मोदी सरकार (Modi Government) पर निशाना साधते हुए राहुल गाँधी (Rahul Gandhi) का कहना है कि 2014 से पहले ‘लिंचिंग’ (Mob Lynching) शब्द सुनने में भी नहीं आता था। आइए, उन्हें इतिहास-बोध का भान कराएँ। जिस कॉन्ग्रेस (Congress) पार्टी के नेताओं के नाम 1984 के सिख नरसंहार में सामने आए हों, उनके मुँह से ये चीजें वैसे भी शोभा नहीं देतीं। इन्होंने ‘लिंचिंग’ का नाम नहीं सुना था, क्योंकि इनकी भाषा में इसे ‘बड़े पेड़ गिरने के बाद धरती का हिलना’ कहते हैं।
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और कपूरथला के निजामपुर गुरुद्वारे में दो युवकों की मॉब लिंचिंग के बाद ये शब्द फिर से चर्चा में है। पंजाब में कॉन्ग्रेस की सरकार है, लेकिन इन घटनाओं के लिए राहुल गाँधी भाजपा को दोषी मान रहे। नेताओं ने निंदा भी बेअदबी की ही की है, जिसके आरोप में हत्याएँ हुईं। इनमें इतनी हिम्मत नहीं कि हत्या की निंदा करें। सरकार और प्रशासन इनका है, लेकिन ‘मॉब लिंचिंग’ के लिए ये 2014 से पहले और 2014 के बाद वाली तुलना कर रहे।
जिस तरह से झारखंड में चोर तबरेज आलम, राजस्थान में पहलू खान और उत्तर प्रदेश में उत्तर प्रदेश में मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या के मामले को उछालते हुए इन सब में हिन्दू धर्म को बदनाम करने वाला सांप्रदायिक मोड़ दिया गया, ‘मॉब लिंचिंग’ के शब्द को भी हिन्दुओं से जोड़ने की साजिश का हिस्सा भी यही घटनाएँ थीं। ये अलग बात है कि नालंदा में शुभम पोद्दार, कासगंज में चन्दन गुप्ता या फिर दिल्ली दंगों में अंकित शर्मा की हत्या इनके लिए ‘मॉब लिंचिंग’ की श्रेणी में नहीं आती।
2014 से पहले ‘लिंचिंग’ शब्द सुनने में भी नहीं आता था।
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 21, 2021
Before 2014, the word ‘lynching’ was practically unheard of. #ThankYouModiJi
या तो राहुल गाँधी का इतिहास बोध कमजोर हो गया है या फिर उन्हें इतिहास का ज्ञान ही नहीं है। ये भी हो सकता है कि वो जानबूझ कर ऐसा बोल रहे हों, ताकि लोग ये भूल जाएँ कि अपराध के मामले में अव्वल राजस्थान में उनकी ही पार्टी की सरकार है। इसीलिए, हमारा फर्ज बनता है कि हम उनकी पार्टी के शासनकाल में हुए ऐसे नरसंहारों की उन्हें याद दिलाएँ, जिनमें सीधे गाँधी परिवार और कॉन्ग्रेस नेताओं के नाम सामने आए। ऐसी एक घटना नहीं है, लेकिन प्रमुख घटनाओं की तो चर्चा हम कर ही सकते हैं।
एक और बात ये भी है कि पहले ये चीजें सुनने में इसीलिए भी नहीं आती होंगी, क्योंकि तब सोशल मीडिया का जमाना नहीं था। सरकारी टेलीविजन पर देश-दुनिया वही सुनती-देखती थी, जो कॉन्ग्रेस चाहती थी। अभी भी नैरेटिव बनाने वाला पूरा का पूरा गिरोह कॉन्ग्रेस के हाथों में खेलता है, जिसमें ‘खान मार्किट’ का पत्रकार से लेकर लिबरल-सेक्युलर गिरोह के कथित एक्टिविस्ट्स शामिल हैं। अब सोशल मीडिया पर आम लोग आवाज़ उठा सकते हैं, लेकिन कॉन्ग्रेस को बेचैनी हो रही है।
1966 में गोरक्षक साधुओं पर कहर बन कर चली थीं कॉन्ग्रेसी गोलियाँ
