Sunday, December 22, 2024
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इस ‘शिकारा’ का डूबना आवश्यक था, बॉलीवुड के मजहबी आतंक प्रेम की पराकाष्ठा है ये

सोचिए इस पर, वरना हताश नायक की अनवरत हिलती पुतलियों में जीवित अवस्था में पीएन कौल की चमड़ी उतार कर मरने के लिए छोड़ देने की घटना भुला दी जाएगी। बर्फ़ीली वादियों में भूषण रैना के सर में रॉड घुसाने के बाद, उन्हें नग्नावस्था में पेड़ पर कील से ठोक देने की बात गायब कर दी जाएगी।

एक फिल्म बनी, पोस्टर छपे, लोगों में जिज्ञासा जगी, एक आशा बलवती हुई कि किसी ने तो अनकही कहानी (शब्दशः ‘अनटोल्ड स्टोरी’) कहने की हिम्मत की। तीस साल पूरे हुए उस नरसंहार के जिसे कश्मीरी पंडितों का पलायन बता कर सामान्य कर दिया जाता है। इस नरसंहार की बीस नृशंस कहानियों को मैंने पहले भी आप तक पहुँचाया है, और मैं चाहूँगा कि आप उन्हें फिर से एक बार दोहरा लें।

कश्मीर के हिन्दू नरसंहार की 20 नृशंस कहानियाँ जो हर हिन्दू को याद होनी चाहिए

इन्हें जानना नहीं, याद करना आवश्यक है। हमारे देश में एक विलक्षण प्रवृत्ति रही है अपने ऊपर हुए अत्याचारों और अन्यायों के दौर को ही नहीं, अत्याचारियों और आतंकियों को भी भुला देने का। ऐसा नहीं है कि हमें याद था और हम भूल गए। नहीं, ये कहानियाँ हम तक पहुँचने ही नहीं दी गईं। किसी ने ये बताया ही नहीं कि जिस नरसंहार को ‘पलायन’ कह कल सामान्यीकृत किया जाता है, उसमें हुआ क्या था?

हमें इंटरनेट के दौर में भी उन कहानियों के बाहर आने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। 2010 वाले दशक में तो इंटरनेट आ चुका था, 2015-16 तक तो हमारे हाथों में 4G आ गया था, फिर भी हम तक वो कहानियाँ क्यों नहीं आईं! क्योंकि हम एनिवर्सरी का, सालगिरह की प्रतीक्षा करते हैं या फिर हमारे इंतजार का कारण हमारी सामूहिक विस्मृति है, जिसे तारीखों का भान सिर्फ वर्तमान को जी लेने भर के लिए ही रहता है।

हम भूल जाते हैं कि इतिहास भी कभी वर्तमान था, और आज का वर्तमान भी किसी के लिए इतिहास होगा। स्कूलों में जब आतंकवादी मुगलों को शहंशाह और आलमगीर जैसे विशेषणों के साथ पढ़ाया गया, महान भारतीय चक्रवर्ती सम्राटों को अनुच्छेदों में समेट कर बलात्करियों और मूर्तिभंजक मुगलों के समक्ष बौना कर दिया गया, तो कश्मीरी हिन्दुओं का रक्तिम वर्तमान, जिस घाव के ऊपर अभी भी पपड़ी सूखी नहीं है, नाखून धँसाने से रिसने लगती है, उसे कैसे बताया जाता!

वो भी इस दौर में जहाँ कश्मीर को डल झील की जमी हुई बर्फ पर क्रिकेट खेलते बच्चों की सालाना तस्वीर में ही निपटा दिया जाता है। हमें तो बताया ही नहीं जाता कि फ़ेरन के नीचे की काँगड़ी में बारूद किसने रखा! हमें तो उस त्रासदी को ‘कश्मीरी पंडितों के पलायन के इतने साल’ जैसे वाक्यांशों में समेटने लायक ही जानकारी दी जाती रही है।

ये तो बताया ही नहीं गया कि मंदिरों पर लाउडस्पीकर लगा कर नमाज क्यों पढ़ रहे थे वो लोग? ये तो कहा ही नहीं गया कि उन्हीं लाउडस्पीकरों से ‘हमें कश्मीरी हिन्दू औरतें और लड़कियाँ चाहिए’ की भी आवाज़ें आ रही थीं! आठ लाख लोगों को घर छोड़ कर निकलना पड़ा क्योंकि उनके मंदिरों में एके सैंतालीस नहीं बाँटे गए, न ही मंगलवार को पत्थरबाजी की, महिलाओं के बलात्कार की, पुरुषों की हत्या की, पड़ोसियों को आतंकियों के हवाले करने का प्रशिक्षण दिया गया था।

