भारत के लोकतंत्र पर 25 जून 1975 की आधी रात को एक बड़ा हमला हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने चुनावी गड़बड़ी के कारण उनके चुनाव को अवैध करार दिया था।
इससे उनकी कुर्सी पर खतरा मंडराने लगा। सत्ता बचाने के लिए इंदिरा गाँधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 का इस्तेमाल करते हुए देश में आपातकाल घोषित कर दिया, जो 21 महीने तक चला।
आपातकाल के दौरान नागरिकों की स्वतंत्रता छीन ली गई और मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। 1 लाख से ज्यादा लोगों को बिना मुकदमे के जेल में डाल दिया गया।
सरकार ने आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) का इस्तेमाल असहमति और विरोध को दबाने के लिए किया। अखबारों पर सेंसरशिप लगाई गई, छात्र आंदोलनों को बलपूर्वक रोका गया और कई राजनीतिक नेताओं को जेल भेजा गया। सिर्फ 10 दिन बाद, 4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।
इस तानाशाही वाले माहौल में, गुजरात के 25 साल के युवा आरएसएस प्रचारक नरेंद्र मोदी ने छिपकर काम करना शुरू किया और इंदिरा गाँधी की सरकार के खिलाफ विरोध में सक्रिय भूमिका निभाई।
जब आरएसएस के वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार किया गया, तब मोदी ने भूमिगत रहते हुए एक नई रणनीति बनाई। उनके साहस, योजनाओं और संघर्ष ने न सिर्फ आपातकाल विरोधी आंदोलन को मजबूत किया, बल्कि एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उनके राजनीतिक सफर की नींव भी रखी।
असली फासीवादी कौन- कॉन्ग्रेस या लोकतंत्र के लिए आंदोलन करने वाले मोदी
विडंबना है कि जिस कॉन्ग्रेस पार्टी ने 1975 में आपातकाल के दौरान एक लाख से ज्यादा लोगों को जेल में डाला, आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया, प्रेस पर सेंसरशिप लगाई, लोगों को प्रताड़ित किया, वही पार्टी आज नरेंद्र मोदी को ‘फासीवादी’ कह रही है, जबकि उन्होंने उस समय इन सबके खिलाफ डटकर संघर्ष किया था।
नरेंद्र मोदी ने आपातकाल के दौरान न सिर्फ विरोध किया, बल्कि भूमिगत रहकर सरकार के दमन के खिलाफ आंदोलन को मजबूत किया। लेकिन 2014 में जब से वो प्रधानमंत्री बने हैं, कॉन्ग्रेस पार्टी लगातार उन्हें बदनाम करने की कोशिश कर रही है।
बार-बार चुनावी जमीन पर पटखनी खाने वाले कॉन्ग्रेस के नेता राहुल गाँधी चुनावी असफलता झेल चुके हैं मोदी की तुलना हिटलर से करते हैं। प्रधानमंत्री बनने से पहले 2014 में ही नरेंद्र मोदी को कॉन्ग्रेस ने ‘हिटलर’ कहना शुरू कर दिया था।
हैरानी की बात ये है कि जो लोग हिटलर जैसे तानों का इस्तेमाल कर रहे थे, वे खुद उस समय की सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे थे। कॉन्ग्रेस की मीडिया टीम अक्सर पीएम मोदी को ‘तानाशाह’, ‘निरंकुश’ जैसे शब्दों से निशाना बनाती है और अपने अतीत को भूल जाती है।
राहुल गाँधी ने 2023 में यहाँ तक कह दिया कि मोदी सरकार के दौर में भारत एक ‘फासीवादी देश’ बन गया है। लेकिन वहीं नरेंद्र मोदी 1975 के आपातकाल में गिरफ्तारी से बचते हुए छिपकर विरोध कर रहे थे। वे भूमिगत होकर साहित्य बाँट रहे थे और जेल में बंद कार्यकर्ताओं के परिवारों की मदद कर रहे थे।