आज से 56 साल पहले 7 नवंबर, 1966 को (विक्रम संवत में कार्तिक शुक्ल अष्टमी, जिसे गोप अष्टमी भी कहते हैं) इंदिरा गाँधी की सरकार ने निहत्थे साधु-संतों के नेतृत्व में गौ हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की लोकतांत्रिक तरीके से माँग कर रही हजारों की भीड़ पर गोली चलवाई, आँसू गैस के गोले छोड़े, लाठियाँ बरसवाईं। यानी, दमन के वह सभी हथियार जनता को दोबारा चखने को मिले जिनको ब्रिटिश छोड़ कर गए थे, और जिनसे मुक्ति के सब्ज़बाग दिखाकर इन्हीं कॉन्ग्रेसी नेताओं ने आम आदमी को आज़ादी की लड़ाई में जोता था।
संसद भवन के बाहर उन्हें रोक दिया गया और साधु-संतों ने अंदर बैठे सत्ताधीशों को निशाने पर लेकर इकठ्ठा भीड़ को सम्बोधित करना शुरू कर दिया। इसके पहले काफ़ी समय से माँग की जा रही थी कि संविधान के उन हिस्सों, जिन पर अमल करना सरकार के लिए जरूरी नहीं, से गौ-रक्षा को सरकार असली, ठोस नीति के रूप में कानून की शक्ल दे। शांतिपूर्वक चल रही रैली की भीड़ तब उत्तेजित हो गई जब पता चला कि भारतीय जनसंघ के सांसद स्वामी रामेश्वरानंद को “अगरिमापूर्ण आचरण” के आरोप में संसद से धक्के मारकर निकाल दिया गया है।
इसमें मरने वालों की संख्या पर बहुत विवाद है- सरकारी आँकड़े जहाँ महज़ 7 या 8 लोगों के मारे जाने की बात स्वीकारते हैं (और 500 से अधिक लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की बात अगले ही दिन एक अखबार में छपी थी)। संघ विचारक केएन गोविंदाचार्य इस आँकड़े को 200 से ज्यादा बताते हैं। कुछ दक्षिणपंथी संगठनों का दावा है कि असल में 5000 से अधिक लोगों ने जान गँवाई थी, और उन्हें बिना निशान की कब्रों में सरकार ने दफन करा दिया। 209 राउंड पुलिसिया गोलीबारी की बात तब भी सामने आई थी।
1984: जब राजीव गाँधी के शब्दों में ‘बड़ा पेड़ गिरने से हिली थी धरती’
कॉन्ग्रेस के लिए सिखों की जान का कोई महत्व नहीं था, क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद कॉन्ग्रेस पार्टी के नाम इसमें सामने आए थे और उनके उत्तराधिकारी राजीव गाँधी ने कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। आज भी सज्जन कुमार इस मामले में जेल में हैं, जो कॉन्ग्रेस के बड़े नेता थे। दिल्ली कॉन्ग्रेस में सक्रिय जगदीश टाइटलर हों या मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ, इन ऐसे कई कॉन्ग्रेस नेताओं पर नरसंहार में शामिल होने के आरोप लगे।
इसी नरसंहार की पीड़ितों को न सिर्फ न्याय दिलाने के लिए मोदी सरकार प्रयास कर रही है, बल्कि मृतकों के आश्रितों को वित्तीय सहायता भी मुहैया कराई जा रही है। अगस्त 2021 में घोषित किए गए एक पैकेज में मृतकों के आश्रितों के लिए 3.50 लाख रुपए एवं घायलों के लिए 1.25 लाख रुपए की व्यवस्था की गई। इस योजना में राज्य सरकारों द्वारा मृतकों की विधवाओं और बुजुर्ग परिजनों को 2,500 रुपए की मासिक पेंशन देने का भी प्रावधान किया गया है।
इस नरसंहार में सिर्फ दिल्ली में ही 3000 सिखों की हत्या कर दी गई थी और 50,000 से भी अधिक सिख बेघर हो गए थे। कई दिनों तक ये नरसंहार चलता रहा था। उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी और 1980 बैच के आईपीएस अधिकारी सुलखान सिंह ने 1984 के सिख दंगे को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के इशारे पर सिखों के ख़िलाफ़ किया गया नरसंहार बताया था। उन्होंने लिखा था कि राजीव गाँधी के मुख्य विश्वासपात्र कमलनाथ इस पूरे नरसंहार की मॉनीटरिंग कर रहे थे।
1990 में कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार: कॉन्ग्रेस पार्टी ने तब भी नहीं सुना ‘मॉब लिंचिंग’ का नाम?