कश्मीरी हिन्दू बस चार सौ सालों के इस्लामी शासन में शिव, शारदा और बौद्ध दर्शन के मुख्य केन्द्रों से बलात्कारी और हिंसक कट्टरपंथियों के ठिकाने में बदल दिए गए। तो क्या 1990 का नरसंहार और पलायन पहला था? एक पूरा इलाका इस्लामी ही नहीं बना, बल्कि समुदाय विशेष की जनसंख्या 96% हो गई। ऐसा सिर्फ अपने बच्चे पैदा करने से नहीं होता, बल्कि दूसरों के कत्ल, उनकी आस्था पर चोट और हिंसा से संभव होता है। वो इतिहास तो हम तक अभी भी नहीं पहुँचा है। हमें तो उस दौर के पन्ने दिखाए भी नहीं गए हैं।

बॉलीवुड के धूर्त लोग

तीस साल जब बीते, तब कहीं-कहीं चर्चा शुरू हुई। श्रद्धांजलि सभाएँ, सालाना ‘कश्मीरी पंडितों के पलायन के तीस साल’ वाले कॉपी-पेस्ट लेख और श्वेत-श्याम तस्वीरें, कुछ भाषण, कुछ बयान आदि आए और चले गए। लेकिन इसके साथ एक बात और हुई। एक पोस्टर आया जिसमें विधु विनोद चोपड़ा ने ‘कश्मीरी पंडितों के पलायन की अनकही कहानी’ पर फ़िल्म बनाने की बात की।

अपने ही घर से बेघर कश्मीरी हिन्दुओं ने सोचा कि चलो किसी को तो सुधि आई, किसी ने तो इतना सोचा। लेकिन कुछ लोग विधु विनोद चोपड़ा को लेकर सशंकित थे। ट्रेलर आया तो चोपड़ा जी की करतूत का थोड़ा भेद खुला। उसके बाद जैसे-जैसे प्रमोशन होने लगा, फिर शाहीन बाग उसमें जुड़ने लगा, फिर निर्देशक और लेख आदि जैसे-जैसे पोलिटिकली करेक्ट बातें करने लगे, सारा खेल समझ में आने लगा कि इसमें क्या हुआ होगा।

फिर भी, लोगों ने इंतजार करना बेहतर समझा। हालाँकि, रवीश कुमार जैसे प्रपंचियों ने ‘मैंने सबको सॉरी कहा’ कह कर मानवता की अप्रतिम मिसाल बन कर सामने आने की कोशिश की, और विधु विनोद चोपड़ा सहित, कई लोग जो इस फिल्म से जुड़े थे, सेकुलर बनने के रोग से ग्रस्त हुए। बातें कही जाने लगीं कि हमें नफरत नहीं फैलाना चाहिए, एक दूसरे को सॉरी बोल कर आगे बढ़ना चाहिए, दो बिछड़े दोस्तों की तरह मिलना चाहिए…

मतलब? हिन्दू किस बात के लिए कट्टरपंथियों को सॉरी बोले? क्या वो इसलिए सॉरी बोले कि उसकी एक बेटी का रेप हुआ, दूसरी को बचा कर भाग आया? क्या पति के खून से सने चावल खाने को मजबूर बीके गंजू की पत्नी को सॉरी बोलना चाहिए कि आतंकियों से बचने के लिए वो चावल के कनस्तर में छुप रही थी, उन्हें खोजने में समस्या हुई होगी! क्या भूषण लाल रैना के परिवार वाले (अगर ज़िंदा हैं कहीं तो) कट्टरपंथियों से माफी माँगे कि जब उनके सर में रॉड घुसाने के बाद, उन्हें नग्न कर के, पेड़ में कीलों से ठोका जा रहा था तब उन्होंने अपने बेजान हाथों से उन्हें दूसरी कील नहीं थमाई?

