पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में हाल ही में बलोच विद्रोहियों ने जाफर एक्सप्रेस नाम हाइजैक कर ली। इसमें 400 से ज्यादा यात्री सवार थे। बलोचिस्तान की आजादी के लिए लड़ रहे इन लड़ाकों ने दावा किया है कि इस ट्रेन में सवार लोगों में बड़ी संख्या पाकिस्तान के फौजियों की थी। पाक फ़ौज ने इसके बाद एक ऑपरेशन चलाया। लगभग 48 घंटे के बाद ट्रेन रिहा हो सकी। पाक फ़ौज का दावा है कि इस कार्रवाई में 30 से अधिक बलोच विद्रोही मारे गए जबकि अधिकांश लोगों को रिहा करवा लिया गया।
बलोच विद्रोही इस दावे को नकारते हैं। उन्होंने लगभग 100 पाक फौजियों को मारने की बात कही है। बलूचिस्तान में विद्रोही हमले कोई नई बात नहीं है। लेकिन यह हमला विद्रोह कितना बड़ा है, इसको दिखाता है। इस एक हमले के बाद बलूचिस्तान और पाकिस्तान के बीच की लड़ाई, उसका आजादी के लिए संघर्ष, पाकिस्तान की बलूचिस्तान में लूट पर दुनिया की निगाह पड़ी है। इसी के साथ ही बलूचिस्तान के इतिहास पर भी नजर गई है, जिसका एक सिरा भारत, 1947 में मिली आजादी और नेहरू से आकर जुड़ता है। दूसरा सिरा मोहम्मद अली जिन्ना से।
बलूचिस्तान में विद्रोह तो तभी चालू हो गया था जब 1947 के बाद इसे पाकिस्तान में बन्दूक के बल पर मिला लिया गया और इसके राजा के साथ किए गए वादे तोड़े गए। यह विद्रोह कई बार पाकिस्तान खत्म करने का दावा कर चुका है। लेकिन हर कुछ सालों पर यह वापस उठ खड़ा होता है। दरअसल, इस सब की जड़ में जिन्ना का धोखा, बलूचिस्तान के विलय पर नेहरू की गलतियाँ और आल इंडिया रेडियो का एक प्रसारण भी है।
कैसे भारत ने छोड़ दिया बलूचिस्तान?
1947 में अंग्रेज भारत छोड़ कर चले गए। उन्होंने भारत का बँटवारा कर दिया। नया मुल्क पाकिस्तान बन गया। कश्मीर, हैदराबाद, जूनागढ़ जैसी तमाम रियासतें लेकिन बची रह गईं। इनके सामने भारत या पाकिस्तान में मिले या फिर आजाद रहने का विकल्प था। ऐसी ही एक रियासत कलात थी। कलात में मीर अहमद यार खान का तब शासन था। उन्हें ‘कलात का खान’ कहते थे। बलूचिस्तान ने भारत और पाकिस्तान के बनने के बाद भी निर्णय नहीं लिया था कि उन्हें आजाद रहना है, या किसी एक मुल्क के साथ मिल जाना है।
कलात में आज के बलूचिस्तान का अधिकांश इलाका आता था। तिलक देवाशर की किताब ‘द बलूचिस्तान कोरंड्रम’ के अनुसार, कलात के खान ने अंग्रेजों से कहा था कि वह आजाद रहना चाहते हैं। इसको लेकर दस्तावेज भी अंग्रेजों द्वारा भेजे गए कैबिनेट मिशन को दिए थे। मजे की बात यह है कि इस काम में मोहम्मद अली जिन्ना ने उनकी सहायता की थी। जिन्ना कलात के खान के वकील थे। ‘कलात के खान’ और कलात के प्रधानमंत्री तथा विदेश मंत्री की 1947 में बलूचिस्तान के भविष्य को लेकर बैठक हुई थी।
इनायतुल्लाह बलूच ने अपनी किताब में इस बातचीत का विवरण दिया है। इस बैठक में पाँच विकल्पों पर चर्चा की गई थी। जिनमें पाकिस्तान में शामिल होना, भारत में शामिल होना, अफ़गानिस्तान में शामिल होना, ईरान में शामिल होना या फिर संरक्षित राज्य का दर्जा पाने के लिए ब्रिटेन में शामिल होने पर बात की गई थी। अहमद यार खान ने कहा कि पाकिस्तान में शामिल होना जनता के विरोध के कारण चुनौतीपूर्ण था। इसके अलावा भारत वाले विकल्प को पाकिस्तान की चिंताओं पर नकार दिया गया था।
