Friday, November 22, 2024
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कपटी वामपंथियो, इस्लामी कट्टरपंथियो! हिन्दू त्योहार तुम्हारी कैम्पेनिंग का खलिहान नहीं है! बता रहे हैं, सुधर जाओ!

हर व्यक्ति, जो भी जिस कार्य में दक्ष हो, वहीं से इन पर प्रहार करे। कार्टून बनाने वाले इतने कार्टून बनाओ कि वामपंथनें बिलबिला जाएँ। इनके व्यभिचार पर कार्टून बनाओ, इनके बलात्कारी प्रवृत्ति पर कार्टून बनाओ, इनके गाँजा पीने, नशेड़ीपने पर कार्टून बनाओ। इनको हर उस गलत कार्य में संलिप्त दिखाओ जो ये अपनी पीएचडी की डिग्री और ट्विचर के ब्लू टिक में छुपाते हैं।

कुकुरमुत्तों में दो गुण होते हैं, पहला है कहीं भी उगे तो ऐसे उगेंगे कि नियंत्रित करना दुष्कर हो जाता है। दूसरा गुण, वस्तुतः अवगुण, इसमें से कई जहरीले भी होते हैं। दिखने में वैसे ही लगते हैं जैसे आम गोबरछत्ता या कुकुरमुत्ता होता है। बिहार के मिथिला क्षेत्र में इन्हें ‘गोबरछत्ता’ बोला जाता है क्योंकि ये गोबर पर ‘छाते’ की शक्ल में उगते हैं। कुकुरमुत्ता इसलिए नहीं बोलते क्योंकि ‘कुकुर’ हमारी तरफ कुत्तों को बोला जाता है, और ‘मुत्ता’ का संबंध लघुशंका निवारण में निकले अपशिष्ट तरल से होता है।

ऐसी ही एक प्रजाति मनुष्यों में भी पाई जाती है जो जहाँ भी जाती है, कुकुरमुत्तों की तरह फैलती है, और उसकी सोच जहरीली होती है। इसके संसर्ग में जो भी आता है, अगर इनकी मात्रा अधिक हो, तो वो बच नहीं पाता। पूरे विश्व में इस प्रजाति को एक दूसरी तरह की प्रजाति संरक्षण देती है। ये उन्हीं के सड़न से अपना पोषण पाते हैं। वो जितना सड़ेंगे, गलेंगे, दुर्गंध फेंकेंगे, पहले वाले उतने ही ज्यादा सुपोषित हो कर लड़ने को तैयार मिलेंगे। जहरीले कुकुरमुत्तों के अनूठे प्रयोग पर पॉल थॉमस एंडरसन द्वारा निर्देशित, और डेनियल डे लुइस अभिनीत एक हॉलीवुड फिल्म ‘फैंटम थ्रेड’ भी आई थी।

खैर, यह तो हो गई जीव विज्ञान से संबंधित जानकारी, जिसका इस लेख से कोई खास मतलब है नहीं। शुरु में अगर आप ऐसी वैज्ञानिक बातें लिख देते हैं तो लोगों को लगता है कि आदमी जानकार है। तो, अब मुद्दा यह है कि भारत में हिन्दुओं के हर त्योहार के पहले वामपंथियों, जकातियों, इस्लामी कट्टरपंथियों का एक गिरोह अचानक से सक्रिय हो जाता है। वो हर त्योहार में आपको ज्ञान देने लगता है कि कहाँ क्या गलत है।

इनके ऐसा करने का बस एक ही उद्देश्य होता है: गाली सुनना और फिर विक्टिम कार्ड निकालना कि ‘देखो, हमको गाली पड़ रही है’। अरे, पतिता! जब काम ही गाली सुनने वाले करोगी, तो क्या तुमको प्रणय आलिंगन का निमंत्रण देंगे लोग? महिला होने का मतलब ये नहीं है कि बेहूदगी करते रहो, और सामने वाला सहता रहे कि अरे ये पापिनी तो महिला है, इसे कैसे जवाब दें! सीधी बात है कि लैंगिक असमानता एक पाप है, और शठे शाठ्यम् समाचरेत् की तर्ज पर, जैसे को तैसा मिलता रहेगा।