ये जो सेकुलरिज्म है, जहाँ हमें इतिहास को जीभ से चाट कर प्लेट को साफ करने की तरह बताने की कोशिश की जा रही है, वो सर्वथा गलत है, एक पाप है जो हम अपने साथ कर रहे हैं। कश्मीर का समुदाय विशेष और वो तमाम लोग जो इस पर चुप रहते हैं, किसी भी तरह की माफी के लायक नहीं हैं। हर भारतीय हिन्दू को, और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को कश्मीर याद रहना चाहिए।

क्या हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहारों के लिए नाज़ी सैनिकों को माफ कर दिया विश्व ने? या आज भी अगर वो 94 साल का व्हीलचेयर से बँधा रैनहोल्ड हैनिंग भी हो, जो उसी ऑश्विट्ज़ मृत्यु शिविर का गार्ड था जहाँ 1,70,000 लोगों की हत्या की गई थी, उसे भी खोज कर न्यायिक प्रक्रिया से गुजार कर एक राष्ट्र उस अपराध को स्वीकार रहा है जो किसी और ने उसी सत्ता की कुर्सी पर आसीन हो कर किया था?

उन्हें माफ कैसे कर दिया जाए जिन्होंने गिरिजा टिक्कू का सामूहिक बलात्कार किया, और जीवित अवस्था में ही बढ़ई की आरी से उसे चीर दिया? और क्यों माफ कर दें? क्योंकि वो ख़ास मजहब से हैं? क्योंकि यह समुदाय इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हो कर भी अल्पसंख्यकों का दर्जा लिए पीड़ित होने का स्वाँग रचता है? क्योंकि ये लोग जहाँ भी हैं, उसने वहाँ के दूसरे समुदायों ने निशाना बना रखा है?

कश्मीर के कट्टरपंथियों ने वहाँ ख़िलाफ़त खड़ा किया हुआ था, और आज भी है। यही क्रूर सत्य है। इन दरिंदों को माफ़ करना उन तमाम मृत शरीरों को आरी से काटने जैसा है, उनके गालों को चाकू से छीलने जैसा है, नग्नावस्था में पेड़ पर कील से ठोकने जैसा है, जिनकी आत्मा शायद आज भी न्याय के लिए भटक रही होगी। इन दरिंदों को माफ़ कैसे कर दें! जिन कहानियों को सुन कर हृदय काँप उठता है, उनके हत्यारों की ‘सॉरी’ सुन कर ‘मूव ऑन’ कैसे कर जाएँ?

विधु विनोद चोपड़ा हमारे बॉलीवुड के निर्देशक हैं। उनको पैसा कमाना है। कश्मीरी हिन्दुओं की व्यथा के नाम पर प्रमोशन भी करना है, और वैलेंटाइन वीक में प्रेमी युगलों को बर्फ और वादी में सिमटते देहों का प्रेम भी दिखाना है। उन्हें यह भी दिखाना है कि कैसे हिन्दू का वो बच्चा रेडिकलाइज्ड है जो कहता है ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’, और उन ‘शांतिप्रियों’ को सेकुलर भी कहना है जिन्होंने मंदिरों को मस्जिद बना दिया… इतनी मेहनत की है चोपड़ा साहब ने, बधाई तो देना ही चाहिए!

पॉपुलर कल्चर में नरसंहार को प्रेम कहानी बनाने की चाह

विधु विनोद चोपड़ा की पिछली फ़िल्म ‘संजू’ थी, जिसमें संजय दत्त की ‘माँ कसम सच्ची कहानी’ बताई गई थी। बायोपिक कह कर दर्शकों के सामने एक निर्दोष इन्सान की कहानी परोसी गई, अच्छी चली फिल्म। अब किसी को उस समय के अखबारों की कवरेज, कोर्ट के केस, पुलिस का पक्ष आदि जानने की आवश्यकता नहीं, फिल्म देख लीजिए और इतिहास समझ जाइए क्योंकि ये तो बायोपिक है।

उसी तरह, यह भी एक बायोपिक है, लेकिन यहाँ किसी एक व्यक्ति की कहानी नहीं बेची जा रही, बल्कि एक समूह की है। चोपड़ा साहब कर्ता-धर्ता हैं तो आशानुरूप सच्चाई को फ़ेरन में छुपा कर, शिकारे के ऊपर बने कमरे में छुपा दिया गया और झील दिखा कर, संगीत बजा कर, कह दिया गया कि सब प्रेम है, कश्मीर में तो बस प्रेम ही था, वो तो हिन्दुओं को पता नहीं क्या सूझी कि एक रात भाग गए… मुझे लगता है इस्लामोफोबिक हैं सारे कश्मीरी हिन्दू!