उस समय कॉन्ग्रेस प्रेस पर पाबंदी लगा रही थी और लोकतंत्र को कुचल रही थी। हाल ही में कॉन्ग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी मोदी सरकार की तुलना ‘फासीवादी शासन’ से की और कहा कि INDI गठबंधन मोदी के खिलाफ इस लड़ाई को जारी रखेगा। 1975 में अगर किसी ने उस तरह की बात इंदिरा गाँधी के खिलाफ कही होती, तो उसे सीधा जेल भेज दिया जाता। इससे पहले, 2018 में भी खड़गे ने मोदी की तुलना हिटलर से की थी।
यह विडंबना है कि जिन्होंने कभी असली आपातकाल लगाया, आज वे लोकतंत्र की बात कर रहे हैं और उन लोगों पर आरोप लगा रहे हैं, जिन्होंने उस आपातकाल का विरोध किया था।
The constituents of the INDIA Bloc thank the people of India for the overwhelming support received by our alliance. The people’s mandate has given a befitting reply to the BJP and their politics of hate, corruption and deprivation. This is a political and moral defeat of Prime… pic.twitter.com/oWyQSrxWBR
— Mallikarjun Kharge (@kharge) June 5, 2024
अगर बात को साफ-साफ समझें तो नरेंद्र मोदी ने कभी देश में लोगों के मौलिक अधिकारों को निलंबित नहीं किया। आज हर कोई उनकी खुलकर आलोचना करता है, खासकर विपक्षी नेता और वो भी बिना किसी डर के।
मोदी ने अखबारों पर सेंसरशिप नहीं लगाई बल्कि ये काम 1975 में इंदिरा गाँधी ने किया था। मोदी ने कॉन्ग्रेस नेताओं या छात्रों को बड़ी संख्या में जेल में नहीं डाला जबकि इंदिरा गाँधी के समय ऐसा खुलकर हुआ था।
इंदिरा गाँधी ने आपातकाल के दौरान पुलिस का इस्तेमाल कर असहमति को दबाया और देश को अपनी मर्जी से चलाया, संविधान की अनदेखी की। नरेंद्र मोदी ने ऐसा कुछ नहीं किया। इसके उलट, उन्होंने उस समय छिपकर आपातकाल का विरोध किया, भेष बदलकर काम किया, गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की मदद की और लोकतंत्र की रक्षा की।
लेकिन आज की राजनीति में सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है। अब जो लोग उस दौर के दमनकारी शासन का हिस्सा थे, वे खुद को आज लोकतंत्र के रक्षक बताने की कोशिश कर रहे हैं और मोदी जैसे व्यक्ति, जिन्होंने उस दमन के खिलाफ लड़ाई लड़ी, उन्हें ‘फासीवादी’ कह रहे हैं।
अगर किसी को ‘फासीवादी’ कहा जाना चाहिए, तो वो कौन है, वो जिसने आपातकाल लगाया था? या वो जिसने उसका विरोध किया था? ये सवाल आज भी उतना ही जरूरी है जितना 1975 में था।
मोदी और आपातकाल
जब 1975 में देश में आपातकाल लगाया गया, तब नरेंद्र मोदी पहले से ही एक सक्रिय और पहचाने जाने वाले युवा नेता बन चुके थे। 1974 के गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन में उनकी भूमिका बेहद अहम रही, जिसने राज्य में कॉन्ग्रेस सरकार को गिराने में बड़ी भूमिका निभाई।
इस आंदोलन के बाद लोग उन्हें एक प्रतिबद्ध, समझदार और रणनीतिक आयोजक के रूप में देखने लगे। नरेंद्र मोदी ने 1972 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में अपना जीवन समर्पित कर दिया था।