हाल ही में, कठुआ मामले से कुख्याति पाने वाली दीपिका नामक वकील ने किसी लपड़झंडू द्वारा बनाए एक कार्टून को शेयर किया जिसमें नवरात्रि को ले कर एक भद्दा से चित्रण था। दो चित्र थे, एक तरफ लिखा था ‘अन्य दिन’ जिसमें एक पुरुष स्त्री के पैर को जकड़े हुए था और (संभवतः) दुराचार करने का प्रयास कर रहा था। दूसरी तरफ ‘नवरात्र’ लिखा हुआ था, और वहाँ वही पुरुष देवी की पूजा कर रहा था।

कई लोग भ्रम की स्थिति में थे कि दीपिका सिंह राजावत ने अपने परिवार की तस्वीर तो नहीं लगा दी। लोग सहानुभूति जताने लगे कि ‘ओह! दीपिका जी, आपके साथ आपके घर में ऐसा होता है’। दीपिका ने स्पष्ट रूप से लिखा नहीं था कि वो अपनी व्यथा कह रही हैं या कुछ और। अगर उनके घर में ये सब होता है तो मेरी सहानुभूति उनके साथ है, अगर नहीं तो फिर उन्हें पूरे समाज के बारे में ऐसी बेहूदगी दिखाने की आवश्यकता नहीं।

हम में से कई यह प्रश्न उठा सकते हैं कि क्या हमारे समाज में स्त्रियों की हालत खराब नहीं है, और मैं इस तथ्य से मुँह मोड़ रहा हूँ। प्रश्न सही है, लेकिन मूर्खतापूर्ण है। पहली बात तो यह है कि इससे इनकार नहीं है कि इस देश में हर पंद्रह मिनट पर बलात्कार की एक घटना घटती है। लेकिन, यह एक समाज की सामान्य सोच को परिलक्षित नहीं करता। आप अपवाद को उदाहरण नहीं बना सकते कि जो दिन में रेप करता है, वो शाम में आरती उतार रहा है।

नहीं, अगर आपको प्रतिशत जानना है तो पूरी जनसंख्या का 0.002 प्रतिशत ही बलात्कारी है। आपको जनसंख्या का संदर्भ लेना ही होगा क्योंकि आप अपवाद को उदाहरण की तरह बता रहे हैं जैसे कि हर पुरुष जो पूजा करता है, वो बाकी समय बलात्कार करता रहता है। ऐसा न तो है, न ही यह संभव है क्योंकि इस तरह की मानसिक विकृति हमारे समाज में नहीं है। कुछ-एक समाज में ऐसी विकृतियाँ हैं जहाँ उनके मजहब से बाहर के लोगों का बलात्कार करना उनके मजहबी शिक्षण संस्थानों में सिखाया जाता है। वह एक समस्या है। इसलिए दो चीजों को मिलाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।

इसका दूसरा हिस्सा यह है कि तुम्हें ये सब फालतू ज्ञान देने के लिए हिन्दुओं के ही त्योहार क्यों मिलते हैं? हमारे ही त्योहारों के समय देवी दुर्गा के आभूषण और सज्जा के साथ चेहरे पर अत्याचार के निशान वाली तस्वीरें इंटरनेट पर क्यों डालते हो? ये ईद पर क्यों नहीं दिखता? क्रिसमस पर क्यों नहीं दिखता? नमाज पढ़ती तस्वीरें एक तरफ लगा कर क्यों नहीं पूछते कि एक तरह तो ये कर रहे हो, दूसरी तरफ कोई मुस्तफा किसी राधिका को प्रेम का लोभ दे कर रेप करने के बाद मार डालता है?