1990 में किस तरह कश्मीरी पंडितों को उनके ही साथ रहने वाले मुस्लिमों ने चुन-चुन कर मारा, ये किसी से छिपा नहीं है। अपने ही देश में बेघर हो चुके कश्मीरी हिन्दुओं ने कभी हथियार नहीं उठाया। क्या तब मुस्लिम भीड़ द्वारा महर्षि कश्यप की भूमि से उनके ही वंशजों के नरसंहार को कॉन्ग्रेस ‘मॉब लिंचिंग’ की श्रेणी में नहीं रखती? मुस्लिम भीड़ का अपराध कॉन्ग्रेस की नजर में पुण्य का कार्य है? कॉन्ग्रेस पार्टी के मित्र अब्दुल्लाओं की पार्टी ने वहाँ लम्बे समय तक राज़ किया और इस दौरान आतंकी फलते-फूलते रहे।
आज भी मोदी सरकार ही इस नरसंहार और पलायन के पीड़ितों के लिए कार्य कर रही है और 1000 से भी अधिक कश्मीरी हिन्दुओं को उनकी संपत्ति वापस मिली है। हर जिले में ऐसी संपत्तियाँ चिह्नित की जा रही हैं। उन्हें घाटी में फिर से बसाने के लिए प्रयास तेज़ किए जा रहे हैं। उन्हें नौकरियाँ दी जा रही हैं। IANS समाचार एजेंसी की विदेश मामलों की संपादक आरती टिकू सिंह ने बताया था कि समुदाय के लोग चुन-चुन कर मारे जा रहे थे, कश्मीरी पंडितों के नेताओं को भी मारा जाने लगा और सीरियल मर्डर्स का माहौल शुरू हो गया। उन्हें 12 वर्ष की उम्र में घर छोड़ना पड़ा था।
कश्मीर में ‘लड़कियों को रखेंगे, लड़को को मार डालेंगे’ का नारा भी लगा था। नैरेटिव बनाने वालों की ताकत ये है कि अख़बारों-पत्रिकाओं में छपवाया गया कि राज्यपाल जगमोहन मुस्लिमों को मरवाना चाहते हैं, इसीलिए उन्होंने ही कश्मीरी पंडितों को वहाँ से निकाला।भारतीय स्तंभकार सुनंदा वशिष्ठ टॉम लैंटॉस एचआर द्वारा आयोजित यूएस कॉन्ग्रेस की बैठक में दुनिया को बताया था कि कैसे 19 जनवरी 1990 की रात घाटी के हर मस्जिद से एक ही आवाज आ रही थी कि हमें कश्मीर में हिंदू औरतें चाहिए, लेकिन बिना किसी हिंदू मर्द के।”
2002 में गोधरा में ज़िंदा जला दिए गए थे रामभक्त
क्या एक साथ 59 हिन्दुओं, जिनमे महिलाएँ-बच्चे-बुजुर्ग भी हों, उनकी हत्या कर देना ‘लिंचिंग’ की श्रेणी में नहीं आएगा? सिर्फ इसीलिए ये कॉन्ग्रेस की डिक्शनरी में ‘लिंचिंग’ नहीं कहा जा सकता क्योंकि मरने वाले रामभक्त थे और मारने वाली भीड़ मुस्लिमों की थी। 59 मृतकों और 48 घायलों के बावजूद ये ‘लिंचिंग’ नहीं है राहुल गाँधी की नजर में। हिन्दुओं को ज़िंदा जला देना उनके लिए शायद अपराध भी न हो। 2000 लोगों की मुस्लिम भीड़ ने जो किया, उसे आज कोई याद नहीं करना चाहता।