ऐसा कर पाना कि इतिहास को पूरी तरह से मरोड़ कर दिखाने के बाद, उन्हीं लोगों को नीचा दिखाना जिन पर अत्याचार हुए, एक अलग स्तर का कौशल माँगता है। विधु जी में वो कौशल है, राहुल पंडिता में वो कौशल है! आश्चर्य की बात यह है कि इस त्रासदी में भी प्रेम खोज लेना, और उसे ऐसे दिखा देना कि थोड़े-बहुत दंगे भी हो गए, लाउडस्पीकर पर ऐलान भी हो गया, जलते घर भी दिखा दिए, फिर ‘कम ऑन बेबी, डॉन्ट बी मीन’ कर देना, टैलेंट तो माँगता है भाई!

पोस्टर पर लिखा है ‘द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीरी पंडित्स’। इसके एक-एक शब्द को ध्यान से समझिए। यह ‘एन अनटोल्ड स्टोरी’ नहीं है, जिसका मतलब होता है ‘एक अनकही कहानी’, बल्कि ‘द अनटोल्ड स्टोरी’ है, जिसका मतलब है ‘वो अनकही कहानी’। यहाँ ‘एक’ कहानी होती तो, समझ में आता कि किसी एक जोड़े की कहानी हो सकती है, लेकिन जब ‘द’ नामक आर्टिकल का प्रयोग होता है तो वो इस संदर्भ में एक पूरे घटनाक्रम, एक सामूहिक परिस्थिति, एक सार्वजिनक कहानी की बात करता है।

‘अनटोल्ड’ का अर्थ होता है ‘अनकही’, जिसे कहा नहीं गया हो। इस पोस्टर और फिल्म के संदर्भ में इसका अर्थ यह है कि वह कहानी जिसके बारे में सब जानते तो हैं, लेकिन उसे विस्तार से, एक नए माध्यम से, समुचित ट्रीटमेंट के साथ कभी प्रस्तुत नहीं किया गया हो। आप ऐसी कहानी कहने का दावा कर रहे हैं जो सबको जाननी चाहिए, लेकिन कोई जानता नहीं। कश्मीरी पंडितों के संदर्भ में, वो कहानी प्रेम की हो ही नहीं सकती, त्रासदी थी वो, त्रासदी है वो, और जितनी कोशिशें कर लो, त्रासदी ही रहेगी।

और, ये कहानी है किसकी? ‘ऑफ़ कश्मीरी पंडित्स’। यह भी एक अद्भुत बात है कि जिन लोगों को कश्मीर से भगाया गया, उन्हें सिर्फ और सिर्फ उनके धर्म के कारण भगाया गया, उन्हें भी एक जातीय नाम में बाँध कर सीमित किया जाता रहा है। क्या कश्मीरी हिन्दुओं को उनकी जाति के कारण मारा गया, बलात्कार किया गया? क्या उनके मंदिर जातियों के लिए बने थे, जिन्हें तोड़ा गया? फिर उनके इस नरसंहार और पलायन में ‘पंडित’ होने का प्रमुखता क्यों दी जाती है?

वामपंथियों का यह खेल बहुत पुराना है। अवचेतन स्तर पर यह हिन्दू समाज को बाँटने की निंजा तकनीक है। यहाँ ‘पंडित’ लगाते ही उनके साथ हुए इस नृशंसता की लिए स्वानुभूति जातिगत हो जाएगी, सीमित हो जाएगी, बँट जाएगी। ब्राह्मणों का नाम आते ही यहाँ सवर्ण-बनाम-दलित वाली चर्चा में इसे हेय दृष्टि से देखा जाएगा, और लोगों से कहा जाएगा कि जो हुआ, सही हुआ क्योंकि वो तो ब्राह्मण थे, जिन्होंने पाँच हजार सालों तक तुम्हें घोड़े में बाँध कर घसीटा है। हालाँकि, पाँच हजार साल तो छोड़िए, मुगल आतंकवादियों और अंग्रेज लुटेरों के आने के पहले जातिगत भेदभाव का एक जिक्र कोई दिखा दे मुझे!

शब्द बहुत मनन-चिंतन के बाद चुने जाते हैं। वामपंथी आपकी त्रासदी पर हमेशा ही हँसेंगे, और उसके लिए वो शब्द, कहानी और फिल्म गढ़े लेंगे। हिन्दू को पंडित बता कर समेट लिया जाएगा, नरसंहार की सामूहिक त्रासदी पर वैयक्तिक प्रेम कहानी को भारी बना दिया जाएगा। दो मुस्लिम अदाकारों से कश्मीरी हिन्दुओं का किरदार निभाता दिखाया जाएगा जैसे ये कोई अहसान किया जा रहा हो कि वो समुदाय विशेष से हैं फिर भी देखो हिन्दू बन रहे हैं! सही बात है, विश्व शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दे दिया जाए इन्हें क्योंकि अहसान तो है ही कि… ख़ैर, रहने दीजिए!

