Friday, March 29, 2024
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वे डफली अच्छी बजाते हैं, Placard अच्छी लिखते हैं, लेकिन मस्जिद के रेपिस्ट मौलवी पर बोलने की मनाही है

मुझे उन एक्टिविस्ट की याद आ गई जिन्होंने कठुआ में पीड़िता बच्ची के परिवार के लिए चंदा इकट्ठा किया था। आजकल कहीं दिखाई नहीं देते। हो सकता है चंदे का अगला प्रोग्राम बनाने में व्यस्त हों।

निस्तेज मिल गए। जाहिर है आपके मन में प्रश्न उठेगा कि कौन निस्तेज? 

तो सुनिए। निस्तेज हमारे लिबरल मित्र हैं। आप पूछ सकते हैं कि मित्र लिबरल कैसे हो सकते हैं? तो इस पर बहस न करते हुए मैं आपसे कहूँगा; चलें आप उन्हें लबरल मित्र कह लें। लिबरल इसलिए क्योंकि वे लबार पंथ पर चलने के विश्वासी हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में पीएचडी कर रहे हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों की कमी नहीं है। उनका विश्वास है कि जो कुछ भी हो, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो। देश में होने वाली या न होने वाली हर घटना को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जगह मिले। वे बताते हैं कि यही बात भारत को एक मैच्योर्ड डेमोक्रेसी बनाएगी। 

मुझे पता है कि वे जो बताते हैं उसमें उनका विश्वास नहीं है। उनका विश्वास इस बात में है कि ऐसा होने से ही भारतीय लोकतंत्र की छीछालेदर हो सकती है। वे डफली अच्छी बजाते हैं। चंदा इकट्ठा करने और चंदे के लिए तकरीर लिखने में महारत हासिल है। प्लैक कार्ड इतना अच्छा लिखते हैं कि उनके मित्रों का यह मानना है कि वे अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों की जगह प्लैक कार्ड राइटिंग में पीएचडी करते तो भी वही सब कर रहे होते जो आज कर रहे हैं। 

दुकान से सिगरेट लेकर लौटते हुए मिल गए। बहुत गुस्से में थे। मैंने पूछा; क्या हो गया, इतने गुस्से में क्यों हो? 

मुझे देखा और गुस्से में पीयूष मिश्रा की तरह ही बोले; कुर्सी है तुम्हारी, ये जनाजा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते?

मैंने कहा;  मैं तो खड़ा हूँ। मैं कौन सी कुर्सी पर बैठा हूँ? 

वे बोले; तो आपको उतरने के लिए थोड़ी न कहा मैंने।

मैंने पूछा; फिर किससे कह रहे हो? यहाँ तो केवल मैं हूँ। 

वे बोले; किससे कहेंगे? एक ही तो हैं जिसे मैं कहता हूँ। पर अजब ढीठ इंसान है कि मेरी ललकार नजरअंदाज कर देता है। 

मैंने कहा; तो जब जानते हो कि नहीं उतरेंगे तो क्यों कहते हो बार-बार? कहीं इसलिए तो नहीं कि ऐसा करने से विरोध की प्रैक्टिस बनी रहती है? वैसे एक बार ट्विटर पर टैग करके देखो। हो सकता रिजाइन कर ही दें। 

वे बोले; वो करेंगे? कभी नहीं करेगा आदमी। खैर ये सब जाने दें, ये बताएँ कि आप को अचानक क्या हो गया? 

मैंने कहा; क्या हो गया? ऐसा क्यों कह रहे हो?

वे बोले; अरे मेरा मतलब, आपको तो मैं रिज़नेबल इंसान समझता था और आप ये सांप्रदायिक लोगों के साथ कैसे लिखने-पढ़ने लग गए? और वो भी कि लिखाई में पूरा जहर उगले जा रहे हैं। 

मैंने मुस्कुराते हुए कहा; इसमें नया क्या है? तुम्हारी नज़र में तो मैं हमेशा से सांप्रदायिक ही था। अब और लोगों के साथ खड़ा दिखता हूँ तो जाहिर है कि उसमें शिकायत डबल होनी ही है। 

निस्तेज बोले; नहीं शिकायत नहीं है लेकिन यही देख लो कि आप जहाँ लिख रहे हैं उन्होंने एक रेप पर रिपोर्टिंग किस तरह की है। कह रहे हैं लिबरल ने चुप्पी साध ली। अरे रेप की रिपोर्टिंग में लिबरल की चुप्पी की बात करना कहाँ तक सही है?