आज मुनव्वर फारुकी जैसे कॉमेडियनों को पूरी आज़ादी है कि वो गोधरा में ज़िंदा जला कर मार डाले गए हिन्दुओं का मजाक बनाएँ और कॉन्ग्रेस ऐसे लोगों के शो का आयोजन भी कराती है। इसी कॉन्ग्रेस का पूर्व मुखिया (वर्तमान सर्वेसर्वा) कहता है कि हमने तो 2014 से पहले लिंचिंग का नाम सुना ही नहीं है। गोधरा में 27 फरवरी 2002 की सुबह साबरमती एक्सप्रेस के कोच एस-6 को जला दिया गया। ये कारसेवक अयोध्या से ‘विश्व हिंदू परिषद (VHP)’ द्वारा आयोजित पूर्णाहुति महायज्ञ में भाग लेकर वापस लौट रहे थे। 27 फरवरी की सुबह ट्रेन 7:43 बजे गोधरा पहुँची।
जैसे ही ट्रेन गोधरा स्टेशन से रवाना होने लगी उसकी चेन खींच दी गई। ट्रेन पर 1000-2000 लोगों की भीड़ ने हमला किया। भीड़ ने पहले पत्थरबाजी की फिर पेट्रोल डालकर उसमें आग लगा दी। इसमें 27 महिलाओं, 22 पुरुषों और 10 बच्चों की जलने से मृत्यु हो गई। इसी कॉन्ग्रेस का पूर्व मुखिया (वर्तमान सर्वेसर्वा) कहता है कि हमने तो 2014 से पहले लिंचिंग का नाम सुना ही नहीं है। क्योंकि इस घटना के मुख्य षड्यंत्रकारी गोधरा का मौलवी हुसैन हाजी इब्राहिम उमर और ननूमियाँ थे। इन्होंने सिग्नल फालिया एरिया के मुस्लिमों को भड़काकर इस षड्यंत्र को अंजाम दिया।
राहुल गाँधी इतिहास पढ़ें, वयस्क तो वो 33 साल पहले ही हो चुके हैं
राहुल गाँधी थोड़ा और पीछे जाएँ तो देख सकते हैं कि कैसे लाखों हिन्दुओं को भारत-पाकिस्तान विभाजन के लिए मार डाला गया था और उसके बाद जवाहरलाल नेहरू को सत्ता मिली थी। बंगाल के नोआखली और टिप्पेराह में हुए दंगे कैसे भूल गए राहुल गाँधी? उससे पहले ‘खिलाफत आंदोलन’ को उनकी पार्टी ने समर्थन दिया था और उस दौरान केरल में ‘मोपला नरसंहार’ में सैकड़ों हिन्दुओं को मार डाला गया। हाल ही में बात करें तो TMC की जीत के बाद पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा में भाजपा कार्यकर्ता चुन-चुन कर निशाना बनाए गए, लेकिन राहुल गाँधी को ये ‘लिंचिंग’ नहीं लगता। बावजूद इसके कि कॉन्ग्रेसी भी इसमें मारे गए थे।
राहुल गाँधी को देश का इतिहास नहीं, सिर्फ अपनी पार्टी कॉन्ग्रेस का ही इतिहास पढ़ लेने की ज़रूरत है, ताकि उन्हें पता चल जाए कि ‘लिंचिंग’ क्या होता है। पार्टी भी छोड़ दीजिए, वो अपने परिवार का ही इतिहास पढ़ लें कम से कम। असल में 2014 से पहले ऐसी ज्यादा ही घटनाएँ सामने आती थीं, लेकिन उसे एक खास नैरेटिव का अंग नहीं बनाया गया और तब का विपक्ष हिन्दुओं को बदनाम करने वाला नहीं था, इसीलिए इसे लेकर ज्यादा हंगामा नहीं हुआ।