महज तीन साल बाद ही आपातकाल घोषित कर दिया गया। लेकिन मोदी की परिपक्व सोच, सूझबूझ और परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने की क्षमता ने उन्हें आरएसएस के भूमिगत नेटवर्क की एक महत्वपूर्ण कड़ी बना दिया।
आपातकाल के दौरान उन्हें एक खास जिम्मेदारी दी गई, संगठन को जिंदा रखना, गुप्त रूप से संचार बनाए रखना और किसी भी हालत में गिरफ्तारी से बचना।
नरेंद्र मोदी ने इस मिशन को सफल बनाने के लिए वरिष्ठ आरएसएस नेताओं जैसे लक्ष्मणराव इनामदार (जिन्हें ‘वकील साहब’ कहते थे), केशवराव देशमुख और वसंत गजेंद्रगढ़कर के साथ मिलकर काम किया।
वे नानाजी देशमुख और दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे दिग्गज नेताओं द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय स्तर के लोक संघर्ष समिति आंदोलन से भी सक्रिय रूप से जुड़े थे। इन नेताओं के मार्गदर्शन में मोदी ने चुपचाप लेकिन बेहद असरदार तरीके से आपातकाल के खिलाफ विरोध आंदोलन को ताकत दी और लोकतंत्र की रक्षा में अपनी अहम भूमिका निभाई।
कैसे भूमिगत हुए थे मोदी
आपातकाल के दौरान गुजरात पुलिस और देश के बाकी राज्यों की पुलिस पूरी तरह अलर्ट पर थी। गुजरात उस समय आरएसएस का सबसे सक्रिय केंद्र था, और सरकार को पता था कि इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ बढ़ते असंतोष को वहां काबू में रखना बहुत जरूरी है।
इसलिए, खुफिया निगरानी बेहद कड़ी थी और आरएसएस कार्यकर्ताओं को पकड़ने की कोशिश लगातार चल रही थी। लेकिन इन हालात के बावजूद, नरेंद्र मोदी गिरफ्तारी से पूरी तरह बचने में सफल रहे। उन्होंने पुलिस की नजरों से बचने के लिए कई भेष अपनाए। कभी वे भगवा कपड़े पहने साधु बन जाते, तो कभी पगड़ी पहने बुजुर्ग सिख।
उन्होंने अगरबत्ती बेचने वाले एक स्ट्रीट वेंडर और कॉलेज जाने वाले एक सरदारजी छात्र का रूप भी अपनाया। इन बदलते भेषों की मदद से मोदी लगातार छिपते रहे और आपातकाल विरोधी गतिविधियो को जारी रखा।

आपातकाल के दौरान मुंबई में एक बेहद जोखिम भरे मिशन में नरेंद्र मोदी ने खुद को मकरन देसाई के बेटे के रूप में पेश किया, जो बाद में भाजपा नेता बने। यह पहचान उन्हें सरकारी निगरानी से बचाने में मददगार साबित हुई।
इस पूरे मिशन की योजना खुद मोदी ने बनाई थी, ताकि वे एक वैध पहचान के सहारे बिना किसी शक या सजा के आसानी से यात्रा कर सकें। यह उनकी समझदारी और सूझबूझ का एक और उदाहरण था, जिससे वे आपातकाल के दौरान विरोध की गतिविधियों को जारी रख पाए।

आपातकाल के दौरान एक दिलचस्प और यादगार घटना में, नरेंद्र मोदी ने स्वामीजी का वेश धारण किया और भावनगर जेल पहुंच गए। उनका उद्देश्य था विष्णुभाई पंड्या और अन्य बंदियों से मुलाकात करना, जो जेल में बंद थे। उन्होंने जेल अधिकारियों से कहा कि वे सत्संग करने आए हैं, यानी धार्मिक प्रवचन देने के लिए आए हैं।