तुम्हारा ये ज्ञान रेहान बेग द्वारा मुर्गी के बलात्कार पर क्यों नहीं निकलता कि मजहबी जश्न के दिन बिरयानी खाते हो, बाकी दिन मुर्गी का रेप करते हो? मेवात का हारून और जफ्फार जब गर्भवती बकरी का बलात्कार देता है तब क्यों नहीं लिखते उनके त्योहारों की तस्वीरें लगा कर अन्य दिन बकरी का बलात्कार और खास दिन मटन कोरमा? मध्य प्रदेश में जब छोटे खान पायजामा उतार कर गाय का रेप कर रहा होता है, तब तो तुम नहीं लिखते ऐसी बातें!

लड़कियों के बलात्कार की बातें तो छोड़ ही दो, प्रेम के नाम पर बहलाना-फुसलाना और हर बार हिन्दू लड़की का ऐसे मामलों में बलात्कार के बाद हत्या करना क्या बताता है? वहाँ ये कविता कृष्णन जैसी धूर्त वामपंथनें क्यों चुप हो जाती हैं? चाहे वो बदरुद्दीन हो, कमर अली हो, वसीम, सावेज, अखलाख, आरिफ, आमिर हो, रहमान हो, अजमल हो या खालिद… इन्होंने न सिर्फ हिन्दू लड़कियों को अपना शिकार बनाया बल्कि अपने बाप के साथ, चाचा के साथ, भाई के साथ, दोस्तों के साथ नाबालिग बच्चियों तक का रेप करवाया और अंत में मार कर फेंक दिया।

गूगल पर ‘मौलवी ने किया रेप’ लिख कर सर्च करो तो हजारों घटनाएँ मिल जाएँगी। लेकिन यही वामपंथी कभी भी ये ज्ञानवर्धक कार्टून ईद-बकरीद पर तो नहीं दिखाते। तब तो इनकी अम्मा मर जाती है, उँगलियों में कोढ़ हो जाता है और नीचे बवासीर कि बैठता हूँ तो दर्द उठता है, दर्द उठता है बैठ जाता हूँ! ऐसी क्या शारीरिक व्याधि हो जाती है कि ये सारी घटनाएँ कभी दिखती ही नहीं इन आँख के अंधों को?

होली, दिवाली, नवरात्रि… जितने त्योहार उतना ज्ञान

ईद पर जानवरों के कटने से खून बहने से लाल हुई सड़कें और नालियाँ नहीं दिखती, और इनके द्वारा समर्थित संस्थाएँ रक्षाबंधन पर गाय की फोटो के साथ ‘चमड़ा मुक्त’ बनने के संदेश देती है। वैसे ही, ये लोग घी के दिए जलाने पर आपत्ति जताते हैं और कहते हैं कि ‘वीगन घी’ का प्रयोग करो। ये सारा ज्ञान सिर्फ हिन्दुओं के त्योहार पर निकलता है।

दीवाली या दीपोत्सव पर लाखों दीपों की शोभा देखते ही बनती है लेकिन वामपंथियों के स्थान विशेष तक उसका ताप पहुँच ही जाता है जब वो ज्ञान देने लगते हैं कि इतने घी के दिए जलाने की बजाय अगर गरीबों को भोजन दिया जाता तो असली दीवाली वही होती। जैसे कि गरीबों के लिए जो लाल और पीला कार्ड वाली योजनाएँ हैं, जो तीन रूपए किलो चावल और गेहूँ मिलता है, उसी के बजट से दीपोत्सव के घी का खर्चा निकाला गया है।

ये बकैत यह भूल जाते हैं कि अगर दस लाख मिट्टी के दीप जलाए गए हैं, और उसमें देसी घी डाली गई है, रूई की बत्ती बनाई गई है, दियासलाई से उसको जलाया गया है, और श्रमिकों ने उसे पूरे घाट पर लगाया है, तो ऐसा तो है नहीं कि दीपक किसी धनाढ्य उद्योगपति ने बाजार से दस गुणा दाम पर दिए, घी अमेरिका से आयातित हो कर आया, बत्ती भाजपा के मंत्री की कम्पनी ने दिए, दीप शलाका चीन से आया और श्रमिकों को लगाने के पैसे नहीं दिए गए।