अहमद यार खान ने कथित तौर पर दावा किया कि नेहरू उनसे नफरत करते थे और कॉन्ग्रेस ने कभी उन पर भरोसा नहीं किया। कलात के विदेश मंत्री डगलस येट्स फेल ईरान में शामिल होने के पक्ष में थे। उन्होंने इसे बलोच एकता के लिए फायदेमंद करार दिया था। गौरतलब है कि बड़ी बलोच आबादी ईरान में रहती है। हालाँकि, कलात के खान अफगानिस्तान में भी शामिल होने के पक्ष में थे लेकिन इस पर भी नहीं बात बन पाई। अंत में लंदन वाला विकल्प भी नकार दिया गया।
इसके बाद कलात के खान के पास कोई विकल्प नहीं शेष थे। इसी बीच पाकिस्तान ने लासबेला, मकरान और खरान को मिला लिया। अब कलात बीच में फंस गया और उसके पाकिस्तान में मिलने के सिवा कोई चारा ना रहा। बलूचिस्तान के पाकिस्तान में मिलने में आल इंडिया रेडियो के प्रसारण, भारत के तब के रुख और नेहरू के ढीलेपन का भी रोल था।
बलूचिस्तान और नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी बलूचिस्तान की अनदेखी की। उनकी बलूचिस्तान पर भूल, ऐतिहासिक और रणनीतिक रूप से उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि चीन और और कश्मीर की विफलता। नेहरू ने तब कलात का समर्थन नहीं करने का विकल्प चुना, जब वह भारत में मिलने को राजी था क्योंकि उसे पाकिस्तान से बचना था। अहमद यार खान ने अंग्रेजों को अपनी माँग पहुँचाने के लिए कॉन्ग्रेस नेतृत्व से भी बात की थी।
कॉन्ग्रेसका समर्थन करने वाले बलूचिस्तान के एक प्रसिद्ध पश्तून सरदार समद खान ने 1946 में कलात की दुर्दशा के बारे में पार्टी के बड़े नेताओं से बात की थी। हालाँकि, नेहरू ने इसमें भी नहीं दिखाई। ब्रिटिश थिंक टैंक फॉरेन पॉलिसी सेंटर के अनुसार, नेहरू ने 1947 में कलात के विलय के दस्तावेज़ भी लौटा दिए, उन पर खान ने हस्ताक्षर किए थे। भारत ने यह मौक़ा खो दिया। संभवतः, नेहरू प्रशासन स्वतंत्र बलूचिस्तान के भू-राजनीतिक महत्व को नहीं समझता था।
ऑल इंडिया रेडियो प्रसारण ने बढ़ाई समस्या
बलूच इतिहासकारों का कहना है कि कलात के खान के पास दो विकल्प थे, या तो पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ या इसे अस्वीकार कर दें और सेना लेकर लड़ाई करें। हालाँकि, 27 मार्च 1948 को ऑल इंडिया रेडियो (AIR) के प्रसारण के साथ निर्णय लेने से पहले ही बलूचिस्तान की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी, इस प्रसारण में बताया गया था कि कलात के खान ने उसी वर्ष जनवरी में भारत के साथ विलय पर चर्चा करने के लिए नई दिल्ली से संपर्क किया था।
तब सरकार में शामिल वीपी मेनन ने खुलासा किया कि कलात के खान भारत पर कलात के विलय को स्वीकार करने के लिए दबाव डाल रहे थे, लेकिन भारत का इससे कोई लेना-देना नहीं था। गुल खान नसीर की “तहरीख-ए-बलूचिस्तान (बलूचिस्तान का इतिहास)” में भी इसकी पुष्टि की गई थी। इसके अनुसार, 27 मार्च 1948 को, ‘ऑल इंडिया रेडियो’ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस प्रसारित की जिसमें मेनन ने कहा कि दो महीने पहले, कलात के खान ने नई दिल्ली में विलय के लिए अनुरोध प्रस्तुत किया था, लेकिन प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया था।
ऑल इंडिया रेडियो ने मेनन के बयान को प्रसारित किया था, इसकी पुष्टि बलूचिस्तान के पूर्व मुख्य सचिव, लेखक और इतिहासकार हकीम बलूच ने की है। उन्होंने इस क्षेत्र पर कई किताबें लिखी हैं। गुल खान नसीर ने कथित तौर पर कलात के खान का हवाला देते हुए कहा कि यह कलात और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी को भड़काने के लिए एक सफेद झूठ था। नसीर खान के अनुसार, इससे पाकिस्तान के नेताओं को बलूचिस्तान पर हमले का एक मौक़ा मिल गया। यहाँ तक बाद में नेहरू ने भी ऐसी बातों से इंकार किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
