Saturday, October 12, 2024
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रोमिला थापर जैसे वामपंथियों ने गढ़े हिन्दू-मुस्लिम एकता की कहानी, किया इतिहास से खिलवाड़: विलियम डालरिम्पल

इतिहासकार और लेखक विलियम डालरिम्पल ने यह स्वीकारा कि देश में वामपंथी शिक्षाविदों और नेहरूवादी इतिहासकारों ने वास्तव में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को अपने क़ब्ज़े में कर स्वतंत्रता के तुरंत बाद अपने प्रोपेगेंडा को फैलाना शुरू कर दिया था।

इतिहासकार और लेखक विलियम डालरिम्पल (William Dalrymple) ने एक कार्यक्रम के दौरान यह स्वीकार किया कि देश में वामपंथी शिक्षाविदों और नेहरूवादी इतिहासकारों ने वास्तव में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों को अपने क़ब्ज़े में कर भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद अपने प्रोपेगेंडा को फैलाना शुरू कर दिया था।

पिछले हफ्ते दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा आयोजित एक टॉक शो – ‘Express Adda’ में बोलते हुए, लेखक डालरिम्पल ने कहा कि यह सच था कि शुरुआत में नेहरूवादी पाठ्य-पुस्तकें रोमिला थापर और अन्य मार्क्सवादियों द्वारा लिखी गई थीं। उन्होंने यह भी कहा कि मार्क्सवादियों ने दिल्ली के राजनीति चश्मे से मुगलों का महिमामंडन और हिन्दू-मुस्लिम एकता के खोखले दावे करते हुए मनगढ़ंत इतिहास को गढ़ने का काम किया। इतिहास लेखन के कार्य में वामपंथियों ने दक्षिणपंथियों को बिल्कुल हाशिए पर रखा और उनके लिए कोई जगह बाक़ी नहीं छोड़ी, जबकि वो यह अच्छी तरह से जानते थे कि वास्तव में वो भारत का इतिहास था ही नहीं, जिसका प्रचार वामपंथी अपने प्रोपेगेंडा के तहत कर रहे थे।

इस कार्यक्रम के होस्ट ने डालरिम्पल से पूछा कि क्या यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद क्या शिक्षाविदों का वामपंथियों द्वारा हरण कर लिया गया था और क्या अकादमिक हिस्से पर वामपंथियों ने लगभग कब्जा कर लिया था, जैसा दक्षिणपंथियों द्वारा आरोप लगाया जाता रहा है?

इसका जवाब देते हुए विलियम डालरिम्पल ने कहा कि विशेष रूप से 1950 के दशक में लिखी गई इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों पर उनकी प्रामाणिकता को लेकर आज भी कई तरह के शक बरक़रार हैं। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि उस दौर के लगभग सभी नेहरूवादी इतिहासकार महान इतिहासकार थे, जबकि इसके विपरीत दक्षिणपंथी इतिहासकारों की अगली पीढ़ी में वो बात नहीं दिखी।

इस पर डालरिम्पल से पूछा गया कि क्या उनका यह मतलब है कि दक्षिणपंथी वर्ग के द्वारा वामपंथी इतिहासकारों पर जो आरोप लगाए जाते रहे हैं, वो सही हैं? तो डालरिम्पल ने जवाब देते हुए कहा, “मार्क्सवादियों द्वारा लिखी गई इतिहास की किताबों में हिन्दू-मुस्लिम एकता को चाशनी में डूबा, कुछ ज्यादा ही महिमामंडित करता हुआ दर्शाया गया, इसलिए वामंथियों द्वारा गढ़े जा रहे मनगढ़ंत इतिहास पर उन्हें आपत्ति होती थी, जिसका वो पुरज़ोर विरोध भी करते थे।

दरअसल, इस सब बातों में ग़ौर करने वाली बात यह है कि विलियम डालरिम्पल का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब इन मार्क्सवादी इतिहासकारों की विश्वसनीयता और पक्षपात को लेकर देश भर में बड़ी बहस छिड़ी हुई है। इन्होंने (वामपंथियों) अपनी विचारधारा को जनता के बीच पहुँचाने के लिए पाठ्य-पुस्तकों को अपने प्रचार करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। अत: अब यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी है कि हमने जो भारतीय इतिहास पढ़ा है, वह मनगढ़ंत है, और यह वामपंथियों की देन है।

इतिहास की ये पाठ्य-पुस्तकें कुछ और नहीं बल्कि उन नेहरूवादी शिक्षाविदों और मार्क्सवादी विद्वानों की करतूत हैं, जिनके अंदर एक हिन्दू-बहुल देश में हिन्दू धर्म के पुनरुद्धार से डर बैठा हुआ था। यही कारण है कि धीरे-धीरे एक आंदोलन पनप रहा है, जिसके तहत भारत के इतिहास की किताबों के संशोधन की माँग लगातार की जा रही है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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