथी अपनी सफलता या आंदोलन की सफलता के लिए समाज के हर ताने-बाने को पहले बिलकुल बर्बाद कर देना चाहता है ताकि वो स्वयं को एक विकल्प के रूप में स्थापित कर सके।

जहाँ भी वामपंथी सत्ता में गए हैं, इतिहास देख लीजिए कि वहाँ का समाज किस स्थिति में पहुँच चुका था। साथ ही, उनके सत्ता में आने के बाद उनकी अपनी विचारधारा कैसी विकृत हो जाती है, वो चीन में दिखता है। विश्व के किस राष्ट्र में वामपंथ ने सामाजिक बेहतरी की है, और वो राष्ट्र वैश्विक परिदृश्य में क्या हैसियत रखता है, यह भी पता कीजिए।

वही नीच निगाह भारत पर भी है। चाहे वो इस्लामी गजवा-ए-हिंद हो, ईसाई कन्वर्जन वाले मिशनरी हों या फिर वामपंथी विचारधारा, भारत इन सबका ‘फायनल फ्रंटियर’ रहा है जहाँ ये उस तरह से कभी भी सफल नहीं हो पाए, जैसे वो अन्य जगहों पर हुए हैं। इसीलिए, राजनैतिक रूप से अलग होने के बाद भी, ये तीनों तरह के परजीवी आपको राष्ट्रवादियों के विरोध में इकट्ठा मोर्चा लिए खड़े मिलते हैं।

भारत में गरीबी ज्यादा है, और इसलिए हर पार्टी चाहती है कि हर तरह के कमज़ोर लोगों को एक दुश्मन दिखा दिया जाए। गरीबों के लिए उद्योगपतियों को राक्षस की तरह दिखाया जाता है, मुसलमानों के लिए हिन्दुओं को दुश्मन की तरह दिखाया जाता है, दलितों के लिए ब्राह्मणों को दुश्मन के तौर पर खड़ा कर दिया जाता है। वही ब्राह्मण जो गरीब है, वो दलितों के लिए दुश्मन है, भले ही दोनों की सामाजिक परिस्थिति बिलकुल एक ही है। वही हिन्दू जो दलित है, मुसलमानों की एक भीड़ के लिए काफिर बन जाता है जबकि दोनों की सामाजिक स्थिति एक-सी ही है।

ऐसे में दुश्मन तैयार करने में नेता लोग आगे रहते हैं। जिनका राजनैतिक करियर लगातार खत्म होता जा रहा है, और जो जानते हैं कि निकट भविष्य में वो सत्ता में आ ही नहीं सकते, वो कभी बेरोज़गारी भत्ते की बात करते हैं, तो कभी ‘न्याय योजना’ की। वो कभी अडानी और अम्बानी का बहिष्कार करवाते हैं, तो कभी उसी पतंजलि का जिसने हजारों कृषकों को एक नए बाजार से जोड़ा है।

आम आदमी कभी-कभी अपनी मूर्खता में वास्तविकता से इतनी दूर हो जाता है कि उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि एलोवेरा का जूस हो या फिर दाँत साफ करने का पेस्ट, उन सबके आधार में कृषि ही है न कि पतंजलि वाले तपस्या करते हैं और उनके च्यवनप्राश का डब्बा च्यवन ऋषि स्वर्ग से फेंक देते हैं।

किसान नहीं हैं ये, ये खराब गुणवत्ता के नुक्कड़ नाटक कलाकार हैं

‘इंदिरा को ठोका था, मोदी को भी ठोक देंगे’ से शुरु हुए आंदोलन से किसान के मुद्दे गायब हो चुके हैं और अब यह ‘हाय-हाय मोदी मर जा तू‘ तक पहुँचा है। शाहीन बाग की आंशिक सफलता के बाद इन्होंने आंदोलन के नाम पर सड़कों पर अस्थाई टाउनशिप बनाने की योजना को परफैक्ट कर लिया है। अब यहाँ फुट मसाज से ले कर सिनेमा प्रोजेक्टर और प्रोटीन शेक तथा पिज्जा मिल रहा है।

कुछ दिनों में यहाँ से भी कहानियाँ आएँगी कि सड़क पर ही आंदोलन करते हुए ‘मोदी तू मरता क्यों नी’ का रैप बनाने वाले बंटी से गाल पर ‘फक हिन्दू राष्ट्रा’ लिखवा कर घूमने वाली बबली को लव एट फर्स्ट साइट हो गया। शाहीन बाग की तर्ज पर, इस ठंढ में एक दो नवजात शिशुओं की बलि दी जाएगी ताकि अंतरराष्ट्रीय खबर बने कि क्रूर मोदी के राज में सड़कों पर ‘विरोध प्रदर्शन’ करता नवजात मर गया।