उन लाखों दीपकों के जलने का सीधा मतलब है कि सैकड़ों घरों में उस दिन दीपक जले होंगे, रसोई पर भोजन बना होगा, वो हर्षित होंगे। दीपक बनाने वाले कुम्हार हों, या दूध से घी बनाने वाले गौपालक, कपास उगाने वाला किसान हो या माचिस बनाने वाला छोटा उद्योगपति, ये हमारे ही लोग हैं, उन्हें ही काम मिला और उनको ही समुचित लाभ पहुँचाने के बाद ये खरीदारी संभव हुई है। लेकिन इनको तो अगले दिन दीपकों से तेल इकट्ठा करती एक बच्ची की तस्वीर लगा देनी है और भावुक हो जाना है कि ये भूखी है, इसको भोजन नहीं मिला।

उस बच्ची को भोजन न मिलने का कारण अगर दीपोत्सव है तो आग लगे ऐसे हर दीपोत्सव को। भारत की गरीबी का कारण अगर चंद्रयान है तो बंद कर दो इसरो को। नई सड़क बन रही हो, और वहीं पास में जमीन पर कोई दाल-चावल खाता गरीब दिख जाए तो इन दोनों घटनाओं का अन्योन्याश्रय संबंध नहीं होता, दोनों ही स्वतंत्र घटनाएँ हैं। ऐसा नहीं है कि गरीबी मिटाने के लिए, लोगों तक भोजन पहुँचाने के लिए बनी योजनाओं के पैसे से सड़क बन रही है, और रॉकेट छोड़ा जा रहा है।

सुबह उठ कर तीन बार फ्लश करने, और ब्रश करते हुए पाँच लीटर पानी हर रोज बहाने वाली वामपंथनों को होली के दिन पानी की बर्बादी याद आती है। कहीं किसी इलाके में एक छेड़-छाड़ की घटना हो जाती है, तो वही घटना होली को परिभाषित करती है कि देखो, भारत में तो होली यही है। कभी गुब्बारे में वीर्य भर कर फेंकने की झूठी खबर फैलाई जाती है, तो कभी यह लिखा जाता है कि होली में तो लड़कों को लड़कियाँ छेड़ने का लाइसेंस मिल जाता है। ऐसा है जिहादनों, और वामपंथनों, कि तुम्हारे भाई और बाप ऐसी हरकतें करते होंगे, हर हिन्दू यही सब नहीं करता।

यही नौटंकी प्रदूषण के नाम पर दिवाली में होती है। जिनके घरों के हर कमरे में एसी हो, कार में एसी हो, डीजल इस्तेमाल करते हों, दो दरवाजों वाला फ्रिज रखते हों, और दिन रात बिजली जला कर रहते हों, वो प्रदूषण पर ज्ञान देते हैं तो उच्च कोटि के क्यूटिए लगते हैं। दिवाली में एक दिन धुँआ और शोर होता है, लेकिन तुम जो हर दिन ग्लोबल वॉर्मिंग में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हो, सड़कों पर धुँआ छोड़ रहे हो, बिजली का अत्यधिक इस्तेमाल कर रहे हो जो कि किसी कोयले से चलने वाले पावर प्लांट से आता है, तो तुम तो ज्ञान न दिया करो ऐसे दिनों पर।

दूसरी बात, प्रदूषण होगा तब भी मनाएँगे। पानी सूख जाएगा तब भी होली खेलेंगे। हिन्दू हैं, देश हिन्दुओं का है, त्योहार हिन्दुओं का है, बहुसंख्यक हैं, हमारी ही चलेगी। चार क्यूटियों के पोस्टर से हिन्दू जीना बंद नहीं करेगा। मेरा तो यह मानना है कि हर पाँच अगस्त को एक और दीवाली मनाई जाए, और हर साल 9 नवम्बर को होली भी खेली जाए। बाकियों की आस्था जब राजनैतिक हो चुकी है, तो हम भी ऐसे सामाजिक उल्लास के दिनों पर दीप प्रज्ज्वलित कर राम के अयोध्या में आगमन पर दीवाली क्यों नहीं मनाएँगे? साथ ही, 9 नवंबर जैसे यादगार दिन पर, जिस दिन हमने वामी-इस्लामी कट्टरपंथी गिरोह पर कानूनी जीत हासिल की तो उस दिन होली मना कर उनको क्यों न याद दिलाएँ उनके पापी मंसूबों के गलने का?