यहाँ तक कि ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने पाकिस्तान को पत्र लिख का कलात के खान की चुगली की थी। कलात के खान ने भी इस दावे का विरोध किया था। उस समय के गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने अगले दिन स्पष्ट किया कि ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। हालाँकि, नुकसान पहले ही हो चुका था। इसके बाद पाकिस्तान ने सेना भेज कलात कब्जा लिया। कलात के खान को पकड़ कर कराची ले जाया गया और विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया।
जिन्ना ने दिया धोखा
कलात के खान के पाकिस्तान में विलय के निर्णय के बाद ही बलूचिस्तान के साथ सौतेला व्यवहार होने लगा। बलूचिस्तान में जनता के मन में खटास विलय के तरीके से ही आ गई थी। जिन्ना ने जिस इज्जत का दावा बलूचिस्तान से किया था, वह उसे नहीं दी गई। यहाँ तक कि पहला विद्रोह ही इसके बाद 1948 में चालू हुआ जब कलात के खान के छोटे भाई ने विद्रोह कर दिया। हालाँकि, पाकिस्तान की सेना ने इसे दबा दिया। जिन्ना की कुछ सालों में मौत हो गई, इसके बाद तो बलूचिस्तान में लूट चालू हो गई।
5 बार उठ चुका विद्रोह
बलूचिस्तान में 5 बार विद्रोह की आग भड़क चुकी है। हर बार इसके पीछे कोई चिंगारी होती है। अगर 1980-90 का दशक छोड़ दिया जाए तो अब तक लगातार हर दशक में बलूच विद्रोही उठ खड़े हुए हैं। वर्तमान में बलूचिस्तान में चल रही लड़ाई की चिंगारी 2005 में भड़की थी। तब बलूचिस्तान में तैनात एक फ़ौज के मेजर ने एक बलोच लड़की के साथ बलात्कार किया। उस पर कार्रवाई करने के बजाय परवेज मुशर्रफ ने उसे बचाया और बलोच लोगों को धमकाया।
पाकिस्तानी फ़ौज ने प्रदर्शन करने वाले निर्दोष बलूचों पर हवाई हमले किए गोलियाँ बरसाईं। इसके बाद जब बलोच सरदार नवाब अकबर बुगती ने विद्रोह किया तो उनकी हत्या कर दी और उनके शव तक को परिवार को नहीं सौंपा। इसके बाद बलोच और भी भड़क गए। तब से लगातार बलूचिस्तान अशांत है। पाकिस्तान बलूचिस्तान के लोगों से बात करने के बजाय सैन्य कार्रवाई से मामला सुलझाना चाहता है। यह अब संभव नहीं है।
गैस लूटी, फिर बंदरगाह बेचा
बलूचिस्तान के सुई इलाके में 1950 के ही दशक में गैस निकल आई। इस गैस की लूट पाकिस्तान के हुक्मरानों ने चालू कर दी। पाकिस्तान ने बलूचिस्तान में इस गैस की सप्लाई नहीं दी बल्कि पंजाब और सिंध पहुँचाई। यहाँ तक कि 1990 का दशक आते-आते यह गैस लगभग खत्म हो गई। इसके बाद पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बलूचिस्तान में जमीन बेच दी। वर्तमान में चीन बलूचिस्तान के ग्वादर के बंदरगाह और एयरपोर्ट को चीन को दे दिया है। स्थानीय लोग इसका विरोध करते हैं।
बलूचिस्तान में अयस्क और खनिज भरे हुए हैं। पाकिस्तान ने यह भी चीन को लगभग बेच दिए हैं। इससे भी बलोच लोगों में गुस्सा है। बलूचिस्तान में स्कूल, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी पाकिस्तान ने नहीं पहुँचाई हैं। ऐसे में विद्रोह के लिए लोग मजबूर हो रहे हैं। बलोच महिलाएँ भी इस विद्रोह में शामिल हैं।