अंततः, सवाल तो यही है कि विपक्ष ने जिस बिल को अपने मैनिफेस्टो का हिस्सा बनाया था, उसी का विरोध क्यों कर रहा है? उत्तर यही है कि बिल कोई भी हो, मोदी पर फाड़ दो और विरोध में जुट जाओ। फंडिंग आ ही रही है, पिज्जा बन ही रहा है, बाबाजी के तलवों में खालिस्तानी लोग मशीनों से मालिश कर ही रहे हैं। चूँकि, पंजाब के लोग हैं तो मैं लगभग आश्वस्त हूँ कि यूट्यूब पर दिसंबर के अंत तक किसान आंदोलन का एक अल्बम जारी हो जाएगा।

ये आंदोलन कम और आयोजन ज्यादा है। भारत ही ऐसा देश है जहाँ टेंट गाड़ कर उन कानूनों के नाम पर आंदोलन होता है जिसका भारत के नागरिकों से कोई लेना-देना है ही नहीं। यहाँ एक राज्य के उन्हीं किसानों की बात को सच माना जाता है जो सरकार के विरोध में खड़े हैं लेकिन सरकार को समर्थन देने वाले भले ही संख्या में ज्यादा हैं, वो किसान होने के बाद भी गलत बताए जाते हैं।

राशन ले कर आंदोलन पर आने वाले लोग आंदोलन करने नहीं आते। उन्हें यह कैसे पता कि उन्हें चार महीने बैठना पड़ेगा? क्या उनके पास पहले का कोई उदाहरण है जहाँ ऐसा हुआ हो कि सरकार ने चार महीने तक बात ही न की हो? ऐसा उदाहरण नहीं है। शाहीन बाग बनते-बनते बन गया और सारी फंडिंग आते-आते आ गई। यहाँ शाहीन बाग का अनुभव है, इसलिए शुरुआती तौर पर चार महीने की तैयारी है, तब तक अगले चार महीने की भी हो जाएगी।

राशन ले कर आना बताता है कि चाहे सरकार तुम्हारी माँग मान भी ले, हटना नहीं है। इनकी माँग में शाहीन बाग के दंगाइयों और नक्सलियों की रिहाई की बात क्यों है? क्योंकि वो जानते हैं कि एक बार को किसानों के मुद्दे पर सरकार कुछ संशोधन कर भी दे, लेकिन रिहाई की बात तो मानेगी नहीं। साथ ही, इन्होंने संशोधन की भी माँग नहीं की है, इन्होंने सीधे तीन कानूनों को वापस लेने की बात की है जिसका विरोध भारत के बाकी 27 प्रदेशों का किसान नहीं कर रहा।

स्पष्ट है कि आपको माँग ही ऐसी रखनी है कि मानी ही न जाए, तो आंदोलन जीवित रहेगा। जैसे कि फरवरी 2020 में भीम आर्मी और सीएए विरोधी इस्लामी संगठनों ने जान-बूझ कर पुलिस से अपने पदयात्रा की अनुमति नहीं ली ताकि उन्हें ज्योंहि रोका जाएगा, वो ये कहने लगें कि मोदी की पुलिस छात्रों को आगे बढ़ने से रोक रही है।

इसलिए राशन के साथ आए लोग मुझे आंदोलनकारी नहीं लगते। भले ही उनके पास खेत हो, और वो कृषि भी करते हों, पर मेरी सहानुभूति उनके साथ नहीं है। वह इसलिए नहीं है क्योंकि मुझे उनकी मंशा पर गहन संदेह है। जब राहुल गाँधी जैसे लोग इसमें कूदते हैं, और भावुकता से भरी कविता करने लगते हैं, तब सब कुछ स्पष्ट हो जाता है।

हमारे सामने वो विचारधारा है जो तब तक लड़ने की बात रखती है जब तक जीत न जाए। उसे एक राजनैतिक पार्टी का समर्थन हासिल है जिसका नेता एक नरगधी है, लेकिन उसके पास परिवार के पुराने विकसित तंत्रों के कारण फंडिंग की क्षमता है। इस विचारधारा का मूल लक्ष्य ही बर्बादी है, सड़कों पर लोगों की अराजकता का नंगा नाच है ताकि वो जलते हुए बाजार के बीच खड़ा हो कर कह सके कि ‘देखो, इन पार्टियों ने तुम्हें क्या दिया? लोकतंत्र ने तुम्हें कहाँ पहुँचाया… इन उद्योगपतियों के घर देखो, और अपना घर देखो, इन्होंने तुमसे ही तो लूट कर यह घर बनाया है! हम तो कब से कहते थे कि सर्वहारा ही सर्वोच्च है, उसका ही राज होना चाहिए…’