इस पहचान के चलते उन्हें बिना किसी शक के जेल के अंदर जाने दिया गया। वहां उन्होंने आध्यात्मिक बातचीत के बहाने बंदियों से जरूरी बातें साझा कीं। करीब एक घंटे बाद, वे बिल्कुल शांतिपूर्वक और बिना किसी परेशानी के जेल से बाहर निकल गए। यह घटना उनके साहस, चतुराई और योजनाबद्ध तरीके से काम करने की एक अनोखी मिसाल है।
कोड, प्रिंटिंग प्रेस और साइक्लोस्टाइल मशीनों के रणनीतिकार
किसी भी संघर्ष में, संचार सबसे अहम हथियार होता है, और आपातकाल के समय नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं के लिए यह प्रतिरोध की जीवन रेखा था। लेकिन इसमें जोखिम बहुत ज्यादा थे, अगर वे पकड़ में आते, तो पूरा नेटवर्क और आंदोलन खतरे में पड़ सकता था।
ऐसे हालात में मोदी ने राज्य की ताकतवर मशीनरी को मात देने के लिए कई अनोखे तरीके अपनाए। उन्हें भूमिगत संदेश फैलाने के लिए छपाई की जरूरत थी, जिसके लिए उन्होंने साइक्लोस्टाइल मशीनों की तस्करी और संचालन की जिम्मेदारी संभाली।
ये मशीनें उन पर्चों को छापने के लिए इस्तेमाल होती थीं जिनमें आपातकाल का विरोध, सरकारी अत्याचारों का खुलासा और लोकतंत्र की रक्षा का आह्वान किया गया था। इन पर्चों का वितरण भी पूरी तरह विकेंद्रित था। उन्हें सामान या टिफिन बॉक्स में छिपाकर ले जाया जाता, या नाई की दुकानों में छोड़ दिया जाता ताकि लोग चुपचाप उन्हें उठा सकें।
गांवों में संदेश फैलाने के लिए साधु, पुजारी और धार्मिक प्रचारकों को जोड़ा गया, जो बिना शक की नजर में आए संदेश को आगे बढ़ा सकते थे। संचार को सुरक्षित रखने के लिए भी कई चालें चली गईं। जैसे, फोन नंबरों को अंकों की अदला-बदली करके कोड में बदल दिया जाता था, ताकि अगर कोई कॉल सुने तो कुछ समझ न आए।
सत्यनारायण पूजा जैसे धार्मिक कार्यक्रमों की आड़ में गुप्त बैठकें होती थीं, और आरएसएस की बैठकों को ‘चंदन का कार्यक्रम’ कहा जाता था ताकि शक न हो। यहां तक कि घर के बाहर चप्पल रखने का तरीका भी जानबूझकर बदला जाता था।
क्योंकि पुलिस को संघ के अनुशासन की पहचान करने की ट्रेनिंग दी गई थी। इन सभी छोटे-बड़े उपायों ने मिलकर आपातकाल के दौरान एक छिपे हुए लेकिन मजबूत विरोध आंदोलन को जीवित रखा, जिसमें नरेंद्र मोदी की भूमिका बहुत ही अहम रही।
नेताओं को संगठित करना, पलायन नेटवर्क का निर्माण करना
आपातकाल के दौरान नरेंद्र मोदी ने सिर्फ पर्चे ही नहीं, बल्कि लोगों को भी एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाने का काम किया। जॉर्ज फर्नांडिस, वी.एम. तारकुंडे और दत्तोपंत ठेंगड़ी जैसे बड़े आपातकाल विरोधी नेता जब गुजरात आए, तो उनकी पूरी यात्रा का समन्वय नरेंद्र मोदी ने किया। ये बैठकें सुरक्षित घरों में होती थी और हर जगह पर भागने के रास्ते और सुरक्षा इंतजाम पहले से तैयार रहते थे।
मोदी के नेतृत्व में यह पूरा आंदोलन विकेंद्रीकृत था। हर स्वयंसेवक या जिला इकाई अपने-अपने स्तर पर काम करती थी, लेकिन गुप्त तरीकों से एक-दूसरे से जुड़ी रहती थी। मोदी रसद के मामले में बेहद सावधान थे।
कई बार, जिन कार्यकर्ताओं को किसी नेता को बाहर ले जाना होता था, उन्हें ये तक नहीं बताया जाता था कि वे किसे लेकर जा रहे हैं या क्यों। हर योजना को आखिरी मिनट तक पूरी गोपनीयता से तैयार किया जाता था।