वामी-इस्लामी कट्टरपंथी गिरोह ऐसे नहीं मानेगा

समय यह है कि न सिर्फ इनकी भर्त्सना की जाए बल्कि हिन्दू चित्रकारों, कार्टूनिस्टों को आक्रामक रवैया अपनाते हुए, ऐसे ही सामाजिक संदेश हर मजहबी और ईसाई त्योहारों पर देते रहना चाहिए। तुम्हारी संख्या भी ज्यादा है, देवी सरस्वती की कृपा तुम पर भी है, उँगलियाँ सलामत हैं, फिर तुम्हारी रचनात्मकता क्यों नहीं दिखती? जो गैरकानूनी है, वैसा मत करो, लेकिन समाज में जागरूकता होनी चाहिए कि नहीं?

हम जिस समाज में रहते हैं, अगर वहाँ ‘रेप जिहाद’ चल रहा है, जानवरों को सामूहिक रूप से काटा जाता है, सड़कों को घेर कर आस्था का नग्न प्रदर्शन होता है, तब हमारे हिन्दू चित्रकार क्या करते हैं? तुम्हें ये विसंगतियाँ नहीं दिखतीं? क्या तुम भारत के एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर यह नहीं देखते कि बकरों के जीवन का मोल है? क्या भारत के नागरिक के तौर पर तुम्हें यह नहीं दिखता कि सड़क किसी की निजी संपत्ति नहीं है चाहे वो शुक्रवार हो या और दिन? क्या तुम्हें यह नहीं दिखता कि नाबालिग बच्चियों को मौलवी अपनी हवस का शिकार बनाते हैं? फिर तुम्हारे कार्टून क्यों नहीं दिखते?

कब तक ये गलतबयानी सहते रहोगे? कब तक हिन्दुओं को नीचा दिखाया जाता रहेगा और तुम सरस्वती की पूजा भी करोगे, और तुम्हारे हाथ एक कार्टून तक न बना पाएँगे। यह भीरुता ही हिन्दुओं को खोखला करती है। यही कारण है कि मुट्ठी भर के वामपंथी, और इस्लामी कट्टरपंथियों का समूह तुम्हारे देवी-देवताओं पर कार्टून बनाता है, और तुम चुप रह जाते हो।

क्यों कमलेश तिवारी की हत्या पर दस लाख लोग इंडिया गेट पर या परिवर्तन चौक पर नहीं जुटते? तुमने कब ऐसी भीड़ बन कर किसी अंकित शर्मा, ध्रुव त्यागी, रविन्द्र, प्रशांत, भारत यादव या डॉ नारंग के लिए न्याय माँगने की कोशिश की और अंतरराष्ट्रीय खबर बने?

मेरा काम लिखना और बोलना है, किसी का काम कार्टून बनाना है, किसी का काम संगठित हो कर संविधान के दायरे में भीड़ के रूप में न्याय की माँग करना है। एक तरफ एक विचारधारा है जो तीन महीने तक पूरी दिल्ली को बंधक बना लेती है, दंगे करती हैं, हिन्दुओं के नरसंहार की योजना बनाती है, और उसके बाद अपराधियों को ‘विद्यार्थी’ कह कर पूरा नरसंहार हिन्दुओं को ही ऊपर फेंकती है, और दूसरी तरफ हम हैं जो बस ये पूछते हैं कि ‘लिबरल चुप क्यों हैं?’