बेस्ट फ्रेंड होना आवश्यक है

आज भले ही चीन से लड़ाई हो लेकिन आप शाओमी की फैक्ट्रियों में आग नहीं लगा सकते क्योंकि उसकी फैक्ट्री में भारतीय लोग काम करते हैं, उनका घर चलता है। विरोध और बेवकूफी में अंतर होता है। विदेशी निवेश भी आवश्यक है क्योंकि आपके घर में जिनके पास पैसा है, आवश्यक नहीं कि उनके पास आइफोन बनाने की क्षमता भी हो। इसलिए, कई मामलों में विदेशी निवेश से अपने देश के लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार, कच्चे माल के इस्तेमाल की आवश्यकता के जरिए अपने लोगों के लिए परोक्ष रोजगार, टैक्स के रूप में राजस्व में वृद्धि होती है।

विदेशों में ऐसे लोगों को आदर्श की तरह देखा जाता है। ऐसा नहीं है कि अम्बानी ने जियो बनाया और सबके फोन से बैंकिंग एप्प में सेंध मार कर पैसे बनाए जा रहा है। आपको किसी ने जबरन तो नहीं कहा कि जियो का सिम ले लो और रिलायंस फ्रेश से ही सब्ज़ियाँ खरीदना? अडानी ने तो जबरदस्ती नहीं की आपके साथ? टाटा ने यह तो नहीं कहा कि मेरी कार नहीं लोगे तो मोदी को बता देंगे?

क्या इन कम्पनियों ने आप पर विकल्पहीनता की भी स्थिति लाई? या सरकार ने कहीं भी कहा कि सिम तो जियो का ही लेना होगा और बिजली तो अडानी ही देगा? या फिर, सरकारी परियोजनाओं में इन कम्पनियों के होने का कारण एक बिडिंग प्रक्रिया है जो सारी कम्पनियों को उपलब्ध है? हाल ही में सुब्रमण्यम स्वामी ने पूछ दिया कि टाटा को कैसे दे दिया संसद भवन का काम? जबकि टाटा ने लार्सन एंड टूब्रो से कम पैसों की बिडिंग करके ये ठेका जीता था।

बात वही है कि जिन लोगों ने आधुनिक भारत को आकार देने में अहम योगदान दिया है, उन्हें बड़ी ही आसानी से गुंडा और लुटेरा बना कर दिखा दिया जाता है। अगर क्रोनी कैपिटलिज्म ही चल रही है तो फिर कॉन्ग्रेस पार्टी रैनबैक्सी, बिरला, टाटा, वीडियोकॉन, वेदांता, जिंदल आदि कम्पनियों से चंदा क्यों लेती रही है? आखिर यूपीए के दस सालों में एक लाख करोड़ के कॉन्ट्रैक्ट अम्बानी समूह को क्यों दिए गए?

जब ये लोग इतने घृणित हैं तो तुम्हारी पार्टी के शीर्ष नेता इनके कोर्ट केस क्यों लड़ते हैं? कहाँ चली जाती है विचारधारा? तब तुम्हें याद आएगा कि सरकारी प्रक्रिया के तहत रिलायंस ग्रुप को ठेके मिले, चंदा तो सारी पार्टियाँ लेती हैं, कोर्ट केस तो पार्टी नेता के तौर पर नहीं, एक वकील के तौर पर लड़े जाते हैं। सारा ज्ञान तभी बाहर आने लगता है।

अगर टैक्स का हेर-फेर हुआ है, किसी कम्पनी ने कहीं डाका डाल दिया, कुछ गलत किया तो उस पर सबका ध्यान खींचना आवश्यक है, लेकिन सिर्फ उस कम्पनी का बड़ा होना, उसके उत्पादों की सामाजिक स्वीकृति, उसके प्रोडक्ट्स का सफल होना कोई अपराध नहीं है। अपराध है एक पार्टी का डूबते ही जाना और शीर्षस्थ नेतृत्व का गोवा में, थायलैंड में या कोलंबिया में होना। अपराध है कि पार्टी चलाना आपका मुख्य कार्य है और आपके बड़े नेता बार-बार चिट्ठियाँ लिख रहे हैं, और आपको फर्क नहीं पड़ रहा।

ऐसा करना अपने कार्यकर्ताओं को ठगना है और राष्ट्र को एक सशक्त विपक्ष की जगह सियारों और लकड़बग्घों की एक अशक्त सेना दे देना है। राहुल गाँधी अपने मूल कार्य में असफल रहे हैं और उनके जैसे लोगों का संसद में होना सुनिश्चित करता है कि कॉन्ग्रेस ‘आँख मारे वो लड़का आँख मारे’ से ले कर ‘हँसे तो दो गालों में भँवर पड़ा करते थे’ में ही प्रसन्नचित्त है। जो पार्टी इस तरह की खुमारी में जीती हो, उसका नेता अपने आपको सेमुअल टेलर कॉलरिज और अपने ट्वीट को ‘कुबला खान’ जैसी अप्रतिम रचना नहीं मानेगा तो क्या करेगा!

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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