मैंने कहा; चुप्पी तो साध ली। इसमें तो कोई दो राय है क्या? जैसा शोर कठुआ में हुआ और जैसे प्लैक कार्ड लेकर तस्वीरें खिंचाई गई, वैसा यहाँ क्यों नहीं दिखा?

निस्तेज कुछ क्षणों के लिए चुप रहे। शायद मुझसे ऐसे प्रश्न की आशा नहीं थी उन्हें। सोचते हुए बोले; देखिए किसी ने सपोर्ट थोड़ी किया रेपिस्ट का। 

मैंने कहा; रेपिस्ट का कोई सपोर्ट करता है क्या? और रेपिस्ट की जगह मौलाना क्यों नहीं कह रहे?

वे बोले; ये कोई बात थोड़े हुई। कानून भी कहता है कि रेप में इन्वॉल्व लोगों की पहचान छुपाई जानी चाहिए।  

मैंने कहा; गज़ब हो! यह कानून पीड़िता के लिए है। 

वे बोले; अरे तो क्या चाहते क्या हैं? 

मैंने कहा; कठुआ में एक रेप हुआ था तो पूरे भारत को तुम लोगों ने रेपिस्तान बताया था। और तुम्हें तो याद होगा ही ? तुम्हारी ही यूनिवर्सिटी के लोग बॉलीवुड वालों के साथ खुद के हिन्दू होने पर शर्मिंदा हुए थे? और हाँ, वो बॉलीवुड एक्ट्रेसेज ने जो प्लैक कार्ड लेकर फोटो खिंचवाए थे उसे भी तुमने ही लिखा था न? 

वे कुछ क्षणों के लिए सकपका गए। सँभलते हुए बोले; लेकिन रेप के लिए पूरे मुस्लिम समाज पर आरोप लगाना तो ठीक नहीं है न। 

मैंने कहा; कौन पूरे मुस्लिम समाज पर आरोप लगा रहा है? लेकिन कठुआ में जो ‘मंदिर में रेप’ वाली कहानी बताकर हिन्दू समाज को कठघरे में खड़ा किया गया वह क्या था?

वे बोले; आप तो कुछ समझते ही नहीं हैं। आप हिंदुत्व वालों को लगता है कि किसी न किसी बहाने मुसलमानों को बदनाम किया जाए। 

मैंने कहा; ऐसा बिल्कुल नहीं लगता। मेरा सवाल तुम जैसे लिबरलों से है। जवाब न देना चाहो तो कोई बात नहीं। 

वे बोले; देखिए कठुआ की बात अलग थी। वहाँ बच्ची के परिवार के लिए हमने चंदा भी इकट्ठा किया था। हमने तो बच्ची के परिवार को वकील भी दिया। आपको याद हो तो हमारी वजह से ही केस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।  

मैंने कहा; फिर क्या हुआ उस चंदे का? और जिन आरोपियों के खिलाफ कैंपेन चलाई गई वे तो केस में इन्वॉल्व भी नहीं थे। वकील साहिबा के बारे में बच्ची के माँ-बाप की राय…

वे बोले; देखिए वो समय और था। आज देश में महामारी फैली हुई है। आज लोगों को रेप के खिलाफ कैंपेन नहीं चाहिए, बल्कि ऑक्सीजन चाहिए, बेड चाहिए, वैक्सीन चाहिए। आज इस सरकार ने हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेशों में भेजकर हमारे बच्चों के साथ जो अन्याय किया है वह माफी योग्य नहीं है। लोगों को वैक्सीन नहीं मिल रही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक हज़ारों लोग रोज मर रहे हैं। आज गंगा लाशों से पट गई है। आपने बरखा दत्त की श्मशान से रिपोर्टिंग देखी? मुझसे पूछें तो असल बहस लाशों पर होनी चाहिए। आज जरूरत पड़ने पर वैक्सीन नहीं मिल रही है। सरकारी वैक्सीन प्राइवेट अस्पतालों में लगाईं जा रही है। आज देश की यह हालत है और आपको इस बात की शिकायत  कि… मैं तो कहना चाहूँगा कि; कुर्सी है तुम्हारी, ये जनाजा तो नहीं है, कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते?

यह कहते हुए निस्तेज चलते बने। मुझे उन एक्टिविस्ट की याद आ गई जिन्होंने कठुआ में पीड़िता बच्ची के परिवार के लिए चंदा इकट्ठा किया था। आजकल कहीं दिखाई नहीं देते। हो सकता है चंदे का अगला प्रोग्राम बनाने में व्यस्त हों।      

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