कश्मीरी हिन्दुओं की चेतना पर प्रहार

यह एक सामान्य घटना नहीं है। जब बलात्कारी बाबर और आतंकवादी औरंगजेब जैसों के नाम पर सड़कें और इमारतें अभी भी इस राष्ट्र की राजधानी की शोभा बढ़ा रही हैं, तो फिर कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार करने वालों को भारत रत्न भी दिया जा सकता है। कश्मीर के तो वो रत्न होंगे ही। जिन लोगों ने तीस हज़ार से ज़्यादा मंदिर तोड़े, हजारों गाँवों को जलाया, लाखों हिन्दुओं को काटा, मतपरिवर्तन कराया, उनकी बच्चियों को हरम में डाला, हिन्दू शासकों की राजकुमारियों को मुस्लिमों को उपहार में बँटवाया, जब हम उनका गुणगान कर सकते हैं, तो कश्मीरी मुस्लिम तो उनके सामने बहुत छोटे हैं!

इसके लिए तो वाक़ई एक फिल्म काफी होती अगर इस पर चर्चा शुरू न होती, और दिव्या राजदान जैसे लोग भरे थिएटर में निर्देशक और लेखक को जलील न करते। फिल्म इतनी बर्बाद बनी है कि सारे वामपंथी और आतंकियों के हिमायती मिल कर भी शायद लागत भी वसूल न पाएँ। रविवार को हर जगह खाली थिएटर इस बात का सबूत देते हैं कि लोगों में जागरूकता बढ़ी है। और ये जागरूकता उन लोगों में बढ़ी है जो नाम देख कर सिनेमा देखते थे, और ऐसे निर्देशकों को अरबपति बनाते रहे जिन्होंने हमेशा अजेंडा ढकेला है, सिनेमा नहीं बनाया।

इस गिरोह को प्रस्तर पर पटकनी देना आवश्यक है। इन्होंने वर्तमान में तो हमेशा ही अजेंडा बेचा है, लेकिन कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार में ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ घुसेड़ देना बताता है कि ये इतिहास का पुनर्लेखन करने की मंशा रखते हैं। बीस साल पहले ऐसा करते, तो संभव भी था। संभव वैसे ही हो जाता जैसे बॉलीवुड के कारण हर साधु को प्रथमदृष्ट्या बहुरूपिया मान लिया जाता है, हर बनिया सूदखोर हो जाता है, हर ब्राह्मण व्यभिचारी दिखने लगता है, जबकि हर अब्दुल का बाप ‘मेरा एक और भी बेटा होता तो’ वाला भावुक संवाद बोलता है, और अनाथों को पालने का जिम्मा उठाता मिलता है।

नज़र घुमा कर देखिए कि कितने प्रतिशत साधु किसी को ठगते नजर आते हैं? कितने प्रतिशत ब्राह्मण व्यभिचार या अन्य कुकर्मों में संलिप्त दिखते हैं! कितने प्रतिशत लाला किसी के माँ के कंगन लेने को आतुर रहता है? लेकिन एक ही तरह के पात्र, एक ही तरह के गलत काम करते, कई फिल्मों में आपको दिखेंगे। फिर हर ब्राह्मण शक के दायरे में आ जाता है, और हम धीरे-धीरे पूरी जाति से ही घृणा करने लगते हैं। टोलियाँ बन जाती हैं, झंडे का रंग बदल जाता है, और समाज टूटने लगता है।

वही हाल यहाँ कश्मीरी हिन्दुओं का बनाने की कोशिश हुई है। कल को कोई डायरेक्टर उठेगा और कश्मीर घाटी में किसी असलम और सलमा को हिन्दुओं से प्रताड़ित होता दिखाएगा, फिर हम मान लेंगे कि ज़रूर हिन्दुओं ने ही कुछ किया होगा, ये तो बेचारे किसी तरह बकरी पाल कर गुजर-बसर कर रहे थे। कुछ लोग सवाल पूछने लगे हैं कि ‘कुछ तो किया होगा यार, पागल थोड़े ही थे कि एक रात उठे और भगा दिया?’