ऐसे न तो वैचारिक लड़ाई लड़ी जाती है, न ही जीती जाती है। हर व्यक्ति, जो भी जिस कार्य में दक्ष हो, वहीं से इन पर प्रहार करे। कार्टून बनाने वाले इतने कार्टून बनाओ कि वामपंथनें बिलबिला जाएँ। इनके व्यभिचार पर कार्टून बनाओ, इनके बलात्कारी प्रवृत्ति पर कार्टून बनाओ, इनके गाँजा पीने, नशेड़ीपने पर कार्टून बनाओ। इनको हर उस गलत कार्य में संलिप्त दिखाओ जो ये अपनी पीएचडी की डिग्री और ट्विचर के ब्लू टिक में छुपाते हैं। इनके अपवादों को उदाहरण बना कर चीनियों की तरह इतने पोस्टर बना कर इंटरनेट पर डाल दो कि ये इंटरनेट पर आना बंद कर दें।

जो लिख और बोल सकते हैं, इनकी इन्हीं नीच प्रवृत्तियों पर लिखें और बोलें। स्वयं को डिफेंड मत करो कि ‘हाँ, ये बात तो सही है कि बलात्कार तो होता है’, बल्कि इन कूढमगजों से यह पूछो कि लिंग लहराने वाले कन्हैया से ले कर सीडी दिखाने के बहाने रूम पर बुला कर बलात्कार करने वाले अनमोल रतन तक तो इन्हीं की पार्टियों के हैं, उस पर क्या विचार है। इनसे पूछो कि तुम्हारे वैचारिक बापों के भाई तो चुनाव लड़ रहे हैं जिनके ऊपर सेक्स रैकेट चलाने का मुकदमा चला और उसमें न्याय नहीं मिला, पीड़िता से ‘सैटलमेंट’ करवाया गया।

ये सब तुम्हारे लेखों, ट्वीट, फेसबुक पोस्ट, वीडियो क्लिप्स, कार्टून का विषय होना चाहिए। डरते किससे हो? अभिव्यक्ति की आजादी है ये, संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है। किसी का नाम लिए बगैर, विचारधारा को बोल्ड अक्षरों में लिख कर अपनी बात रखो, कोई केस कर के जीत नहीं पाएगा। तकनीक का इस्तेमाल करो, वीपीएन का प्रयोग करो, भारत में बैठ कर किसी अफ्रीकी देश के सर्वर से अकाउंट चलाओ। बहत्तर तरीके हैं अगर सुरक्षा का एक और कवच पहनना चाहते हो तो।

ऐसे समय में तटस्थ व्यक्ति निवीर्य होता है

ये धर्मयुद्ध ही मान कर चलो। इसमें तटस्थता की जगह नहीं है, वीर्यहीन ही तटस्थ रह कर युद्ध देखते हैं। जिस स्तर का युद्ध है, उसी स्तर से लड़ो। जो रचना कर सकते हैं, वो रचना करें, जो पढ़ सकते हैं वो पढ़ें और आगे बढ़ाएँ, जो दूसरों को जागरूक कर सकते हैं, वो जागरूक करें। ये वामपंथियों की हरामखोरी धीमे जहर की तरह है, जो अगर तुम सहते रहे तो एक दिन हिलने योग्य भी नहीं रहोगे। इसके दृष्टिगोचर होते ही आक्रमण करो।

अपनी सहिष्णुता को अपनी कमजोरी मत बनाओ। सहिष्णुता की सीमा होती है, पागल कुत्ते के साथ शयन नहीं किया जा सकता, भले ही तुम कितने ही बड़े पशुप्रेमी क्यों न हो। रैबीज वाली लार छोड़ते, जगह-जगह विष्ठा खाते इन मतिभ्रष्ट श्वानों, कीचड़ में लोटने वाले इन शूकरों से ‘इंगेज’ मत करिए स्वयं को, इनको दूर से ही दुत्कारिए।

जिन्हें ये ट्रोल कह कर ललकारते हैं, इनका मनोबल सबसे ज्यादा वही गिराते हैं। किसी भी व्यक्ति को, जो इनके विचारों के विरोध में हो, इनसे सवाल पूछे, उसे ट्रोल के विशेषण से अलंकृत किया जाता है। मैं तो कहता हूँ कि नाम चाहे जो भी दे दिया जाए, लेकिन इस वैचारिक लड़ाई में सबसे ज्यादा लॉयल तो यही लोग हैं जो बिना मान-अपमान से परे, हर दिन, हर वामपंथी को उनकी जगह दिखाते रहते हैं। ‘युद्ध में जय बोलने वालों का भी महत्व होता है’, कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने कहा है।