एक बार ऐसा हुआ कि नरेंद्र मोदी सिख युवक का भेष धारण करके एक गुप्त बैठक में शामिल थे। तभी पुलिस किसी सूचना के आधार पर उस स्थान पर पहुँच गई। जब पुलिस ने मोदी से सवाल पूछे, तो उन्होंने बहुत शांत और सामान्य तरीके से जवाब दिया, जिससे पुलिस को कोई शक नहीं हुआ।
वे उन्हें कहीं और भेजकर खुद सुरक्षित निकल गए। पुलिस को अंदाजा भी नहीं हुआ कि जिसे वे ढूँढ रहे थे, वह उनके ठीक सामने खड़ा था। इस तरह की घटनाएँ मोदी की साहस, समझदारी और चतुर रणनीति को दर्शाती हैं, जिसने आपातकाल के दौरान विरोध आंदोलन को जिंदा और मजबूत बनाए रखा।
चलाए रखा आंदोलन
क्रांति सिर्फ बड़े आंदोलन या नारेबाजी का नाम नहीं है, यह धैर्य और सेवा से भी जुड़ी होती है। आपातकाल के दौरान नरेंद्र मोदी ने सिर्फ विरोध नहीं किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि जेल में बंद आरएसएस स्वयंसेवकों के परिवार भूखे न सोएँ।
उन्होंने उनकी वित्तीय मदद, चिकित्सा देखभाल और दूसरी जरूरतों का भी पूरा ध्यान रखा। मोदी खुद गोपनीय यात्रा करते थे, परिवारों से मिलते थे और उनके लिए जीवन रेखा बन गए थे।उनके शब्दों ने कई युवाओं को प्रेरित किया।
पोरबंदर में जब सभी वरिष्ठ कार्यकर्ता गिरफ्तार हो गए और युवा स्वयंसेवक हिम्मत हारने लगे, तो नरेंद्र मोदी ने सामने आकर उन्हें हौसला दिया। उन्होंने कहा, “अगर आपका इरादा सही है, तो अकेला व्यक्ति भी काफी है। लोकतंत्र की जीत होनी चाहिए।”
मोदी ने आंदोलन में हर किसी की भूमिका तय की। मेडिकल छात्रों को खास काम दिए गए, क्योंकि वे बिना शक के एक जगह से दूसरी जगह जा सकते थे और उन्होंने यही मौका पर्चे पहुँचाने के लिए इस्तेमाल किया।
बच्चों को भी संदेशवाहक के रूप में शामिल किया गया, क्योंकि उनकी गतिविधियों पर सबसे कम शक होता था। इस तरह नरेंद्र मोदी की रणनीति सेवा और प्रेरणा के जरिए आपातकाल के दौरान न सिर्फ आंदोलन को जिंदा रखा, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया।
आपदा में कवि का निर्माण
आपातकाल के कठिन समय में, जब देश में डर और दमन का माहौल था, नरेंद्र मोदी ने न केवल सक्रिय रूप से विरोध किया, बल्कि अपने अनुभवों और भावनाओं को डायरी में भी लिखा। उन्होंने उस कठिन समय के बारे में एक शक्तिशाली कविता लिखी, जो आपातकाल के खिलाफ चल रहे आंदोलन के आदर्शवाद, त्याग और जोश को दर्शाती थी।
यह कविता गुजराती में लिखी गई थी और इसका एक सरल अनुवाद आंदोलन की उस भावना को सामने लाता है, जिसमें संघर्ष, उम्मीद और देश के लिए बलिदान की बात की गई है। यह लेखन नरेंद्र मोदी की आंतरिक भावना, देशभक्ति और उस समय के युवा जोश को दर्शाता है, जब लोकतंत्र को बचाने के लिए लोग चुपचाप लेकिन मजबूती से लड़ रहे थे।
जब कर्तव्य ने पुकारा तो कदम कदम बढ़ गये
जब गूंज उठा नारा ‘भारत माँ की जय’
तब जीवन का मोह छोड़ प्राण पुष्प चढ़ गये
कदम कदम बढ़ गये
टोलियाँ की टोलियाँ जब चल पड़ी यौवन की
तो चौखट चरमरा गये सिंहासन हिल गये
प्रजातंत्र के पहरेदार सारे भेदभाव तोड़