फिर आप वहीं से सोचना शुरू करते हैं। आप इस्लामी उम्माह और ख़िलाफ़त के संदर्भ को भुला देते हैं, आपको यह भी याद नहीं रहता कि रोहिंग्याओं ने म्यांमार में बौद्धों को हथियार उठाने पर मजबूर कर दिया। आप यह भूल जाते हैं कि जिन यूरोपीय देशों ने इस समुदाय को शरण दी, वहाँ के हर शहर में आतंकी घटनाएँ निरंतर होती रही हैं। आप यह भूल जाते हैं कि ‘शांतिप्रियों’ को शरण देते ही स्वीडन विश्व में बलात्कार के मामले में सबसे ऊपर चला जाता है! आप यह भूल जाते हैं कि शांतिप्रिय देशों में ऐसे लोगों के कैम्प और कई इलाके जहाँ इन ‘शांतिप्रियों’ को वर्चस्व है ‘नो गो ज़ोन’ बन चुके हैं।

इसलिए, कोई आपसे यह कह देगा कि ‘यार, कुछ तो किया होगा न, ऐसे ही थोड़े कोई भगा देगा किसी को’, तो उसे खींच कर ऐसा तमाचा मारिए कि उसका मस्तिष्क झंकृत हो उठे और वो सोचे कि यह प्रश्न कितना वाहियात था। हमें, जानने की आवश्यकता है कि वो कहानियाँ कौन-सी हैं, जो आज तक गायब हैं। आठ लाख लोगों को पलायन सिर्फ तीस साल पहले हुआ है, हर व्यक्ति के पास एक कहानी होगी।

ऐसे लोगों को खोजिए, और पूछिए उनसे कि उनका गुनाह क्या था। उनसे समझिए कि समुदाय विशेष की बस्ती में हिन्दू होने के क्या मायने हैं। जानने की हर संभव कोशिश कीजिए कि आपका पड़ोसी किसी आतंकवादी को आपका पता क्यों बता देगा। इस सोच को जाँचिए जो अपने दोस्त से मिलने का समय माँगता है, घर जाता है, लालचौक को जाती मेटाडोर में बैठता है, रास्ते में उसी दोस्त की छाती में गोली मारता है, शरीर को घसीटता है, और सबके देखने के लिए सड़क पर छोड़ देता है।

फिर आपको पता चलेगा कि ये जीवन नहीं है, युद्ध है इनके लिए जिसमें ये तब तक लड़ते रहेंगे, जब तक जीत न जाएँ। दस साल, बीस साल, पचास साल, सौ साल, हजार साल… चार सौ साल में कश्मीर से हिन्दू कैसे खाली हो गए कि पाँच सौंवे साल में, लोकतंत्र होते हुए भी, सरकार और सेना आठ लाख लोगों के पलायन को रोक न सकी?

सोचिए इस पर, वरना प्रेम कहानी के चुम्मे में वन्धामा की 23 लाशों की विद्रूपता छुपा दी जाएगी। शिकारे पर बैठी नायिका की काली जुल्फों में सिगरेट से पूरे शरीर को जलाने के बाद, सर्वानंद कौल और उनके पुत्र की आँखें निकाल लेने की इस्लामी कलाकृति गायब कर दी जाएगी। हताश नायक की अनवरत हिलती पुतलियों में जीवित अवस्था में पीएन कौल की चमड़ी उतार कर मरने के लिए छोड़ देने की घटना भुला दी जाएगी। बर्फ की वादियों में घुटनों में गोली खाए अशोक कुमार काज़ी के बाल उखाड़ने पर निकली चीख और नवीन सप्रू के शरीर में जानबूझकर मुख्य अंगों में गोली न मार कर उनकी तड़प को देखने वाले लोगों की हँसी गुम कर दी जाएगी।

इस फ़िल्म को मत देखिए, इसकी मंशा को समझिए कि वो आपको क्या दिखाना नहीं चाहते। खोजिए, पढ़िए, जानिए, और समझिए कि हिन्दुओं के साथ क्या हुआ था, और क्या हो रहा है।

शिकारा रिव्यू: 90 में इस्लाम ने रौंदा, 2020 में बॉलीवुड कश्मीरी हिंदुओं पर रगड़ रहा नमक

‘कश्मीरी हिन्दुओं पर थूकने का काम करती है शिकारा फिल्म, उल्टे हिन्दुओं को ही कम्युनल कहती है’

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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