ये तो ‘जय’ बोलने से कहीं आगे, वामपंथियों को ललकार कर उनसे टकराते हैं। कोई कृष्ण को बलात्कारी कह दे तो आप लेख थोड़े लिखेंगे, बल्कि जिसने लिखा है उसको उसी भाषा, शैली, शब्दावली और व्यवहारिक व्याकरण के साथ समुचित जवाब वहीं देंगे। ये काम तो यही कथित ‘ट्रोल’ कर रहे हैं। इनका उत्साहवर्धन कीजिए क्योंकि आप कीचड़ में उतरना नहीं चाहते, और जो उतर रहा है उसको आप ज्ञान तीन पसेरी दे देते हैं।

ध्यान रहे कि हमारे त्योहार इन दोगले विचार वालों के खेलने के मैदान नहीं हैं। जो वकील हैं, वो हमारी आस्था पर लगातार हो रहे हमले का मुद्दा बना कर इन पर कानूनी केस करें। अगर कोई आपकी लड़ाई लड़ रहा है तो वैसे लोगों को पाँच-दस रुपया दे-दे कर सहयोग कीजिए। यही पाँच और दस रुपया सीएए समर्थन में रॉड से मार दिए जाने वाले किसी मूर्तिकार नीरज प्रजापति के परिवार तक करीब पैंतीस लाख बन कर पहुँच जाता है।

इन पर कोर्ट में केस हो, इनके त्योहारों के समय (और हर दो-चार सप्ताह में एक बार) एक जागरुकता अभियान के तहत पशुओं को प्रति हिंसा, लव जिहाद, रेप जिहाद, लैंड जिहाद, हिन्दुओं को घर छोड़ने पर मजबूर करने को ले कर पोस्टर, कार्टून, वीडियो आदि बनाइए। इनके हर अपराध पर कार्टून बनाइए, ताकि अपराध ही नहीं, उसके पीछे की मजहबी घृणा सबको देखने को मिले। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि हिन्दुओं में भी कुछ अधम और पतित हिन्दू हैं जो ज्ञान की धारा बहाने लगते हैं, जिन्हें दूसरों के अपराध दिखते नहीं।

हर अपराध की कवरेज हम करेंगे, हर अपराध को व्यापक स्तर पर ले जाना आपका कार्य है। कोई भारत यादव किसी मजहबी भीड़ द्वारा लिंच किया जाए तो संगठित हो कर लाखों की संख्या में धरना दीजिए। हिंसा मत कीजिए, क्योंकि आप वामपंथी नहीं हैं, ये उनका क्षेत्र है। आग लगाना, किसी को प्रदर्शन के नाम पर गोली मार देना आदि मूलतः भीम-मीम और वामपंथियों का काम है। आप सिर्फ संख्या बल दिखाइए, बाकी हर कार्य स्वतः हो जाएगा। मीडिया स्वयं पहुँचेगी, कवरेज स्वतः होने लगेगा।

एक लम्बे समय तक हमने सहा है, हमारी सहिष्णुता का उपहास हमें ‘इन्टॉलरेंट’ कह कर किया गया। अब ये लोग हमें गौरक्षक की जगह गौभक्षक बताने लगे हैं। हमारे द्वारा स्त्री शक्ति की पूजा को ये बलात्कार से जोड़ कर दिखाते हैं। ये हमारी आस्था पर सीधा प्रहार है। अगर हम यही सोच कर चुप रहे कि एक कार्टून से क्या होता है, तो आप यह भूल रहे हैं कि शार्ली एब्दो वालों ने भी कार्टून ही बनाया था, उस फ्रांसिसी शिक्षक ने एक कार्टून ही दिखाया था। मैं आपको एक कट्टरपंथी में बदलने को नहीं कह रहा, मैं आपको अपनी रीढ़ सीधी करने को कह रहा हूँ।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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