सारे अभिनिवेश छोड़, मंजिलों पर मिल गये
चुनौती की हर पंक्ति को सब एक साथ पढ़ गये
कदम कदम बढ़ गये
सारा देश बोल उठा जयप्रकाश जिंदाबाद
तो दहल उठे तानाशाह
भृकुटियां तन गई
लाठियाँ बरस पड़ी सीनों पर माथे पर
कदम कदम बढ़ गये
इसका मतलब है, “जब कर्तव्य ने पुकारा, हम बिना डरे आगे बढ़े। जब ‘भारत माता की जय’ के नारे गूंजे, हमने जीवन के आराम को छोड़ दिया और अपनी सांसों को समर्पित कर दिया। कदम दर कदम, हम आगे बढ़े। युवाओं की टोलियाँ सिंहासन हिलाती और दरवाज़े तोड़ती हुई आगे बढ़ीं। लोकतंत्र के पहरेदार उठे, भेदभाव मिटाते हुए। चुनौती को पंक्ति दर पंक्ति पढ़ते हुए, हम आगे बढ़े। देश ने ‘जेपी ज़िंदाबाद’ का नारा लगाया। तानाशाह काँप उठे, लाठियाँ गिरीं। लेकिन हमने अपनी छाती और सिर पर उन्हें झेला। कदम दर कदम, हम आगे बढ़े।”
यह सिर्फ़ एक कविता नहीं थी, यह भविष्यवाणी थी।
संघर्ष मा गुजरात, प्रतिरोध लिख रहा हूँ
जब आपातकाल 1977 में खत्म हुआ, तो नरेंद्र मोदी ने उस दौर में अपनी भूमिका और अनुभवों को एक किताब में दर्ज किया। इस किताब का नाम था ‘संघर्ष मा गुजरात‘। उन्होंने यह किताब सिर्फ 23 दिनों में, बिना किसी संदर्भ सामग्री के लिखी।
यह किताब गुजरात में आपातकाल के दौरान हुए घटनाक्रमों का एक विस्तृत और गहराई से लिखा गया क्षेत्रीय विवरण है। इसमें मोदी ने बताया कि कैसे आंदोलन चला, लोग कैसे जुड़े और किस तरह से विरोध को संगठित किया गया। यह किताब आज भी आपातकाल के समय गुजरात में हुए संघर्षों को समझने के लिए एक अहम दस्तावेज मानी जाती है।


इसे तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री बाबूभाई पटेल ने शुरू किया था और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।

एक अन्य पुस्तक, ‘आपातकाल के सेनानी’ में एक आयोजक और भूमिगत नेता के रूप में उनकी भूमिका का वर्णन किया गया है।

चुप नहीं हुए मोदी
आपातकाल का दौर नरेंद्र मोदी के जीवन में एक ऐसा समय था, जिसने उन्हें गहराई से प्रभावित किया और उनका दृष्टिकोण आकार दिया। इसी कठिन समय में उनका विकेंद्रीकरण में विश्वास, संकट के समय तेजी से फैसले लेने की क्षमता, और जनता को प्राथमिकता देने की सोच और भी मजबूत हुई। आज जब वे भारत के प्रधानमंत्री हैं, तो वे आपातकाल का जिक्र सिर्फ इतिहास के तौर पर नहीं, बल्कि इस चेतावनी के रूप में करते हैं कि अगर सत्ता बेकाबू हो जाए तो क्या हो सकता है।
जब बहुत से लोग डरकर चुप हो गए, तब मोदी ने रणनीति बनाना शुरू किया। जब दूसरों ने हार मान ली, तब उन्होंने विरोध की ताकत को जोड़े रखा। जेल की दीवारों और छिपे हुए घरों की चुप्पी के बीच, मोदी ने लोकतंत्र की आवाज को जिंदा रखा।
आपातकाल के दौरान नरेंद्र मोदी की कहानी सिर्फ खुद को बचाने की कहानी नहीं है। यह एक साहसी प्रतिरोध की कहानी है, एक ऐसे युवक की कहानी, जिसने तब आवाज उठाई जब बाकी चुप थे, जिसने भूमिगत होकर लोकतंत्र की रक्षा की। यह वही कहानी है, जिसने एक नेता को नहीं, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को भी आकार दिया।